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सोमवार, 31 जुलाई 2023

The Law & Salvation / व्यवस्था और उद्धार – 18 – The Law’s Limitation / व्यवस्था की सीमा – 10

व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 10

क्योंकि मनुष्य शैतान के सामने असमर्थ है (भाग 8)

 

पिछले लेखों में हम देखते आ रहे हैं कि मनुष्य अपनी शक्ति और बुद्धि से शैतान का सफलतापूर्वक सामना कर पाने में पूर्णतः असमर्थ है, चाहे वह स्वाभाविक और अपरिवर्तित दशा में हो अथवा उद्धार पाया हुआ हो। उद्धार पाया हुआ मनुष्य परमेश्वर की सहायता और आज्ञाकारिता में रहते हुए तो शैतान का सामना कर सकता है, और उसकी युक्तियों पर जयवंत हो सकता है। किन्तु जैसे ही वह अपनी किसी भी बात या अनाज्ञाकारिता के कारण परमेश्वर द्वारा निर्धारित सीमाओं से ज़रा सा भी बाहर आता है, तो शैतान उसे डस लेता है (सभोपदेशक 10:8), पाप में फँसा लेता है। परमेश्वर की व्यवस्था के उसके पास होते हुए भी, मनुष्य क्यों उसका पालन करने में, और शैतान का सामना करने में असमर्थ है, इसके तथा अन्य संबंधित बातों के कारणों का विश्लेषण करते हुए हमने तीन बातों को देखना आरंभ किया था।


इन बातों पर परमेश्वर के वचन बाइबल में से विचार करने इनके जो निष्कर्ष हमारे सामने आए, वे हैं : 

(i) परमेश्वर की बात, उसका वचन, उसके द्वारा दिए गए अधिकार और वरदान अपरिवर्तनीय हैं, अटल हैं, और वह उन्हें वापस नहीं लेता है।


(ii) अपनी रचना में ही मनुष्य स्‍वर्गदूतों से कम सामर्थी है। 


(iii) सृष्टि के वरीयता क्रम में मनुष्य स्वाभाविक रीति से स्‍वर्गदूतों से निचले क्रम का है। उद्धार पाने के बाद, उसका यह क्रम, आज्ञाकारी स्‍वर्गदूतों के संदर्भ में बदल दिया जाता है, और वह स्‍वर्गदूतों से उच्च स्तर का बना दिया जाता है। किन्तु शैतान और उसके दूत, दुष्टात्माएं इसका पालन नहीं करते हैं और मनुष्य पर हावी रहकर उसे गिराने के प्रयास में लगे रहते हैं।


आज हम इन निष्कर्षों को अन्य बातों के साथ मिलाकर इनके व्यावहारिक अर्थ और अभिप्राय को देखना आरंभ करेंगे। परमेश्वर का वचन हमें बताता है कि पाप के कारण स्वर्ग से गिराए तथा निकाले जाने और शैतान बन जाने से पहले लूसिफर प्रधान स्वर्गदूत था, परमेश्वर के बाद वही सबसे सामर्थी था (यशायाह 14:12-15; यहेजकेल 28:12-17)। उसके स्वर्ग से निकाले जाने के बाद भी न तो उसका स्वर्ग में जाकर परमेश्वर के साथ वार्तालाप करने का विशेषाधिकार वापस लिया गया (अय्यूब 1:6-7, 12; 2:1-6), और न उससे उसकी सामर्थ्य वापस ली गई; वह अपनी इसी सामर्थ्य के द्वारा परमेश्वर और उसके लोगों के विरुद्ध कार्य करता रहता है, तथा अद्भुत आश्चर्यकर्म करने की भी क्षमता रखता है (2 थिस्सलुनीकियों 2:9-10; प्रकाशितवाक्य 13:13-15)। अब, जब हम शैतान के उद्गम और सामर्थ्य से संबंधित बाइबल के इस तथ्य को, उपरोक्त तीनों बातों और उनके निष्कर्षों के साथ मनुष्यों के संदर्भ में लागू करते हैं, तो हमारे सामने जो बातें उभरकर आती हैं, वह कुछ इस प्रकार से है: 

·        मनुष्य शैतान और उसके दूतों के सामने असमर्थ है क्योंकि वह अपनी रचना में, सृष्टि के समय से ही स्‍वर्गदूतों से कुछ कम स्तर का बनाया गया, और यह वरीयता क्रम कभी बदला नहीं गया। 

·        शैतान पहले सबसे प्रधान स्वर्गदूत था, परमेश्वर के बाद सामर्थ्य और बुद्धि में वही था। उसके तथा उसके साथी स्‍वर्गदूतों के स्वर्ग से गिराए जाने के बाद भी उन से, उन के ये विशेषाधिकार, सामर्थ्य, और बुद्धि वापस नहीं ली गई है। 

·        यद्यपि उद्धार पाने के बाद स्‍वर्गदूतों को मनुष्यों की सेवा-टहल करने वाली आत्माएं बना दिया गया है, किन्तु यह बात केवल परमेश्वर के आज्ञाकारी स्‍वर्गदूतों के संदर्भ में ही सत्य एवं लागू है; परमेश्वर के अनाज्ञाकारी शैतान के दूतों के विषय नहीं। 

·        इसीलिए, शैतान और उसके दूत हमेशा ही हर बात में, न केवल किसी भी स्वाभाविक, अपरिवर्तित, उद्धार न पाए हुए मनुष्य से; वरन उद्धार पाए हुए मनुष्य से भी सदा ही अधिक सामर्थी और बुद्धिमान है। 

 

    इन से आगे की शेष बातों और निष्कर्षों को हम अगले लेख में देखेंगे। यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

 

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Why The Law Cannot Save Us – 10

Because Man is Incapable of Handling Satan (Part 8)

 

    In the previous articles, we have been seeing that man is absolutely incapable of successfully confronting Satan in his own strength and intelligence, whether in his natural and unregenerate state, or even after being saved. Even a saved man can face Satan’s tactics, and overcome him, only with God's help, so long as he is obedient to God. But as soon as he transgresses the limits set by God, through any of his own words or behavior, through any kind of disobedience, Satan bites him (Ecclesiastes 10:8), ensnaring him in sin. In analyzing the reasons for why man is unable to face Satan, and unable to obey God's Law despite having it in his hands, and other related issues, in the earlier articles we had considered three things.


    Having considered them from God's Word, the Bible, we came to the conclusions that:

    (i) Whatever God has said, His Word, the rights, privileges, and gifts given by Him are irrevocable, unchanging, and He does not take them back.


    (ii) Man since his creation is less powerful than the angels.


    (iii) Human beings, in their natural state, are lower than the angels in the hierarchy of created beings. After he is saved, this order changes for the saved man, in context of God’s obedient angels, and the saved man is elevated to a higher status than angels. But Satan and his angels, the demons, do not obey this changed order and keep on trying to overcome man and make him fall.


    Today we will look at the meaning, practical application, and implications of these, along with some other things. Lucifer, before he was cast down because of sin and turned to Satan was the archangel, the most powerful after God (Isaiah 14:12-15; Ezekiel 28:12-17). Even after his expulsion from heaven, neither was his privilege to converse with God in heaven (Job 1:6-7, 12; 2:1-6), nor was his power taken away from him. Therefore, he continues to work against God and his people through this very power that he had when in heaven, and is also capable of doing great miraculous works (2 Thessalonians 2:9-10; Revelation 13:13-15). Now, when we apply these Biblical facts regarding the origin and power of Satan, along with the three afore mentioned conclusions, to humans, what comes up before us is something like this:

·        Man is incapable of confronting Satan and his angels because in his creation, he has been made of a level lower than the angels from the time of his creation, and this hierarchy has never changed.

·        Satan was the chief archangel, second only to God in strength and wisdom. Even after he and his fellow angels were thrown out of heaven, the privileges, powers, and wisdom have not been taken back from them.

·        Although angels have been made serving spirits to those who are saved, this is true and applicable only in the context of angels obedient to God; and not for the angels of Satan who are disobedient to God.

·        Therefore, Satan and his angels are always and in everything more powerful and wiser than man; not just the natural, unregenerate, unsaved man; but the saved ones as well.

 

    We will look at the other things and conclusions in the next article. If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


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रविवार, 30 जुलाई 2023

The Law & Salvation / व्यवस्था और उद्धार – 17 – The Law’s Limitation / व्यवस्था की सीमा – 9

व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 9

क्योंकि मनुष्य शैतान के सामने असमर्थ है (भाग 7)

 

पिछले कुछ लेखों से हम तीन बातों के द्वारा यह समझने के लिए कि मनुष्य क्यों अपनी सामर्थ्य और योग्यताओं से शैतान का सामना करने में असमर्थ है, परमेश्वर के वचन बाइबल के तथ्य एकत्रित करते आ रहे हैं। ये तीन बातें, और बाइबल के आधार पर उन के निष्कर्ष हमारे सामने हैं: 


(i) परमेश्वर की हर बात, उसका हर वचन, उसके द्वारा दिए गए अधिकार और वरदान अपरिवर्तनीय हैं, अटल हैं, और वह उन्हें कभी वापस नहीं लेता है। क्योंकि वह समय की सीमा से बंधा हुआ नहीं है, आदि से ही अंत को जानता है, सब कुछ के बारे में सब कुछ जानता है, इसलिए उसने जिसे भी जो भी दिया है वह सोच समझ कर, सभी संभावनाओं, अभिप्रायों, और घटित होने वाली घटनाओं को जानते हुए, सोच समझ कर किसी न किसी उद्देश्य के साथ दिया है। क्योंकि वह कभी भी कोई भी गलती नहीं करता है, इसलिए उसे अपने किसी भी निर्णय में संशोधन करने या उसे बदलने की कभी कोई आवश्यकता नहीं है।


(ii) सृष्टि के आरम्भ से ही, अपनी रचना में ही मनुष्य स्वाभाविक रीति से स्‍वर्गदूतों से कम सामर्थी है। अर्थात मनुष्य में अपनी किसी सामर्थ्य या योग्यता से किसी भी स्वर्गदूत से बढ़कर होने अथवा करने की क्षमता नहीं है। यह मनुष्य का परमेश्वर द्वारा निर्धारित स्तर है, और मनुष्य अपने आप से इसे बदल नहीं सकता है, केवल इसका निर्वाह ही कर सकता है।  


(iii) सृष्टि के वरीयता क्रम में मनुष्य स्वाभाविक रीति से स्‍वर्गदूतों से निचले क्रम का है। उद्धार पाने के बाद, उसका यह क्रम, उसके परमेश्वर की संतान हो जाने और प्रभु की समानता में ढलते जाने से, परमेश्वर के आज्ञाकारी स्‍वर्गदूतों के संदर्भ में बदल दिया जाता है। वह उद्धार पाया हुआ मनुष्य, परमेश्वर की संतान और प्रभु की समानता में अग्रसर होते रहने के कारण, परमेश्वर के आज्ञाकारी स्‍वर्गदूतों से उच्च स्तर का बना दिया जाता है। किन्तु शैतान, उसके दूत, उसकी दुष्टात्माएं क्योंकि परमेश्वर के अनाज्ञाकारी हैं इसलिए जिस प्रकार से वे परमेश्वर से, उसी प्रकार से मनुष्य से निचले स्तर का होने को स्वीकार नहीं करते हैं; और वे मनुष्य पर हावी रह कर उसे गिराने के प्रयासों में लगे रहते हैं, और मनुष्य अपने आप में, अपनी सामर्थ्य से, उनपर विजयी नहीं हो सकता है।


अगले लेख में हम इन निष्कर्षों को अन्य बातों के साथ मिलाकर इनके व्यावहारिक अर्थ और अभिप्राय को देखेंगे। इनके द्वारा हम देखेंगे और समझेंगे कि मनुष्यों के शैतान का सामना करने में असमर्थ होने और पाप में गिरते रहने पर भी, क्यों परमेश्वर द्वारा प्रेरितों 17:30 में स्वाभाविक अपरिवर्तित मनुष्य द्वारा पाप करने को “अज्ञानता के समय” की बात कहकर उसे दण्ड देने में आनाकानी करता है, पश्चाताप करने के लिए कहता है, और उसे दंड से बचने का अवसर देता है।


किन्तु अभी के लिए हमें अपने जीवनों में झांक कर देखना आवश्यक है कि क्या हम परमेश्वर द्वारा दिए गए इस अवसर का, उसके आनाकानी करने का, सदुपयोग कर रहे हैं कि नहीं? क्या हमने अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, अपना जीवन उसे सच्चे मन से समर्पित किया है कि नहीं? या हम अभी भी अपने धर्म, परिवार, जन्म से धार्मिक अनुष्ठानों तथा रीति-रिवाजों के पालन करने वाले होने, अपने धर्म-गुरुओं और अगुवों के चलाए चलने वाले होने, आदि व्यर्थ और निष्फल बातों के द्वारा ही परमेश्वर की दृष्टि में भले और धर्मी, तथा उसे स्वीकार्य होने, उसके साथ स्वर्ग में प्रवेश करने वाले समझे बैठे हैं, शैतान के धोखे से अपने अनन्त जीवन के विषय निश्चिंत हो गए हैं? आज, अभी, समय और अवसर रहते हुए पापों से पश्चाताप करके अपना जीवन प्रभु यीशु मसीह को समर्पित कर दें, उससे पापों के लिए क्षमा माँग लें, परमेश्वर की संतान बन जाएं। बाद में कहीं बहुत देर न हो जाए।  


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

 

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Why The Law Cannot Save Us – 9

Because Man is Incapable of Handling Satan (Part 7)

 

    For the previous few articles, through three things, we have been trying to gather information from God’s Word the Bible to help us understand why man is incapable of facing Satan in his own power and abilities. Now the conclusions of these three things are before us:


    (i) Everything stated by God, His Word, the rights, privileges, and gifts given by Him are irrevocable, unchanging, and He does not take them back. Since He is not under the limits of time, He knows the end from the beginning, knows everything about everything, therefore, whatever He has given to anybody, he has given it knowingly and with a purpose, being fully aware of all the possibilities, implications, and the incidences that would happen related to it. Since He never makes any mistake, therefore He never has to modify to correct, or to change any of the decisions He has taken.


    (ii) Man, in his natural condition, since his creation is less powerful than the angels. In other words, man has no power or ability to be or do anything greater or be more powerful than angels. This is the God given status of man, and man cannot change it on his own, he can only obey it.


    (iii) Human beings, in their natural state, are lower than the angels in the hierarchy of created beings. After he is saved, because of his becoming a child of God and continually being changed into the likeness of the Lord, this order changes for the saved man, in context of God’s obedient angels; and now the saved man is elevated to a higher status than angels because of his becoming a child of God and progressively being transformed into the likeness of the Lord. But Satan, his angels, his demons, since they are all disobedient to God, therefore, just as they do not accept being of a lesser status than God, they also do not accept being of a lower status than the saved man, the child of God; and they are always trying to overpower the saved man and make him fall, and man on his own, by his own strength, is incapable of being victorious over them.


    In the next article, we'll look at the practical application and implications of these conclusions, by also considering them along with some other things. Through these we will see and understand why although humans are unable to face Satan, while they continue to fall in sin time and again, yet God calls this tendency of the unregenerate man to sin something done in "times of ignorance" in Acts 17:30 and is reluctant to punish him for it; rather, asking him to repent of his sins and be saved from the punishment.


    But for now, we need to look into our lives and see whether we are making good use of this opportunity given to us by God, or, are we ignoring Him and His benevolence? Have we sincerely committed our lives to Him, repenting of our sins or not? Or, have we fallen for Satan's deceit, and we are still assuming of being good and righteous in the eyes of God through vain and ineffective things like our religion, family, our following and fulfilling religious rituals and customs since our birth, by our being obedient to our religious leaders, etc. and falsely believe that because of following these we will be considered acceptable to God, worthy of entering heaven with Him? Today, now, while having the time and opportunity to repent of sins, make the right decision, repent of your sins, submit your life to the Lord Jesus Christ, ask Him for forgiveness of sins, become a child of God. It may be too late afterwards.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


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शनिवार, 29 जुलाई 2023

The Law & Salvation / व्यवस्था और उद्धार – 16 – The Law’s Limitation / व्यवस्था की सीमा – 8

व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 8

क्योंकि मनुष्य शैतान के सामने असमर्थ है (भाग 6)

 

    मनुष्य क्यों अपनी शक्ति और युक्ति द्वारा शैतान का सामना कर पाने और उसपर विजयी होने में असमर्थ है, इसे हम तीन बातों के अंतर्गत देखते आ रहे हैं, और दो पहली दो बातों को देख चुके हैं। आज हम तीसरी बात को देखेंगे, और फिर अगले लेख से इन तीनों बातों के निष्कर्ष और तात्पर्य को देखेंगे।


    (iii) मनुष्य और स्‍वर्गदूतों का तुलनात्मक स्तर या स्थान: मनुष्य शैतान के सामने असमर्थ है, क्योंकि अपनी सृष्टि से ही वह स्‍वर्गदूतों से कम सामर्थी और निचले स्तर का बनाया गया है। इसे थोड़ा बारीकी से समझना होगा: 


प्रभु यीशु मसीह, पृथ्वी के अपने शारीरिक रूप में, पूर्णतः परमेश्वर भी था, और पूर्णतः मनुष्य भी - परमेश्वर होते हुए भी, पृथ्वी पर आने के समय अपने परमेश्वरत्व को छोड़ कर, अपने आप को शून्य कर के, वह मनुष्य का रूप लेकर, मनुष्य की समानता में पृथ्वी पर आ गया (फिलिप्पियों 2:5-8)। 


पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में उसके स्तर के विषय इब्रानियों 2:6-10 देखिए: “6:वरन किसी ने कहीं, यह गवाही दी है, कि मनुष्य क्या है, कि तू उस की सुधि लेता है? या मनुष्य का पुत्र क्या है, कि तू उस पर दृष्टि करता है? 7: तू ने उसे स्‍वर्गदूतों से कुछ ही कम किया; तू ने उस पर महिमा और आदर का मुकुट रखा और उसे अपने हाथों के कामों पर अधिकार दिया। 8: तू ने सब कुछ उसके पांवों के नीचे कर दिया: इसलिये जब कि उसने सब कुछ उसके आधीन कर दिया, तो उसने कुछ भी रख न छोड़ा, जो उसके आधीन न हो: पर हम अब तक सब कुछ उसके आधीन नहीं देखते। 9: पर हम यीशु को जो स्‍वर्गदूतों से कुछ ही कम किया गया था, मृत्यु का दुख उठाने के कारण महिमा और आदर का मुकुट पहने हुए देखते हैं; ताकि परमेश्वर के अनुग्रह से हर एक मनुष्य के लिये मृत्यु का स्वाद चखे। 10: क्योंकि जिस के लिये सब कुछ है, और जिस के द्वारा सब कुछ है, उसे यही अच्छा लगा कि जब वह बहुत से पुत्रों को महिमा में पहुंचाए, तो उन के उद्धार के कर्ता को दुख उठाने के द्वारा सिद्ध करे।” 


    यहाँ पद 8-10 में यह प्रकट है कि यह खंड प्रभु यीशु के विषय है, और इस संदर्भ के साथ पद 6 में “मनुष्य का पुत्र” भी प्रभु यीशु ही है, जो सुसमाचारों में उसका एक उपनाम था, जिसे उसने स्वयं भी अपने लिया प्रयोग किया है (मत्ती 8:20; 9:6; 12:8; मत्ती 16:13)। फिर पद 7 में उसके विषय लिखा गया है कि पृथ्वी पर भेजे जाने पर परमेश्वर ने “मनुष्य के पुत्र” अर्थात प्रभु यीशु को “स्‍वर्गदूतों से कुछ ही कम किया है”। अर्थात, अपनी पार्थिव देह में, मनुष्यों की समानता में होते हुए वह स्‍वर्गदूतों से (एकवचन ‘स्वर्गदूत’ - कोई विशिष्ट स्वर्गदूत नहीं; वरन बहुवचन ‘स्‍वर्गदूतों’ - सभी स्‍वर्गदूतों से) कुछ कम स्तर का हो गया। तात्पर्य यह कि मनुष्य, जिसकी समानता में प्रभु यीशु इस पृथ्वी पर आया, वह अपनी इस स्वाभाविक दशा में न केवल स्‍वर्गदूतों से कम सामर्थी है जैसा हमने ऊपर देखा है, वरन उनसे कम स्तर का भी है। इसीलिए उद्धार पाए हुए मनुष्यों को परमेश्वर से दिए जाने वाले आदर में से एक है कि स्वर्गदूत, उनकी सेवा-टहल करने वाली आत्माएं बना दिए जाते हैं (इब्रानियों 1:14)। यदि सृष्टि के स्वाभाविक क्रम में मनुष्य की वरीयता स्‍वर्गदूतों से ऊपर होती, तो फिर उनके मनुष्यों की सेवा-टहल करने वाले बनाए जाने में मनुष्यों को क्या विशेष आदर मिलता? किन्तु उद्धार पाकर, परमेश्वर की संतान (यूहन्ना 1:12-13) हो जाने के कारण, जो अपने जीवन भर निरंतर अपने उद्धारकर्ता प्रभु यीशु की समानता में बदलते चले जा रहे हैं (रोमियों 8:16-17, 29-30; 2 कुरिन्थियों 3:18), अब उन उद्धार पाए हुओं के लिए वरीयता क्रम बदल दिया गया है; अब उद्धार पाया हुआ मनुष्य जो प्रभु की समानता में ढल रहा है, ऊपर और आज्ञाकारी स्वर्गदूत उनसे कम स्तर के कर दिए गए हैं।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

 

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Why The Law Cannot Save Us – 8

Because Man is Incapable of Handling Satan (Part 6)

 

    We have been looking into and considering why man by his strength and abilities is incapable of facing Satan and overcoming him. We have been considering it under three points, and have seen the first two of these three points. Today we will see the third point, and then from the next article will look at the conclusions of these points and what we can derive from them.


    (iii) The comparative level or place of humans and angels: Man is incapable of facing Satan, because from his creation he has not only been made less powerful than angels, but of a lesser status than the angels as well. This has to be understood a little more closely:


    The Lord Jesus Christ, in his physical form on earth, was also wholly God, and wholly human – while being God, He emptied Himself when He came to earth in the form of man, and took upon Himself the likeness of man (Philippians 2:5-8).


    Regarding His status as a man on earth, also consider Hebrews 2:6-10: “6: But one testified in a certain place, saying: "What is man that You are mindful of him, Or the son of man that You take care of him? 7: You have made him a little lower than the angels; You have crowned him with glory and honor, and set him over the works of Your hands. 8: You have put all things in subjection under his feet." For in that He put all in subjection under him, He left nothing that is not put under him. But now we do not yet see all things put under him. 9: But we see Jesus, who was made a little lower than the angels, for the suffering of death crowned with glory and honor, that He, by the grace of God, might taste death for everyone. 10: For it was fitting for Him, for whom are all things and by whom are all things, in bringing many sons to glory, to make the captain of their salvation perfect through sufferings."


    Here in verses 8–10 it is clear that this section is about the Lord Jesus, and in this context the phrase "Son of Man" in verse 6 is also for the Lord Jesus, which was also a name used for Him and by Him in the Gospels, He often called himself by this name (e.g., Matthew 8:20; 9:6; 12:8; Matthew 16:13). Then in verse 7 it is written about him that when He was sent to earth, God made the "Son of man" i.e., Lord Jesus "a little lower than the angels". Implying that in His earthly body, being in the likeness of humans, He became somewhat lower than the angels (not singular 'angel' - i.e., not a specific angel; but plural 'angels' - i.e., all angels). This means that man, in whose likeness the Lord Jesus came to this earth, is not only less powerful than the angels in his natural state, as we have seen above; but is also of a lower status than them. That is why one of the God-given honor for saved humans is that angels are made ministering spirits, to serve them (Hebrews 1:14). If, in the natural order of creation, man already possessed a superiority over angels, then how could it be special honor for humans to have angels as ministering spirits for them? But having been saved, having become children of God (John 1:12-13), and continually throughout his lifetime growing in the likeness of his Savior the Lord Jesus (Romans 8:16-17, 29-30; 2 Corinthians 3:18), the created order of superiority, for those who are saved is now changed; now the saved man being transformed into the likeness of the Lord is elevated above and the obedient angels are made lower than him.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


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शुक्रवार, 28 जुलाई 2023

The Law & Salvation / व्यवस्था और उद्धार – 15 – The Law’s Limitation / व्यवस्था की सीमा – 7

व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 7

क्योंकि मनुष्य शैतान के सामने असमर्थ है (भाग 5)

 

पिछले लेखों में हम देखते आ रहे हैं कि मनुष्य अपनी शक्ति और बुद्धि से शैतान का सफलतापूर्वक सामना कर पाने में पूर्णतः असमर्थ है, चाहे वह स्वाभाविक और अपरिवर्तित दशा में हो, अथवा उद्धार पाया हुआ हो। उद्धार पाया हुआ मनुष्य परमेश्वर की सहायता और आज्ञाकारिता में रहते हुए तो शैतान का सामना कर सकता है, और उसकी युक्तियों पर जयवंत हो सकता है। किन्तु जैसे ही वह अपनी किसी भी गलत बात या अनाज्ञाकारिता के कारण परमेश्वर द्वारा निर्धारित सीमाओं से ज़रा सा भी बाहर आता है, तो शैतान उसे डस लेता है (सभोपदेशक 10:8), पाप में फँसा लेता है।


परमेश्वर की व्यवस्था के उसके पास होते हुए भी, मनुष्य क्यों उसका पालन करने में, और शैतान का सामना करने में असमर्थ है, इसके तथा अन्य संबंधित बातों के कारणों का विश्लेषण करते हुए हमने पिछले लेख में तीन बातों को देखना आरंभ किया था, जिनके निष्कर्षों तथा वचन की कुछ अन्य बातों के परस्पर समावेश से हम इन प्रश्नों के उत्तर तक पहुँचने पाएंगे। ये तीन बातें हैं:

(i) परमेश्वर और उसकी बातों का अपरिवर्तनीय तथा अटल और सर्वदा लागू रहना; 

(ii) मनुष्यों की तुलना में स्‍वर्गदूतों के कुछ गुण; 

(iii) मनुष्य और स्‍वर्गदूतों का तुलनात्मक स्तर या स्थान।

 

पिछले लेख में हमने इनमें से पहली बात, परमेश्वर और उसका वचन और बातें हमेशा ही अटल तथा अपरिवर्तनीय हैं को बाइबल के उदाहरणों से देखा और समझा था। आज हम दूसरी बात को बाइबल के उदाहरणों से देखेंगे और समझेंगे।

 

(ii) मनुष्यों की तुलना में स्‍वर्गदूतों के कुछ गुण: स्‍वर्गदूतों की सामर्थ्य के विषय वचन बताता है कि मनुष्यों की तुलना में स्वर्गदूत अधिक सामर्थी हैं; और उन्हें सामान्य रीति से सामर्थी कहा भी गया है, जबकि इसकी तुलना में मनुष्यों में से केवल कुछ ही सामर्थी हुए, किन्तु सामान्य रीति से सभी मनुष्यों को सामर्थी नहीं कहा गया है। इस संदर्भ में बाइबल के तीन पद देखिए:

·       भजन संहिता 103:20 “हे यहोवा के दूतों, तुम जो बड़े वीर हो, और उसके वचन के मानने से उसको पूरा करते हो उसको धन्य कहो!”

·       2 थिस्स्लुनीकियों 1:7 “और तुम्हें जो क्लेश पाते हो, हमारे साथ चैन दे; उस समय जब कि प्रभु यीशु अपने सामर्थी दूतों के साथ, धधकती हुई आग में स्वर्ग से प्रगट होगा।”

·        2 पतरस 2:11 “तौभी स्वर्गदूत जो शक्ति और सामर्थ्य में उन से बड़े हैं, प्रभु के सामने उन्हें बुरा भला कह कर दोष नहीं लगाते।” यदि इस पद को उसे संदर्भ में, पद 9-10 के साथ देखें तो प्रकट है कि स्वर्गदूत स्वाभाविक रीति से मनुष्यों से शक्ति और सामर्थ्य में बड़े हैं।

 

अगले लेख में हम मनुष्य और स्‍वर्गदूतों के तुलनात्मक स्थान या स्तर के बारे में देखेंगे।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

 

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

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Why The Law Cannot Save Us – 7

Because Man is Incapable of Handling Satan (Part 5)

 

    In the previous articles, we have been seeing that man is absolutely incapable of successfully confronting Satan in his own strength and intelligence, whether in his natural and unregenerate state, or even after being saved. A saved man can face Satan’s tactics, and overcome him, with God's help, so long as he is obedient to God. But as soon as he transgresses the limits set by God, through anything wrong that he may say or do, or through any kind of disobedience, Satan bites him (Ecclesiastes 10:8), ensnares him in sin.

In analyzing the reasons for why man is unable to face Satan, and unable to obey God's law despite having it in his hands, and other related issues, in the previous article we had begun to look at three things whose conclusions, and considering them along with some other points of Scripture will help us to reach the answers to the above questions. These three are:

    (i) God and His Word are unchanging and what He grants always remains irrevocable and in effect;

    (ii) Some characteristics of angels as compared to humans;

    (iii) The comparative level or place of humans and angels.

 

    In the previous article, we saw and understood the first of these, that God and His Word are unchanging and things He grants always remain irrevocable, with some Biblical examples. Today we will look at and understand the second point with some Biblical examples.


    (ii) Some characteristics of angels as compared to humans: God’s Word states that the angels are more powerful than humans; and angels, in general, have been called mighty or powerful. Whereas in comparison, only a few human beings have been powerful, and unlike the angels, all human beings, in general, have never been called mighty. Consider three Bible verses in this context:

·       Psalm 103:20 "Bless the Lord, you His angels, Who excel in strength, who do His word, Heeding the voice of His word."

·       2 Thessalonians 1:7 "and to give you who are troubled rest with us when the Lord Jesus is revealed from heaven with His mighty angels"

·        2 Peter 2:11 "Whereas angels, who are greater in power and might, do not bring a reviling accusation against them before the Lord." If we look at this verse in its context, along with verses 9-10, it is apparent that angels are naturally greater in strength and power than humans.

 

In the next article we will consider the third point and then come to the conclusions of these three points.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


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