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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 28
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (3)
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व्यावहारिक मसीही जीवन जीने के लिए प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए अनिवार्य है कि वह परमेश्वर के निर्देशों का निर्वाह, और परमेश्वर के वचन का यत्न पूर्वक, लौलीन होकर, नियमित अध्ययन एवं पालन करे। हम पिछले लेखों में देख चुके हैं कि व्यावहारिक मसीही जीवन के लिए आवश्यक कुछ बातें प्रेरितों 2 और 15 अध्यायों में दी गई हैं। वर्तमान के लेखों में हम प्रेरितों 2 अध्याय में दी गई सात बातों को देखते आ रहे हैं। इन सात में से चार बातें, प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं, और इन चार बातों को “मसीही जीवन के स्तम्भ” भी कहा जाता है। अभी हम इन चार में से तीसरे स्तम्भ, “रोटी तोड़ने” यानि कि प्रभु-भोज/प्रभु की मेज़, के बारे में विचार कर रहे हैं। पिछले लेख में हमने प्रभु-भोज की पृष्ठ-भूमि और पुराने नियम में निर्गमन 12 अध्याय में दिए गए उसके प्रारूप के बारे में देखा था। प्रभु की मेज़ से सम्बन्धित पुराने और नए नियम की बातों से हमने समझा था कि जिस प्रकार फसह का पर्व मनाने से कोई व्यक्ति इस्राएली या परमेश्वर का जन नहीं बन जाता था, उसी प्रकार से आज भी प्रभु-भोज में सम्मिलित होने से कोई न तो परमेश्वर का जन बनता है, और न ही स्वर्ग मे प्रवेश के योग्य ठहरता है। जैसे फसह का पर्व मनाना केवल उन सभी के लिए ही था जो पहले से ही इस्राएली थे, था, उसी प्रकार से प्रभु की मेज़ में भाग लेना भी केवल उन्हीं के लिए है जो पहले से ही उद्धार पा चुके हैं, जो वास्तव में प्रभु के लोग हैं, चाहे उनकी आत्मिक आयु अथवा परिपक्वता कुछ भी हो। आज हम प्रभु भोज से सम्बन्धित अपने दूसरे बिन्दु, प्रभु की मेज़ की स्थापना तथा उसमें यहूदा इस्करियोती को सम्मिलित न किए जाने के बारे में देखेंगे।
2. प्रभु-भोज की स्थापना
हम चारों सुसमाचारों में से प्रभु द्वारा फसह के पर्व को मनाने, उस का भोजन खाने, और उस भोजन के दौरान फिर प्रभु भोज की स्थापना किए जाने के बारे में बहुत संक्षेप में देखेंगे। इस वर्तमान अध्ययन का उद्देश्य सुसमाचारों के विवरणों में सामंजस्य बैठाना, उनका विस्तृत वर्णन करना, और उन्हें क्रमवार प्रस्तुत करना नहीं है; वरन प्रभु की मेज़ के अर्थ, महत्व, और उसमें भाग लेने के बारे में सीखना है। प्रभु भोज की स्थापना के साथ एक और बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न भी जुड़ा हुआ है, कि क्या उस पहले प्रभु भोज में यहूदा इस्करियोती भी सम्मिलित हुआ था? इस प्रश्न का उत्तर और उसके अभिप्राय हम केवल चारों सुसमाचारों के विवरणों का अध्ययन कर के उन्हें साथ मिलाकर देखने के द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं।
हमें प्रभु-भोज की स्थापना के दो महत्वपूर्ण भागों को और उन से सम्बन्धित घटनाओं के क्रम का ध्यान रखना बहुत आवश्यक है। पहला है फसह के पर्व के भोजन का खाया जाना, और दूसरा है प्रभु द्वारा अपने शिष्यों को रोटी और प्याले को अपनी देह और लहू के चिह्नों के रूप में देना, ताकि भविष्य में, जब तक कि वह लौट कर नहीं आ जाता है, वे उसकी याद में यही करते रहें (लूका 22:19; 1 कुरिन्थियों 11:24-26)। जब हम प्रभु द्वारा फसह के पर्व के मनाए जाने की तैयारियों के बारे में सुसमाचारों में देखते हैं, तो हम पाते हैं कि प्रभु ने पहले यूहन्ना और पतरस को एक विशेष घर में भेजा था कि वहाँ पर फसह के भोज की तैयारी करें, और फिर शिष्यों के साथ वहाँ गया कि फसह के पर्व का भोजन उनके साथ खाए। हम यूहन्ना 13 से देखते हैं, कि भोजन खाने के दौरान, प्रभु ने उठकर शिष्यों के पाँव धोए, उन्हें दीनता का और एक दूसरे को आदर देने का व्यावहारिक पाठ सिखाया। हो सकता है कि उसने यह इस कारण किया क्योंकि तब शिष्यों में वाद-विवाद चल रहा था कि उनमें से बड़ा कौन है (लूका 22:24-30)। फसह का भोजन करते समय, शिष्यों के पाँव धोने के पश्चात, प्रभु ने उन्हें बताया कि उन में से एक उसे पकड़वाएगा, और फिर इस बात को लेकर शिष्यों में चर्चा आरंभ हो गई। फसह के पर्व का भोजन को खाते समय और पकड़वाने वाले की पहचान के रूप में, प्रभु ने रोटी का टुकड़ा डुबोकर यहूदा को दिया, और उससे कहा कि उसे जो करना है वह कर ले (यूहन्ना 13:26-27)। यहाँ पर यूहन्ना घटनाक्रम का एक बहुत महत्वपूर्ण भाग दर्ज करता है - यहूदा ने वह डुबोया हुआ टुकड़ा लिया और बाहर रात के अँधियारे में चला गया (यूहन्ना 13:30); यह ध्यान देने योग्य है कि किसी भी सुसमाचार में यह नहीं लिखा है कि यहूदा ने प्रभु से रोटी का वह टुकड़ा लेकर, उसे खाया भी। यह भिगो कर दिया गया टुकड़ा अभी भी यहूदा इस्करियोती के प्रति प्रभु के प्रेम और, प्रभु द्वारा उसे आदर दिए जाने का प्रतीक था; क्योंकि परम्परा के अनुसार परिवार का मुख्या, फसह खाते समय, यह टुकड़ा वहाँ उपस्थित परिवार के आदरणीय और प्रेम के भागी व्यक्ति को देता था।
यह भिगोया हुआ रोटी का टुकड़ा दिए जाने, और टुकड़ा लेकर यहूदा के वहाँ से चले जाने के बाद, जब शेष शिष्य भोजन खा रहे थे, तब प्रभु यीशु ने रोटी ली, आशीष मांग कर तोड़ी और शिष्यों को उसके तोड़े गए बदन के प्रतीक के रूप में दे दिया; फिर उसने प्याला भी लिया और उन्हें उसमें से भाग लेने के लिए कहा, उनके लिए बहाए गए लहू के प्रतीक के रूप में, जैसा कि मत्ती 26:26-29; मरकुस 14:22-25; लूका 22:18-20 में लिखा गया है। इसलिए, इन सारी घटनाओं के विवरण को साथ मिलाकर देखने के द्वारा, हमारे सामने यह स्पष्ट हो जाता है कि यहूदा ने उस प्रथम प्रभु भोज में भाग नहीं लिया था। अर्थात, यहूदा इस्करियोती फसह के पर्व के मनाए जाने में तो प्रभु और अन्य शिष्यों के साथ सम्मिलित था; किन्तु वह प्रभु द्वारा उसकी मृत्यु की यादगारी के प्रभु-भोज या प्रभु की मेज़ के स्थापित किए जाने के समय वहाँ उपस्थित नहीं था। यह निर्गमन 12 में दी गई बात के साथ पूर्णतः मेल खाता है कि तब फसह के पर्व का भोजन और आज प्रभु भोज केवल प्रभु परमेश्वर के प्रतिबद्ध, समर्पित लोगों ही के लिए है, किसी अन्य के लिए नहीं। कुछ लोग लूका के वृतांत के क्रम से इसके बारे में असमंजस में पड़ सकते हैं, क्योंकि लूका ने फसह के भोज वाला वर्णन और प्रभु यीशु द्वारा यह कहना कि उसके पकड़वाने वाले का हाथ उसके साथ मेज़ पर है, प्रभु भोज की स्थापना के बाद लिखा है। हमें समझने में सहायता के लिए यह ध्यान रखना चाहिए कि लूका फसह के भोजन के समय यहूदा की उपस्थिति को बता रहा है, न कि प्रभु भोज के समय पर; क्योंकि यूहन्ना 13 का घटनाक्रम यह स्पष्ट बताता है कि रोटी का डुबोया हुआ टुकड़ा लेने के बाद यहूदा वहाँ से चला गया, उसके जाने के बाद भोजन चलता रहा, तथा शेष घटनाएं हुईं, जिनमें प्रभु भोज की स्थापना भी है। साथ ही यहूदा ने न तो रोटी का डुबोया हुआ टुकड़ा, अर्थात फसह के पर्व के भोजन के अंश को खाया, और न ही वह प्रभु की मृत्यु की यादगारी के प्रभु भोज की स्थापना के समय वहाँ उपस्थित था।
इस विषय और उससे सम्बन्धित घटनाओं के क्रम के बारे में अस्पष्ट होने के कारण कभी-कभी लोग यह तर्क देते हैं कि क्योंकि प्रभु यीशु ने यहूदा इस्करियोती को उस प्रथम प्रभु भोज में भाग लेने दिया, तो फिर आज वे लोग, जो यहूदा इस्करियोती के समान ही चाहे प्रभु यीशु को वास्तव में समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं हैं, इसमें भाग क्यों नहीं ले सकते हैं? हमें इसे दो दृष्टिकोण से समझने की आवश्यकता है - पहला, जैसे के हम ऊपर देख चुके हैं, प्रभु यीशु ने यहूदा को प्रथम प्रभु भोज में भाग नहीं लेने दिया। दूसरी बात, जैसा कि हम निर्गमन 12 तथा उपरोक्त प्रभु-भोज की स्थापना के घटनाक्रम से देखते और समझते हैं, यहूदियों के लिए फसह का पर्व और उसका भोज, तथा प्रभु के शिष्यों के लिए प्रभु की मेज़ में भाग लेना एक यादगारी है, प्रभु के बलिदान और हमें पाप के दासत्व से छुड़ाने के उसके काम की; और इसमें भाग लेना, प्रभु का उसके उद्धारकर्ता होने के लिए आदर करते रहने, और उसकी आज्ञाकारिता की प्रतिबद्धता को दोहराने के लिए है। जो अभी न तो प्रभु को उद्धारकर्ता स्वीकार करता है, और उसकी आज्ञाकारिता के लिए प्रतिबद्ध है, वह इन बातों को क्यों और कैसे दोहरा सकता है? प्रभु की मेज़ में भाग लेने से कोई पवित्र और धर्मी नहीं बनता है, और न ही कोई परमेश्वर को स्वीकार्य अथवा स्वर्ग में प्रवेश पाने के योग्य हो जाता है - इस सर्वथा गलत और अनुचित विचारधारा के समर्थन एवं पुष्टि के लिए बाइबल में कोई हवाला अथवा उदाहरण नहीं है। तो बाइबल के इस तथ्य के आधार पर फिर, बिना प्रभु यीशु के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध हुए कोई भी व्यक्ति प्रभु-भोज में भाग क्यों ले; प्रभु भोज में भाग लेने के द्वारा ऐसे व्यक्ति को क्या लाभ होगा, और कैसे? बल्कि, जैसा कि 1 कुरिन्थियों 11:27-31 में लिखा है, जो इसमें अयोग्य रीति से भाग लेते हैं, वे अपने ऊपर परमेश्वर के न्याय को लाते हैं, उसके दण्ड को न्यौता देते हैं। इसलिए जो वास्तव में प्रभु का जन नहीं है, सच्चे मन से परमेश्वर के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं हैं, उस के लिए प्रभु की मेज़ में भाग लेना किसी लाभ का नहीं परन्तु बड़ी हानि का कारण होगा; इसलिए उन्हें इसमें भाग लेने से रोक कर रखना चाहिए, उन्हें प्रभु की मेज़ के बारे में समझाना चाहिए, और जब तक वे वास्तव में नया जन्म पाए हुए और प्रभु के समर्पित जन न बन जाएं, उन्हें भाग लेने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। यह करना निर्गमन 12:43-49 की बात के समान है, कोई परदेशी फसह में केवल तब ही भाग ले सकता था, जब वह अपने आप को परमेश्वर और अब्राहम के मध्य हुई वाचा के अंतर्गत ले आता था, और खतने के द्वारा इसकी गवाही दे देता था।
अगले लेख से हम 1 कुरिन्थियों 11 पर जाएंगे, तथा आगे की बातें वहाँ से सीखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 28
The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (3)
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To live a practical Christian life, it is essential for every Christian to follow God's instructions, and to study God's Word diligently, steadfastly, and regularly and to obey it as well. We have seen in previous articles that some things essential for practical Christian living are given in Acts chapters 2 and 15. Presently we are considering the seven things given in Acts chapter 2. Four of these seven are found in Acts 2:42, and these four are also called the “Pillars of Christian Living.” Presently, we are considering the third of these four pillars, i.e., the “breaking of bread,” also known as the Lord's Supper, or the Lord's Table, or the Holy Communion. In the previous article we looked at the background of the Lord's Supper and its Old Testament prototype given in Exodus chapter 12. From the narrative of the Old and New Testaments regarding the Lord's Table, we understood that just as celebrating the Passover did not make a person an Israelite or a man of God, in the same way today, partaking of the Lord's Supper does not make anyone belong to God, nor does he become eligible to enter heaven. Just as celebrating the Passover was only for those who were already Israelites; similarly, partaking of the Lord's Table is only for those who are already saved, who truly are God's people, irrespective of their spiritual age and maturity. Today we will look at our second point regarding the Lord's Supper, the establishing of the Lord's Table and Judas Iscariot not partaking of it.
2. Establishing of the Lord's Table
We'll look very briefly across the four gospels regarding the Lord's observance of the Passover, the eating of the Passover meal, and then, during that meal establishing the Lord's Supper. The purpose of this present study is not to harmonize the accounts of the Gospels, or to describe them in detail and to present them in sequence. Rather, it is to learn about the meaning, importance, and partaking of the Lord's Table. Another very important question that is associated with the establishment of the Lord's Supper is, whether Judas Iscariot also participated in that first Lord's Supper? We can answer this question and its implications only by studying the accounts of the four gospels and looking at them together.
In this study, from the four Gospels, we will briefly look at the Lord’s instituting the Holy Communion, while eating the Passover with His disciples. As we have said before, the purpose of this study is not to harmonize the Gospel accounts and present them in a chronological order, but to learn about the meaning, significance, and participation in the Lord’s Table. We will consider the crucial part of the event - the actual establishing of the Table by the Lord, and a very crucial question and its implications, did Judas Iscariot participate in that first Holy Communion? The answer and its inferences can only be derived by studying the four Gospel accounts and putting together the events sequentially.
We need to keep in mind two important parts of the establishment of the Lord’s Supper. The first is the eating of the meal of the Passover, and the second is Lord’s giving the bread and the cup as symbols of His body and blood to the disciples, for them to keep doing in remembrance of Him, in the times to come, till He returns (Luke 22:19; 1 Corinthians 11:24-26). When we see the accounts in the gospels of the preparation for the observance of the Passover, we see that the Lord had first sent Peter and John to prepare for the Passover in a specific house, and had then gone there to eat the meal of the Passover with His disciples. It was during the meal, as we see from John 13, that He rose up and washed the feet of the disciples and gave them a practical lesson in humility and honoring others. He might have been prompted to do this by the on-going discussion among the disciples as to who amongst them should be considered the greatest (Luke 22:24-30). It was, after the washing of the feet of the disciples, during the course of the Passover meal that the Lord informed that He was going to be betrayed by one of them, and then a discussion ensued amongst the disciples, who would do this? As a part of eating of this Passover meal and as a sign of identification of the betrayer, the Lord gave the sop - the piece of bread dipped in the broth, to Judas, and asked him to do what he wanted to do (John 13:26-27). John records a very important part of the events here - Judas took the sop, and went out into the darkness of the night (John 13:30); it is worth noting that in none of the gospel accounts is it written that Judas actually ate that sop given to Him by the Lord. That sop was also a sign of Lord’s love for him and of still giving him a place of honor, since traditionally, the head of the family, at Passover, gave the sop to a loved and honorable person present at the Passover meal.
It is after the sop had been given, and after receiving the sop Judas had gone out, while the others were eating the meal (Matthew 26:26; Mark 14:22) that the Lord took the bread, blessed and broke it and gave it to the disciples as a symbol of His body broken for them; He then took the cup and asked them to share from it, as a symbol of the Lord’s blood shed for them, as is recorded in Matthew 26:26-29; Mark 14:22-25; Luke 22:18-20. Therefore, by piecing together the sequence of events, it becomes clear that Judas was not present at the time of the Lord establishing the Table, and did not participate in the first Holy Communion established by the Lord. In other words, although Judas Iscariot was present with the Lord and the other disciples in the observance of the meal of the Passover; but he was not present at the time of the Lord establishing the Table in remembrance of His death. This is in perfect agreement with what we have in Exodus 12, that the then Passover meal, and today the Lord’s Table are only for the actual committed people of the Lord, not for anyone else. Some people may be confused by the account given in Luke, since Luke records the events of eating the Passover meal and the Lord’s saying that the hand of His betrayer is with Him in the dish, after the establishing of the Lord’s Table, whereas Matthew and Mark record it as before the Lord established the Table. What helps us to understand and clarify is that Luke is recording the presence of Judas for the meal of the Passover, and not at the time of the Table; since the events of John 13 help us understand that eating of the meal of the Passover was in presence of Judas, who left after taking the sop, and the continuation of the meal and the rest of the events, including the establishing of the Lord’s Table, followed after that. Moreover, Judas did not even eat the sop, i.e., the portion of the meal of the Passover given to him, and neither was he present at the institution of the Lord’s Table as a remembrance of the Lord’s death.
Because of being unclear about the events and their sequence, sometimes, people argue that since the Lord allowed Judas Iscariot to partake of the first Holy Communion, so why can’t people who, like Judas Iscariot, are not actually committed to the Lord, do the same today? We need to understand it from two different perspectives - firstly, as we have seen above, the Lord Jesus did not let Judas partake of the first Holy Communion. Secondly, as we have seen from Exodus 12, and as we see from the above mentioned sequence of events regarding the establishing of the Lord’s Table, for the Jews the Passover, and for the disciples of the Lord Jesus, the partaking in the Lord’s Table is in remembrance; by partaking in the Table, we remember the sacrifice of the Lord, to deliver us from the bondage of sin; and it is committing ourselves to honor and to obey Him. Why and how can anyone who has neither yet accepted the Lord as Savior, nor is committed to obedience to Him, recommit himself for these? Partaking of the Lord’s Table does not accord anyone any holiness or righteousness, neither makes anyone acceptable to God, nor worthy of entering into heaven - there is no Biblical reference to support and affirm this absolutely wrong and inappropriate thinking. So, on the basis of these Biblical facts, how would anyone benefit, and in what manner, by participating in the Holy Communion, without first being committed to the Lord? Rather, as it says in 1 Corinthians 11:27-31, those who participate unworthily, invite God’s judgment upon themselves, they ask for God’s punishment upon themselves. Therefore, for those who are not yet actually the people of the Lord, those who have not truly committed themselves to the Lord, for them, their participation in the Lord’s Table will only do them more harm than any good. Therefore, for their own benefit they should refrain from participation, they should be explained and taught about the Lord’s Table, and till they are actually Born-Again, till they make a commitment to the Lord and join themselves to Him; they should not be permitted to partake in the Lord’s Table. Doing this is in accordance with the instruction for the Passover - only those foreigners, who had first brought themselves under the covenant of God made with Abraham, and witnessed about it through their circumcision, could participate in the Passover (Exodus 12:43-49).
From the next article, we will shift to 1 Corinthians 11 and learn more from there.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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