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रविवार, 3 मार्च 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 188 – Always Obedient to God’s Word / सदा परमेश्वर के वचन के आज्ञाकारी - 1

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परमेश्वर के वचन की आज्ञाकारिता – 1  

 
    हमने आशीषित एवं सफल जीवन जीने से सम्बन्धित इस श्रृंखला को दाऊद द्वारा, 1 राजाओं 2:2-4 में, अपने पुत्र सुलैमान को दिए गए निर्देशों पर आधारित किया है। दाऊद सुलैमान को बताता है कि जयवंत बने रहने के लिए उसे परमेश्वर पर अपना पूरा भरोसा बनाए रखना है, परमेश्वर का पूर्णतः आज्ञाकारी और हर बात में उसी पर निर्भर बने रहना है। इसके लिए उसे उन चार बातों का पालन करना होगा, जिनकी रूप रेखा 1 राजाओं 2:2-4 में दी गई है:
1.   तू हियाव बांधकर पुरुषार्थ दिखा” (1 राजाओं 2:2)
2.   जो कुछ तेरे परमेश्वर यहोवा ने तुझे सौंपा है, उसकी रक्षा कर”; अर्थात, वह परमेश्वर द्वारा उसी सौंपी गई बातों का एक अच्छा भण्डारी बने (1 राजाओं 2:3a)
3.   जितनी बातें परमेश्वर के वचन में लिखी हैं, वह उनका आज्ञाकारी बना रहे (1 राजाओं 2:3b)
4.   वह सावधान रहे, और हमेशा प्रभु के प्रति समर्पित बना रहे (1 राजाओं 2:4)
 
    सफल और जयवन्त होने के लिए जो 4 निर्देश सुलैमान के लिए थे, वही प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए भी लागू होते हैं। उनके पालन करने से ही वे अपने मसीही जीवनों में आशीषित एवं सफल तथा परमेश्वर की आशीषों के भागीदार हो सकते हैं, विशेषकर इन अन्त के दिनों में, जब शैतानी शक्तियाँ हम पर, हमारे जीवन के सभी पक्षों पर निरंतर विभिन्न तरह से हमले करने में लगी हुई हैं। इसीलिए हमने इन 4 सिद्धांतों के द्वारा एक समर्पित मसीही जीवन के बारे सीखना आरम्भ किया है, जो परमेश्वर को महिमा और हमें आशीषें प्रदान करता है। हमने अभी तक के लेखों में दाऊद द्वारा सुलैमान को दिए गए पहले दो निर्देशों को देखा है, उन से सीखा है। दूसरे निर्देश में भण्डारी होने के बारे में सीखते हुए हमने देखा है कि परमेश्वर द्वारा उसे प्रदान की गई हर बात के लिए विश्वासी परमेश्वर का भण्डारी है, उसे जवाबदेह है; साथ ही हम ने इस संदर्भ में मसीही विश्वासी का परमेश्वर के वचन, पवित्र आत्मा, परमेश्वर की कलीसिया और अन्य विश्वासियों के साथ सहभागिता, तथा पवित्र आत्मा के वरदानों का भण्डारी होने के बारे में विस्तार से देखा और समझा है। आज हम उपरोक्त 4 निर्देशों में से तीसरे – परमेश्वर और उसके वचन का आज्ञाकारी होने के बारे देखना आरम्भ करेंगे। क्योंकि हम परमेश्वर के वचन के बारे में बहुत सी बातें पहले ही विस्तार से देख चुके हैं, इसलिए हम उन्हें यहाँ पर नहीं दोहराएंगे, बल्कि केवल इस निर्देश के संदर्भ में उन्हें कुछ गहराई से देखेंगे।

    जैसा कि हम जानते हैं, जिस कार्य ने पाप को सँसार और सृष्टि में प्रवेश प्रदान किया, जैसा उत्पत्ति 3:1-6 में लिखा गया है, वह था पहले हव्वा और फिर आदम के द्वारा परमेश्वर के वचन, अर्थात उसके निर्देशों का उल्लंघन करना। जैसा हम उत्पत्ति के इस खण्ड से देखते हैं, यह पाप करने के लिए शैतान ने हव्वा को भरमाया था, उस से अपनी बुद्धि और समझ का सहारा ले कर जो उसे सही लगे उस निर्णय के अनुसार करने, न कि परमेश्वर के कहे का दृढ़ता से पालन करने के लिए उकसाया था। उसके आँकलन के अनुसार उसे वर्जित फल को खा लेना, परमेश्वर के कहे के अनुसार उसे न खाने से अधिक बेहतर लगा, इसलिए उसने परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता की, और पाप कर डाला। बाइबल में पाप की दी गई कई परिभाषाओं में से एक और आधारभूत है पाप का व्यवस्था का विरोध या उल्लंघन होना है (1 यूहन्ना 3:4) – यहाँ ‘व्यवस्था’ से अर्थ केवल मूसा के द्वारा दी गई व्यवस्था ही नहीं है, वरन परमेश्वर के द्वारा मनुष्यों को दिए गए सभी निर्देश और आज्ञाएँ है। परमेश्वर द्वारा कही गई बात का कोई भी उल्लंघन, कैसी भी अनाज्ञाकारिता, व्यवस्था का उल्लंघन है, और पाप है। परमेश्वर के न्याय की माँग है कि या तो पाप का प्रायश्चित किया जाए नहीं तो उसका न्याय किया जाए। उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता है, ऐसे ही अनदेखा कर के नहीं छोड़ा जा सकता है। यह सिद्धान्त आदम और हव्वा के समय से प्रकट है; उन्होंने पाप किया, उन्हें पश्चाताप करने का अवसर दिया गया, परंतु उन्होंने पश्चाताप की बजाए एक से दूसरे पर दोष लगाने और स्वयं को निर्दोष दिखने का प्रयास किया, और अपने किए के परिणाम को भुगतना पड़ा – वे मृत्यु के नीचे आ गए तथा अदन की वाटिका से बाहर निकाल दिए गए।

    चाहे अनाज्ञाकारिता किसी दबाव में आकर, या किसी भय में होकर की जाए, या चाहे परमेश्वर की आराधना के लिए, उसके प्रति भक्ति में की जाए, परमेश्वर उसे ग्रहण नहीं करता है; वह पाप ही होता है और परमेश्वर को अस्वीकार्य ही रहता है। हम इसे पुराने नियम में इस्राएल के पहले राजा शाऊल, तथा इस्राएलियों के जीवन और व्यवहार के उदाहरण से भली-भाँति देख सकते हैं। हम 1 शमूएल 13:1-14 में देखते हैं कि क्योंकि शमूएल के आने में विलंब हुआ, शाऊल ने स्वयं ही परमेश्वर को बलिदान चढ़ा दिए – जो कि शाऊल को करना था। परिणाम यह हुआ कि निर्देशों का पालन करने की बजाए बातों को अपने हाथों में ले लेने और जो उसे सही लगा वही करने के लिए उसे शमूएल से बहुत डाँट खानी पड़ी; और उसे चेतावनी दी गई कि इस अनाज्ञाकारिता के लिए उसे अपना राज्य गँवाना पड़ सकता है। किन्तु शाऊल ने शिक्षा नहीं ली, परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करने को हल्के में लिया। हम 1 शमूएल 15:1-23 से देखते हैं कि, मनुष्यों के - उसके अपने लोगों के भय में आकर, राजा शाऊल ने अमालेकियों के पशुओं को पूर्णतः नाश नहीं किया, जैसा कि उसे करने के लिए कहा गया था, और साथ ही अमालेकी राजा अगाग की जान भी बचाए रखी। शाऊल ने अपनी अनाज्ञाकारिता को यह कहकर जायज़ ठहराने का प्रयास किया कि सारे अच्छे पशु परमेश्वर को बलिदान चढ़ाने के लिए बचा कर रखे गए थे, किन्तु इस से कोई सहायता नहीं मिली, परमेश्वर ने शाऊल के इस्राएल का राजा होने का तिरस्कार कर दिया।

    इसी प्रकार से इस्राएलियों का इतिहास भी, मिस्र से उनके छुटकारे के बाद से लेकर, सम्पूर्ण पुराने नियम में, और नए नियम में भी जारी रखते हुए, बारंबार परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करते ही रहने का है। जब भी वे अनाज्ञाकारी हुए, उन्हें उसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़े; तब वे परमेश्वर के आज्ञाकारी होने का निर्णय करते, और कुछ समय के बाद फिर से अनाज्ञाकारिता में चले जाते और जैसा उन्हें अच्छा लगता था, वैसे जीवन व्यतीत करने लगते थे, और फिर से उन्हें अपने किए को भुगतना पड़ता था।

    इसी प्रकार से नए नियम में भी, परमेश्वर की आज्ञाकारिता में नहीं, बल्कि अपनी इच्छा के अनुसार काम करने और परमेश्वर द्वारा तिरस्कार किए जाने का एक सटीक उदाहरण मत्ती 7:21-23 है। इन पदों में प्रभु के नाम में, किन्तु आज्ञाकारिता में नहीं बल्कि अपनी इच्छा के अनुसार किए गए प्रचार और चमत्कारिक कार्यों को भी तिरस्कार कर दिया गया और उन्हें ‘कुकर्म’ कहा गया है।
इसके विपरीत, परमेश्वर की आज्ञाकारिता में बने रहने के प्रतिफल और आशीषें हैं, जैसा कि हम आगे के लेखों में देखेंगे।   

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 
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English Translation


Obedience to God’s Word – 1

 

    We had begun this series on leading a Blessed and Successful life based on David’s conversation with his son Solomon recorded in 1 Kings 2:2-4. In this passage David instructs Solomon, that to remain victorious, he must remain totally trusting, obedient and dependent upon God, and to make God his security. For this to happen, he must do the following 4 things:

1.   To "be strong and prove yourself a man." (1Ki 2:2).

2.   To "keep the charge of the Lord God", i.e. to be a good Steward of whatever God has given to him (1Ki 2:3a).

3.   To be obedient to the Word of God, in all things written in it. (1Ki 2:3b).

4.   To be careful, taking heed, to remain sincere and committed to the Lord always (1Ki 2:4b).

    Since the same 4 instructions apply to every Christian Believer, for their being victorious and successful in their Christian lives and be partakers of God's blessings, particularly in these end times when we are facing the relentless attacks of satanic forces in various ways and in every aspect of our lives, therefore, we have used these 4 principles to learn about living a committed Christian life that glorifies God, and brings blessings to our lives. So far, we have seen and learnt from the first two instructions that David gave to Solomon. In learning from the second instruction on stewardship of all that God has given to the Christian Believer and being accountable to God for them all, we have seen in considerable detail about God’s Word, God’s Holy Spirit, God’s Church and Fellowship with other Believers, and Gifts of the Holy Spirit and the Believer’s stewardship of these four. Today we will begin to see about the third instruction – Obedience to God and His Word. Since we have already seen many things and details about God’s Word, we will not repeat them, but will only build upon them, as relevant to this instruction.

    As we know, the first sin, the act that gave sin entry into the world and creation, as is recorded in Genesis 3:1-6, was disobedience of God’s Word, i.e., God’s instructions, by Eve, and then by Adam. As we see from this passage from Genesis, Satan beguiled Eve into committing this sin by inducing her to use her intellect and reasoning, and fall for that which seemed to be logical and appealing to her instead of remaining steadfast with what God had said. By her assessment eating the forbidden fruit was a better choice than living by God’s instructions of not eating it, so she disobeyed God, and ended up committing sin. Of the many ways that sin has been defined in the Bible, the basic definition is that it is ‘lawlessness’ or ‘transgression of the law’ (1 John 3:4) – here ‘law’ means not just the Mosaic Law, but all of God’s instructions to man. Any disobedience, any breach of carrying out what God has instructed, is transgression of God’s law, and is ‘sin.’ God’s justice demands that sin either be atoned or judged; it cannot be glossed over, taken lightly and condoned. This principle is evident from the time of Adam and Eve; they sinned, they were given opportunity to confess and seek forgiveness, but instead of that, they tried to pass away the blame and justify themselves, and had to bear the penalty – being cast out of the Garden of Eden and brought under death.

    Even if the transgression is done under a compulsion, or some fear, or even for worshipping God, being reverential towards God, God does not accept it; it is still sin and abhorrent to God. We this well illustrated in the Old Testament through the example of the first king of Israel – Saul, and from the life and behavior of the Israelites. We see from 1 Samuel 13:1-14, that since Samuel delayed coming, Saul felt compelled to offer the sacrifices himself – something which Samuel was to do. The result was that he was severely reprimanded by Samuel for taking matters into his own hands and doing what seemed right to him, instead of following the instructions; and he was warned that this disobedience will cost him his kingdom. But Saul did not learn his lesson, took disobeying God casually. We see from 1 Samuel 15:1-23, that out of fear of men – his own people, he did not completely annihilate the livestock of the Amalekites as he had been instructed to do, and also spared the life of the Amalekite King Agag. Saul tried to justify his disobedience by saying that the best of the animals had been kept to sacrifice to God, but that did not help, and God rejected Saul as being king of Israel.

    Similarly, the history of Israel, since the time of their deliverance from Egypt, throughout the Old Testament, even carrying on into the New Testament times was of recurring disobedience to God. Every time they disobeyed, they suffered severe consequences, promised to stay faithful and obedient to the Lord, then after some time they would slip back into disobeying God and living life the way they wanted to live, and once again suffer the consequences of their disobedience.

    Similarly, in the New Testament, a classical example of doing things not in obedience to God but by according to own desires, and their getting rejected by God is in Matthew 7:21-23, where even the preaching and miraculous works done in the name of the Lord, but not in obedience to God have been rejected and called “lawlessness.”

    On the other hand, obedience to God has its blessings and rewards, as we will see in the next article.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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