व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 6
क्योंकि मनुष्य शैतान के सामने असमर्थ है (भाग 4)
पिछले लेख में हमने देखा था कि:
(i) परमेश्वर और उसकी बातों का अपरिवर्तनीय तथा अटल और सर्वदा लागू रहना;
(ii) मनुष्यों की तुलना में स्वर्गदूतों के कुछ गुण;
(iii) मनुष्य और स्वर्गदूतों का तुलनात्मक स्तर या स्थान।
और फिर हम ने इनमें से पहली बात, परमेश्वर और उसका वचन और बातें हमेशा ही अटल तथा अपरिवर्तनीय हैं को देखना आरंभ किया था। परमेश्वर ने जो जिसे दे दिया, वह उसे कभी वापस नहीं लेता है, उसका दिया हुआ अटल और अपरिवर्तनीय। यदि अटल और अपरिवर्तनीय नहीं हो तो फिर उसका तात्पर्य होगा कि परमेश्वर गलती कर सकता है, भविष्य की बातों से अनभिज्ञ है; जो कि परमेश्वर के मौलिक गुणों को ही नकारना है। आज हम परमेश्वर के वचन बाइबल में से इस तथ्य के कुछ उदाहरण देखेंगे:
सृष्टि के समय परमेश्वर ने आदम और हव्वा को सारी पृथ्वी और सभी जीव-जंतुओं पर अधिकार दिया था (उत्पत्ति 1:27-30)। बाद में मनुष्य की सुविधा के लिए परमेश्वर ने उसे खाने के लिए उत्तम फलों वाले वृक्षों की अदन की वाटिका लगा कर दी (उत्पत्ति 2:8-9)। पाप करने के कारण मनुष्य अदन की वाटिका से बाहर निकाला गया, किन्तु न तो उससे पृथ्वी और उसके जीव-जंतुओं पर अधिकार रखना वापस लिया गया, और न ही उसे पृथ्वी पर से हटाया गया। आज भी, सामान्यतः सभी जीव-जन्तु, मनुष्यों का कुछ भय रखते हैं, तुरंत ही मनुष्यों के सामने नहीं आते हैं, उनसे कतरा कर निकलते हैं।
जब अब्राहम और सारा को उनकी शारीरिक आयु की दशा के बावजूद संतान उत्पन्न करने की सामर्थ्य दी, तो उसके बाद अब्राहम से यह क्षमता वापस नहीं ली। और इसीलिए अब्राहम और विवाह कर सका, रखेलियाँ भी रख सका, और उनसे संतानें भी उत्पन्न कर सका (उत्पत्ति 25:1-6)।
इस्राएल का पहला राजा शाऊल परमेश्वर द्वारा नियुक्त करवाया गया था। जब वह राजा होने के लिए अयोग्य हो गया, तब भी उसकी मृत्यु तक इस्राएल का राज्य उससे नहीं लिया गया। उसके राज्य-काल में परमेश्वर का अभिषिक्त दाऊद बहुत दुख उठाता हुआ, और उससे अपनी जान बचाता हुआ सारे देश में भागता फिरा। दो बार दाऊद के पास अवसर आया कि वह शाऊल को मार डाले, किन्तु उसके साथियों के उकसाने के बावजूद, किन्तु उसका मार्गदर्शन करने वाले परमेश्वर के आत्मा ने दाऊद को शाऊल को मारने से रोके रखा। जब परमेश्वर की ओर से शाऊल का जीवन काल समाप्त हुआ, तब ही दाऊद राजा बना, उससे पहले नहीं।
यहूदियों को मिस्र में 430 वर्ष की गुलामी सहनी थी; वे ठीक उसी दिन मिस्र निकलकर आए जब यह समय पूरा हुआ (निर्गमन 12:40-41)। इससे पहले जब मूसा ने उन्हें छुड़ाने का प्रयास किया था तो असफल रहा, किन्तु समय पूरा होने पर मूसा ही उन्हें निकाल कर ले गया।
हारून ने बछड़ा बना कर इस्राएलियों को मूर्ति-पूजा में डाला (निर्गमन 32 अध्याय) और परमेश्वर उससे क्रोधित हुआ; किन्तु उसके महायाजक अभिषिक्त होने का आदर उससे नहीं लिया गया (लैव्यव्यवस्था 8:1-9)।
मूसा की अनाज्ञाकारिता के कारण उसे कनान में प्रवेश नहीं करने दिया गया (गिनती 27:12-14; व्यवस्थाविवरण 3:23-26), किन्तु कनान की सीमा तक इस्राएलियों की अगुवाई करने का अधिकार उसी के पास रहा। यहोशू को यह अधिकार मूसा के अंत समय में ही दिया गया (व्यवस्थाविवरण 3:28)।
गदरेनियों के क्षेत्र में रहने वाले मनुष्यों में से जब प्रभु यीशु ने दुष्टात्माओं को निकाला, तो उन्होंने उनके समय से पहले न सताए जाने की दुहाई दी (मत्ती 8:28-29); अर्थात दुख के स्थान में जाने का जो उनका निर्धारित समय था, उससे पहले वे वहाँ नहीं भेजी जा सकती थीं।
पाप के कारण गिराए जाने और शैतान बन जाने से पहले लूसिफर प्रधान स्वर्गदूत था, परमेश्वर के बाद वही सबसे सामर्थी था (यशायाह 14:12-15; यहेजकेल 28:12-17)। उसके स्वर्ग से निकाले जाने के बाद भी न तो उसका स्वर्ग में जाकर परमेश्वर के साथ वार्तालाप करने का विशेषाधिकार वापस लिया गया (अय्यूब 1:6-7, 12; 2:1-6), और न उससे उसकी सामर्थ्य वापस ली गई; वह अपनी इसी सामर्थ्य के द्वारा परमेश्वर और उसके लोगों के विरुद्ध कार्य करता रहता है।
लूसिफर सबसे प्रधान स्वर्गदूत था, वरीयता में अन्य सभी उससे कम स्तर के थे। उसके निकाले और गिराए जाने के बाद भी, परमेश्वर का प्रधान स्वर्गदूत मीकाईल उससे वाद-विवाद नहीं कर सका, उसे सीधे से डाँट नहीं सका, वरन यही कहा “प्रभु तुझे डांटे” (यहूदा 1:9), क्योंकि मीकाईल वरीयता में लूसिफर से कम था और लूसिफर के ऊपर केवल परमेश्वर था।
परमेश्वर एक बार जिसे उद्धार दे देता है, जिसे अपनी संतान बना लेता है, उससे अपना उद्धार वापस कभी नहीं लेता। अनाज्ञाकारिता और पाप के कारण उद्धार पाया हुआ व्यक्ति ताड़ना में आएगा, प्रतिफल खोएगा, आशीषों से वंचित हो जाएगा, लेकिन उसका उद्धार कभी नहीं जाएगा।
आरम्भ में दी गई बातों में से शेष दोनों बातों को हम आने वाले लेखों में देखेंगे; किन्तु अभी के लिए हमें, विशेषकर मसीही विश्वासियों को बहुत गंभीरता के साथ अपने जीवनों में झाँककर देखना है, विचार करना है कि हम परमेश्वर द्वारा दी गई सुविधाओं, बातों, उद्धार, और वरदानों का कैसे उपयोग कर रहे हैं? क्या हम उनके प्रति सजग हैं, और परमेश्वर की महिमा के लिए उनका प्रयोग कर रहे हैं? क्या हम अपने जीवनों से उसकी इन आशीषों को संसार के लोगों पर प्रकट कर रहे हैं? यह अवलोकन करना अनिवार्य है, क्योंकि हमसे इन सभी बातों का हिसाब अवश्य ही लिया जाएगा; कोई भी हिसाब दिए बिना नहीं बचेगा। इसलिए अभी समय और अवसर रहते इसके विषय अपने दृष्टिकोण और व्यवहार को सही कर लेने और परमेश्वर की आज्ञाकारिता में चलने में ही भलाई और आशीष है, शैतान और उसकी युक्तियों से सुरक्षा है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Why The Law Cannot Save Us – 6
Because Man is Incapable of Handling Satan (Part 4)
In the previous article we had seen that:
(i) God and His Word are unchanging and firmly established what He grants always remains irrevocable and in effect;
(ii) Some characteristics of angels as compared to humans;
(iii) The comparative level or place of humans and angels.
Then we had begun to look at the first of these, God and His Word and things that He grants are always irrevocable, unchangeable, and firmly established. Whatever God has given to anyone, He never takes it back, what He has given remains irrevocable and unchanging. If it is not irrevocable and unchanging, then it means that God can make a mistake, is unaware of the future things; which is denying the very basic attributes of God. Today, from God’s Word the Bible, we will look at some examples of this fact:
At the time of creation, God gave Adam and Eve authority over the whole earth and all living things (Genesis 1:27-30). Later, for the convenience of man, God planted for him the Garden of Eden with trees good for food (Genesis 2:8-9). Man was cast out of the Garden of Eden for sinning, but neither was he taken away from the earth, nor was the authority granted to him over all the earth and its creatures taken away from him. Even today, generally all living creatures exhibit a fear of humans, they do not immediately come in front of humans, but tend to shy away from them.
When Abraham and Sarah were given the ability to have children long after crossing their physical age of child-bearing, this ability was not taken back from them. Abraham afterwards not only could marry and have concubines, and he also begot many children from them (Genesis 25:1-6).
The first king of Israel, Saul, was ordained by God. Even when he became unfit to be king, the kingdom of Israel was not taken from him until his death. During his reign, David, the anointed of God, suffered greatly, and kept running all over the country, to save his life from Saul. Twice the opportunity came for David to kill Saul, but despite the provocation of his companions, the Spirit of God who guided him kept David from killing Saul. It was only when Saul's lifetime from God came to an end, that David became king, not before.
The Jews had to endure 430 years of slavery in Egypt. They came out of Egypt on the very day that this time was over (Exodus 12:40-41). Earlier, when Moses tried to rescue them, he was unsuccessful, but when the time was over, it was Moses who took them out.
Aaron made the Israelites commit idolatry by making a golden calf (Exodus chapter 32) and God was furious with him; But he was not disapproved of being the anointed high priest (Leviticus 8:1-9).
Moses was not allowed to enter Canaan because of his disobedience (Numbers 27:12–14; Deuteronomy 3:23–26). Nevertheless, he retained the authority to lead the Israelites to the border of Canaan. This authority was given to Joshua only at the end of Moses' lifetime (Deuteronomy 3:28).
When the Lord Jesus cast out demons from the people living in the region of the Gadarenes, the demons pleaded not to be persecuted before their appointed time (Matthew 8:28-29); i.e., they could not be sent before their appointed time into the place of sorrow.
Lucifer was the archangel, second only to God (the ‘Bright and Morning Star’ in some translations and Lucifer in others), before he was cast down because of sin, and became Satan (Isaiah 14:12-15; Ezekiel 28:12-17). Even after his expulsion from heaven, the privilege of going to heaven to converse with God was not taken away from him (Job 1:6-7, 12; 2:1-6), nor have his powers been taken away from him; though he continues to work against God and his people through those very powers even today.
Lucifer was the most superior archangel, in hierarchy, all the others were inferior to him. Even after he was cast out of heaven, Michael the archangel of God could not disrespectfully argue with him, or scold him directly, but simply said "Lord rebuke you" (Jude 1:9), because in terms of the original hierarchy Michael was lower than Lucifer, and only God was above Lucifer.
God never takes back his salvation from the one whom He once saves, whom He accepts as His child. The saved one, because of disobedience and sin will come under chastisement, lose eternal rewards, be deprived of blessings, but will never lose his God given salvation.
We'll cover the two other points, given at the beginning, in subsequent articles; But for now, we, especially Christians, have to take a very serious look into our lives, and evaluate how we are making use of the facilities, things, salvation, abilities and gifts given by God to us? Are we cognizant of them, and are we using them for the glory of God? Are we expressing these God given blessings to the people of the world through our lives? It is necessary to rectify this, because we will certainly be called to account for all of these things. No one will escape giving his account for what God has given him. So, while there is time and opportunity, we will do well to rectify whatever needs to be corrected in our outlook and behavior towards what God has given us; and live a life of obedience to Him for our good, our blessings, and to remain safe from Satan and his devices.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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