प्रभु यीशु के “एकमात्र उद्धारकर्ता” होने का अर्थ
पिछले लेखों में हम मत्ती 16:18 के आधार पर प्रभु
यीशु मसीह की कलीसिया या मण्डली, अर्थात उसके द्वारा चुने और
बुलाए गए लोगों का समूह होने के बारे में देखते आ रहे हैं। हम देख चुके हैं
कि प्रभु ने अपने इन चुने हुए लोगों पतरस पर आधारित करके नहीं बुलाया और स्थापित
किया; वरन उन्हें अपने तथा अपने वचन की शिक्षाओं पर आधारित
एवं स्थापित किया है। साथ ही हमने पिछले लेख में यह भी देखा था कि प्रभु की
कलीसिया, अर्थात उसके बुलाए हुए लोग वे हैं जो उसे “मसीह” अर्थात परमेश्वर द्वारा नियुक्त और निर्धारित
जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता स्वीकार करते हैं।
“मसीही” कहलाना या समझे जाना, और वास्तविकता में वह सच्चा
“मसीही” होना जिसकी बात प्रभु यीशु ने मत्ती 16:18
में की है, व्यवहारिक रीति से दो बिलकुल भिन्न
बातें हैं। यद्यपि सामान्यतः यही समझा और माना जाता है कि किसी परिवार विशेष में
जन्म लेने के आधार पर, या किसी डिनॉमिनेशन, अथवा संस्था, या “चर्च”
का सदस्य होने और उसकी प्रथाओं के निर्वाह, और
कुछ अनुष्ठानों की पूर्ति, आदि के द्वारा व्यक्ति ईसाई या
मसीही जन्म से ही होता है या फिर बन जाता है। किन्तु इस आम
लेकिन गलत धारणा के विपरीत, परमेश्वर के वचन बाइबल की वास्तविकता यही
है कि ऐसा करने से वह व्यक्ति समाज, कुछ लोगों, अथवा उस “चर्च” या डिनॉमिनेशन या संस्था के द्वारा तो
“मसीही” माना और कहा जा सकता है; किन्तु अनिवार्य नहीं है कि वह वास्तव में प्रभु की दृष्टि में भी
“मसीही” हो, प्रभु की कलीसिया या बुलाए हुए लोगों में
सम्मिलित हो। क्योंकि जो कोई भी अपने परिवार, अपनी धार्मिकता, अपने कर्मों,
अपनी “चर्च” या
डिनॉमिनेशन या संस्था की सदस्यता, अपने द्वारा प्रथाओं के
निर्वाह और अनुष्ठानों की पूर्ति आदि पर आधारित होकर प्रभु की कलीसिया का सदस्य
होना चाहता अथवा समझता है, वह इस प्राथमिक आधारभूत बात की
वास्तविकता की उपेक्षा कर देता है कि वह फिर प्रभु यीशु के जगत का
एकमात्र उद्धारकर्ता होने पर नहीं, वरन
प्रभु परमेश्वर के अतिरिक्त उस “चर्च” या
डिनॉमिनेशन या संस्था की अन्य बातों पर भरोसा रख कर और उनका पालन
करके ऐसा करना चाहता है, और यह प्रभु की कलीसिया में होने की मूल शर्त की अवहेलना
करना है। क्योंकि प्रभु को परमेश्वर का “मसीह” स्वीकार करना, पापों से पश्चाताप और मसीह यीशु को अपने जीवन के पूर्ण समर्पण के द्वारा होता है (रोमियों 10:9-10), वंश या कर्मों, या अनुष्ठानों के द्वारा नहीं।
ध्यान कीजिए, जब यूहन्ना बपतिस्मा
देने वाले ने प्रभु के आगमन के लिए लोगों को तैयार करना आरंभ किया तो उसके प्रचार
का प्रथम और मुख्य विषय पश्चाताप करना था (मत्ती 3:1-2); यही प्रभु यीशु की सेवकाई का भी प्रथम और मुख्य विषय
था (मरकुस 3:1-2); तथा प्रभु द्वारा शिष्यों को दिए गए अंतिम निर्देश का भी
विषय था (लूका 24:47); यही शिष्यों के द्वारा किए गए पहले प्रचार का मुख्य विषय था (मरकुस 6:12);
और पश्चाताप करना ही पतरस के द्वारा किए गए पहले प्रचार का
प्रथम और मुख्य विषय था (प्रेरितों 2:38), जिससे प्रथम कलीसिया की स्थापना हुई थी; यही पौलुस के द्वारा किए गए प्रचार का मुख्य विषय था (प्रेरितों 20:21);
और पुराने नियम के भविष्यद्वक्ताओं की सेवकाई का विषय भी यही था
(यिर्मयाह 25:4-5)। इसलिए जब प्रभु ने उसे जगत का एकमात्र
उद्धारकर्ता स्वीकार करने के आधार पर लोगों को बुलाने और अपने साथ एकत्रित करने,
कलीसिया को बनाने की बात की, तो कोई अनूठा या
नया विषय सामने नहीं रखा। प्रभु ने वही दृढ़ता से दोहराया और उसी की पुष्टि की जो पुराने नियम में भविष्यद्वक्ताओं की
सेवकाई का विषय था, यूहन्ना
बपतिस्मा देने वाले की सेवकाई का विषय था, प्रभु की अपनी सेवकाई का, और शिष्यों द्वारा की गई
पहली सेवकाई का विषय था; और जो भविष्य में अन्य शिष्यों
द्वारा की जाने वाली सेवकाई का भी विषय होना था। बिना अपने पापों से पश्चाताप किए
और प्रभु यीशु को अपना जीवन पूर्णतः समर्पण करके जीवन में परिवर्तन किए (रोमियों 12:1-2) उद्धार पाने या
परमेश्वर को स्वीकार्य प्रभु का जन हो जाने की कोई शिक्षा बाइबल में कहीं नहीं दी
गई है। प्रभु का जन बनना प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा व्यक्तिगत रीति से और
स्वेच्छा से अपने पापों के लिए किए गए पश्चाताप, उन पापों की
क्षमा और निवारण के लिए प्रभु यीशु द्वारा क्रूस पर किए गए कार्य को स्वीकार करने,
और अपना जीवन पूर्णतः प्रभु को समर्पित करने के द्वारा होता है, चाहे उस व्यक्ति का जन्म किसी भी परिवार में हुआ हो, और
चाहे उसने कितनी भी “ईसाई या मसीही” रीतियों और अनुष्ठानों को निभाया हो (प्रेरितों 17:30-31)। प्रभु को “मसीह” या परमेश्वर द्वारा नियुक्त जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता होना स्वीकार करने
का यही अभिप्राय है। प्रभु की कलीसिया या मण्डली उन ही लोगों से मिलकर बनी है जो
इस मूल सिद्धांत को स्वीकार करके इसका पालन करते हैं; इसमें
कुछ और जोड़ते-घटाते नहीं हैं, मनुष्यों की और उनके समझ-बुद्धि-ज्ञान की बातों को
या बाइबल के बाहर की किसी अन्य बात को इसके साथ या इसके अतिरिक्त मानने या
मनवाने का प्रयास नहीं करते हैं।
हम अगले लेख में देखेंगे कि क्यों ये
बातें केवल शब्दों का खेल या भिन्न समझ रखने की बात नहीं है; क्यों ये इतनी महत्वपूर्ण हैं; अनन्त जीवन का वारिस होने के लिए समझे और
माने जाने के लिए अनिवार्य हैं।
यदि आप मसीही हैं, तो अपने आप को जाँचिए और
परखिए कि कहीं आप अपने परिवार, अपने कार्यों, अपने द्वारा रीतियों और अनुष्ठानों को निभाने, आदि
बातों के आधार पर तो अपने आप को मसीही और प्रभु की कलीसिया का सदस्य तो
नहीं समझ रहे हैं, या समझते आ रहे हैं? यदि ऐसा है तो आप एक
बहुत बड़ी गलतफहमी में जी रहे हैं, और अभी समय रहते अपने पापों
के लिए सच्चा पश्चाताप और प्रभु यीशु को संपूर्ण समर्पण कर के इसे सुधार लीजिए। कहीं आप किसी भ्रम में
जीते रह जाएं, और
अंततः जब सच्चाई समझ में आए, आँख खुले, तब तक बहुत देर हो चुकी हो।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक
स्वीकार नहीं किया है, तो
अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के
पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की
आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए
- उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से
प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ
ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस
प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद
करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया,
उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी
उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को
क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और
मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।”
सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा
भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- उत्पत्ति
18-19
- मत्ती 6:1-18
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें