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शनिवार, 23 अक्टूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 23

    

मसीही विश्वासी के प्रयोजन (7) - प्रचार के लिए तैयार (2)

प्रभु यीशु मसीह का, मरकुस 3:14-15 में, अपने शिष्यों के लिए दूसरा प्रयोजन थावह उन्हें भेजे, कि प्रचार करें”, और हमने इसके तीसरे भाग, शिष्यप्रचार करेंको पिछले लेख में देखना आरंभ किया। अपने स्वर्गारोहण के समय प्रभु ने अपने शिष्यों को प्रचार करने के बारे में जो निर्देश दिए, वे हमें मत्ती 28:18-20, मरकुस 16:15-19, और प्रेरितों 1:8 में मिलते हैं। इन तीनों खण्डों में दिए गए प्रभु के निर्देशों के अनुसार प्रचार का कार्य करने से, बहुत विरोध, कठिनाइयों, और बाधाओं के बावजूद वे शिष्य सुसमाचार प्रचार बहुत प्रभावी और सफल रीति से कर सके, जिससे दो दशक के भीतर ही उनके लिए ये कहा जाने लगा कि “...ये लोग जिन्होंने जगत को उलटा पुलटा कर दिया है...” (प्रेरितों 17:6)। अर्थात, प्रभु द्वारा उन्हें दिए गए इन निर्देशों में वह सामर्थी कुंजी है, जो संसार भर में प्रभावी और सफल सुसमाचार प्रचार का मार्ग बताती है। आज हम अनेकों प्रकार के आधुनिक साधन और सहूलियतों के होने बावजूद, अपने मानवीय तरीकों से उतना प्रभावी और सफल सुसमाचार प्रचार नहीं करने पाते हैं, जितना उन आरंभिक दिनों में उन शिष्यों ने कर दिखाया था। यद्यपि सुसमाचार प्रचार से संबंधित बहुत सी शिक्षाएं प्रेरितों के काम की पूरी पुस्तक और नए नियम की अन्य पत्रियों में दी गई हैं, हम यहाँ पर केवल प्रभु के स्वर्गारोहण से संबंधित उपरोक्त तीनों खंडों में प्रभु द्वारा दिए गए इन निर्देशों में क्या विशेष था, जिससे वे शिष्य इतने प्रभावी हो सके, केवल उसे ही देखेंगे:

       प्रभु ने ये निर्देश अपने प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध शिष्यों को दिए थे। अर्थात, यह कार्य यरूशलेम से आरंभ कर के सारे संसार भर में (प्रेरितों 1:8), उनके द्वारा किए जाने के लिए था जिन्होंने सच्चे मन से प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण कर लिया था, और उसके कहे को करने के लिए प्रतिबद्ध थे। ये शिष्य प्रभु द्वारा इस कार्य के लिए तैयार किए तथा प्रभु के अधिकार (मत्ती 28:18) के साथ भेजे गए थे; किसी मनुष्य अथवा मानवीय विधि के द्वारा नहीं। सुसमाचार प्रचार के लिए इनकी योग्यता किसे कॉलेज अथवा सेमनरी से मिली डिग्री नहीं, वरन प्रभु की शिष्यता थी। उन शिष्यों ने यह कार्य अपने प्रभु के लिए किया था, न कि किसी नौकरी की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए। उन्होंने यह प्रचार प्रभु के कहे के अनुसार, उसकी आज्ञाकारिता में, उसे प्रसन्न करने के लिए किया था, न कि किसी मत (denomination) या समुदाय की मान्यताओं के अनुसार अथवा उसके अधिकारियों की संतुष्टि के लिए।

उन शिष्यों को न तो किसी धर्म का प्रचार करना था, और न ही किसी का धर्म परिवर्तन करना था। उन्हें प्रभु यीशु के कहे के अनुसार मसीह यीशु के शिष्य बनाने थे, और फिर जो स्वेच्छा से शिष्य बन जाए, उसे बपतिस्मा देना था और प्रभु की बातें सिखानी थीं (मत्ती 28:19-20); यह सभी प्रचारकों और उपदेशकों के लिए जाँचने की बात है कि क्या वे प्रभु द्वारा दिए गए इस क्रम और निर्देश का पालन कर रहे हैं? उन्हें लोगों को लुभाना नहीं था, न ही कोई ऐसे आश्वासन देने थे जिनका प्रभु ने न तो कोई उल्लेख किया और न ही कोई निर्देश दिया। उनके द्वारा सुसमाचार प्रचार पापों के पश्चाताप के आह्वान के साथ होना था न कि सांसारिक बातों और भौतिक सुख-समृद्धि तथा शारीरिक चंगाइयों के प्रलोभन देने के द्वारा। न ही उन्हें किसी अन्य के धर्म या विश्वास को नीचा दिखाने, उसकी आलोचना करने के लिए कहा गया था; उन्हें केवल अपने व्यक्तिगत जीवन और व्यवहार एवं वार्तालाप से प्रभु यीशु मसीह और उसके कार्य को संसार के लोगों के सामने ऊंचे पर उठाना था, शेष कार्य परमेश्वर पवित्र आत्मा ने करना था।

क्योंकि ये शिष्य प्रभु के अधिकार के साथ, और प्रभु के निर्देशों के अंतर्गत, पवित्र आत्मा की सामर्थ्य प्राप्त करने के साथ सुसमाचार प्रचार के लिए भेजे गए थे, इसलिए आवश्यकता के अनुसार, उनके प्रचार के दौरान, उनके प्रचार के साथ ही उनके द्वारा ईश्वरीय सामर्थ्य के कार्य भी हो जाने, और खतरों में भी प्रभु द्वारा सुरक्षित रखे जाने का आश्वासन उनके साथ था (मरकुस 16:15-18)। यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि प्रभु ने उन्हें आश्चर्यकर्म करके लोगों को प्रभावित करने और लुभाने, इन बातों के द्वारा अपने नाम को ऊंचा दिखाने के लिए नहीं भेजा था। जैसे प्रभु यीशु की पृथ्वी की सेवकाई के दौरान था, वैसे ही उन शिष्यों का प्राथमिक कार्य सुसमाचार प्रचार था। जैसे प्रभु ने आश्चर्यकर्म सुसमाचार प्रचार के दौरान आवश्यकतानुसार किए, उसी प्रकार इन शिष्यों को भी करना था। न प्रभु ने आश्चर्यकर्मों को लोगों को आकर्षित करने के लिए प्रयोग किया, और न ही इन शिष्यों को ऐसा करना था। तात्पर्य यह कि अद्भुत काम और आश्चर्यकर्म प्राथमिक नहीं थे; सुसमाचार और पापों से पश्चाताप करना तथा उद्धार पाना प्राथमिक था; यही करना था, और शेष बातें समय और आवश्यकता के अनुसार स्वतः ही होनी थीं।

आज लोग सच्चे सुसमाचार के प्रचार में बहुत कम, और प्रभु यीशु मसीह के नाम में अपने मत या समुदाय की बातों के प्रचार में, या सांसारिक बातों, भौतिक समृद्धि, और शारीरिक चंगाइयों के प्रचार और प्रदर्शन में बहुत अधिक लगे हुए हैं। आज के प्रचारक प्रभु यीशु को प्रसन्न करने की बजाए, अपने द्वारा किए गए कार्यों के आँकड़े (statistics) अपने अधिकारियों और संसार के लोगों के सामने रखने में अधिक रुचि रखते हैं। हम जगत के अंतिम दिनों में रह रहे हैं; प्रभु यीशु मसीह ने कहा था, “...देखो, मैं तुम से कहता हूं, अपनी आंखें उठा कर खेतों पर दृष्टि डालो, कि वे कटनी के लिये पक चुके हैं” (यूहन्ना 4:35); “...पके खेत बहुत हैं; परन्तु मजदूर थोड़े हैं: इसलिये खेत के स्वामी से बिनती करो, कि वह अपने खेत काटने को मजदूर भेज दे” (लूका 10:2)। आज प्रभु यीशु मसीह को किसी मत या समुदाय की नौकरी करने वाले प्रचारकों की नहीं, उसका शिष्य बनकर सच्चे समर्पण और आज्ञाकारिता तथा प्रतिबद्धता के साथ सुसमाचार प्रचार करने वालों की बहुत आवश्यकता है। क्या आप प्रभु के लिए यह निर्णय करेंगे, और अपने आप को उसकी सेवकाई के लिए समर्पित करेंगे?

 जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यिर्मयाह 1-2     
  • 1 तिमुथियुस  

शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 22


मसीही विश्वासी के प्रयोजन (6) - प्रचार के लिए तैयार (1)

मसीही विश्वास एवं शिष्यता के अध्ययन के अंतर्गत हम मरकुस 3:14-15 से प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों के लिए रखे गए प्रयोजनों पर मनन कर रहे हैं। शिष्यों के लिए प्रभु के दूसरे प्रयोजनवह उन्हें भेजे, कि प्रचार करेंके पहले और दूसरे भाग को हम पिछले लेखों में देख चुके हैं, और आज इस दूसरे प्रयोजन के तीसरे भाग, प्रभु जब और जहाँ उन्हें भेजें, वे वहाँ जाकरप्रचार करेंको देखेंगे।

प्रचार करना, पुराने तथा नए नियम में, समस्त पवित्र शास्त्र में प्रभु के लोगों की एक प्रमुख गतिविधि रही है। प्रभु यीशु का अग्रदूत, यूहन्ना आया, जो जंगल में बपतिस्मा देता, और पापों की क्षमा के लिये मन फिराव के बपतिस्मा का प्रचार करता था” (मरकुस 1:4)। जब प्रभु यीशु की सेवकाई का समय आया, तब यूहन्ना के पकड़वाए जाने के बाद यीशु ने गलील में आकर परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार प्रचार किया। और कहा, समय पूरा हुआ है, और परमेश्वर का राज्य निकट आ गया है; मन फिराओ और सुसमाचार पर विश्वास करो” (मरकुस 1:14-15)। अपने बारह शिष्यों को चुनने के बाद, प्रभु ने उन्हें कुछ निर्देश देकर दो-दो करके भेजा (मरकुस 6:7-11), “और उन्होंने जा कर प्रचार किया, कि मन फिराओ। और बहुतेरे दुष्टात्माओं को निकाला, और बहुत बीमारों पर तेल मलकर उन्हें चंगा किया” (मरकुस 6:12-13)। और अपनी पृथ्वी की सेवकाई के अंत, अपने स्वर्गारोहण के समय प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को यरूशलेम से आरंभ करके संसार के छोर तक उसके गवाह होने (प्रेरितों 1:8) की ज़िम्मेदारी सौंपी, “और उसने उन से कहा, तुम सारे जगत में जा कर सारी सृष्टि के लोगों को सुसमाचार प्रचार करोजो विश्वास करे और बपतिस्मा ले उसी का उद्धार होगा, परन्तु जो विश्वास न करेगा वह दोषी ठहराया जाएगा” (मरकुस 16:15-16)। उन्हें सारे संसार में जाकर उद्धार के सुसमाचार को बताना था; और तब से लेकर आज दिन तक प्रभु यीशु के शिष्य, विभिन्न विधियों एवं उपलब्ध माध्यमों से, सारे संसार में यही करते आ रहे हैं।

न केवल प्रभु ने शिष्यों से प्रचार करने को कहा, वरन उन्हें उस प्रचार का मुख्य विषय, उसकी विधि, और संबंधित बातों का क्रम भी बतायायीशु ने उन के पास आकर कहा, कि स्वर्ग और पृथ्वी का सारा अधिकार मुझे दिया गया है। इसलिये तुम जा कर सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से बपतिस्मा दो। और उन्हें सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी है, मानना सिखाओ: और देखो, मैं जगत के अन्त तक सदैव तुम्हारे संग हूं” (मत्ती 28:18-20); “और उन्होंने निकलकर हर जगह प्रचार किया, और प्रभु उन के साथ काम करता रहा, और उन चिह्नों के द्वारा जो साथ साथ होते थे वचन को, दृढ़ करता रहा। आमीन” (मरकुस 16:20)। मत्ती और मरकुस रचित सुसमाचारों के अंत में दी गई प्रभु की ये बातें, बहुत महत्वपूर्ण और हमारे लिए बहुत ध्यान देने योग्य शिक्षाएं हैं, क्योंकि प्रभु का यही निर्देश, जगत के अंत तक, सफल और प्रभावी प्रचार की कुंजी है; और जब शिष्य प्रभु के कहे के अनुसार करते रहे, तो, जैसा उपरोक्त मरकुस 16:20 में लिखा है, प्रभु भी उनके साथ होकर कार्य करता रहा, उनके प्रचार को सफल और प्रभावी करता रहा। इसका प्रमाण हम कुछ ही समय पश्चात प्रेरितों के काम में लिखी एक बात में देखते हैं, “और उन्हें न पाकर, वे यह चिल्लाते हुए यासोन और कितने और भाइयों को नगर के हाकिमों के सामने खींच लाए, कि ये लोग जिन्होंने जगत को उलटा पुलटा कर दिया है, यहां भी आए हैं” (प्रेरितों 17:6) - यह लगभग 52 ईस्वी, अर्थात प्रभु यीशु के स्वर्गारोहण से लगभग 18-19 वर्ष बाद की बात है। तात्पर्य यह कि प्रभु यीशु के स्वर्गारोहण के दो दशकों के भीतर ही, प्रभु के शिष्यों ने अपने प्रचार द्वाराजगत को उलटा पुलटाकर दिया था, यानि कि जगत में खलबली मचा दी थी। 

उस समय उन प्रचारकों के पास न तो यात्रा के कोई विशेष साधन थे, संपर्क एवं संचार की कोई व्यवस्था थी, न ही सम्पूर्ण वचन लिखित और संकलित रूप में जैसा आज हमारे हाथों में है उपलब्ध था। अभी तो सारी पत्रियाँ लिखी भी नहीं गई थीं! उन आरंभिक प्रचारकों के लिए भी सुसमाचार प्रचार करना सहज अथवा सरल नहीं था; उनको भी बहुत विरोध और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। किन्तु फिर भी प्रभु द्वारा दिए गए सुसमाचार प्रचार के इस साधारण से सूत्र (फौरमुले), इस विधि ने उनके प्रचार को बहुत प्रभावी और सामर्थी बना दिया था। जो काम इस विधि के द्वारा तब किया गया, वही आज भी संभव है, क्योंकि प्रभु के समान उसका वचन, उसकी बात युगानुयुग एक सी है, कभी बदलती नहीं है और हर युग, हर स्थान, हर सभ्यता के लिए सदा प्रभावी और उपयोगी है। इसलिए प्रभावी सुसमाचार प्रचार के लिए आज हमें भी मनुष्यों द्वारा बनाई गई और सिखाई जाने वाली बातों के स्थान पर प्रभु के इस सुसमाचार प्रचार के उपाय को जानने, समझने, और उसका पालन करने की आवश्यकता है। अगले लेख में हम इसी के बारे में कुछ और देखेंगे।

यदि आप प्रभु के शिष्य हैं, और उसके लिए उपयोगी होना चाहते हैं, तो प्रभु के वचन का अध्ययन करने और प्रभु से मार्गदर्शन प्राप्त करते रहने के लिए प्रार्थना करते रहिए। उसके वचन, बाइबल, का अध्ययन करते समय, बाइबल में आपकी सेवकाई से संबंधित दी गई बातों को सीखने, समझने, और उनका पालन करने पर विशेष ध्यान दीजिए - वे ही प्रभु द्वारा उस सेवकाई के प्रभावी रीति से किए जाने, उसके प्रभु के लिए फलवंत होने का सही मार्ग हैं। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।     

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यशायाह 65-66     
  • 1 तिमुथियुस 2

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 21

     

मसीही विश्वासी के प्रयोजन (5) - जाने को तैयार

 मसीही विश्वास एवं शिष्यता के अंतर्गत हम मरकुस 3:14-15 से प्रभु द्वारा अपने शिष्यों के लिए रखे गए प्रयोजनों पर मनन कर रहे हैं। पिछली बार हमने प्रभु के दूसरे प्रयोजनवह उन्हें भेजे, कि प्रचार करेंके पहले भाग को, कि प्रभु के शिष्य जब और जहाँ प्रभु कहे तब और वहाँ जाने के लिए तैयार हों को देखा था। आज हम इस दूसरे प्रयोजन के दूसरे भाग जबवह उन्हेंभेजे तब ही जाएं को देखेंगे। प्रभु की आज्ञाकारिता में होकर कार्य करना बहुत आवश्यक है, अन्यथा शैतान हमें बहका कर गिरा देगा या किसी हानि अथवा बुराई में फंसा देगा और हमारी सेवकाई को व्यर्थ कर देगा। प्रभु की आज्ञाकारिता ही हमारी सुरक्षा है। हम आते समय और परिस्थितियों को नहीं जानते हैं, किन्तु प्रभु जानता है; इसीलिए वह हमें तब ही कहीं आगे बढ़ने के लिए कहता है जब वह निश्चिंत होता है कि अब आगे बढ़ने में कोई खतरा नहीं है। इसका एक उदाहरण और स्वरूप हम इस्राएलियों की मिस्र से कनान की यात्रा में देखते हैं। गिनती 9:18-23 में लिखा है कि जब तक यहोवा की उपस्थिति का बादल उन पर छाया रहता था, इस्राएली छावनी डाले रहते थे। वे तब ही कूच करते थे जब यहोवा की उपस्थिति का बादल उन पर से ऊपर उठता था; चाहे वह रात भर तक ही छाया रहे, अथवा कुछ दिन, या महीने, या वर्ष भर तक। उनकी यात्रा परमेश्वर के कहने पर ही होती थी, और कब कहाँ छावनी डालनी है, वह स्थान भी यहोवा ही निर्धारित करता था (व्यवस्थाविवरण 1:32-33)

गिनती 13 और 14 अध्याय में हम देखते हैं कि कनान के किनारे पर पहुँच कर, यह जानते हुए भी कि परमेश्वर उनको एक उत्तम देश दे रहा है, मनुष्यों की बातों में आकर पहले तो इस्राएलियों ने कनान में प्रवेश करने से मना किया। फिर जब यहोवा उनके इस अविश्वास से क्रोधित हुआ, तो फिर से उसकी इच्छा और आज्ञा के विरुद्ध, उन्होंने अपने ही निर्णय के अनुसार कनान में प्रवेश करना चाहा; और दोनों ही परिस्थितियों में उन्हें भारी हानि उठानी पड़ी - उनकी कुछ दिन की यात्रा 40 वर्ष की यात्रा बन गई, जिसमें बलवा करनी वाली सारी पीढ़ी के लोग मारे गए, उन बलवाइयों में से एक भी कनान में प्रवेश नहीं करने पाया। कनान में प्रवेश करने के बाद यहोशू ने परमेश्वर की आज्ञाकारिता में असंभव प्रतीत होने वाली विधि से, यरीहो पर एक महान विजय प्राप्त की। इसके तुरंत बाद हम यहोशू 6 और 7 अध्याय में देखते हैं कि एक छोटे से स्थान ऐ पर जब यहोशू ने अपनी बुद्धि और लोगों की सलाह के अनुसार चढ़ाई की, तो मुँह की खाई, उसे भारी पराजय मिली; अंततः उन्हें ऐ पर विजय परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार करने से ही मिली। नए नियम में भी पौलुस की सुसमाचार प्रचार सेवकाई में हम ऐसे ही उदाहरण देखते हैं। पौलुस, परमेश्वर की ओर से अन्यजातियों में सुसमाचार प्रचार के लिए नियुक्त किया गया था (गलातीयों 2:7-9)। हम प्रेरितों 16:6-10 से देखते हैं कि अपनी इसी सेवकाई को करने के प्रयास में दो बार पवित्र आत्मा ने उसे उसके गंतव्य में जाने से रोका; और फिर अंततः उसे मकिदुनिया जा कर प्रचार करने का दर्शन दिया, और तब पौलुस वहाँ इस निश्चय के साथ गया परमेश्वर ने उसे वहाँ भेजा है। 

प्रभु यीशु मसीह ने भी अपने पुनरुत्थान के बाद शिष्यों से कहा कि वे यरूशलेम में प्रतीक्षा करें और जब पवित्र आत्मा की सामर्थ्य प्राप्त कर लें, तब ही सुसमाचार प्रचार की सेवकाई पर निकलें (प्रेरितों 1:4, 8)। वे शिष्य इससे पहले भी प्रभु के कहे के अनुसार इसी सेवकाई के लिए जा चुके थे और सेवकाई के दौरान उन्होंने बहुत से आश्चर्यकर्म भी किए थे (मरकुस 6:7-13; लूका 10:1-17)। किन्तु अब, प्रभु ने उन्हें प्रतीक्षा करने और निर्धारित सामर्थ्य प्राप्त करने के बाद ही सेवकाई पर निकलने के लिए कहा। प्रभु के कहे के अनुसार, वे शिष्य उस प्रतीक्षा में रहे और अपना समय प्रार्थना में और परमेश्वर की स्तुति करने में बिताते रहे (लूका 24:50-53; प्रेरितों 1:12-14)। जो लोग चाहे प्रभु के नाम से, किन्तु अपनी ही इच्छा के अनुसार प्रचार और कार्य करते हैं, प्रभु उसेकुकर्मकहता है, और उन लोगों को ग्रहण नहीं करता हैजो मुझ से, हे प्रभु, हे प्रभु कहता है, उन में से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है। उस दिन बहुतेरे मुझ से कहेंगे; हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यवाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत अचम्भे के काम नहीं किए? तब मैं उन से खुलकर कह दूंगा कि मैं ने तुम को कभी नहीं जाना, हे कुकर्म करने वालों, मेरे पास से चले जाओ” (मत्ती 7:21-23) 

प्रभु हमें अपने लिए प्रयोग करना चाहता है; उसने अपने प्रत्येक शिष्य के लिए पहले से ही कार्य निर्धारित कर के रखे हैं (इफिसियों 2:10); किन्तु साथ ही वह यह भी चाहता है कि हम उन कार्यों को उसके कहे के अनुसार करें। प्रभु के शिष्यों को न केवल प्रभु के लिए जाने के लिए तैयार रहना चाहिए, वरन जब और जहाँ प्रभु कहे जाने, तब और वहाँ जाने वाला होना चाहिए। शिष्यों के प्रार्थना और वचन के अध्ययन में बने रहने के द्वारा प्रभु अपनी सेवकाई के लिए मार्गदर्शन करता है। हमें हर निर्णय प्रभु के कहे के अनुसार लेने वाली मनसा रखनी चाहिए।

यदि आप प्रभु के शिष्य हैं, तो क्या आप ने अपने आप को प्रभु को उपलब्ध करवाया है कि वह आपको अपनी सेवकाई में प्रयोग करे और आशीषित करे? यदि आप प्रभु के लिए उपयोगी, और उससे आशीषित होना चाहते हैं, तो क्या आप प्रभु के प्रयोजनों के अनुसार निर्णय तथा कार्य कर रहे हैं, या अपनी ही इच्छा अथवा किसी अन्य मनुष्य के कहे अथवा निर्देशों के अनुसार कर रहे हैं? प्रभु को स्वीकार्य कार्य वही है जो प्रभु के कहे पर, उसकी इच्छा के अनुसार किया जाए; अन्यथा प्रभु के नाम से किन्तु उसकी इच्छा और निर्देश के बाहर किया गया हर कार्य व्यर्थ औरकुकर्महै।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।  


एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यशायाह 62-64     
  • 1 तिमुथियुस 1

बुधवार, 20 अक्टूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 20

 

मसीही विश्वासी के प्रयोजन (4) - जाने को तैयार  

       जैसा हमने पिछले लेखों में मरकुस 3:13-15 से देखा है, प्रभु यीशु मसीह ने जब अपने बारह शिष्यों को चुना, तो उनके लिए तीन प्रयोजन भी रखे। इन तीन में से पहले प्रयोजन, शिष्य प्रभु के साथ बने रहने वाले हों के बारे में हम पिछले दो लेखों में देख चुके हैं। प्रभु के साथ बने रहना, हर बात में प्रभु की इच्छा जानना और हर बात के लिए प्रभु का आज्ञाकारी होना ही मसीही सेवकाई का आधार है। जैसे ही हम अपनी इच्छा और अपनी बुद्धि के अनुसार काम करने लगते हैं, हम उत्पत्ति 3 में उल्लेखित घटना, हमारी आदि माता, हव्वा के समान स्थिति में आ जाते हैं, जब उसने अकेले ही शैतान की बातों को सुना, फिर परमेश्वर की आज्ञाकारिता में नहीं वरन अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार किया, और परिणामस्वरूप पाप को संसार और सृष्टि में प्रवेश मिल गया, जिसके परिणाम हम आज तक भुगत रहे हैं। प्रभु हमें ऐसी स्थिति में पड़ने और शैतान द्वारा किसी भी बात में बहकाए और गिराए जाने से सुरक्षित रखना चाहता है, इसीलिए, अपने अनुयायियों के लिए प्रभु का पहला प्रयोजन है कि वे हर समय और हर बात के लिए प्रभु के साथ बने रहने को अपनी आदत, अपने जीवन की एक स्वाभाविक क्रिया बना लें।

       मरकुस 3:14 के अंतिम वाक्य में दिया गया अपने शिष्यों के लिए प्रभु का दूसरा प्रयोजन है कि, “वह उन्हें भेजे, कि प्रचार करेंहम पहले देख चुके हैं कि इस दूसरे प्रयोजन के तीन भाग हैं:

  • वह उन्हें भेजे, कि प्रचार करें (पद 14)
    • भेजे जाने को तैयार हों
    • जहाँ और जब प्रभु कहे वहाँ और तब जाएं 
    • प्रभु के कहे के अनुसार प्रचार करने को तैयार हों

       जो कोई भी प्रभु का शिष्य बने, स्वेच्छा से अपने जीवन में उसके प्रभुत्व को स्वीकार करे, हर समय और हर बात के लिए प्रभु का आज्ञाकारी बने रहने का निर्णय ले, उसे उपरोक्त तीन बातों के लिए भी तैयार रहना चाहिए। 

       सबसे पहली बात है भेजे जाने के लिए हर समय तैयार रहे। ऐसा न हो कि कहीं जाने के लिए जब प्रभु का बुलावा आए तो वह अपनी किसी बात या व्यस्तता के कारण प्रभु के कहे अनुसार जाने के लिए अपनी असमर्थता व्यक्त करे। जब प्रभु ने मत्ती को अपना शिष्य होने के लिए बुलाया तब वह अपने कार्य-स्थल में बैठा अपनी नौकरी का कार्य कर रहा था। प्रभु के आह्वान पर उसने तुरंत सब कुछ छोड़ दिया और प्रभु के पीछे हो लियावहां से आगे बढ़कर यीशु ने मत्ती नाम एक मनुष्य को महसूल की चौकी पर बैठे देखा, और उस से कहा, मेरे पीछे हो ले। वह उठ कर उसके पीछे हो लिया” (मत्ती 9:9)। इसी प्रकार से पतरस, अन्द्रियास, याकूब और यूहन्ना का भी प्रभु के आह्वान पर तुरंत उसके पीछे हो लेना था (मत्ती 4:18-22)। प्रभु द्वारा निर्धारित कार्य के प्रति भी शिष्यों का यही रवैया होना चाहिए। अपनी समझ से असंभव या कठिन लगने वाली बात के लिए भी प्रभु के कहे के अनुसार करने की प्रतिबद्धता। 

पकड़वाए जाने से पहले जब प्रभु ने यरूशलेम में प्रवेश करना था, तो अपने लिए एक गदही के बच्चे को मँगवाया, और शिष्यों से कहा कि अमुक स्थान पर वह बंधा हुआ मिल जाएगा, जाकर ले आओ; और यदि कोई पूछे तो कह देना कि प्रभु को इसका प्रयोजन हैकि अपने सामने के गांव में जाओ, वहां पहुंचते ही एक गदही बन्‍धी हुई, और उसके साथ बच्चा तुम्हें मिलेगा; उन्हें खोल कर, मेरे पास ले आओ। यदि तुम में से कोई कुछ कहे, तो कहो, कि प्रभु को इन का प्रयोजन है: तब वह तुरन्त उन्हें भेज देगा” (मत्ती 21:2-3); यह सुनने और समझने में असंभव सी बात लगती है, किन्तु हुआ वही जैसा प्रभु ने कहा था। अपने अंतिम भोज के लिए भी शिष्य फसह के भोज की तैयारी के विषय उससे पूछ रहे थे, परंतु प्रभु ने उन्हें पहले से तैयार स्थान के बारे में बताया और वहीं वह फसह का भोज भी खाया (मरकुस 14:12-16)। प्रभु ने जब स्वर्गदूत द्वारा फिलिप्पुस को कहा कि जंगल के एक मार्ग में जा, तो वह बिना किसी प्रश्न अथवा शंका के तुरंत चला गया, और कूश देश में प्रभु का वचन पहुँच गया (प्रेरितों 8:26-39)। अब्राहम से जब प्रभु ने कहा कि अपने देश और लोगों को छोड़कर उस स्थान को जा जो मैं तुझे दिखाऊँगा, तो बिना कोई और विवरण पूछे वह परमेश्वर के कहे के अनुसार चल दियाविश्वास ही से इब्राहीम जब बुलाया गया तो आज्ञा मानकर ऐसी जगह निकल गया जिसे मीरास में लेने वाला था, और यह न जानता था, कि मैं किधर जाता हूं; तौभी निकल गया” (इब्रानियों 11:8)

वचन में प्रभु के लोगों के प्रभु के कहे के अनुसार निकल पड़ने के अनेकों उदाहरण हैं। यह उनके जीवनों में प्रभु परमेश्वर का सर्वोपरि एवं प्राथमिक स्थान होने का सूचक है। प्रभु को सामर्थी, या कुशल एवं योग्य, या ज्ञानवान लोग नहीं चाहिएं। उसने तो जगत के निर्बलों, मूर्खों, और तुच्‍छों को अपने कार्य के लिए चुना है; वह ऐसों ही में होकर संसार के लोगों को अपनी सामर्थ्य को दिखाता हैहे भाइयो, अपने बुलाए जाने को तो सोचो, कि न शरीर के अनुसार बहुत ज्ञानवान, और न बहुत सामर्थी, और न बहुत कुलीन बुलाए गए। परन्तु परमेश्वर ने जगत के मूर्खों को चुन लिया है, कि ज्ञान वालों को लज्जित करे; और परमेश्वर ने जगत के निर्बलों को चुन लिया है, कि बलवानों को लज्जित करे” (1 कुरिन्थियों 1:26-27)। प्रभु को अपने प्रति समर्पित और आज्ञाकारी लोग चाहिएं, जो बिना प्रश्न किए, जो इस पूरे भरोसे के साथ जाकर प्रभु के कहे को करने के लिए तैयार हों, कि यदि प्रभु ने कहा और भेजा है तो फिर इसके लिए जो कुछ आवश्यक है उसे तैयार भी करके रखा है। किन्तु जो प्रभु के प्रति ऐसा समर्पण नहीं रखते हैं, वे प्रभु के लिए उपयोगी नहीं हो सकते हैंउसने दूसरे से कहा, मेरे पीछे हो ले; उसने कहा; हे प्रभु, मुझे पहिले जाने दे कि अपने पिता को गाड़ दूं। उसने उस से कहा, मरे हुओं को अपने मुरदे गाड़ने दे, पर तू जा कर परमेश्वर के राज्य की कथा सुना। एक और ने भी कहा; हे प्रभु, मैं तेरे पीछे हो लूंगा; पर पहिले मुझे जाने दे कि अपने घर के लोगों से विदा हो आऊं। यीशु ने उस से कहा; जो कोई अपना हाथ हल पर रखकर पीछे देखता है, वह परमेश्वर के राज्य के योग्य नहीं” (लूका 9:59-62)

आज प्रभु यीशु के प्रति आपकी स्थिति क्या है? पहला प्रश्न, क्या आपने प्रभु की शिष्यता को स्वीकार किया है? यदि नहीं, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी अपना निर्णय कर लीजिए। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

अब दूसरा प्रश्न, यदि आपने प्रभु यीशु का शिष्य होने का निर्णय ले लिया है तो उसके प्रति समर्पण, आज्ञाकारिता, और प्रतिबद्धता में आपकी स्थिति क्या है? प्रभु का जन बनना एक बात है किन्तु उसके लिए उपयोगी होना ही इस बात की पहचान है कि व्यक्ति का प्रभु की शिष्यता स्वीकार करने का उसका दावा सच्चा है कि नहीं। यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो क्या आप जहाँ और जब प्रभु भेजे वहाँ पर और तब जाने के लिए भी तैयार हैं? “अपने आप को परखो, कि विश्वास में हो कि नहीं; अपने आप को जांचो, क्या तुम अपने विषय में यह नहीं जानते, कि यीशु मसीह तुम में है नहीं तो तुम निकम्मे निकले हो” (2 कुरिन्थियों 13:5) 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यशायाह 59-61     
  • 2 थिस्सलुनीकियों 3

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 19


मसीही विश्वासी के प्रयोजन (3) 

       पिछले लेखों में हमने देखा है कि मसीही विश्वासी का जीवन प्रभु के लिए उपयोगी होने और प्रभु के लिए कार्यरत रहने में सक्रिय जीवन होता है। प्रभु का अपने सभी अनुयायियों के लिए कुछ-न-कुछ प्रयोजन है। प्रभु द्वारा प्रत्येक के लिए निर्धारित किए गए इन प्रयोजन तथा किसी के लिए निर्धारित अन्य किसी विशिष्ट प्रयोजन के अनुसार, उन्हें सक्षम करने और उस कार्य में सहायता प्रदान करने के लिए परमेश्वर पवित्र आत्मा ने सभी मसीही विश्वासियों को उचित आत्मिक वरदान भी प्रदान किए हैं, जिनके बारे में विवरण रोमियों 12 अध्याय, और 1 कुरिन्थियों 12 अध्याय में से पढ़ा जा सकता है। मरकुस 3:13-15 में हमने देखा कि प्रभु यीशु ने जब शिष्यों में से बारह प्रेरितों को चुना तो उनके लिए उसने तीन प्रयोजन निर्धारित किए। यही तीनों प्रयोजन सामान्यतः सभी मसीही विश्वासियों के लिए भी हैं; अर्थात प्रभु द्वारा प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए निर्धारित किए गए किसी विशिष्ट कार्य का आधार यही तीन प्रयोजन हैं, और वह विशिष्ट कार्य इन्हीं तीनों के निर्वाह के द्वारा ही सफल और प्रभु को महिमा देने वाला होता है। 

कल हमने इन तीन में से पहले प्रयोजन - प्रभु के साथ-साथ रहने के बारे में देखना आरंभ किया था। निरंतर प्रभु के साथ बने रहना, और हर बात में, तथा हर बात के लिए प्रभु की इच्छा को जानकर कार्य करना ही मसीही विश्वासी की सही सेवकाई का सबसे महत्वपूर्ण आधार है। जो प्रभु के साथ रहेगा, वही प्रभु के साथ घनिष्ठ संबंध में भी रहेगा; और जो प्रभु के साथ घनिष्ठ होगा उस पर ही प्रभु अपनी इच्छा प्रकट करेगा, और उसी का मार्गदर्शन करेगा। इससे वह जन यह भी पहचानने पाएगा कि उसकी अपनी तथा प्रभु की समझ, सोच-विचार, और बुद्धिमत्ता में कितना अंतर हैक्योंकि यहोवा कहता है, मेरे विचार और तुम्हारे विचार एक समान नहीं है, न तुम्हारी गति और मेरी गति एक सी है। क्योंकि मेरी और तुम्हारी गति में और मेरे और तुम्हारे सोच विचारों में, आकाश और पृथ्वी का अन्तर है” (यशायाह 55:8-9)। इसीलिए प्रभु यीशु मसीह ने अपने शिष्यों से कहा, “तुम मुझ में बने रहो, और मैं तुम में: जैसे डाली यदि दाखलता में बनी न रहे, तो अपने आप से नहीं फल सकती, वैसे ही तुम भी यदि मुझ में बने न रहो तो नहीं फल सकते। मैं दाखलता हूं: तुम डालियां हो; जो मुझ में बना रहता है, और मैं उस में, वह बहुत फल फलता है, क्योंकि मुझ से अलग हो कर तुम कुछ भी नहीं कर सकते। यदि कोई मुझ में बना न रहे, तो वह डाली के समान फेंक दिया जाता, और सूख जाता है; और लोग उन्हें बटोरकर आग में झोंक देते हैं, और वे जल जाती हैं। यदि तुम मुझ में बने रहो, और मेरी बातें तुम में बनी रहें तो जो चाहो मांगो और वह तुम्हारे लिये हो जाएगा। मेरे पिता की महिमा इसी से होती है, कि तुम बहुत सा फल लाओ, तब ही तुम मेरे चेले ठहरोगे” (यूहन्ना 15:4-8)। यहाँ पर प्रभु द्वारा कही गई बात के प्रवाह और परिणाम पर ध्यान कीजिए। सच्चा शिष्य प्रभु में बना रहेगा, और उससे सामर्थ्य पाकर प्रभु के लिए फलवंत होगा, जो परमेश्वर की महिमा का कारण ठहरेगा, और उसके सच्चे शिष्य होने का प्रमाण भी। किन्तु जो प्रभु में बना नहीं रहता है, वह प्रभु के लिए फलवंत भी नहीं होता है, सूख जाता है, जो उसके प्रभु का सच्चा शिष्य नहीं होने का प्रमाण है, और उसे अलग हटाकर नाश कर दिया जाता है।  

यूहन्ना से लिए गए उपरोक्त उदाहरण में एक बहुत महत्वपूर्ण बात निहित है - जो प्रभु में बना रहेगा, वह स्वतः ही प्रभु द्वारा पोषित और विकसित भी होता रहेगा। कोई भी पौधा हर समय फल नहीं लाता है, किन्तु जो जीवन के जल से संबंध में रहेगा, वह कभी भी सूखेगा नहीं वरन अपने समय और अपनी ऋतु में फल भी लाएगावह उस वृक्ष के समान है, जो बहती नालियों के किनारे लगाया गया है। और अपनी ऋतु में फलता है, और जिसके पत्ते कभी मुरझाते नहीं। इसलिये जो कुछ वह पुरुष करे वह सफल होता है” (भजन 1:3)। जो प्रभु में स्थापित रहता है, प्रभु के कहे के अनुसार करता है, प्रभु ही उसके कार्यों को सफल और फलवंत करता हैमैं ने लगाया, अपुल्लोस ने सींचा, परन्तु परमेश्वर ने बढ़ाया। इसलिये न तो लगाने वाला कुछ है, और न सींचने वाला, परन्तु परमेश्वर जो बढ़ाने वाला है” (1 कुरिन्थियों 3:6-7)। राजा सुलैमान ने कहा, “क्योंकि बुद्धि यहोवा ही देता है; ज्ञान और समझ की बातें उसी के मुंह से निकलती हैं” (नीतिवचन 2:6)। जब अपनी अक्षमता तथा प्रभु की सामर्थ्य और सक्षमता को ध्यान में रखते हुए मसीही विश्वासी प्रभु से अपने दायित्व के निर्वाह के लिए उपयुक्त बुद्धि एवं सामर्थ्य माँगता है, तो वह प्राप्त भी करता है। किन्तु जो प्रभु के निकट नहीं है, वह प्रभु और उसकी बातों और योजनाओं पर संदेह करेगा, प्रभु की कही गई बातों और दिए गए निर्देशों में अपने मन और समझ की बात मिलाना चाहेगा, और इसलिए प्रभु से कुछ प्राप्त नहीं कर सकेगा, जैसा कि याकूब ने लिखा है, “पर यदि तुम में से किसी को बुद्धि की घटी हो, तो परमेश्वर से मांगे, जो बिना उलाहना दिए सब को उदारता से देता है; और उसको दी जाएगी। पर विश्वास से मांगे, और कुछ सन्देह न करे; क्योंकि सन्देह करने वाला समुद्र की लहर के समान है जो हवा से बहती और उछलती है। ऐसा मनुष्य यह न समझे, कि मुझे प्रभु से कुछ मिलेगा। वह व्यक्ति दुचित्ता है, और अपनी सारी बातों में चंचल है” (याकूब 1:5-8)

प्रभु के साथ यह घनिष्ठ संबंध प्रभु के वचन से प्रेम करने और उसके वचन में बने रहने से बनता है। प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों से कहा कि यदि वे उसके वचन में बने रहेंगे, तो यही प्रभु के प्रति उनके प्रेम का प्रमाण होगा, और उससे वास्तविक प्रेम करने वाले के पास प्रभु और पिता परमेश्वर आएंगे, और उसके साथ रहेंगेजिस के पास मेरी आज्ञा है, और वह उन्हें मानता है, वही मुझ से प्रेम रखता है, और जो मुझ से प्रेम रखता है, उस से मेरा पिता प्रेम रखेगा, और मैं उस से प्रेम रखूंगा, और अपने आप को उस पर प्रगट करूंगा। यीशु ने उसको उत्तर दिया, यदि कोई मुझ से प्रेम रखे, तो वह मेरे वचन को मानेगा, और मेरा पिता उस से प्रेम रखेगा, और हम उसके पास आएंगे, और उसके साथ वास करेंगे” (यूहन्ना 14:21, 23)। इसलिए यदि आप अपना जीवन प्रभु यीशु मसीह के नाम में तो जी रहे हैं, किन्तु उसके साथ निरंतर एवं घनिष्ठ संबंध में स्थापित नहीं हैं, वरन अपनी अथवा अन्य मनुष्यों और मनुष्यों द्वारा बनाए गए मतों की ही सामर्थ्य, समझ, और शिक्षाओं अथवा युक्ति तथा योग्यता, के अनुसार जीते रहने का प्रयास करते रहें हैं, तो फिर आपको अपने जीवन में एक आमूल-चूल, एक मौलिक परिवर्तन करने की तात्कालिक आवश्यकता है। समय तथा अवसर के रहते आज ही, अभी ही, इस व्यर्थ एवं निष्फल धारणा एवं मान्यता से निकलकर प्रभु यीशु मसीह की वास्तविक शिष्यता में आ जाएं, और हर समय हर बात के लिए उसके साथ उसकी आज्ञाकारिता में बने रहने को निभाना आरंभ कर लें। कहीं ऐसा न हो कि जब परलोक में आँख खुले तब पता लगे कि आप अपनी ही जिन धारणाओं और मान्यताओं का सारे जीवन बड़ी निष्ठा से निर्वाह करते रहे उससे आपको कोई लाभ नहीं हुआ है, और अब उस गलती को सुधारने का कोई अवसर पास नहीं है; अब तो केवल अनन्तकाल का दण्ड ही मिलेगा। 

किन्तु यदि आप अभी भी संसार के साथ और संसार के समान जी रहे हैं, या परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह की मानसिकता में भरोसा रखे हुए हैं, तो आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यशायाह 56-58     
  • 2 थिस्सलुनीकियों 2

सोमवार, 18 अक्टूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता – 18


मसीही विश्वासी के प्रयोजन (2) 

पिछले लेख में हमने देखा था कि परमेश्वर का कोई कार्य कभी निरुद्देश्य नहीं होता है। वह स्वयं कार्यरत है, और अपने अनुयायियों से भी अपेक्षा करता है कि वे उसके लिए कार्यरत रहें। उसने अपने शिष्यों को उद्धार और मसीही विश्वास का जीवन व्यर्थ गँवाने और निठल्ले बैठने, औरों पर निर्भर होकर रहने के लिए नहीं दिया है। वरन, परमेश्वर ने प्रत्येक उद्धार पाए हुए व्यक्ति के लिए कुछ कार्य पहले से निर्धारित किए हैं (इफिसियों 2:10)। वह चाहता है कि प्रत्येक जन अपने उन दायित्वों को पूरे यत्न के साथ पूरा करे, जिसके लिए उसने अपने शिष्यों को उपयुक्त वरदान भी प्रदान किए हैंऔर जब कि उस अनुग्रह के अनुसार जो हमें दिया गया है, हमें भिन्न भिन्न वरदान मिले हैं, तो जिस को भविष्यवाणी का दान मिला हो, वह विश्वास के परिमाण के अनुसार भविष्यवाणी करे। यदि सेवा करने का दान मिला हो, तो सेवा में लगा रहे, यदि कोई सिखाने वाला हो, तो सिखाने में लगा रहे। जो उपदेशक हो, वह उपदेश देने में लगा रहे; दान देनेवाला उदारता से दे, जो अगुआई करे, वह उत्साह से करे, जो दया करे, वह हर्ष से करे” (रोमियों 12:6-8); और प्रभु के लिए कार्यरत रहने में आलसी न हो, “प्रयत्न करने में आलसी न हो; आत्मिक उन्माद में भरो रहो; प्रभु की सेवा करते रहो” (रोमियों 12:11)

हमने मरकुस 3:13-15 यह भी देखा था कि प्रभु ने जब अपने बारह शिष्य, जिन्हें प्रेरित कहा, नियुक्त किए, तो उनके लिए प्रभु के तीन प्रयोजन थे। प्रभु द्वारा दिए गए क्रम के अनुसार इन तीन प्रयोजनों में से पहला था कि वे शिष्य उसके साथ साथ रहें (मरकुस 3:14)। आज हम इस पहले प्रयोजन, प्रभु के साथ रहने, के बारे कुछ विस्तार से देखेंगे, और आते दिनों में शेष प्रयोजनों का अभी अध्ययन करेंगे।

हम पाप और उद्धार से संबंधित लेखों में देख चुके हैं कि पाप के साथ ही मृत्यु ने भी सृष्टि और मानव जीवन में प्रवेश किया। मृत्यु एक ऐसे और स्थाई अलगाव हो जाने को दिखाती है जो मानवीय सामर्थ्य एवं योग्यता से पूर्णतः अपरिवर्तनीय है। यह मृत्यु दो प्रकार से थी - आत्मिक, और शारीरिक। मनुष्य की आत्मिक मृत्यु के कारण वह तुरंत ही परमेश्वर की संगति से दूर हो गया; और शारीरिक मृत्यु के कारण वह मरनहार बन गया। जन्म लेते ही मनुष्य मरना आरंभ कर देता है, और अन्ततः एक समय पर आकर उसका शरीर भी क्षय हो जाता है। प्रभु यीशु ने संसार के सभी लोगों के पापों को अपने ऊपर लेकर, उनकी इस मृत्यु को सभी के लिए सह लिया, और अपने कलवरी के क्रूस पर मारे जाने, गाड़े जाने, और तीसरे दिन मृतकों में से पुनरुत्थान के द्वारा समस्त मानव जाति के हर जन के लिए न केवल पापों की क्षमा और उद्धार का मार्ग बनाकर उपलब्ध करवा दिया वरन उनके लिए मृत्यु को पराजित कर दिया। प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास लाते और उसे अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता ग्रहण करते ही व्यक्ति का परमेश्वर से मेल-मिलाप हो जाता हैक्योंकि बैरी होने की दशा में तो उसके पुत्र की मृत्यु के द्वारा हमारा मेल परमेश्वर के साथ हुआ फिर मेल हो जाने पर उसके जीवन के कारण हम उद्धार क्यों न पाएंगे?” (रोमियों 5:10); अर्थात आत्मिक मृत्यु या परमेश्वर से पृथक हो जाने का निवारण हो जाता है। साथ ही हम मसीही विश्वासियों के लिए परमेश्वर की यह भी प्रतिज्ञा है कि हमारे पुनरुत्थान के समय अथवा प्रभु के दूसरे आगमन के समय हमारे मरनहार शरीर पल भर में प्रभु के अविनाशी शरीर के समान हो जाएंगेदेखे, मैं तुम से भेद की बात कहता हूं: कि हम सब तो नहीं सोएंगे, परन्तु सब बदल जाएंगे। और यह क्षण भर में, पलक मारते ही पिछली तुरही फूंकते ही होगा: क्योंकि तुरही फूंकी जाएगी और मुर्दे अविनाशी दशा में उठाए जाएंगे, और हम बदल जाएंगे” (1 कुरिन्थियों 15:51-52); अर्थात शारीरिक मृत्यु का अभी निवारण तो किया जा चुका है, बस उसका कार्यान्वित किया जाना शेष है, जो प्रभु के निर्धारित समय पर हो जाएगा।

निष्कर्ष यह कि मसीही विश्वास में प्रवेश करते ही, मसीही विश्वासी की परमेश्वर के साथ संगति बहाल हो जाती है। प्रभु की यह कदापि इच्छा नहीं है कि यह संगति फिर से कभी टूटे। इसीलिए वह चाहता है कि उसका प्रत्येक शिष्य, हर अनुयायी उसके साथ ही बना रहे। जब तक हम प्रभु के साथ बने रहेंगे, शैतान द्वारा हानि पहुंचाए जाने से सुरक्षित रहेंगे, क्योंकि शैतान प्रभु द्वारा उसके लोगों के चारों ओर बनाए गए बाड़े को लांघ नहीं सकता है, प्रभु द्वारा निर्धारित सीमा से अधिक प्रभु के जन को छू नहीं सकता हैशैतान ने यहोवा को उत्तर दिया, क्या अय्यूब परमेश्वर का भय बिना लाभ के मानता है? क्या तू ने उसकी, और उसके घर की, और जो कुछ उसका है उसके चारों ओर बाड़ा नहीं बान्धा? तू ने तो उसके काम पर आशीष दी है, ​और उसकी सम्पत्ति देश भर में फैल गई है। परन्तु अब अपना हाथ बढ़ाकर जो कुछ उसका है, उसे छू; तब वह तेरे मुंह पर तेरी निन्दा करेगा। यहोवा ने शैतान से कहा, सुन, जो कुछ उसका है, वह सब तेरे हाथ में है; केवल उसके शरीर पर हाथ न लगाना। तब शैतान यहोवा के सामने से चला गया” (अय्यूब 1:9-12)। किन्तु जो इस बाड़े को लाँघेगा, शैतान उसे डस लेगाजो गड़हा खोदे वह उस में गिरेगा और जो बाड़ा तोड़े उसको सर्प डसेगा” (सभोपदेशक 10:8)। और प्रभु अपने हर जन को शैतान की युक्तियों से सुरक्षित रखना चाहता है। इसीलिए प्रभु चाहता है कि उसके शिष्य उसके साथ ही रहें। इसीलिए प्रभु ने हमें आश्वासन दिया हैतुम किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़े, जो मनुष्य के सहने से बाहर है: और परमेश्वर सच्चा है: वह तुम्हें सामर्थ्य से बाहर परीक्षा में न पड़ने देगा, वरन परीक्षा के साथ निकास भी करेगा; कि तुम सह सको” (1 कुरिन्थियों 10:13)  

प्रभु के साथ बने रहने के और भी लाभ हैं। प्रभु ने कहा हैहे सब परिश्रम करने वालों और बोझ से दबे लोगों, मेरे पास आओ; मैं तुम्हें विश्राम दूंगा। मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो; और मुझ से सीखो; क्योंकि मैं नम्र और मन में दीन हूं: और तुम अपने मन में विश्राम पाओगे। क्योंकि मेरा जूआ सहज और मेरा बोझ हल्का है” (मत्ती 11:28-30)जुआया yoke वह उपकरण होता है जो किसान दो बैलों के द्वारा खेत जोतने के लिए प्रयोग करते हैं; जिसके अगले सिरे पर दो बैलों को साथ जोता जाता है और पिछला सिरे के निचले भाग में हल होता है और ऊपरी भाग किसान के हाथ में नियंत्रण के लिए रहता है। मत्ती 11:28-30 के इस आह्वान के साथ प्रभु अपने विश्वासी जन के साथ, सांसारिकता के भारी जुए के स्थान पर अपने हल्के जुए में होकर जुतना चाह रहा है कि उसके साथ मिलकर, उसकी सहायता करते हुए उसके जीवन भर चल सके। जो प्रभु के साथ जुता रहेगा, वह प्रभु से जीवन की हर बात के लिए शांति, मार्गदर्शन, समाधान, और सहायता भी पाता रहेगा। समस्या तब ही होगी जब मसीही विश्वासी या तो प्रभु के हलके जुए को उतार कर फिर से सांसारिकता के उस भारी जुए में जाकर जुत जाए, जिसमें प्रभु उसके साथ नहीं जुत सकता है, या फिर प्रभु को साथ लिए बिना अकेला ही जुए में लगकर अपनी ही शक्ति और युक्ति से कार्य करने का प्रयास करे।

इसीलिए प्रभु ने अपने शिष्यों से कहातुम मुझ में बने रहो, और मैं तुम में: जैसे डाली यदि दाखलता में बनी न रहे, तो अपने आप से नहीं फल सकती, वैसे ही तुम भी यदि मुझ में बने न रहो तो नहीं फल सकते। मैं दाखलता हूं: तुम डालियां हो; जो मुझ में बना रहता है, और मैं उस में, वह बहुत फल फलता है, क्योंकि मुझ से अलग हो कर तुम कुछ भी नहीं कर सकते” (यूहन्ना 15:4-5)। जब तक हम प्रभु के साथ जुड़े रहेंगे, प्रभु से जीवनदायक सामर्थ्य, बुद्धि और समझ पाते रहेंगे, और उसके कार्यों को भली-भांति करते रहेंगे। जैसे ही हम अपनी सामर्थ्य, बुद्धि और समझ का सहारा लेंगे, अपनी योग्यता पर भरोसा रखने लगेंगे, प्रभु के कहे के अनुसार नहीं, वरन अपनी समझ और इच्छा अथवा किसी अन्य मनुष्य के कहे के अनुसार करने लगेंगे, तभी हम कठिनाइयों और समस्याओं में पड़ने लगेंगे, और हमें हताशाओं तथा कुंठित होने का सामना करना पड़ेगा। प्रभु की अगुवाई में, इस्राएलियों के लाल समुद्र पार करने के समान (निर्गमन 14 अध्याय), असंभव प्रतीत होने वाली बात भी संभव और सहज हो जाएगी; और बिना प्रभु की अगुवाई तथा सहायता के सरल और साधारण लगने वाली बात भी भारी पराजय बन जाएगी, जैसे यहोशू 7 अध्याय में इस्राएलियों के ऐ नगर में पराजय।

नए अथवा पुराने नियम के किसी भी परमेश्वर के जन या भविष्यद्वक्ता, या प्रेरित के जीवन और कार्यों को देख लें; सभी में आपको यही बात मिलेगी - जब तक वे प्रभु की अगुवाई में, प्रभु के कहे के अनुसार, प्रभु की सामर्थ्य और समझ के सहारे कार्य करते रहे, वे हमेशा ही हर परिस्थिति में हर बात पर जयवंत ही रहे; किन्तु जब भी उन्होंने अपनी या किसी अन्य मनुष्य की इच्छा या सलाह के अनुसार कार्य किया, उन्हें अन्ततः पराजय और समस्याएं ही हाथ लगीं, उनके सभी कार्य, सभी योग्यताएं और युक्तियाँ विफल हो गए, कुछ स्थाई और फलदायी नहीं रहा। प्रभु ने हमारी अगुवाई करते रहने की प्रतिज्ञा की हैमैं तुझे बुद्धि दूंगा, और जिस मार्ग में तुझे चलना होगा उस में तेरी अगुवाई करूंगा; मैं तुझ पर कृपा दृष्टि रखूंगा और सम्मत्ति दिया करूंगा” (भजन 32:8)  इसीलिए प्रभु अपने शिष्यों से चाहता है कि वे सब से पहले उसके साथ बने रहने के पाठ को सीखें, और अपनी समझ का सहारा न लें, तब ही शिष्यों के मार्ग सफल होंगे “तू अपनी समझ का सहारा न लेना, वरन सम्पूर्ण मन से यहोवा पर भरोसा रखना। उसी को स्मरण कर के सब काम करना, तब वह तेरे लिये सीधा मार्ग निकालेगा” (नीतिवचन 3:5-6)। उसके साथ-साथ, धैर्य और विश्वास के साथ चलते रहें - न उससे आगे भागने का प्रयास करें और न आलसी होकर उससे पीछे रह जाएं। प्रभु के लिए उपयोगी और आशीषित होने के लिए मसीही विश्वासी को सबसे पहले उसके साथ बने रहने, और प्रभु को निर्देश देने की बजाए प्रभु के कहे के अनुसार करते रहने वाला बनना है। तब ही वह विश्वासी अपने मसीही जीवन में आगे बढ़ने और कार्यकारी तथा परिपक्व होने पाएगा। 

इसलिए यदि आप अभी तक अपना जीवन प्रभु यीशु मसीह के नाम में, किन्तु अपनी अथवा अन्य मनुष्यों की ही सामर्थ्य, समझ, और शिक्षाओं अथवा युक्ति तथा योग्यता, के अनुसार जीते रहने का प्रयास करते रहें हैं, तो फिर आपको अपने जीवन में एक आमूल-चूल, एक मौलिक परिवर्तन करने की तात्कालिक आवश्यकता है। समय तथा अवसर के रहते आज ही, अभी ही, इस व्यर्थ एवं निष्फल धारणा एवं मान्यता से निकलकर प्रभु यीशु मसीह की वास्तविक शिष्यता में आ जाएं, और हर समय हर बात के लिए उसके साथ उसकी आज्ञाकारिता में बने रहने को निभाना आरंभ कर लें। कहीं ऐसा न हो कि जब परलोक में आँख खुले तब पता लगे कि आप अपनी ही जिन धारणाओं और मान्यताओं का सारे जीवन बड़ी निष्ठा से निर्वाह करते रहे उससे आपको कोई लाभ नहीं हुआ है, और अब उस गलती को सुधारने का कोई अवसर पास नहीं है; अब तो केवल अनन्तकाल का दण्ड ही मिलेगा। यदि आप अभी भी संसार के साथ और संसार के समान जी रहे हैं, या परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह की मानसिकता में भरोसा रखे हुए हैं, तो आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यशायाह 53-54     
  • 2 थिस्सलुनीकियों 1  

रविवार, 17 अक्टूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 17

 

मसीही विश्वासी के प्रयोजन (1) 

हमने पिछले लेखों में देखा है कि परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार प्रभु यीशु का अनुयायी होना किसी धर्म का निर्वाह करना नहीं है; और न ही यह वंशागत - किसी परिवार विशेष में जन्म ले लेने के द्वारा स्वाभाविक रीति से और स्वतः ही प्राप्त हो जाने वाला कोई विशेषाधिकार है। न तो प्रभु यीशु मसीह ने कभी कोई धर्म बनाया; न कभी अपने नाम से किसी धर्म के बनाए जाने की शिक्षा अथवा निर्देश दिए; न ही कभी लोगों के धर्म परिवर्तन करने के लिए कहा; और न ही कभी ऐसा कोई आश्वासन अथवा ऐसी कोई प्रतिज्ञा दी कि जो उसके अनुयायी हो जाएंगे, उनकी संतान और भावी पीढ़ियाँ भी स्वतः ही यह विशेषाधिकार प्राप्त करती चली जाएंगी। जिसे भी मसीह यीशु का अनुयायी होना है, उसे व्यक्तिगत रीति से, स्वेच्छा तथा सच्चे मन से अपने पापों से पश्चाताप करके, प्रभु यीशु मसीह से अपने पापों की क्षमा माँगकर, पापों की क्षमा के लिए प्रभु यीशु द्वारा कलवरी के क्रूस पर दिए गए बलिदान - उनके मारे जाने, गाड़े जाने और तीसरे दिन मृतकों में से जी उठाने को स्वीकार करना होगा, और यीशु को प्रभु मानकर अपने आप को उन्हें समर्पित कर देना होगा; इसे ही उद्धार या नया जन्म प्राप्त करना कहते हैं, जिसके बिना कोई परमेश्वर के राज्य में प्रवेश तो दूर, उसे देख भी नहीं सकता है (यूहन्ना 3:3, 5, 7)। यह उस व्यक्ति के मसीही जीवन का आरंभ है, इस विशिष्ट जीवन यात्रा में उठाया गया पहला कदम है। इस बिन्दु से लेकर फिर उसके शेष जीवन भर वह प्रभु यीशु के वचन और आज्ञाकारिता से सीखता रहता है, प्रभु तथा उस व्यक्ति में निवास करने वाले पवित्र आत्मा के चलाए चलता रहता है, और प्रभु उसे अंश-अंश करके अपने स्वरूप में बदलता चला जाता है (2 कुरिन्थियों 3:18)।

प्रभु यीशु मसीह ने अपनी पृथ्वी की सेवकाई के दिनों में अपने पीछे चलने वाले लोगों की भीड़ में से बारह लोगों को चुना, जिन्हें उसने प्रेरित कहा (लूका 6:13)। प्रभु ने भविष्य में सारे संसार भर में जाकर प्रभु में उपलब्ध पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार के प्रचार और प्रसार करने का दायित्व इन्हीं को सौंपा, और इस महान एवं महत्वपूर्ण कार्य के लिए इन्हें लगभग साढ़े-तीन वर्ष तक प्रशिक्षित किया। यहूदा इस्करियोती के अलग हो जाने के बाद इस सेवकाई में आगे चलकर पौलुस को जोड़ दिया गया, उसे भी प्रेरित कहा गया। जब प्रभु ने उन बारह शिष्यों को चुना था, तो उनके लिए प्रभु यीशु का एक विशेष प्रयोजन था, जिसके अंतर्गत वह उन्हें उनकी सेवकाई और कार्य के लिए, तथा उसके गवाह होने के लिए तैयार करने जा रहा था। उसके इस प्रयोजन को हम मरकुस 3:13-15 में देखते हैं:फिर वह पहाड़ पर चढ़ गया, और जिन्हें वह चाहता था उन्हें अपने पास बुलाया; और वे उसके पास चले आए। तब उसने बारह पुरुषों को नियुक्त किया, कि वे उसके साथ साथ रहें, और वह उन्हें भेजे, कि प्रचार करें। और दुष्टात्माओं के निकालने का अधिकार रखेंमरकुस के इस खंड में प्रभु ने तीन प्रयोजन अपने शिष्यों के लिए रखे हैं; और वे जिस क्रम में रखे हैं, वह भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि हम देखते हैं कि क्रम के पहले से तीसरे को बढ़ते जाने तक, परिपक्वता में बढ़ने के साथ, दायित्व एवं कौशल भी बढ़ता जाता है। पद 14 और 15 में दिए गए ये तीन प्रयोजन हैं:

1.   वे उसके साथ साथ रहें (पद 14)

2.   वह उन्हें भेजे, कि प्रचार करें (पद 14)

2.1. भेजे जाने को तैयार हों

2.2. जहाँ और जब प्रभु कहे वहाँ और तब जाएं 

2.3. प्रभु के कहे के अनुसार प्रचार करने को तैयार हों 

3.   दुष्टात्माओं के निकालने का अधिकार रखें (पद 15)

 

       यह हमारे प्रभु परमेश्वर के बारे में एक महत्वपूर्ण तथ्य भी प्रकट करता है - परमेश्वर का कोई कार्य, कोई बात निरुद्देश्य नहीं होती है। जैसा प्रभु यीशु मसीह ने कहा कि सृष्टि करने के हजारों वर्ष बाद भी जिस प्रकार परमेश्वर अभी भी कार्य कर रहा है, उसी प्रकार प्रभु यीशु भी काम में लगा हुआ हैइस पर यीशु ने उन से कहा, कि मेरा पिता अब तक काम करता है, और मैं भी काम करता हूं” (यूहन्ना 5:17); और हम देख चुके हैं कि प्रभु आज भी हमारे सहायक के रूप में कार्य कर रहा है “हे मेरे बालकों, मैं ये बातें तुम्हें इसलिये लिखता हूं, कि तुम पाप न करो; और यदि कोई पाप करे, तो पिता के पास हमारा एक सहायक है, अर्थात धार्मिक यीशु मसीह” (1 यूहन्ना 2:1), और हमारे लिए स्थान भी तैयार कर रहा हैमेरे पिता के घर में बहुत से रहने के स्थान हैं, यदि न होते, तो मैं तुम से कह देता क्योंकि मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूं” (यूहन्ना 14:2)। इसी प्रकार से प्रभु परमेश्वर ने प्रत्येक मसीही विश्वासी के करने के लिए भी पहले ही से कुछ-न-कुछ कार्य निर्धारित कर के रखा हुए हैंक्योंकि हम उसके बनाए हुए हैं; और मसीह यीशु में उन भले कामों के लिये सृजे गए जिन्हें परमेश्वर ने पहिले से हमारे करने के लिये तैयार किया” (इफिसियों 2:10)। अर्थात मसीही विश्वासी होने का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति परिश्रम न करे, और केवल परमेश्वर या मण्डली से ही अपेक्षा रखे कि उनके द्वारा उसकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती रहे। 

       प्रेरित पौलुस ने अपने जीवन के उदाहरण से दिखाया कि वह परिश्रम करके अपनी आजीविका कमाता था जिससे वह किसी पर भी बोझ न हो, और मसीही सेवकाई में भी लगा रहता था और अपने ही हाथों से काम कर के परिश्रम करते हैं। लोग बुरा कहते हैं, हम आशीष देते हैं; वे सताते हैं, हम सहते हैं(1 कुरिन्थियों 4:12); “क्योंकि, हे भाइयों, तुम हमारे परिश्रम और कष्ट को स्मरण रखते हो, कि हम ने इसलिये रात दिन काम धन्‍धा करते हुए तुम में परमेश्वर का सुसमाचार प्रचार किया, कि तुम में से किसी पर भार न हों(1 थिस्स्लुनीकियों 2:9); “और किसी की रोटी सेंत में न खाई; पर परिश्रम और कष्ट से रात दिन काम धन्‍धा करते थे, कि तुम में से किसी पर भार न हो(2 थिस्स्लुनीकियों 3:8); अपनी उस कमाई से औरों की सहायता भी करता था परन्तु जिस तरह माता अपने बालकों का पालन-पोषण करती है, वैसे ही हम ने भी तुम्हारे बीच में रह कर कोमलता दिखाई है(1 थिस्स्लुनीकियों 2:7);मैं तुम्हारी आत्माओं के लिये बहुत आनन्द से खर्च करूंगा, वरन आप भी खर्च हो जाऊंगा...(2 कुरिन्थियों 12:15)। उसने ऐसा ही करने की शिक्षा मसीही विश्वासियों को भी दी और जैसी हम ने तुम्हें आज्ञा दी, वैसे ही चुपचाप रहने और अपना अपना काम काज करने, और अपने अपने हाथों से कमाने का प्रयत्न करो(1 थिस्स्लुनीकियों 4:11); और यहाँ तक भी कहा कि और जब हम तुम्हारे यहां थे, तब भी यह आज्ञा तुम्हें देते थे, कि यदि कोई काम करना न चाहे, तो खाने भी न पाए(2 थिस्स्लुनीकियों 3:10)

       मसीह यीशु के शिष्यों के लिए संदेश और निर्देश स्पष्ट है - परमेश्वर पिता के समान प्रभु यीशु भी कार्य करता रहा; प्रभु ने शिष्यों को चुना और उनके लिए भी प्रयोजन रखे; और भावी मसीही शिष्यों के लिए भी यही शिक्षा और निर्देश दिए कि मसीही सेवकाई में संलग्न होने पर भी वे औरों पर बोझ न बने, परंतु अपने ही परिश्रम से अपना जीवन यापन करें, तथा औरों की भी सहायता करें। मसीही विश्वासी होने का अर्थ औरों पर निर्भर होकर अपना घर चलाना नहीं है, वरन प्रभु के लिए उपयोगी बनकर प्रभु के घर के लिए कार्य करना है। प्रभु यीशु के शिष्यों के लिए प्रभु के उपरोक्त तीनों प्रयोजनों के बारे में हम आगे देखेंगे। किन्तु अभी, हम सभी के लिए परमेश्वर के वचन बाइबल की शिक्षाओं के आधार पर भली-भांति जाँच-परख कर, प्रभु यीशु द्वारा सिखाए गए सच्चे मसीही विश्वास की सच्चाइयों तथा हमारे जीवनों के लिए प्रभु परमेश्वर के प्रयोजनों का पालन करना अनिवार्य है, न कि शैतान द्वारा मसीह यीशु के नाम से बनाए और फैलाए गए भ्रम में फँसे रहने का। 

इसलिए समय तथा अवसर के रहते आज ही, अभी ही, धर्म-कर्म-रस्म की व्यर्थ धारणा एवं मान्यता से निकलकर प्रभु यीशु मसीह की वास्तविक शिष्यता में आना और उसे निभाना अनिवार्य है। कहीं ऐसा न हो कि जब परलोक में आँख खुले तब पता लगे कि जिस धर्म का सारे जीवन बड़ी निष्ठा से निर्वाह करते रहे उससे कोई लाभ नहीं हुआ, और अब उस गलती को सुधारने का कोई अवसर पास नहीं है; अब तो केवल अनन्तकाल का दण्ड ही मिलेगा। यदि आप अभी भी संसार के साथ और संसार के समान जी रहे हैं, या परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह की मानसिकता में भरोसा रखे हुए हैं, तो आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यशायाह 50-52     
  • 1 थिस्सलुनीकियों 5