मसीही विश्वासी के प्रयोजन (4) - जाने को तैयार
जैसा हमने
पिछले लेखों में मरकुस 3:13-15 से देखा है, प्रभु यीशु मसीह ने जब अपने बारह शिष्यों को चुना, तो
उनके लिए तीन प्रयोजन भी रखे। इन तीन में से पहले प्रयोजन, शिष्य
प्रभु के साथ बने रहने वाले हों के बारे में हम पिछले दो लेखों में देख चुके हैं।
प्रभु के साथ बने रहना, हर बात में प्रभु की इच्छा जानना और
हर बात के लिए प्रभु का आज्ञाकारी होना ही मसीही सेवकाई का आधार है। जैसे ही हम
अपनी इच्छा और अपनी बुद्धि के अनुसार काम करने लगते हैं, हम
उत्पत्ति 3 में उल्लेखित घटना, हमारी
आदि माता, हव्वा के समान स्थिति में आ जाते हैं, जब उसने अकेले ही शैतान की बातों को सुना, फिर
परमेश्वर की आज्ञाकारिता में नहीं वरन अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार किया, और परिणामस्वरूप पाप को संसार और सृष्टि में प्रवेश मिल गया, जिसके परिणाम हम आज तक भुगत रहे हैं। प्रभु हमें ऐसी स्थिति में पड़ने और
शैतान द्वारा किसी भी बात में बहकाए और गिराए जाने से सुरक्षित रखना चाहता है,
इसीलिए, अपने अनुयायियों के लिए प्रभु का पहला
प्रयोजन है कि वे हर समय और हर बात के लिए प्रभु के साथ बने रहने को अपनी आदत,
अपने जीवन की एक स्वाभाविक क्रिया बना लें।
मरकुस 3:14
के अंतिम वाक्य में दिया गया अपने शिष्यों के लिए प्रभु का दूसरा
प्रयोजन है कि, “वह उन्हें भेजे, कि
प्रचार करें।” हम पहले देख चुके
हैं कि इस दूसरे प्रयोजन के तीन भाग हैं:
- वह
उन्हें भेजे, कि प्रचार करें (पद 14)
- भेजे जाने को तैयार हों
- जहाँ और जब प्रभु कहे वहाँ और तब जाएं
- प्रभु के कहे के अनुसार प्रचार करने को तैयार हों
जो कोई भी प्रभु
का शिष्य बने, स्वेच्छा से अपने जीवन में उसके प्रभुत्व को
स्वीकार करे, हर समय और हर बात के लिए प्रभु का आज्ञाकारी
बने रहने का निर्णय ले, उसे उपरोक्त तीन बातों के लिए भी
तैयार रहना चाहिए।
सबसे पहली बात
है भेजे जाने के लिए हर समय तैयार रहे। ऐसा न हो कि कहीं जाने के लिए जब प्रभु का
बुलावा आए तो वह अपनी किसी बात या व्यस्तता के कारण प्रभु के कहे अनुसार जाने के
लिए अपनी असमर्थता व्यक्त करे। जब प्रभु ने मत्ती को अपना शिष्य होने के लिए
बुलाया तब वह अपने कार्य-स्थल में बैठा अपनी नौकरी का कार्य कर रहा था। प्रभु के
आह्वान पर उसने तुरंत सब कुछ छोड़ दिया और प्रभु के पीछे हो लिया “वहां से आगे बढ़कर यीशु ने मत्ती नाम एक मनुष्य को महसूल की चौकी पर बैठे
देखा, और उस से कहा, मेरे पीछे हो ले।
वह उठ कर उसके पीछे हो लिया” (मत्ती 9:9)। इसी प्रकार से पतरस, अन्द्रियास, याकूब और यूहन्ना का भी प्रभु के आह्वान पर तुरंत उसके पीछे हो लेना था
(मत्ती 4:18-22)। प्रभु द्वारा निर्धारित कार्य के प्रति भी
शिष्यों का यही रवैया होना चाहिए। अपनी समझ से असंभव या कठिन लगने वाली बात के लिए
भी प्रभु के कहे के अनुसार करने की प्रतिबद्धता।
पकड़वाए जाने से पहले जब प्रभु ने यरूशलेम
में प्रवेश करना था, तो
अपने लिए एक गदही के बच्चे को मँगवाया, और शिष्यों से कहा कि
अमुक स्थान पर वह बंधा हुआ मिल जाएगा, जाकर ले आओ; और यदि कोई पूछे तो कह देना कि प्रभु को इसका प्रयोजन है “कि अपने सामने के गांव में जाओ, वहां पहुंचते ही एक
गदही बन्धी हुई, और उसके साथ बच्चा तुम्हें मिलेगा; उन्हें खोल कर, मेरे पास ले आओ। यदि तुम में से कोई
कुछ कहे, तो कहो, कि प्रभु को इन का
प्रयोजन है: तब वह तुरन्त उन्हें भेज देगा” (मत्ती 21:2-3);
यह सुनने और समझने में असंभव सी बात लगती है, किन्तु
हुआ वही जैसा प्रभु ने कहा था। अपने अंतिम भोज के लिए भी शिष्य फसह के भोज की
तैयारी के विषय उससे पूछ रहे थे, परंतु प्रभु ने उन्हें पहले
से तैयार स्थान के बारे में बताया और वहीं वह फसह का भोज भी खाया (मरकुस 14:12-16)। प्रभु ने जब स्वर्गदूत द्वारा फिलिप्पुस को कहा कि जंगल के एक मार्ग में
जा, तो वह बिना किसी प्रश्न अथवा शंका के तुरंत चला गया,
और कूश देश में प्रभु का वचन पहुँच गया (प्रेरितों 8:26-39)। अब्राहम से जब प्रभु ने कहा कि अपने देश और लोगों को छोड़कर उस स्थान को
जा जो मैं तुझे दिखाऊँगा, तो बिना कोई और विवरण पूछे वह
परमेश्वर के कहे के अनुसार चल दिया “विश्वास ही से
इब्राहीम जब बुलाया गया तो आज्ञा मानकर ऐसी जगह निकल गया जिसे मीरास में लेने वाला
था, और यह न जानता था, कि मैं किधर
जाता हूं; तौभी निकल गया” (इब्रानियों
11:8)।
वचन में प्रभु के लोगों के प्रभु के कहे
के अनुसार निकल पड़ने के अनेकों उदाहरण हैं। यह उनके जीवनों में प्रभु परमेश्वर का
सर्वोपरि एवं प्राथमिक स्थान होने का सूचक है। प्रभु को सामर्थी, या कुशल एवं योग्य,
या ज्ञानवान लोग नहीं चाहिएं। उसने तो जगत के निर्बलों, मूर्खों, और तुच्छों को अपने कार्य के लिए चुना है;
वह ऐसों ही में होकर संसार के लोगों को अपनी सामर्थ्य को दिखाता है
“हे भाइयो, अपने बुलाए जाने को तो सोचो,
कि न शरीर के अनुसार बहुत ज्ञानवान, और न बहुत
सामर्थी, और न बहुत कुलीन बुलाए गए। परन्तु परमेश्वर ने जगत
के मूर्खों को चुन लिया है, कि ज्ञान वालों को लज्जित करे;
और परमेश्वर ने जगत के निर्बलों को चुन लिया है, कि बलवानों को लज्जित करे” (1 कुरिन्थियों 1:26-27)। प्रभु को अपने प्रति समर्पित और आज्ञाकारी लोग चाहिएं, जो बिना प्रश्न किए, जो इस पूरे भरोसे के साथ जाकर
प्रभु के कहे को करने के लिए तैयार हों, कि यदि प्रभु ने कहा
और भेजा है तो फिर इसके लिए जो कुछ आवश्यक है उसे तैयार भी करके रखा है। किन्तु जो
प्रभु के प्रति ऐसा समर्पण नहीं रखते हैं, वे प्रभु के लिए
उपयोगी नहीं हो सकते हैं “उसने दूसरे से कहा, मेरे पीछे हो ले; उसने कहा; हे
प्रभु, मुझे पहिले जाने दे कि अपने पिता को गाड़ दूं। उसने
उस से कहा, मरे हुओं को अपने मुरदे गाड़ने दे, पर तू जा कर परमेश्वर के राज्य की कथा सुना। एक और ने भी कहा; हे प्रभु, मैं तेरे पीछे हो लूंगा; पर पहिले मुझे जाने दे कि अपने घर के लोगों से विदा हो आऊं। यीशु ने उस से
कहा; जो कोई अपना हाथ हल पर रखकर पीछे देखता है, वह परमेश्वर के राज्य के योग्य नहीं” (लूका 9:59-62)।
आज प्रभु यीशु के प्रति आपकी स्थिति क्या
है? पहला प्रश्न, क्या आपने प्रभु की शिष्यता को स्वीकार किया है? यदि
नहीं, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित
करने के लिए अभी अपना निर्णय कर लीजिए। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा
माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता
में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको
स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है,
और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना
और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं
आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को
अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही,
गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन
जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे
पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता
हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके
वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को,
अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
अब दूसरा प्रश्न, यदि आपने प्रभु यीशु का
शिष्य होने का निर्णय ले लिया है तो उसके प्रति समर्पण, आज्ञाकारिता,
और प्रतिबद्धता में आपकी स्थिति क्या है? प्रभु
का जन बनना एक बात है किन्तु उसके लिए उपयोगी होना ही इस बात की पहचान है कि व्यक्ति का प्रभु
की शिष्यता स्वीकार करने का उसका दावा सच्चा है कि नहीं। यदि आप मसीही विश्वासी
हैं, तो
क्या आप जहाँ और जब प्रभु भेजे वहाँ पर और तब जाने के लिए भी तैयार हैं?
“अपने आप को परखो,
कि विश्वास में हो कि नहीं; अपने आप को जांचो,
क्या तुम अपने विषय में यह नहीं जानते, कि
यीशु मसीह तुम में है नहीं तो तुम निकम्मे निकले हो” (2 कुरिन्थियों 13:5)।
एक साल में बाइबल
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59-61
- 2 थिस्सलुनीकियों 3
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