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रविवार, 31 दिसंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 126 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 2

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कलीसिया को समझना – 2

 

    पिछले लेख में हमने देखा था कि, बाइबल के अनुसार, प्रभु यीशु मसीह की कलीसिया कोई भवन, या कोई विशेष डिनॉमिनेशन अथवा समुदाय नहीं है। वरन, कलीसिया, बिना समय अथवा स्थान के किसी भी अंतर के, मसीहियत के आरंभ से लेकर अभी तक के, सारे सँसार भर के सभी वास्तव में नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों का एक समूह है; चाहे वे एक दूसरे से कभी मिले हों अथवा नहीं, एक दूसरे को जाना हो अथवा नहीं, एक दूसरे के साथ संगति की हो अथवा नहीं। किसी भी भौगोलिक स्थान पर विद्यमान कोई भी स्थानीय कलीसिया इसी विश्व-व्यापी कलीसिया का ही एक अंग है, और प्रत्येक मसीही विश्वासी उसी सम्पूर्ण का एक भाग है। प्रभु परमेश्वर की यह वास्तविक कलीसिया, जैसा प्रभु यीशु ने पतरस से मत्ती 16:18 में कहा है, मनुष्यों के द्वारा नहीं बल्कि स्वयं प्रभु यीशु ही के द्वारा बनाई गई है; वह किसी भी डिनॉमिनेशन या समुदाय के अनुसार विभाजित नहीं है, और न ही उस में ऐसे किसी विभाजन का कोई महत्व अथवा स्थान है। हमने यह भी देखा था कि प्रभु परमेश्वर अपनी कलीसिया के प्रति बहुत कड़ाई से मालिकाना अधिकार रखता और जताता है, और यदि कोई उसकी कलीसिया या कलीसिया के किसी सदस्य को कोई हानि या कष्ट पहुँचता है, उस से दुर्व्यवहार करता है, तो प्रभु उसे हल्के में नहीं लेता है।


    बाइबल में कलीसिया का वर्णन करने के लिए, उसके विभिन्न पक्षों को समझाने, उसके गुणों को बताने, और उसकी कार्यों को दर्शाने के लिए कुछ रूपक उपयोग किये गए हैं। कलीसिया के लिए, जैसा 2 कुरिन्थियों 6:16 में लिखा गया है, प्रयुक्त एक रूपक है कि वह जीवते परमेश्वर का मन्दिर है “और मूरतों के साथ परमेश्वर के मन्दिर का क्या सम्बन्ध? क्योंकि हम तो जीवते परमेश्वर का मन्दिर हैं; जैसा परमेश्वर ने कहा है कि मैं उन में बसूंगा और उन में चला फिरा करूंगा; और मैं उन का परमेश्वर हूंगा, और वे मेरे लोग होंगे।” यहाँ पर, इस पद में ध्यान कीजिए कि बहुवचन शब्द ‘हम’, ‘लोग’ का उपयोग किया गया है, अर्थात, चाहे व्यक्तिगत रीति से एक विश्वासी हो, अथवा सामूहिक रूप से मण्डली हो, प्रभु की कलीसिया का प्रत्येक अंग (यह किसी समुदाय अथवा डिनॉमिनेशन का सदस्य होने की बात नहीं है) परमेश्वर का मन्दिर है, और परमेश्वर उसमें/उनमें निवास करता है। इस रूपक के द्वारा बाइबल यह दिखाती है कि कलीसिया, अर्थात नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों के समाज को परमेश्वर का घराना, उसका निवास स्थान (इफिसियों 2:19, 22) होना है, और दिखना है।


    कलीसिया के स्वरूप को समझाने और दिखाने वाले इन रूपकों को समझना और उनका पालन करना प्रभु की कलीसिया तथा कलीसिया के अन्य सदस्यों के साथ संगति रखने, उनके प्रति भण्डारी होने की ज़िम्मेदारी के निर्वाह के लिए अनिवार्य है। यद्यपि कलीसिया से संबंधित सभी रूपक हमें परमेश्वर तथा उसके बच्चों के प्रति हमारे रवैये और व्यवहार के बारे में महत्वपूर्ण बातें बताते और सिखाते हैं, किन्तु पौलुस में होकर पवित्र आत्मा ने परमेश्वर का मंदिर होने, उसका निवास स्थान होने के इस रूपक को तीन बार उपयोग किया है, (1 कुरिन्थियों 3:16-17; 6:18-20; 2 कुरिन्थियों 6:16-18), सचेत करने के लिए कलीसिया के प्रति कोई अभद्र व्यवहार न किया जाए। इसलिए, प्रत्येक विश्वासी को इस हमेशा बने रहने वाले एहसास के साथ जीना चाहिए कि परमेश्वर सदैव उसके अंदर निवास करता है। विश्वासी जो देखता, बोलता, और सुनता है, परमेश्वर भी उसे देखता और सुनता है; जहाँ कहीं भी विश्वासी जाता है, परमेश्वर भी जाता है; और विश्वासी अपनी देह के साथ जो कुछ भी करता है, वास्तव में वह परमेश्वर के मंदिर के साथ वैसा कर रहा है। और एक दिन उसे इन सभी बातों, अर्थात, उसने परमेश्वर के मंदिर के साथ कैसा व्यवहार, उसका कैसा उपयोग किया का हिसाब परमेश्वर को देना होगा, और उसके अनुसार उसका न्याय होगा (2 कुरिन्थियों 5:10; 1 पतरस 4:17), उद्धार के लिए नहीं, किन्तु अनन्तकालीन प्रतिफलों के लिए।


    अगले लेख से हम प्रभु यीशु की कलीसिया के लिए उपयोग किये गए विभिन्न रूपकों और उनके तात्पर्यों को देखना आरंभ करेंगे।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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English Translation

Understanding the Church – 2

 

    In the previous article we have seen that Biblically speaking, the Church of the Lord Jesus Christ is not a building, nor is it a particular denomination or sect. Rather the Church is the singular collective body of the actually Born-Again Christian Believers, all over the world, across time, since the beginning of Christianity till date, whether or not they have met, or known, or fellowshipped with each other. The local Church at any geographical place, is one part of this whole universal Church, and every Christian Believer is a smaller part of that whole. This actual Church of the Lord God, as the Lord Jesus said to Peter in Matthew 16:18, is built by the Lord Jesus, and not by men; it is not divided into any denominations or sects, which are all man-made, not God given or God-created; and neither do any such denominational divisions have any importance or place in the Church of the Lord Jesus Christ. We also saw that the Lord God is very possessive of His Church, and does not take it lightly if anyone causes any hurt or harm to His Church or in any manner mistreats its constituent members.


    In the Bible, some metaphors have been used to describe the Church, to explain its various aspects, characteristics, and functions. One of the metaphors for the Church, i.e., the community of the Christian Believer's in a locality, as stated in 2 Corinthians 6:16 is that it is the Temple of the living God “And what agreement has the temple of God with idols? For you are the temple of the living God. As God has said: "I will dwell in them And walk among them. I will be their God, And they shall be My people."” Here, in this verse, take note of the plural – ‘them,’ ‘people,’ i.e., whether individually as a Believer, or collectively as the congregation, every member of the Lord’s Church (this is not about being members of any sect or denomination) is the Temple of God, and God always dwells in him/them. Through this metaphor the Bible shows that the Church, i.e., the community of Born-Again Christian Believers is to be, and should be seen as a household, a dwelling place of God as it says in Ephesians 2:19, 22.


    Understanding and obeying these metaphorical concepts of what a Church is, is of paramount importance in fulfilling stewardship responsibilities regarding the Church, and fellowshipping with God's children. Although, all the various metaphors of the Church have important things to teach us about our attitude and behavior towards God and His children, but the Holy Spirit through Paul, has particularly used this metaphor of God’s Temple or dwelling place to thrice caution against wayward behavior regarding the Church (1 Corinthians 3:16-17; 6:18-20; 2 Corinthians 6:16-18). Therefore, every Believer should live with the constant realization that God is dwelling in him or her; God sees and hears whatever the Believer sees, says, and hears; God goes wherever the Believer goes, and whatever the Believer does to his body, he is actually doing it to God’s Temple; and one day he will be called to give an account of all of this, i.e., how he has handled and used God’s Temple, to God, and will be and judged accordingly (2 Corinthians 5:10; 1 Peter 4:17), not for salvation, but for eternal rewards.


    From the next article we will look up the various metaphors used in the Bible for the Church of the Lord Jesus Christ, and what they imply.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


 

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शनिवार, 30 दिसंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 125 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 1

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कलीसिया को समझना – 1

 

 

    हम 1 राजाओं 2:2-4 से, अर्थात हाल ही में इस्राएल के राजा बने उसके पुत्र सुलैमान को दाऊद द्वारा दिए गए निर्देशों में से, एक सफल और आशीषित जीवन जीने के सम्बन्ध में सीख रहे हैं। वर्तमान में हम इस खण्ड के पद 3 पर विचार कर रहे हैं, जिसमें दाऊद सुलैमान से उस सभी का योग्य भण्डारी होने के लिए कहता है, जो परमेश्वर ने उसे सौंपा है।


    इसी प्रकार से, पौलुस ने भी 1 कुरिन्थियों 4:1-2 में कहा है कि वह किसी विशिष्ट वरदान या ज़िम्मेदारी का नहीं, बल्कि जो कुछ परमेश्वर ने उसे दिया है, जिस की ज़िम्मेदारी उसे सौंपी है, उस सभी का भण्डारी है; और उसे योग्य भण्डारी बनकर रहना है। क्योंकि हमें यह भी निर्देश दिए गए हैं कि हम मसीह का अनुसरण उसी तरह से करें, जैसे कि पौलुस ने किया (1 कुरिन्थियों 11:1); इसलिए, भण्डारीपन के प्रति जो पौलुस का रवैया था, वही प्रत्येक मसीही विश्वासी का भी होना चाहिए। उसे इस बात के एहसास के साथ जीना और काम करना चाहिए कि परमेश्वर की दृष्टि में वह हर उस बात का भण्डारी है जो परमेश्वर ने उसे दी है। हम पहले देख चुके हैं कि प्रत्येक मसीही विश्वासी को परमेश्वर ने कम से कम ये चार बातें तो दी ही हैं:

·        अपना वचन

·        अपना पवित्र आत्मा

·        अपनी कलीसिया तथा अपने अन्य बच्चों की संगति

·        सेवकाई के लिए पवित्र आत्मा का कोई न कोई वरदान


    इन चार में से हमने पिछले लेखों में विश्वासी के परमेश्वर का वचन और पवित्र आत्मा का भण्डारी होने के बारे में देख लिया है; और फिर पिछले सात लेखों में, अभी तक जो कुछ हमने सीखा है, उसका पुनःअवलोकन भी किया है। जैसा हम उपरोक्त सूची में देखते हैं, तीसरी बात है परमेश्वर की कलीसिया और परमेश्वर की अन्य बच्चों के साथ संगति।


    बाइबल में “कलीसिया” शब्द का सबसे पहला उपयोग मत्ती 16:18 में हुआ है, जहाँ पर प्रभु यीशु कहता है कि वह ही अपनी कलीसिया बनाएगा। यहाँ पर मूल यूनानी भाषा में जिस शब्द का उपयोग किया गया है वह है “एक्कलीसिया,” जिसका अंग्रजी अनुवाद “चर्च” और हिन्दी अनुवाद “कलीसिया” किया गया है। इस यूनानी भाषा का शब्दार्थ होता है ‘बुलाया या एकत्रित किया जाना’ या ‘समूह;’ और मसीहियत के संदर्भ में इसका अर्थ ‘यीशु द्वारा छुड़ाए और बुलाए गए लोगों का समूह,’ या, ‘स्वर्ग अथवा पृथ्वी पर, या दोनों ही स्थानों पर, यीशु द्वारा छुड़ाए और बुलाए गए लोगों का समूह।’ अर्थात, परमेश्वर के वचन बाइबल में परिभाषा तथा उपयोग के अनुसार, कलीसिया न तो कोई भवन है, और न ही कोई डिनॉमिनेशन अथवा समुदाय है। वरन, कलीसिया, बिना समय अथवा स्थान के किसी भी अंतर के, मसीहियत के आरंभ से लेकर अभी तक के, सारे सँसार भर के सभी वास्तव में नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों का एक समूह है; चाहे वे एक दूसरे से कभी मिले हों अथवा नहीं, एक दूसरे को जाना हो अथवा नहीं, एक दूसरे के साथ संगति की हो अथवा नहीं। किसी भी भौगोलिक स्थान पर विद्यमान कोई भी स्थानीय कलीसिया इसी विश्व-व्यापी कलीसिया का ही एक अंग है, और प्रत्येक मसीही विश्वासी उसी सम्पूर्ण का एक भाग है। प्रभु परमेश्वर की यह वास्तविक कलीसिया डिनॉमिनेशन या समुदाय के अनुसार विभाजित नहीं है, और न ही उस में ऐसे किसी विभाजन का कोई महत्व अथवा स्थान है।


    इसलिए न तो कलीसिया को किसी व्यक्ति अथवा किसी स्थानीय समूह अथवा किसी भवन के समान देखा जाना चाहिए, वरन उसे वास्तव में नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों के एक ही विश्व-व्यापी समूह के रूप में देखा और समझा जाना चाहिए। इसका एक बहुत गंभीर तथा बहुत महत्वपूर्ण अभिप्राय है कि किसी भी मसीही विश्वासी के साथ किया गया कोई भी व्यवहार, परमेश्वर की दृष्टि में, परमेश्वर की इसी विश्व-व्यापी कलीसिया के साथ किया गया व्यवहार है। उस कलीसिया के साथ, जिसे प्रभु यीशु ने अपने लहू से छुड़ाया और खरीदा है, कलवरी के क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा; और प्रभु उसकी कलीसिया अथवा उसके सदस्यों के साथ किये गए किसी भी दुर्व्यवहार को न तो हल्के में लेता है, और न ही सहन करता है, विशेषकर तब, जब वह जान-बूझ कर या यह तथ्य पता होते हुए भी किया गया हो।


    अगले लेख में हम प्रभु की कलीसिया और उसके प्रति विश्वासी के भण्डारी होने के बारे में यहाँ से आगे देखेंगे।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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English Translation

Understanding the Church – 1

   

    We are studying about leading a successful and blessed life as Born-Again Christian Believers, from 1 Kings 2:2-4, i.e., through the instructions given by David to his son Solomon, recently crowned King of Israel. Presently we are on verse 3 of this passage, where David instructs Solomon to be a steward of all that God has given in his charge.


    Similarly, Paul says in 1 Corinthians 4:1-2, that he is a steward of not just any specific gift or responsibility, but of everything that God has given him, entrusted him with; and he has to be a faithful steward. We have also been instructed to emulate Christ in the same manner as Paul used to emulate Christ (1 Corinthians 11:1). Therefore, Paul’s attitude towards stewardship should also be the attitude of every Christian Believer; he must realize, live, and function knowing that in God’s eyes, he is a steward of everything that has been given to him by God. We have seen that to every Christian Believer, God has given at least four things:

·        His Word

·        His Holy Spirit

·        His Church and Fellowship of His Children

·        Some Gift of the Holy Spirit for their Ministry

    

    Of these four, in the preceding articles, we have seen about the Believer being the steward of God’s Word, and of God the Holy Spirit; and then in the past seven articles, we had recapitulated about what we have learnt so far. As we see in the list above, the third item of stewardship is to be God’s Church and to fellowship with God’s other children.


    The first occurrence of the word “church” in the Bible is in Matthew 16:18, where the Lord Jesus says that He will build His Church. The word used here in the original Greek language is “ekklesia,” and has been translated as “church” in the English language. The Greek word literally means ‘a calling out’ or, an ‘assembly;’ and in context of Christianity it has come to mean, ‘a called-out assembly of the Redeemed of Jesus,’ or, ‘the citizenry of the Redeemed of Jesus whether being on earth or in heaven or both.’ So, by definition and usage, in God’s Word the Bible, the Church is neither a building nor a denomination or sect. But the Church is the singular collective body of the actually Born-Again Christian Believers, all over the world, across time, since the beginning of Christianity till date, whether or not they have met, or known, or fellowshipped with each other. The local Church at any geographical place, is one part of this whole universal Church, and every Christian Believer is a smaller part of that whole. This actual Church of the Lord God is not divided according to any denomination or sect, and neither does any such denomination have any importance or place in it.


    Therefore, the Church must be seen and understood not just as one individual, nor as any local Assembly, nor any building, but it must be seen as one world-wide corporate body made up of the truly Born-Again Christian Believers. A serious and very important implication of this fact is that anything done to a Christian Believer, in God’s eyes, is done to this universal Church of God, which the Lord Jesus has redeemed and purchased with His blood, through His sacrifice on the Cross of Calvary; and the Lord does not take lightly or tolerate any wrong done to His Church, or its members; and that too deliberately or despite knowing this fact.


    In the next article, we will carry on from here about our understanding the Lord’s Church and a Believer’s stewardship towards it.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


 

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शुक्रवार, 29 दिसंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 125 – Recapitulation / संक्षिप्त पुनःअवलोकन – 7

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पुनःअवलोकन – 7

 

    हमने अभी तक 1 राजाओं 2:2-4 से एक सफल और आशीषित जीवन जीने के लिए सीखा है, उसी का पुनःअवलोकन कर रहे हैं। वर्तमान में हम यह पुनःअवलोकन कर रहे हैं कि प्रत्येक नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए प्रावधानों का भण्डारी है, जिसमें परमेश्वर की पवित्र आत्मा भी सम्मिलित है। हमने देखा था कि यद्यपि परमेश्वर पवित्र आत्मा उन्हें परमेश्वर की ओर से दिया गया शिक्षक है, कि उनको परमेश्वर का वचन सिखाए, लेकिन फिर भी अधिकांश विश्वासी उस से नहीं सीखते हैं; किन्तु मनुष्यों और उनकी रचनाओं पर निर्भर करते हैं। आज हम इस पुनःअवलोकन को इस बात के साथ समाप्त करेंगे के पवित्र आत्मा का भण्डारी होने के नाते, विश्वासी को किस तरह से पवित्र आत्मा से सीखना है, और इससे संबंधित तीन बहुत महत्वपूर्ण बातों को हम ध्यान करेंगे कि परमेश्वर पवित्र आत्मा से कैसे सीखा जाए।

    परमेश्वर ने अपना वचन हमें इसलिए दिया है कि हम यत्न से उसका पालन करें (भजन 119:4)। जब हम परमेश्वर के वचन को पालन करने के लिए प्रतिबद्ध होते हैं, तो वह स्वयं उसे हमें सिखाता है (भजन 119:102)। जब हम उसका पालन करते हैं तो वचन हमें पाप करने से रोकता है (भजन 119:9, 11), हमें परमेश्वर के मार्ग दिखाता है (भजन 119:105), और हमें बुद्धिमान बनाता है (भजन 119:98-100)। मूल आवश्यकता है, विश्वासी में परमेश्वर से सीखने की लालसा होनी चाहिए (भजन 25:4), फिर परमेश्वर अपना वचन पापियों को भी सिखाएगा यदि वे उसके सामने विनम्र हों (भजन 25:8-9)। परमेश्वर लोगों को, जैसा उस ने उनके लिए उसने चुना है, उसके अनुसार सिखाता है (भजन 25:12), अर्थात, उस सेवकाई के अनुसार जो उसने उनके लिए निर्धारित की है (इफिसियों 2:10)। संक्षेप में, परमेश्वर ने अपना वचन हमें इसलिए दिया है कि हम उसे सीखें, वह चाहता है कि हम उसे सीखें। और वह स्वयं हमें सिखाना भी चाहता है, अपनी प्रत्येक सँतान को व्यक्तिगत रीति से, अगर वो उस से सीखने के लिए प्रतिबद्ध, और पर्याप्त प्रयास करने वाले हों।

विश्वासी द्वारा परमेश्वर का वचन नहीं सीख पाना:

    यद्यपि पवित्र आत्मा विश्वासी में निवास करता है, फिर भी विश्वासी उस से परमेश्वर का वचन नहीं सीखने पाते हैं। इसके मुख्यतः तीन कारण है:

  • पहला, विश्वासी के द्वारा परमेश्वर के वचन को पढ़ने और सीखने के लिए पर्याप्त समय नहीं देना। ऐसा विश्वासी का पवित्र आत्मा से सीखने, उस के निर्देशों को जानने और मानने के प्रति प्रतिबद्ध न होने के कारण होता है। क्योंकि उसकी प्राथमिकताएँ सँसार की बातों के बारे में सीखने, उनका निर्वाह करने, और भौतिक लाभ कमाने की होती हैं, इसलिए वह आत्मिक बातों तथा परमेश्वर के वचन के प्रति लापरवाह होता है।

  • दूसरा है विश्वासी में परमेश्वर के वचन के पर्याप्त भण्डार या संग्रह का न होना। पवित्र आत्मा विश्वासियों को व्यावहारिक रीति से सिखाता है, परिस्थिति के अनुसार उन्हें उन में विद्यमान परमेश्वर का वचन स्मरण करवाने के द्वारा, उन के अंदर से वचन को लेकर उसे उन के समक्ष लाने के द्वारा (यूहन्ना 14:26; 16:13-15)। किन्तु, यदि उपरोक्त कारणों से, विश्वासी के अंदर वचन का पर्याप्त भंडार अथवा संग्रह नहीं है, मात्रा और विभिन्नता, दोनों में ही, तो फिर पवित्र आत्मा के पास विश्वासी को स्मरण दिलाने या उसके समक्ष लाने के लिए पर्याप्त वचन उपलब्ध ही नहीं होगा।

  • तीसरा है, विश्वासी सामान्यतः पवित्र आत्मा की शिक्षाओं के साथ उन्हें पहले मिली हुई मानवीय शिक्षाओं को, जिन पर वे भरोसा करते आए हैं, मिलाना चाहते हैं; अर्थात, वे परिशुद्ध और पूर्णतः सत्य के साथ त्रुटिपूर्ण और साँसारिक बातों की मिलावट वाली बातों को मिश्रित करना चाहते हैं; और पवित्र आत्मा कभी इस के साथ सहमत नहीं होगा। वह प्रतीक्षा करता है कि विश्वासी इस बात की मूर्खता को पहचानें, और केवल उसी पर निर्भर होने वाले बनें, न कि उसका और उसकी शिक्षाओं का उपयोग मनुष्यों और उन की बातों के साथ जोड़ने भर के लिए करें।

 पवित्र आत्मा की शिक्षाओं के गुण:

  • पहला, परमेश्वर पवित्र आत्मा सत्य का आत्मा है (यूहन्ना 14:17; 15:26;16:13), इसलिए वह जो भी कहेगा और करेगा उसमें कभी भी कुछ भी असत्य नहीं होगा, अर्थात कुछ भी ऐसा नहीं होगा जो बाइबल के अनुसार सही नहीं है। एक प्रकार का बहुधा देखा जाने वाला असत्य है बाइबल के शब्दों और वाक्यांशों को लेकर उन्हें ऐसे अर्थों और तात्पर्यों के साथ उपयोग करना जो बाइबल से बाहर के हैं, अर्थात उन्हें उन बातों के लिए उपयोग करना जो बाइबल में उनके लिए नहीं दी गई हैं।

  • दूसरा, जैसा ऊपर कहा गया है, पवित्र आत्मा परिस्थिति के अनुसार व्यावहारिक शिक्षा प्रदान करता है, वह स्मरण दिलाकर जो प्रभु यीशु ने कहा है (यूहन्ना 14:26), और परिस्थिति के अनुसार, प्रभु के कहे हुए को लेकर समक्ष लाता है (यूहन्ना 16:13-15); किन्तु वह कभी भी अपनी ओर से कोई नई बात नहीं बोलता या सिखाता है। इसलिए ऐसी कोई भी शिक्षा जो बाइबल का सत्य नहीं है, जिस का उल्लेख बाइबल में नहीं किया गया है, लेकिन जो बाइबल के लिखे हुए में जोड़ी जा रही है, और जिस भी बात के अर्थ, अभिप्राय, और व्यवहारिक उपयोग जो पहले से लिख दिया गया है, उस से बाहर जा रहा है (1 कुरिन्थियों 4:6), वह पवित्र आत्मा की ओर से नहीं है।

 

शिक्षाओं की पहचान करना कि वे बाइबल के अनुसार सही हैं अथवा नहीं:

    हम यह कैसे पहचान तथा समझ सकते हैं कि जो प्रचार किया और सिखाया जा रहा है, वह बाइबल के अनुसार सही है अथवा नहीं?

  • सबसे पहला काम जो करना अनिवार्य है वह है इस गलतफहमी से बाहर निकालना कि जो प्रचारक तथा शिक्षक जाने-माने और बहुत ख्याति प्राप्त हैं, जिनकी बहुत प्रशंसा और आदर होता है, जिनके बहुत अनुयायी हैं, वे कभी गलत नहीं हो सकते हैं; इसलिए उनकी कही हर बात पर अँध-विश्वास करते हुए, जो और जैसा उन्होंने कहा है, उसे वैसे ही स्वीकार कर के माना जा सकता है, बिना वचन से उसे जाँचे और उसकी पुष्टि किये हुए। यह अँध-विश्वास सर्वथा गलत धारणा है, और सही-गलत की पहचान में बहुत बड़ी बाधा है।

  • दूसरी बात, दी जा रही प्रत्येक शिक्षा को जाँच के देखना चाहिए कि क्या वह जो वचन में पहले से लिखा गया है उस वचन से बाहर तो नहीं जा रही है (1 कुरिन्थियों 4:6)? यह करना मण्डली के अगुवों की विशेष ज़िम्मेदारी है (1 कुरिन्थियों 14:29)।

  • तीसरा, उस शिक्षा के अर्थ, अभिप्राय, और व्यवहारिक उपयोगों को जाँच-परख कर देख लेना चाहिए कि वे बाइबल में भी ठीक वैसे ही लिखे और उपयोग किये गए हैं जैसा वह प्रचारक और शिक्षक उन के लिए कह रहा है। कहीं प्रचारक या शिक्षक बाइबल में लिखे हुए से भिन्न अर्थों, अभिप्रायों, और व्यावहारिक उपयोगों के साथ तो उन्हें नहीं सिखा रहा है? यदि वह ऐसा कर रहा है तो वह बाइबल के अनुसार सहीं नहीं है।

  • और, चौथा, यह देखना चाहिए कि उस शिक्षा को बाइबल में भी उन्हीं अर्थों, अभिप्रायों, और व्यावहारिक उपयोगों के साथ उपयोग किया गया है, जैसा कि प्रचार किया और सिखाया जा रहा है; अर्थात, बाइबल में भी उस तरह से उसके उपयोग के उदाहरण दिए गए हैं। यदि उन अर्थों, अभिप्रायों, और व्यावहारिक उपयोगों के कोई उद्धरण नहीं हैं, तो वह बाइबल के अनुसार सही शिक्षा नहीं है, और उसे न तो स्वीकार करना चाहिए, और न ही उसका पालन करना चाहिए।

    जिस भी शिक्षा में ये बातें नहीं हैं, वह बाइबल के अनुसार सही नहीं है, उस से बच कर रहना चाहिए, चाहे उसे बताने और सिखाने वाला कोई भी क्यों न हो, और वह चाहे कितनी भी आकर्षक, मनोहर, भक्तिपूर्ण, और तर्कसंगत क्यों न प्रतीत हो।

    अगले लेख से हम मसीही विश्वासी के परमेश्वर के प्रावधानों का योग्य भण्डारी होने की तीसरी ज़िम्मेदारी को देखना आरंभ करेंगे, अर्थात, उसके परमेश्वर की उस कलीसिया तथा मसीही विश्वासियों के परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति भण्डारी होना, जहाँ पर परमेश्वर ने उसे रखा है।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation

Recapitulation – 7

    

    We are recapitulating what we have learnt from 1 Kings 2:2-4 so far, for living a blessed and successful life. Presently, we are recapitulating about every Born-Again Christian Believer being a steward of the provisions God has given to him, including God’s Holy Spirit, to reside in him. We had seen that the though God the Holy Spirit is their God given Teacher, to teach them God’s Word, but still, most Believers do not learn from Him, but rely upon men and their works. Today we will conclude this recapitulation about the Believer’s stewardship of God the Holy Spirit, by reminding ourselves about three very important things related to learning from God the Holy Spirit.

    God has given us His Word so that we may diligently obey it (Psalm 119:4). As we commit ourselves to obey God’s Word, He Himself teaches it to us (Psalm 119:102). When we obey it, then it keeps us from sinning (Psalm 119:9, 11), shows us God’s ways, (Psalm 119:105), and makes us wise (Psalm 119:98-100). The basic requirement is a desire to learn from God (Psalm 25:4); then, God will teach His Word to even the sinners, if they humble themselves before Him (Psalm 25:8-9). God teaches the people according to the way He has chosen for them (Psalm 25:12), i.e., according to the ministry He has kept for them (Ephesians 2:10). To summarize, God has given us His Word so that we should learn it, He wants us to learn it, and He wants to teach it to us, individually and directly to each and every one of His children, provided they are willing to be committed to learning and to put in the requisite efforts for it.

 

The inability of a Believer to learn God’s Word:

    Despite the Holy Spirit residing in him, the Believer is unable to learn God’s Word mainly because of three things:

  • First, Believer’s lack of giving adequate time to read and study God’s Word. This usually is due to the Believer’s not being committed enough to follow and obey the instructions of the Holy Spirit, to learn from Him. Because his priorities are more towards learning about, managing and gaining, the things of the world, therefore, he neglects the Word of God and spiritual things.

  • Second, is the lack of an adequate ‘stock’ or ‘reservoir’ of God’s Word available within the Believer. The Holy Spirit teaches the Believers practically, by bringing to their remembrance God’s Word that is present within them, taking the Word that is inside them and declaring it to them, as per the requirements of the situation (John 14:26; 16:13-15). But if due the reason stated above, there is not enough of the Word available in the Believer, in variety and quantity, the Holy Spirit will not have enough in hand to bring the appropriate Word to remembrance or declare it to the Believer.

  • Third is that Believers often want to mix up and amalgamate man’s teachings that they have earlier received and have been relying upon, with the teachings given by the Holy Spirit to them; i.e., they want to mix up the impure with the pure, and the Holy Spirit will never be a party to that. He waits for the Believers to realize the folly of doing this, and rely only on Him, instead of using Him as something to tag along human teachings.

 

The Characteristics of the Holy Spirit’s Teachings:

  • Firstly, God the Holy Spirit is the Spirit of Truth (John 14:17; 15:26; 16:13) therefore, in all that He says and does, there will never be anything that is not the truth, i.e., that is not Biblically true. One form of “non-truth” is using Biblical words and phrases with extra-Biblical meanings and uses; i.e., using them in a manner and to convey meanings and things not mentioned in the Bible for them.

  • Secondly, as stated above, the Holy Spirit teaches practically as per the situation, by reminding about what the Lord has said (John 14:26), and taking and declaring what the Lord has said (John 16:13-15) related to the situation at hand; but He never ever speaks anything new on His own authority. Therefore, any preaching or teaching that is not the Biblical truth, anything that is not already mentioned in the Bible, but is being added to the Biblical text, and anything that in its meanings, implications, application is going beyond what has already been written (1 Corinthians 4:6), even if it is only in thinking, is not from the Holy Spirit.

 

Discerning Teachings to be Biblically True or False:

    How can we discern and understand whether what is being preached and taught is Biblical or not?

  • The first thing to do is to come out of the assumption that the preachers and teachers who are well-reputed, are well-known and famous, are highly acclaimed, have a large following, they can never be wrong; therefore, whatever they say can be blindly believed upon and accepted as it is, without cross-checking from God’s Word. This kind of blind faith is a very wrong notion, and is a big impediment in discerning right from wrong.

  • Secondly, every teaching being given should be examined to see if it in any way is going beyond the written Word (1 Corinthians 4:6)? This is especially the responsibility of the Church Elders (1 Corinthians 14:29).

  • Thirdly, the meanings, implications, and practical applications of that teaching should be checked out from the Scriptures, whether or not they have been written and taught in the Bible just the same as the preacher and teacher is stating them; or is the preacher saying something different from what actually has been given in the Bible?

  • And fourthly, it should be checked whether that teaching has been used in the Bible with the meanings, implications, and applications as is being preached and taught; i.e., are there any examples in the Bible of its use in the same way as is being preached and taught. If there are no examples of this happening, then it is not a Biblically true teaching and is not to be accepted or followed.

Any teaching that does not fulfil these requirements is not Biblical, should not be accepted; no matter who it is who is preaching and teaching it; no matter how appealing, attractive, pious, and logical it may seem.

    From the next article we will take up the third point of Believer’s stewardship, his being the steward of God’s Church and family of other Believers, where God has placed him.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 124 – Recapitulation / संक्षिप्त पुनःअवलोकन – 6

Click Here for the English Translation

पुनःअवलोकन – 6


    एक सफल और आशीषित जीवन जीने के बारे में अभी तक जो हमने 1 राजाओं 2:2-4 से सीखा है, हम उसका पुनःअवलोकन कर रहे हैं । इसके अंतर्गत, अभी हम नया जन्म पाए हुए मसीह विश्वासियों के द्वारा परमेश्वर द्वारा उन्हें दिए गए प्रावधानों, जिनमें उन में निवास करने वाला परमेश्वर पवित्र आत्मा भी सम्मिलित है, के योग्य भण्डारी होने के बारे में पुनःअवलोकन कर रहे हैं। आज हम परमेश्वर पवित्र आत्मा के बारे में आगे पुनःअवलोकन करेंगे।

    विश्वासी की जिम्मेदारी: हम यूहन्ना 14:17 से देखते हैं कि सँसार ना तो पवित्र आत्मा को जान सकता है, और ना ही उसे प्राप्त कर सकता है। लेकिन विश्वासी उसे जानते हैं, वह उन में निवास करता है, और उन्हें परमेश्वर का कार्य करने के लिए सामर्थ्य देता है ताकि वे परमेश्वर द्वारा उन्हें दी गई सेवकाई को निभा सकें। इसलिए जैसा 2 राजाओं 7:3-9 में लिखा है कि अकाल की समय में चार कोढ़ियों ने इस बात का एहसास किया कि वे बहुतायत से भोजन के उपलब्ध होने के सुसमाचार को दूसरों से छिपाए नहीं रख सकते हैं, इसी तरह से आत्मिक जीवन के अकाल के इस समय में पवित्र आत्मा के द्वारा सफल और आशीषित जीवन के उपलब्ध होने की बात लोगों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी भी नया-जन्म पाए हुए मसीह विश्वासी की है।

    पवित्र आत्मा प्राप्त करना: बाइबल हमें सिखाती है कि परमेश्वर अपने बच्चों को अपना पवित्र आत्मा उन का नया-जन्म होते ही, जैसे ही वो प्रभु यीशु में विश्वास करते हैं, उसे अपना उद्धारकर्ता ग्रहण करते हैं, तुरंत ही और स्वतः ही दे देता है (प्रेरितों 19:2; 1 कुरिन्थियों 12:3; गलतियों 3:2, 14; इफिसियों 1:13)। बाइबल यह भी स्पष्ट सिखाती है कि पवित्र आत्मा परमेश्वर द्वारा दिया जाता है (यूहन्ना 14:16)। उसे परमेश्वर से जबरन मांगा नहीं जाता है, और ना ही किसी विशेष प्रयास के द्वारा प्राप्त किया जाता है, जैसा कि कुछ डिनॉमिनेशन और समुदाय के लोग सिखाते हैं।

    पवित्र आत्मा को देखना और जानना: पवित्र आत्मा कभी भी भौतिक या शारीरिक रूप में प्रकट नहीं होता है। वह सँसार के सामने, उसके द्वारा उन लोगों के जीवनों में लाए गए प्रभावों से प्रकट होता है, जिन में वह निवास करता है (यूहन्ना 3:8), अर्थात, मसीह के शिष्य या मसीही विश्वासी। जैसा 2 कुरिन्थियों 3:18 में लिखा है, वह धीरे-धीरे, या अंश-अंश करके विश्वासियों को प्रभु की समानता में बदलता जाता है। इसलिए, विश्वासी के जीवन में यह निरंतर चलते रहने वाला परिवर्तन इस बात का प्रमाण है कि पवित्र आत्मा वास्तविक है और उस विश्वासी के जीवन में काम भी कर रहा है।

    अन्य भाषाएँ प्रमाण नहीं है: वे लोग जो पवित्र आत्मा के बारे में गलत शिक्षाएं और सिद्धांत सिखाते हैं, वे इस बात पर बल देते हैं कि विश्वासी में पवित्र आत्मा की उपस्थिति उस के अन्य भाषाएं बोलने से प्रमाणित होती है। लेकिन बाइबल के अनुसार यह सही नहीं है, जैसा हम दो बातों से समझ सकते हैं। पहली, क्योंकि बाइबल में दी गयी अन्य भाषाएँ पृथ्वी की ही भाषाएं हैं, न की मुँह से निकाले जाने वाले निरर्थक शब्द और विचित्र आवाज़ें, जिन्हें लोग अन्य भाषा कह देते हैं। और दूसरी, बाइबल में प्रत्येक पवित्र आत्मा पाए हुए व्यक्ति ने अन्य भाषाएँ या अनजानी भाषाएं नहीं बोली हैं। पुराने नियम में किसी ने भी, कभी भी, कोई अन्य भाषा नहीं बोली। और ना ही नए नियम में उन पहले चार लोगों ने जिन्होंने पवित्र आत्मा पाया उसकी सामर्थ्य का अनुभव किया, उन्होंने भी कभी कोई अन्य भाषा नहीं बोली। इन चारों का उल्लेख लूका पहले अध्याय में है, (यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाला, लूका 1:15; मरियम लूका 1:35; इलीशिबा लूका 1:41-42; और ज़कर्याह लूका 1:67)।

    पवित्र आत्मा की उपस्थिति प्रकट करना: मसीही विश्वासी का जीवन उस में विद्यमान पवित्र आत्मा की उपस्थिति को कुछ गुणों के द्वारा प्रकट करता है, जैसे कि:

  • वह निरंतर प्रभु की समानता में बदलता चला जाता है (2 कुरिन्थियों 3:18)।

  • वह मनुष्य पर नहीं, वरन परमेश्वर पवित्र आत्मा पर परमेश्वर का वचन सीखने के लिए निर्भर रहता है (1 यूहन्ना 2:27)।

  • वह शरीर के कामों के लिए जीवन नहीं व्यतीत करता (गलतियों 5:19-21), बल्कि पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता में जीता और चलता है (गलतियों 5:16-25), और अपने जीवन में पवित्र आत्मा की 9 फलों को प्रदर्शित करता है (गलतियों 5:22-23)।

    इसलिए यदि सँसार को पवित्र आत्मा को जानना और पहचानना है, तो मसीही विश्वासी के जीवन से उपरोक्त बातें प्रकट होनी चाहिएँ। ऐसा नहीं कर पाना पवित्र आत्मा के योग्य भण्डारी नहीं होना है। अर्थात, हमारे प्रभु के द्वारा हमें दिए गए तोड़े का, पवित्र आत्मा की सहायता का, सही और उचित उपयोग नहीं करना है। अगले लेख में हम देखेंगे कि विश्वासी पवित्र आत्मा से सीखने की बजाए, सामान्यतः मनुष्यों से और उनकी रचनाओं से सीखने के पीछे क्यों जाते हैं; और साथ ही यह भी देखेंगे कि हम यह कैसे पहचान सकते हैं कि दी गई शिक्षा पवित्र आत्मा की ओर से है कि नहीं? तथा इस पुनःअवलोकन को पूर्ण करेंगे। 

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation

Recapitulation – 6

 

    We are recapitulating what we have learnt from 1 Kings 2:2-4 so far, for living a blessed and successful life. Presently, we are recapitulating about every Born-Again Christian Believer being a steward of the provisions God has given to him, including God’s Holy Spirit, to reside in him. Today we will recapitulate further about the stewardship of God the Holy Spirit.

    The Believer's Responsibility: We learn from John 14:17 that the world can neither receive the Holy Spirit, nor see or know Him. But the Believers know Him, He is with them, in them, empowers them for doing God's work, and for their God given ministry. Therefore, as in 2 Kings 7:3-9, where the four lepers at the time of famine realized they cannot keep the good news of abundant food being freely available to themselves, and it was incumbent upon them to share it with others; similarly in these times of spiritual famine the responsibility of informing about living a blessed and successful life through the Holy Spirit, lies with the Born-Again Christian Believers.

    Receiving the Holy Spirit: The Bible teaches that God automatically gives the Holy Spirit to His children the moment they come to faith in the Lord Jesus and accept Him as their Savior (Acts 19:2; 1 Corinthians 12:3; Galatians 3:2, 14; Ephesians 1:13). The Bible also clearly teaches that the Holy Spirit is given by God (John 14:16). He is not demanded from God, nor obtained through any special efforts, as some denominations and groups would have people to believe.

    Seeing and knowing the Holy Spirit: The Holy Spirit never manifests in a physical form. He is made evident to the world by His effects in the life of those in whom He resides, i.e., the disciples of Christ or the Believers (John 3:8). As is written in 2 Corinthians 3:18, He gradually changes the Believers into the likeness of the Lord. Hence, this continual progressive change in the life of the Believer provides evidence of the Holy Spirit being real and working in a Believer's life.

    Tongues is not the Proof: Those who teach wrong things and doctrines about the Holy Spirit, insist that the proof of the Holy Spirit is the recipient's speaking in tongues. But this is not Biblically true for two reasons, firstly, because Biblical "tongues'' are earthly languages, not gibberish - vain meaningless sounds which these people utter, calling them "tongues''; and secondly, not everyone who received the Holy Spirit in The Bible, spoke in tongues, i.e., unknown languages. No one in the Old Testament did, and the first four persons filled and empowered by the Holy Spirit in the New Testament, all in Luke chapter 1, never ever spoke in tongues (John the Baptist Luke 1:15; Mary Luke 1:35; Elizabeth Luke 1:41-42; Zacharias Luke 1:67).

    Manifesting the Presence of the HS: The life of a Christian Believer manifests the presence of the Holy Spirit in him, through certain characteristics:

  • He progressively keeps changing into the likeness of the Lord (2 Corinthians 3:18).

  • He depends upon the Holy Spirit, not man, to learn the Word of God (1 John 2:27).

  • He does not live for the works of the flesh (Galatians 5:19-21); but lives and walks in obedience to the Holy Spirit (Galatians 5:16, 25), exhibiting the 9 fruits of the Spirit (Galatians 5:22-23) in his life.

    So, if the world has to see and know the Holy Spirit through a Christian Believer, then the Believer's life has to manifest the above. Not doing so is being a poor steward of the Holy Spirit given to us - i.e., the talent given by the Master, is not being put to proper use by His servant, the Holy Spirit is not being utilized worthily. In the next article we conclude this recapitulation by reviewing why Believers usually go for learning from men and their works, instead of learning from the Holy Spirit; and how we can discern whether a particular teaching is from the Holy Spirit or not.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

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