व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 7
क्योंकि मनुष्य शैतान के सामने असमर्थ है (भाग 5)
पिछले लेखों में हम देखते आ रहे हैं कि मनुष्य अपनी शक्ति और बुद्धि से शैतान का सफलतापूर्वक सामना कर पाने में पूर्णतः असमर्थ है, चाहे वह स्वाभाविक और अपरिवर्तित दशा में हो, अथवा उद्धार पाया हुआ हो। उद्धार पाया हुआ मनुष्य परमेश्वर की सहायता और आज्ञाकारिता में रहते हुए तो शैतान का सामना कर सकता है, और उसकी युक्तियों पर जयवंत हो सकता है। किन्तु जैसे ही वह अपनी किसी भी गलत बात या अनाज्ञाकारिता के कारण परमेश्वर द्वारा निर्धारित सीमाओं से ज़रा सा भी बाहर आता है, तो शैतान उसे डस लेता है (सभोपदेशक 10:8), पाप में फँसा लेता है।
परमेश्वर की व्यवस्था के उसके पास होते हुए भी, मनुष्य क्यों उसका पालन करने में, और शैतान का सामना करने में असमर्थ है, इसके तथा अन्य संबंधित बातों के कारणों का विश्लेषण करते हुए हमने पिछले लेख में तीन बातों को देखना आरंभ किया था, जिनके निष्कर्षों तथा वचन की कुछ अन्य बातों के परस्पर समावेश से हम इन प्रश्नों के उत्तर तक पहुँचने पाएंगे। ये तीन बातें हैं:
(i) परमेश्वर और उसकी बातों का अपरिवर्तनीय तथा अटल और सर्वदा लागू रहना;
(ii) मनुष्यों की तुलना में स्वर्गदूतों के कुछ गुण;
(iii) मनुष्य और स्वर्गदूतों का तुलनात्मक स्तर या स्थान।
पिछले लेख में हमने इनमें से पहली बात, परमेश्वर और उसका वचन और बातें हमेशा ही अटल तथा अपरिवर्तनीय हैं को बाइबल के उदाहरणों से देखा और समझा था। आज हम दूसरी बात को बाइबल के उदाहरणों से देखेंगे और समझेंगे।
(ii) मनुष्यों की तुलना में स्वर्गदूतों के कुछ गुण: स्वर्गदूतों की सामर्थ्य के विषय वचन बताता है कि मनुष्यों की तुलना में स्वर्गदूत अधिक सामर्थी हैं; और उन्हें सामान्य रीति से सामर्थी कहा भी गया है, जबकि इसकी तुलना में मनुष्यों में से केवल कुछ ही सामर्थी हुए, किन्तु सामान्य रीति से सभी मनुष्यों को सामर्थी नहीं कहा गया है। इस संदर्भ में बाइबल के तीन पद देखिए:
· भजन संहिता 103:20 “हे यहोवा के दूतों, तुम जो बड़े वीर हो, और उसके वचन के मानने से उसको पूरा करते हो उसको धन्य कहो!”
· 2 थिस्स्लुनीकियों 1:7 “और तुम्हें जो क्लेश पाते हो, हमारे साथ चैन दे; उस समय जब कि प्रभु यीशु अपने सामर्थी दूतों के साथ, धधकती हुई आग में स्वर्ग से प्रगट होगा।”
· 2 पतरस 2:11 “तौभी स्वर्गदूत जो शक्ति और सामर्थ्य में उन से बड़े हैं, प्रभु के सामने उन्हें बुरा भला कह कर दोष नहीं लगाते।” यदि इस पद को उसे संदर्भ में, पद 9-10 के साथ देखें तो प्रकट है कि स्वर्गदूत स्वाभाविक रीति से मनुष्यों से शक्ति और सामर्थ्य में बड़े हैं।
अगले लेख में हम मनुष्य और स्वर्गदूतों के तुलनात्मक स्थान या स्तर के बारे में देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Why The Law Cannot Save Us – 7
Because Man is Incapable of Handling Satan (Part 5)
In the previous articles, we have been seeing that man is absolutely incapable of successfully confronting Satan in his own strength and intelligence, whether in his natural and unregenerate state, or even after being saved. A saved man can face Satan’s tactics, and overcome him, with God's help, so long as he is obedient to God. But as soon as he transgresses the limits set by God, through anything wrong that he may say or do, or through any kind of disobedience, Satan bites him (Ecclesiastes 10:8), ensnares him in sin.
In analyzing the reasons for why man is unable to face Satan, and unable to obey God's law despite having it in his hands, and other related issues, in the previous article we had begun to look at three things whose conclusions, and considering them along with some other points of Scripture will help us to reach the answers to the above questions. These three are:
(i) God and His Word are unchanging and what He grants always remains irrevocable and in effect;
(ii) Some characteristics of angels as compared to humans;
(iii) The comparative level or place of humans and angels.
In the previous article, we saw and understood the first of these, that God and His Word are unchanging and things He grants always remain irrevocable, with some Biblical examples. Today we will look at and understand the second point with some Biblical examples.
(ii) Some characteristics of angels as compared to humans: God’s Word states that the angels are more powerful than humans; and angels, in general, have been called mighty or powerful. Whereas in comparison, only a few human beings have been powerful, and unlike the angels, all human beings, in general, have never been called mighty. Consider three Bible verses in this context:
· Psalm 103:20 "Bless the Lord, you His angels, Who excel in strength, who do His word, Heeding the voice of His word."
· 2 Thessalonians 1:7 "and to give you who are troubled rest with us when the Lord Jesus is revealed from heaven with His mighty angels"
· 2 Peter 2:11 "Whereas angels, who are greater in power and might, do not bring a reviling accusation against them before the Lord." If we look at this verse in its context, along with verses 9-10, it is apparent that angels are naturally greater in strength and power than humans.
In the next article we will consider the third point and then come to the conclusions of these three points.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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