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कलीसिया को समझना – 2
पिछले लेख में हमने देखा था कि, बाइबल के अनुसार, प्रभु यीशु मसीह की कलीसिया कोई भवन, या कोई विशेष डिनॉमिनेशन अथवा समुदाय नहीं है। वरन, कलीसिया, बिना समय अथवा स्थान के किसी भी अंतर के, मसीहियत के आरंभ से लेकर अभी तक के, सारे सँसार भर के सभी वास्तव में नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों का एक समूह है; चाहे वे एक दूसरे से कभी मिले हों अथवा नहीं, एक दूसरे को जाना हो अथवा नहीं, एक दूसरे के साथ संगति की हो अथवा नहीं। किसी भी भौगोलिक स्थान पर विद्यमान कोई भी स्थानीय कलीसिया इसी विश्व-व्यापी कलीसिया का ही एक अंग है, और प्रत्येक मसीही विश्वासी उसी सम्पूर्ण का एक भाग है। प्रभु परमेश्वर की यह वास्तविक कलीसिया, जैसा प्रभु यीशु ने पतरस से मत्ती 16:18 में कहा है, मनुष्यों के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं प्रभु यीशु ही के द्वारा बनाई गई है; वह किसी भी डिनॉमिनेशन या समुदाय के अनुसार विभाजित नहीं है, और न ही उस में ऐसे किसी विभाजन का कोई महत्व अथवा स्थान है। हमने यह भी देखा था कि प्रभु परमेश्वर अपनी कलीसिया के प्रति बहुत कड़ाई से मालिकाना अधिकार रखता और जताता है, और यदि कोई उसकी कलीसिया या कलीसिया के किसी सदस्य को कोई हानि या कष्ट पहुँचता है, उस से दुर्व्यवहार करता है, तो प्रभु उसे हल्के में नहीं लेता है।
बाइबल में कलीसिया का वर्णन करने के लिए, उसके विभिन्न पक्षों को समझाने, उसके गुणों को बताने, और उसकी कार्यों को दर्शाने के लिए कुछ रूपक उपयोग किये गए हैं। कलीसिया के लिए, जैसा 2 कुरिन्थियों 6:16 में लिखा गया है, प्रयुक्त एक रूपक है कि वह जीवते परमेश्वर का मन्दिर है “और मूरतों के साथ परमेश्वर के मन्दिर का क्या सम्बन्ध? क्योंकि हम तो जीवते परमेश्वर का मन्दिर हैं; जैसा परमेश्वर ने कहा है कि मैं उन में बसूंगा और उन में चला फिरा करूंगा; और मैं उन का परमेश्वर हूंगा, और वे मेरे लोग होंगे।” यहाँ पर, इस पद में ध्यान कीजिए कि बहुवचन शब्द ‘हम’, ‘लोग’ का उपयोग किया गया है, अर्थात, चाहे व्यक्तिगत रीति से एक विश्वासी हो, अथवा सामूहिक रूप से मण्डली हो, प्रभु की कलीसिया का प्रत्येक अंग (यह किसी समुदाय अथवा डिनॉमिनेशन का सदस्य होने की बात नहीं है) परमेश्वर का मन्दिर है, और परमेश्वर उसमें/उनमें निवास करता है। इस रूपक के द्वारा बाइबल यह दिखाती है कि कलीसिया, अर्थात नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों के समाज को परमेश्वर का घराना, उसका निवास स्थान (इफिसियों 2:19, 22) होना है, और दिखना है।
कलीसिया के स्वरूप को समझाने और दिखाने वाले इन रूपकों को समझना और उनका पालन करना प्रभु की कलीसिया तथा कलीसिया के अन्य सदस्यों के साथ संगति रखने, उनके प्रति भण्डारी होने की ज़िम्मेदारी के निर्वाह के लिए अनिवार्य है। यद्यपि कलीसिया से संबंधित सभी रूपक हमें परमेश्वर तथा उसके बच्चों के प्रति हमारे रवैये और व्यवहार के बारे में महत्वपूर्ण बातें बताते और सिखाते हैं, किन्तु पौलुस में होकर पवित्र आत्मा ने परमेश्वर का मंदिर होने, उसका निवास स्थान होने के इस रूपक को तीन बार उपयोग किया है, (1 कुरिन्थियों 3:16-17; 6:18-20; 2 कुरिन्थियों 6:16-18), सचेत करने के लिए कलीसिया के प्रति कोई अभद्र व्यवहार न किया जाए। इसलिए, प्रत्येक विश्वासी को इस हमेशा बने रहने वाले एहसास के साथ जीना चाहिए कि परमेश्वर सदैव उसके अंदर निवास करता है। विश्वासी जो देखता, बोलता, और सुनता है, परमेश्वर भी उसे देखता और सुनता है; जहाँ कहीं भी विश्वासी जाता है, परमेश्वर भी जाता है; और विश्वासी अपनी देह के साथ जो कुछ भी करता है, वास्तव में वह परमेश्वर के मंदिर के साथ वैसा कर रहा है। और एक दिन उसे इन सभी बातों, अर्थात, उसने परमेश्वर के मंदिर के साथ कैसा व्यवहार, उसका कैसा उपयोग किया का हिसाब परमेश्वर को देना होगा, और उसके अनुसार उसका न्याय होगा (2 कुरिन्थियों 5:10; 1 पतरस 4:17), उद्धार के लिए नहीं, किन्तु अनन्तकालीन प्रतिफलों के लिए।
अगले लेख से हम प्रभु यीशु की कलीसिया के लिए उपयोग किये गए विभिन्न रूपकों और उनके तात्पर्यों को देखना आरंभ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Understanding the Church – 2
In the previous article we have seen that Biblically speaking, the Church of the Lord Jesus Christ is not a building, nor is it a particular denomination or sect. Rather the Church is the singular collective body of the actually Born-Again Christian Believers, all over the world, across time, since the beginning of Christianity till date, whether or not they have met, or known, or fellowshipped with each other. The local Church at any geographical place, is one part of this whole universal Church, and every Christian Believer is a smaller part of that whole. This actual Church of the Lord God, as the Lord Jesus said to Peter in Matthew 16:18, is built by the Lord Jesus, and not by men; it is not divided into any denominations or sects, which are all man-made, not God given or God-created; and neither do any such denominational divisions have any importance or place in the Church of the Lord Jesus Christ. We also saw that the Lord God is very possessive of His Church, and does not take it lightly if anyone causes any hurt or harm to His Church or in any manner mistreats its constituent members.
In the Bible, some metaphors have been used to describe the Church, to explain its various aspects, characteristics, and functions. One of the metaphors for the Church, i.e., the community of the Christian Believer's in a locality, as stated in 2 Corinthians 6:16 is that it is the Temple of the living God “And what agreement has the temple of God with idols? For you are the temple of the living God. As God has said: "I will dwell in them And walk among them. I will be their God, And they shall be My people."” Here, in this verse, take note of the plural – ‘them,’ ‘people,’ i.e., whether individually as a Believer, or collectively as the congregation, every member of the Lord’s Church (this is not about being members of any sect or denomination) is the Temple of God, and God always dwells in him/them. Through this metaphor the Bible shows that the Church, i.e., the community of Born-Again Christian Believers is to be, and should be seen as a household, a dwelling place of God as it says in Ephesians 2:19, 22.
Understanding and obeying these metaphorical concepts of what a Church is, is of paramount importance in fulfilling stewardship responsibilities regarding the Church, and fellowshipping with God's children. Although, all the various metaphors of the Church have important things to teach us about our attitude and behavior towards God and His children, but the Holy Spirit through Paul, has particularly used this metaphor of God’s Temple or dwelling place to thrice caution against wayward behavior regarding the Church (1 Corinthians 3:16-17; 6:18-20; 2 Corinthians 6:16-18). Therefore, every Believer should live with the constant realization that God is dwelling in him or her; God sees and hears whatever the Believer sees, says, and hears; God goes wherever the Believer goes, and whatever the Believer does to his body, he is actually doing it to God’s Temple; and one day he will be called to give an account of all of this, i.e., how he has handled and used God’s Temple, to God, and will be and judged accordingly (2 Corinthians 5:10; 1 Peter 4:17), not for salvation, but for eternal rewards.
From the next article we will look up the various metaphors used in the Bible for the Church of the Lord Jesus Christ, and what they imply.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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