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शनिवार, 30 नवंबर 2024

The Solution For Sin - Salvation / पाप का समाधान - उद्धार - 5

 

पाप और उद्धार को समझना – 8

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पाप का समाधान - उद्धार - 5

    पिछले चार लेखों से हम बाइबल की प्रथम पुस्तक, उत्पत्ति के 3 अध्याय में दिए गए प्रथम पाप और उसके परिणामों और प्रभावों के विवरण पर आधारित पाप के समाधान, तथा उद्धार से संबंधित तीन महत्वपूर्ण प्रश्नों को देख रहे हैं। हमने पहले प्रश्न – “उद्धार किससे और क्यों” पर विचार करने और उसके निष्कर्ष पर पहुँचने के पश्चात, पिछले लेख में दूसरे प्रश्न “व्यक्ति इस उद्धार को कैसे प्राप्त कर सकता है?” पर विचार आरंभ किया था। इस दूसरे प्रश्न के अंतर्गत हमने देखा कि पाप व्यक्ति के द्वारा व्यक्तिगत रीति से की गई परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता है; जब प्रथम पाप किया गया, उस समय न तो वहाँ कोई धर्म था, और न ही किसी धर्म का कोई उल्लंघन हुआ, और न ही परमेश्वर ने किसी धर्म के द्वारा उस पाप के समाधान और निवारण की बात की। पाप करने का आधार तथा कारण मनुष्य का परमेश्वर की मनुष्य के प्रति योजनाओं और इच्छाओं में अविश्वास करना था। इसीलिए, परमेश्वर ने मनुष्य के जीवन में आई पाप की इस समस्या का समाधान मनुष्य के स्वेच्छा और सच्चे मन से उसकी पूर्ण आज्ञाकारिता में आ जाने और पापों से पश्चाताप तथा प्रभु यीशु मसीह को उद्धारकर्ता स्वीकार कर लेने और उसके साथ उस खोए हुए विश्वास के संबंध को बहाल कर लेने के द्वारा दिया।

 

    पाप के इस समाधान में निहित कुछ अन्य आधारभूत और अति महत्वपूर्ण तात्पर्य हैं। इस संबंध की पुनः स्थापना के साथ ही प्रत्येक व्यक्ति द्वारा व्यक्तिगत रीति से इन तात्पर्यों को भी स्वीकार करना और उनके अनुसार अपने जीवन के विषय निर्णय लेना और जीवन को सुधारना भी अनिवार्य है। 

    

ये निहित तात्पर्य हैं:

* क्योंकि पाप का प्रवेश व्यक्तिगत अनाज्ञाकारिता के कारण हुआ - अनाज्ञाकारी होकर उस वर्जित फल को हव्वा ने भी खाया और आदम ने भी खाया (उत्पत्ति 3:6), इसीलिए पाप का समाधान और निवारण भी किसी धर्म विशेष को मानने वाले परिवार में जन्म लेने, और उस धर्म से संबंधित रीति-रिवाज़ों के निर्वाह के द्वारा नहीं, वरन, प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा अपने पापों के लिए परमेश्वर के समक्ष व्यक्तिगत पश्चाताप, परमेश्वर को सम्पूर्ण समर्पण, और फिर उसकी आज्ञाकारिता में बने रहने के निर्णय के द्वारा ही है।

 

* यह समाधान पैतृक विरासत अथवा वंशागत नहीं व्यक्तिगत है; अर्थात, माता-पिता या परिवार के किसी अन्य सदस्य अथवा परिवार के प्राचीनों के पश्चाताप और समर्पण के द्वारा उनकी संतान, संबंधी, और भावी पीढ़ी उद्धार नहीं पाती है। हर पीढ़ी, और हर व्यक्ति को, अपने पापों के लिए स्वयं ही पश्चाताप और समर्पण करना होता है “परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं” (यूहन्ना 1:12-13)।

 

* कोई भी व्यक्ति मसीही विश्वासी के रूप में जन्म नहीं लेता है; प्रत्येक व्यक्ति को मसीही विश्वासी तथा परमेश्वर की संतान बनने के लिए शारीरिक जन्म के बाद स्वेच्छा और सच्चे समर्पण के द्वारा, परमेश्वर के परिवार में, एक आत्मिक जन्म लेना पड़ता है – अपने पापों के पश्चाताप और प्रभु यीशु मसीह को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता स्वीकार करने के द्वारा यह “नया जन्म” लेना पड़ता है। उसके सांसारिक परिवार के लोगों और पूर्वजों की धार्मिकता और उनका उद्धार, उसे उद्धार प्रदान नहीं करते हैं।

 

* मनुष्य किसी भी प्रकार से परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए इस सिद्ध कार्य को न तो संवार सकता है, न ही सुधार कर और बेहतर कर सकता है। अपनी बुद्धि, समझ, और योजनाओं को इसमें मिलाने के द्वारा इसे बिगाड़ कर व्यर्थ अवश्य कर सकता है “क्योंकि मसीह ने मुझे बपतिस्मा देने को नहीं, वरन सुसमाचार सुनाने को भेजा है, और यह भी शब्दों के ज्ञान के अनुसार नहीं, ऐसा न हो कि मसीह का क्रूस व्यर्थ ठहरे” (1 कुरिन्थियों 1:17)। 


* इस उद्धार के लिए जो भी करना था, जो भी कीमत चुकानी थी, वह सब कुछ परमेश्वर ने पूर्ण कर के दे दिया है। मनुष्य को परमेश्वर द्वारा किए गए इस उद्धार के कार्य में अब और कुछ नहीं जोड़ना है, कुछ नहीं करना है, “क्योंकि तुम जानते हो, कि तुम्हारा निकम्मा चाल-चलन जो बाप दादों से चला आता है उस से तुम्हारा छुटकारा चान्दी सोने अर्थात नाशमान वस्तुओं के द्वारा नहीं हुआ। पर निर्दोष और निष्कलंक मेम्ने अर्थात मसीह के बहुमूल्य लहू के द्वारा हुआ” (1 पतरस 1:18-19)। न कोई कर्म-कांड, न कोई विधि-विधान, न किसी अन्य मनुष्य की मध्यस्थता अथवा सहयोग की आवश्यकता। बस स्वेच्छा से प्रभु यीशु को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता स्वीकार कर लेना है, उसके प्रति समर्पित होकर, अपने जीवन को उसके प्रति आज्ञाकारी कर लेना है – इसे ही नया जन्म पाना कहते हैं, जिसके बिना कोई स्वर्ग में प्रवेश तो दूर, उसे देख भी नहीं सकता है “यीशु ने उसको उत्तर दिया; कि मैं तुझ से सच सच कहता हूं, यदि कोई नये सिरे से न जन्मे तो परमेश्वर का राज्य देख नहीं सकता।” “यीशु ने उत्तर दिया, कि मैं तुझ से सच सच कहता हूं; जब तक कोई मनुष्य जल और आत्मा से न जन्मे तो वह परमेश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकता” (यूहन्ना 3:3, 5)। 


* बाइबल यह स्पष्ट बताती है कि मनुष्य के लिए धर्म के निर्वाह की धार्मिकता अपर्याप्त है “क्योंकि मैं तुम से कहता हूं, कि यदि तुम्हारी धामिर्कता शास्त्रियों और फरीसियों की धामिर्कता से बढ़कर न हो, तो तुम स्वर्ग के राज्य में कभी प्रवेश करने न पाओगे” (मत्ती 5:20); परमेश्वर के दृष्टि में मैले चिथड़ों के समान व्यर्थ है “हम तो सब के सब अशुद्ध मनुष्य के से हैं, और हमारे धर्म के काम सब के सब मैले चिथड़ों के समान हैं। हम सब के सब पत्ते के समान मुर्झा जाते हैं, और हमारे अधर्म के कामों ने हमें वायु के समान उड़ा दिया है” (यशायाह 64:6)। 


     पाप और उद्धार से संबंधित चर्चा के इस महत्वपूर्ण दूसरे प्रश्न का निष्कर्ष है कि पाप का समाधान और उद्धार किसी धर्म के कार्य अथवा धर्म के निर्वाह के द्वारा नहीं है; न ही यह किसी धर्म विशेष की बात है; और न ही पैतृक अथवा वंशागत है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने पापों के लिए स्वयं पश्चाताप करना होगा, उनके लिए स्वयं प्रभु यीशु से क्षमा माँगनी होगी, स्वयं ही अपना जीवन प्रभु यीशु को समर्पित करना होगा, उसका आज्ञाकारी शिष्य बनने का स्वयं ही निर्णय लेना होगा।


    क्या आपने वास्तव में उद्धार पाया है? यदि नहीं, तो स्वेच्छा से, सच्चे पश्चाताप और समर्पण के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं पापी हूँ और आपकी अनाज्ञाकारिता करता रहता हूँ। मैं स्वीकार करता हूँ कि आपने मेरे पापों को अपने ऊपर लेकर, मेरे बदले में उनके दण्ड को कलवरी के क्रूस पर सहा, और मेरे लिए अपने आप को बलिदान किया। आप मेरे लिए मारे गए, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए तीसरे दिन जी उठे। कृपया मुझ पर दया करके मेरे पापों को क्षमा कर दीजिए, मुझे अपनी शरण में ले लीजिए, अपना आज्ञाकारी शिष्य बनाकर, अपने साथ कर लीजिए।” सच्चे मन से की गई पश्चाताप और समर्पण की एक प्रार्थना आपके जीवन को अभी से लेकर अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय जीवन बना देगी, स्वर्गीय आशीषों का वारिस कर देगी।

 

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 Understanding Sin and Salvation – 8

English Translation

The Solution For Sin - Salvation - 5


For the last four articles, we have been looking at the three important questions regarding sin and its consequences, based on the description of the first sin given in chapter 3 of Genesis, the first book of the Bible, and regarding salvation - the solution of sin and its effects. Having considered and reached conclusions for the first question – “Salvation from whom and why;” We then, in the previous article, took up the second question “How can one attain this salvation?” and had begun pondering over it. Under this second question we saw that sin is an individual condition because of every person’s individual disobedience to God. We also saw that no religion has any role to play in this, since when the first sin was committed, at that time there was neither any religion, nor a violation of any religion was done, nor did God talk about the solution and remission of that sin through any religion. The basis and reason for committing sin was man's disbelief in God's plans and desires for him. Therefore, the God prescribed solution to this problem of sin in man's life is by reverting back to a state of faith and trust in God; i.e., for man to willingly and sincerely repent of sins, accept the Lord Jesus Christ as Savior and submit into complete obedience to God, to restore that lost relationship with Him, through faith.


There are some other fundamental and very important implications of this God given solution to sin. For the re-establishment of relationship with God, it is absolutely necessary for each person to personally understand and accept these implications, decide about their effects on his life, and conduct himself accordingly for improvement.


These implications are:

* Because the entry of sin was due to personal disobedience committed individually - Eve ate the forbidden fruit in disobedience and then Adam also ate (Genesis 3:6), so the solution and remission of sin is also by every individual's personal repentance for their sins, their total submission to God individually, and then to remain in obedience to Him. Being born in a family following a particular religion, and the observance of the customs associated with that religion, is neither the solution, nor is an option for obtaining salvation.


* This solution is on an individual and personal basis; it is not based on familial inheritance or genealogy; i.e., because of the repentance and submission of the parents, or any other family member, or the elders of the family, their children, relatives, and future generations are not saved. Every generation, and every person, has to repent and surrender for their own sins “But as many as received Him, to them He gave the right to become children of God, to those who believe in His name: who were born, not of blood, nor of the will of the flesh, nor of the will of man, but of God" (John 1:12-13).


* No one is born a Christian; Each person, after their physical birth, must be spiritually Born Again to be a Christian and a child of God, by repentance of their sins and accepting the Lord Jesus Christ as their personal Savior. This "new birth" has to be taken by a willing and genuine submission to God, to become part of the family of God. The righteousness and salvation of their earthly family members and ancestors do not grant anyone their salvation.


* Man can by no means, neither improve upon, nor render more efficacious, this perfect solution granted by God. But by mixing his wisdom, understanding, and plans into it, he can spoil it, render it ineffective, for sure “For Christ did not send me to baptize, but to preach the gospel, not with wisdom of words, lest the cross of Christ should be made of no effect" (1 Corinthians 1:17).


* Whatever had to be done for this salvation, whatever price had to be paid, God has completed all of it, has done and provided it. Man has nothing to add to this work of salvation made available by God, he has nothing other to do than accept and apply it, just as it is, "knowing that you were not redeemed with corruptible things, like silver or gold, from your aimless conduct received by tradition from your fathers, but with the precious blood of Christ, as of a lamb without blemish and without spot” (1 Peter 1:18–19). No religious works, no rituals, no need for mediation or any kind of assistance by any other person is required. One only has to voluntarily accept the Lord Jesus as their personal Savior, surrender to Him, make himself obedient to Him – this is what is meant by being “Born Again”, without which one cannot even see, let alone enter heaven. “Jesus answered and said to him, "Most assuredly, I say to you, unless one is born again, he cannot see the kingdom of God." “Jesus answered, "Most assuredly, I say to you, unless one is born of water and the Spirit, he cannot enter the kingdom of God" (John 3:3, 5).


* The Bible makes it abundantly clear that righteousness of religion or works is insufficient for man to be righteous "For I say to you, that unless your righteousness exceeds the righteousness of the scribes and Pharisees, you will by no means enter the kingdom of heaven" (Matthew 5:20); it is like dirty rags that are worthless in the eyes of God. “But we are all like an unclean thing, And all our righteousnesses are like filthy rags; We all fade as a leaf, And our iniquities, like the wind, Have taken us away” (Isaiah 64:6).


This conclusion of the important second question regarding the discussion of sin and salvation is that the solution of sin and salvation is not by any act of righteousness or by the practice of religious works; Nor is it a matter of any particular religion; and neither is it hereditary or ancestral. Everyone has to individually repent for their own sins, ask for forgiveness from the Lord Jesus for the sins himself, decide to submit his own life to the Lord Jesus, and to become his obedient disciple.


Have you really obtained salvation; or have you been trusting your religion and religious works, works of righteousness etc.? If you are not yet Born Again, then a short prayer said voluntarily with a sincere heart and with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible or not, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 


 

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शुक्रवार, 29 नवंबर 2024

The Solution For Sin - Salvation / पाप का समाधान - उद्धार - 4

 

पाप और उद्धार को समझना – 7

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पाप का समाधान - उद्धार - 4

    पिछले तीन लेखों में हमने उद्धार से संबंधित पहले प्रश्न – “उद्धार किससे और क्यों” को बाइबल की प्रथम पुस्तक, उत्पत्ति के 3 अध्याय में दिए गए विवरण के अनुसार विस्तार से देखा है; और पिछले लेख में हम इस प्रश्न के निष्कर्ष पर पहुंचे थे। निष्कर्ष में हमें दोनों बातों, “उद्धार किससे” तथा “उद्धार क्यों” को देखा था, जो संक्षेप में इस प्रकार है:

* किस से - उद्धार या बचाव पाप के दुष्प्रभावों से होना है, जिन के कारण मनुष्यों में आत्मिक एवं शारीरिक मृत्यु, डर, अहं, दोष, लज्जा, परमेश्वर से दूरी, अपनी गलतियों के लिए बहाने बनाना तथा दूसरों पर दोषारोपण करने, परमेश्वर की कृपा को नजरंदाज करने जैसी प्रवृत्ति और भावनाएं आ गई हैं।

* क्यों - क्योंकि हमारा सृष्टिकर्ता परमेश्वर हमारे पापों में पड़े हुए होने की दशा में भी, हम सभी मनुष्यों से अभी भी प्रेम करता है, हमारे साथ संगति रखना चाहता है; वह चाहता है कि हम उस से मेल-मिलाप कर लें, और उसके पुत्र-पुत्री होने के दर्जे को स्वीकार कर लें (यूहन्ना 1:2-13)। वह हमें विनाश में नहीं आशीष में देखना चाहता है और अपने साथ स्वर्ग में स्थान देना चाहता है। परमेश्वर की इस मनसा को स्वीकार करना अथवा नहीं करना, प्रत्येक मनुष्य का अपना निर्णय है।


उद्धार - कैसे? 

     आज से हम दूसरे प्रश्न, “व्यक्ति इस उद्धार को कैसे प्राप्त कर सकता है?” पर विचार आरंभ करेंगे, और हमारे विचार का आधार बाइबल की प्रथम पुस्तक, उत्पत्ति के 3 अध्याय में दिया गया पहले पाप का विवरण ही रहेगा।

 

    हम देख चुके हैं कि उद्धार का अर्थ है, उस प्रथम पाप द्वारा कार्यान्वित हुई विनाशक प्रक्रिया और उसके परिणामों को उलट कर वापस सृष्टि के समय की हमारी प्रथम स्थिति में बहाल किए जाने, तथा परिणामस्वरूप परमेश्वर के साथ टूटी हुई इस संगति में पुनः पहले के समान स्थापित हो जाना, तथा मृत्यु अर्थात परमेश्वर से उस अनन्त दूरी से बच जाना।


     मनुष्य उद्धार कैसे प्राप्त करे के संदर्भ में कुछ अति-महत्वपूर्ण, समझने के लिए अनिवार्य, एवं समाधान के लिए निर्णायक बातों पर ध्यान कीजिए: 

* मनुष्य के उस प्रथम पाप के कारण किसी धर्म के निर्वाह का उल्लंघन नहीं हुआ था – क्योंकि जब वह प्रथम पाप हुआ, तब वहाँ कोई धर्म तो था ही नहीं! और क्योंकि परमेश्वर का न तो कोई धर्म है, और न ही परमेश्वर ने कभी कोई भी धर्म बनाया अथवा बनवाया। संसार के सभी धर्म, ईसाई धर्म सहित, पाप में गिरे हुए मनुष्य के मन और विचारों की उपज हैं और पाप के कारण मनुष्यों में आई हुई परमेश्वर से विमुख कर देने वाली प्रवृत्ति एवं मानसिकता, मनुष्य को परमेश्वर की ओर फेर देना वाला उपाय नहीं प्रदान कर सकती है “अशुद्ध वस्तु से शुद्ध वस्तु को कौन निकाल सकता है? कोई नहीं” (अय्यूब 14:4)। 

* इसीलिए, अपने सभी दावों और आश्वासनों के बावजूद, आज तक कभी भी कोई भी धर्म किसी भी मनुष्य को निष्पाप, पवित्र, और परमेश्वर के समक्ष खड़ा होने योग्य नहीं बना सका है “हम तो सब के सब अशुद्ध मनुष्य के से हैं, और हमारे धर्म के काम सब के सब मैले चिथड़ों के समान हैं। हम सब के सब पत्ते के समान मुर्झा जाते हैं, और हमारे अधर्म के कामों ने हमें वायु के समान उड़ा दिया है” (यशायाह 64:6)। 

* मनुष्य को पाप से उभारने का एक मात्र उपाय पापों से पश्चाताप करना, उनके लिए प्रभु यीशु मसीह से क्षमा माँगना, और स्वेच्छा तथा सम्पूर्ण समर्पण के साथ प्रभु यीशु मसीह का शिष्य बनना, ईसाई या किसी धर्म में नहीं, बल्कि मसीही विश्वास में आना है, “इसलिये परमेश्वर अज्ञानता के समयों में आनाकानी कर के, अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है” (प्रेरितों 17:30)। “यदि तू अपने मुंह से यीशु को प्रभु जानकर अंगीकार करे और अपने मन से विश्वास करे, कि परमेश्वर ने उसे मरे हुओं में से जिलाया, तो तू निश्चय उद्धार पाएगा। क्योंकि धामिर्कता के लिये मन से विश्वास किया जाता है, और उद्धार के लिये मुंह से अंगीकार किया जाता है” (रोमियों 10:9-10)।

* क्योंकि पाप धर्म के उल्लंघन से नहीं है, इसलिए इसके निवारण में भी किसी भी धर्म का (वह चाहे कोई भी धर्म, चाहे ईसाई धर्म ही क्यों न हो), कोई भी स्थान या महत्व नहीं है “क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है, और यह तुम्हारी ओर से नहीं, वरन परमेश्वर का दान है। और न कर्मों के कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे” (इफिसियों 2:8-9)। 

* समस्या व्यक्तिगत रीति से परमेश्वर और मनुष्य के मध्य विश्वास में विच्छेद से उत्पन्न हुई; आदम और हव्वा ने व्यक्तिगत रीति से, अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार, अनाज्ञाकारिता, अर्थात, पाप करने का निर्णय लिया। मनुष्य ने शैतान की बातों में आकर परमेश्वर की कही बातों, उसके द्वारा मनुष्य के लिए दिए प्रावधानों, तथा मनुष्य के प्रति परमेश्वर की इच्छा तथा योजना के सर्वोत्तम और भले होने पर अविश्वास किया; और इसी अविश्वास के अन्तर्गत मनुष्य ने अपनी समझ-बूझ, अपने आँकलन को परमेश्वर की समझ-बूझ और उसके आँकलन से बेहतर समझा, जिसके कारण फिर उन्होंने परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता भी की। 

* इसीलिए प्रत्येक मनुष्य के पाप का समाधान भी परमेश्वर और प्रत्येक मनुष्य के मध्य व्यक्तिगत रीति से विश्वास को पुनः स्थापित करने के द्वारा ही है। 

* इसके लिए अनिवार्य है कि प्रत्येक मनुष्य स्वेच्छा से परमेश्वर की हर बात को, हर बात के लिए परमेश्वर की समझ-बूझ और हर बात के लिए परमेश्वर के आँकलन एवं समाधान को, अपनी बात, अपनी समझ-बूझ और अपने आँकलन से उत्तम तथा सर्वोपरि स्वीकार करे, और अपने आप को, अपनी हर सोच-समझ, दृष्टिकोण, प्रवृत्ति, सूझ-बूझ और व्यवहार को पूर्णतः परमेश्वर के हाथों में समर्पित कर दे। 

* अपनी नहीं वरन केवल और केवल परमेश्वर के कहे के अनुसार ही करे - उस आज्ञाकारिता की दशा में आ जाए, जिसमें उसकी रचना की गई थी, और जिसके निर्वाह के लिए उसे कहा गया था।

    

    हम इस प्रश्न पर विचार को ज़ारी रखेंगे; किन्तु अभी के लिए आपके सामने यह प्रश्न है - आप अपने आप को परमेश्वर के समक्ष ग्रहण योग्य किस प्रकार बना रहे हैं - अपने धर्म-कर्म के द्वारा, अथवा प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास के द्वारा? परमेश्वर के वचन बाइबल में दिया गया उद्धार का मार्ग किसी धर्म का पालन करना नहीं वरन केवल प्रभु यीशु मसीह को उद्धारकर्ता स्वीकार का लेना ही है “यीशु ने उस से कहा, मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुंच सकता” (यूहन्ना 14:6)। यदि आपने अभी तक उसे अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता स्वीकार नहीं किया है, तो अभी यह करने का अवसर आपके पास है। आपकी स्वेच्छा, सच्चे मन और अपने पापों के लिए पश्चाताप के साथ की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु, मैं मान लेता हूँ कि मैंने मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता करके पाप किया है। मैं धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों को अपने ऊपर लेकर, मेरे स्थान पर उनके मृत्यु-दण्ड को कलवरी के क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा सह लिया। आप मेरे स्थान पर मारे गए, और मेरे उद्धार के लिए मृतकों में से जी भी उठे। कृपया मुझ पर दया करें और मेरे पाप क्षमा करें। मुझे अपना शिष्य बना लें, और अपनी आज्ञाकारिता में अपने साथ बना कर रखें” आपको पाप के विनाश से निकालकर परमेश्वर के साथ संगति और उसकी आशीषों में लाकर खड़ा कर देगी। क्या आप यह प्रार्थना अभी समय रहते करेंगे - निर्णय आपका है?



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 Understanding Sin and Salvation – 7

English Translation

The Solution For Sin - Salvation - 4


In the last three articles, we've looked at our first question related to considering salvation, “from whom and why"; based on the description given in the first book of the Bible, Genesis chapter 3; And in the previous article we had seen the conclusion of this question. In the conclusion, we had looked at both of these points, “salvation from whom or what” and “salvation - why”. These conclusions are summarized as follows:

* From whom - Salvation or being saved is from the ill effects of sin, which cause spiritual and physical death in humans, and create fear, ego, guilt, shame, distance from God, tendency of making excuses for one's mistakes and blaming others, and of ignoring God's grace. And we see all of these to be rampant in all of the people of the world, since everyone is under the effect and control of sin. 

* Why - because our Creator God still loves all of us human beings, wants to be in fellowship with us, despite our being in sin. He wants to see us reconciled to Him, and to voluntarily accept the status of becoming His sons and daughters (John 1:2-13). He does not want to see us in destruction, but in blessings and wants to give us a place in heaven with Him. To accept or not to accept this intention and invitation of God is the personal decision of each person.


Salvation - How?

From today we will look into the second question, “How can one attain this salvation?” And our discussion will continue to be based on the description of the first sin as is given in chapter 3 of the first book of the Bible, Genesis.


We've seen that salvation, or to be saved, means to obtain a reversal of the destructive process and consequences brought about by that first sin, to be restored back to our original state of creation, and consequently to be restored back into the fellowship with God which was broken because of sin. And thereby we get to escape from coming into that eternal separation from the Lord God, i.e., from eternal death.


Consider a few concepts that are very important to know, essential to grasp, and crucial to understand how man receives salvation:

* Because of that first sin of man nothing related to the practice of any religion was violated – because when that first sin happened, then there was no religion at all! Because God has no religion, and God never created or made any religion, therefore religion has nothing whatsoever to do with this situation and its consequences. All religions of the world, including Christianity, are the product of the mind and thoughts of a fallen man, and therefore, no religion can reverse the tendency and mentality brought by sin into mankind, to turn them away from God. The product of a sinful mind and heart cannot ever provide a way to return man back to the state of holiness and purity from God. “Who can bring a clean thing out of an unclean? No one!" (Job 14:4).

* That is why, in spite of all the claims and assurances, no religion has ever been able to make any man sinless, holy, and capable to stand before God. “But we are all like an unclean thing, And all our righteousnesses are like filthy rags; We all fade as a leaf, And our iniquities, like the wind, Have taken us away” (Isaiah 64:6).

* The only way to lift man out from sin is through his acceptance and repentance of sins, his asking forgiveness for them from the Lord Jesus Christ, and his becoming a disciple of the Lord Jesus Christ willingly and with complete submission. It is not by coming into Christianity or any religion, but into the Christian faith. “Truly, these times of ignorance God overlooked, but now commands all men everywhere to repent" (Acts 17:30). “that if you confess with your mouth the Lord Jesus and believe in your heart that God has raised Him from the dead, you will be saved. For with the heart one believes unto righteousness, and with the mouth confession is made unto salvation” (Romans 10:9-10) - nothing related to any religion; only repentance, confession and faith in Christ Jesus.

* Since sin did not result from the violation of any religion, so no religion (whatever religion it may be, even it be Christianity) has any place or importance in its solution and resolution "For by grace you have been saved through faith, and that not of yourselves; it is the gift of God, not of works, lest anyone should boast” (Ephesians 2:8-9).

* The problem arose because of a personal falling away from trust of man in God and His Word, His instructions. Adam and Eve on their own and individually, according to their own wisdom and understanding, took the decision to disobey God, i.e., to sin. Man, being enticed by the words of Satan, disbelieved in what God had said, he disbelieved in the provisions God had made for man, and disbelieved in trusting that God’s desires and plans are the best for man. And under this unbelief, man considered his own understanding, his own assessment to be better than God's understanding and God’s assessment, due to which he decided to disobey God.

* That is why the solution to each man's sin is also by re-establishing this trust between God and each man in a personal way.

* For this it is necessary for every man to willingly accept everything of God, to accept that the understanding of God for everything and the assessment and solution of God for everything, is over and above man’s own thoughts, man’s own understanding and assessment. That man should voluntarily and completely surrender himself into the hands of God; in each and every of his thoughts, wisdom, attitude, point of view, understanding and behavior.

* It is also necessary that man instead of doing according to his own understanding, will and desires, should do only and only according to what God says - that he come back into the state of obedience in which he was created, and to which he was called.


    We will continue to consider this question in the subsequent articles; But the question before you for now is - how are you making yourself acceptable to God - through your own contrived works of righteousness, or by faith in the Lord Jesus Christ? The only way to salvation given in God's Word the Bible is not following any religion but accepting the Lord Jesus Christ as savior “Jesus said to him, "I am the way, the truth, and the life. No one comes to the Father except through Me" (John 14:6). If you haven't yet accepted Him as your personal Savior, now is your chance to do so. A short prayer said voluntarily with a sincere heart and with heart-felt repentance for your sins, and in a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible or not, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 


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गुरुवार, 28 नवंबर 2024

Understanding Sin and Salvation – 3 / पाप और उद्धार को समझना – 3

 

पाप और उद्धार को समझना – 6

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पाप का समाधान - उद्धार - 3

पिछले दो लेखों में हमने उद्धार से संबंधित पहले प्रश्न – “उद्धार किससे और क्यों” को देखा है। बाइबल की प्रथम पुस्तक, उत्पत्ति के 3 अध्याय में दिए गए विवरण के अनुसार इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए, आज हम इस प्रश्न के निष्कर्ष को देखेंगे।

 

पिछले लेखों में हमने देखा था कि पाप के कारण मनुष्य में दोष-बोध, लज्जा, सत्य का सामना करने का डर, परमेश्वर से छिपना, अपनी लज्जा और दोष को अपने प्रयासों से छुपाने की प्रवृत्ति, अपने आप को सही दिखाने के लिए बहाने बनाने तथा दूसरों पर दोषारोपण करने की प्रवृत्ति, और उसमें अहं, अर्थात अपनी गलती को स्वीकार न करने, वरन दूसरों को ही दोषी देखने का स्वभाव आ गया। साथ ही पाप के कारण सृष्टि भी पाप के श्राप में पड़ गई, और उससे निकाले जाने की बाट जोह रही है (रोमियों 8:19-21)। मनुष्य को अपनी गलती मान लेने और पश्चाताप करने, के अवसर देने के बाद भी जब मनुष्य ने परमेश्वर द्वारा दिए गए अवसर को स्वीकार नहीं किया, उसका लाभ नहीं उठाया, अपने अहं में ही बना रहा, तो अन्ततः परमेश्वर को फिर उसे क्षमा की संभावना से निकाल कर अपने न्याय के नीचे लाना पड़ा।

  

जैसे परमेश्वर ने मनुष्य को आरंभ से ही चेतावनी दी थी (उत्पत्ति 2:17), इस पाप के कारण मनुष्य मृत्यु के अधीन आ गया - जो दो प्रकार से उसके जीवन में कार्यान्वित हुई। आत्मिक रीति से वह परमेश्वर की संगति से बिछड़ गया, और शारीरिक रीति से उसी समय से (और तब से मनुष्य के जन्म लेते ही) उसके पल-पल करके मरते चले जाने की अपरिवर्तनीय प्रक्रिया आरंभ हो गई, जो अन्ततः उसकी शारीरिक मृत्यु के साथ पूरी होती है। साथ ही ये सभी बातें, पाप के प्रभाव और मृत्यु, वांशिक, अर्थात फिर उसकी संतान में भी आने वाली भी हो गईं। न केवल पाप के दण्ड के अंतर्गत मनुष्य मृत्यु के अधीनता में आया, वरन उसे अन्य बातों को भी सहना पड़ गया। स्त्री को कहा गया कि उसके प्रसव की पीड़ा और भी अधिक बढ़ जाएगी और वह पीड़ा के साथ बच्चे जनेगी; तथा उसे उसके पति की प्रभुता में दे दिया गया (उत्पत्ति 3:16)। आदम के पाप के कारण भूमि भी श्रापित ठहराई गई, और ठहराया गया कि आदम वाटिका के अच्छे फलों (उत्पत्ति 2:9, 16) के स्थान पर अब जीवन भर बहुत परिश्रम और दुख के साथ पृथ्वी की उपज खाएगा, और पृथ्वी से उसके परिश्रम में व्यर्थ की उपज भी उत्पन्न होती रहेगी (उत्पत्ति 3:17-19) उसे उस आशीषित स्थान, अदन की वाटिका से निकाल दिया गया (उत्पत्ति 3:23-24)।

 

किन्तु केवल ये दुखद बातें ही पाप के प्रति परमेश्वर के न्याय के व्यवहार का प्रकटीकरण नहीं थीं। ये बातें उसके न्याय को दिखाती हैं; किन्तु साथ ही परमेश्वर ने अपने प्रेमी, दयालु, और अनुग्रहकारी, कृपालु स्वभाव को भी इनके साथ व्यक्त किया। परमेश्वर ने अपने विषय बाइबल में लिखवाया है कि उसकी हर योजना उसके लोगों की भलाई के लिए ही होती है: “क्योंकि यहोवा की यह वाणी है, कि जो कल्पनाएं मैं तुम्हारे विषय करता हूँ उन्हें मैं जानता हूँ, वे हानि की नहीं, वरन कुशल ही की हैं, और अन्त में तुम्हारी आशा पूरी करूंगा” (यिर्मयाह 29:11); “और हम जानते हैं, कि जो लोग परमेश्वर से प्रेम रखते हैं, उन के लिये सब बातें मिलकर भलाई ही को उत्पन्न करती है; अर्थात उन्हीं के लिये जो उस की इच्छा के अनुसार बुलाए हुए हैं” (रोमियों 8:28)। इस प्रथम पाप, प्रथम न्याय, और प्रथम दण्ड की प्रक्रिया में भी हम परमेश्वर के इन गुणों को देखते हैं। परमेश्वर ने दण्ड के साथ ही उनके प्रति अपने प्रेम और देखभाल को भी व्यक्त किया:


* उसने उनके बनाए हुए नाशमान और अस्थाई पत्तों के अँगरखों के स्थान पर उन्हें चमड़े के अँगरखे बना कर पहना दिए, जो लंबे समय तक चल सकते थे। (उत्पत्ति 3:21)


* परमेश्वर ने स्त्री को यह प्रतिज्ञा भी दी कि पाप से छुड़ाने और पहली स्थिति में बहाल करने वाला जगत का उद्धारकर्ता भी उसी में से होकर आएगा, पुरुष का नहीं, उसका वंश होगा (उत्पत्ति 3:16)। यह बात प्रभु यीशु में होकर पूरी हुई, जो अपनी माता मरियम के कुँवारेपन में, पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से गर्भवती हुई, और आदम के नहीं, परमेश्वर के पुत्र की माता बनाई गई, “जब वह इन बातों के सोच ही में था तो प्रभु का स्वर्गदूत उसे स्वप्न में दिखाई देकर कहने लगा; हे यूसुफ दाऊद की सन्तान, तू अपनी पत्नी मरियम को अपने यहां ले आने से मत डर; क्योंकि जो उसके गर्भ में है, वह पवित्र आत्मा की ओर से है। वह पुत्र जनेगी और तू उसका नाम यीशु रखना; क्योंकि वह अपने लोगों का उन के पापों से उद्धार करेगा। यह सब कुछ इसलिये हुआ कि जो वचन प्रभु ने भविष्यद्वक्ता के द्वारा कहा था; वह पूरा हो। कि, देखो एक कुंवारी गर्भवती होगी और एक पुत्र जनेगी और उसका नाम इम्मानुएल रखा जाएगा जिस का अर्थ यह है “परमेश्वर हमारे साथ”।” (मत्ती 1:20-23)। परमेश्वर के कृपालु होने का यह अद्भुत उदाहरण है - जिस के द्वारा पाप और उसकी बरबादी ने संसार में प्रवेश किया, उसे नष्ट, नहीं तो कम से कम नजरंदाज करने के स्थान पर, उसी के द्वारा पाप और उसके दुष्प्रभावों का निवारण करने वाले को भी संसार में भेजे जाने की प्रतिज्ञा परमेश्वर ने इस आरंभिक स्थिति में ही दे दी।


* पति की ओर स्त्री की लालसा रखने तथा स्त्री को पति के अधिकार में रखने के द्वारा परमेश्वर ने अब परिवार का मुख्या होने का अधिकार आदम को दे दिया।

 

* परमेश्वर चाहता तो आदम और हव्वा को नष्ट कर के, एक नए मनुष्य की रचना कर सकता था; किन्तु उसने ऐसा नहीं किया। उसने उसी मनुष्य के साथ, जिसे उसने अपने स्वरूप में अपने हाथों से बनाया था, और जिसे अपनी श्वास के द्वारा जीवित प्राणी बनाया था, आगे भी पृथ्वी पर कार्य करते रहने को चुना, और उसी में से संसार को पाप से छुड़ाने वाले को लाने का प्रयोजन किया।

 

* परमेश्वर ने आदम और हव्वा को अदन की वाटिका, उस आशीष और परमेश्वर की संगति के स्थान से तो निकाला, किन्तु पृथ्वी पर से नहीं निकाला; और न ही उनसे समस्त पृथ्वी और जीव-जंतुओं पर दिए गए अधिकार (उत्पत्ति 1:26-28) को वापस लिया।

 

* अदन की वाटिका के बाहर भी परमेश्वर उनकी देखभाल करता रहा, उनकी सहायता करता रहा:

# अपने प्रथम संतान के प्रसव के समय हव्वा ने कहा, “जब आदम अपनी पत्नी हव्वा के पास गया तब उसने गर्भवती हो कर कैन को जन्म दिया और कहा, मैं ने यहोवा की सहायता से एक पुरुष पाया है” (उत्पत्ति 4:1)। यह पृथ्वी पर मनुष्य का पहला जन्म था; न आदम को और न हव्वा को कुछ पता था कि क्या और कैसे करना है; किन्तु इसमें परमेश्वर ने स्वयं उनकी सहायता की।


# अपने भाई की हत्या करने, और परमेश्वर से झूठ बोलने वाले कैन के प्रति भी परमेश्वर ने सहनशीलता का बर्ताव किया, उसे सुरक्षा प्रदान की (उत्पत्ति 4:13-16)।

 

इसके बाद भी बाइबल और शेष मानव इतिहास में भी हम परमेश्वर के पापी, अनाज्ञाकारी, और ढीठ मनुष्यों के प्रति भी इसी प्रकार प्रेमी, अनुग्रहकारी, और कृपालु होने के अनेकों उदाहरणों देखते हैं। इन बातों के आधार पर हम अपने इस पहले प्रश्न “यह उद्धार, अर्थात बचाव, या सुरक्षा किस से और क्यों होना है?” के विषय क्या निष्कर्ष देख सकते हैं? निष्कर्ष स्पष्ट प्रकट हैं:


किस से - उद्धार या बचाव पाप के दुष्प्रभावों से होना है, जिन के कारण मनुष्यों में आत्मिक एवं शारीरिक मृत्यु, डर, अहं, दोष, लज्जा, परमेश्वर से दूरी, अपनी गलतियों के लिए बहाने बनाना तथा दूसरों पर दोषारोपण करने, परमेश्वर की कृपा को नजरंदाज करने जैसी प्रवृत्ति और भावनाएं आ गई हैं। प्रभु यीशु मसीह हमें पाप के प्रभावों से मुक्त कर के “पवित्र, निष्कलंक, निर्दोष, बेदाग और बेझुर्री” बनाकर अपने साथ, अपनी कलीसिया, अर्थात मसीही विश्वासियों के कुल समुदाय को, अपनी दुल्हन बनाकर खड़ा करना चाहता है (इफिसियों 5:25-27)।

 

क्यों - क्योंकि हमारा सृष्टिकर्ता परमेश्वर हम सभी मनुष्यों से अभी भी प्रेम करता है, हमारे साथ संगति में रखना चाहता है, चाहता है कि हम उस से मेल-मिलाप कर लें, और उसके पुत्र-पुत्री होने के दर्जे को स्वीकार कर लें (यूहन्ना 1:2-13)। वह हमें विनाश में नहीं आशीष में देखना चाहता है। उसने केवल मनुष्य बनाए; मनुष्यों ने अपने आप को स्थान, धर्म, जाति, कुल, रंग, स्तर, शिक्षा, कार्य आदि हर बात के अनुसार विभाजित कर लिया, अपने अंदर ऊँच-नीच ले आया, एक दूसरे से बैर, विरोध, ईर्ष्या, घमंड, दुर्भावना आदि रखने लगा। ये परमेश्वर का किया हुआ नहीं है, वरन पापी मनुष्य की बिगड़ी हुई सोच का परिणाम है, वे “अंजीर के पत्ते” हैं जिनसे मनुष्य अपनी लज्जा को ढाँपना चाहता है, किन्तु ढाँपने के स्थान पर अपनी लज्जा और दोष को और बढ़ाता रहता है। परमेश्वर उससे फिर भी प्रेम करता है, और इन सभी बातों से ऊपर उठकर उसे अपने साथ स्वर्ग में स्थान देना चाहता है। परमेश्वर की इस मनसा को स्वीकार करना अथवा नहीं करना, मनुष्य का अपना निर्णय है।

 

क्या आपने परमेश्वर के इस प्रेम, सहनशीलता, अनुग्रह और कृपा के पक्ष में निर्णय लिया है? यदि नहीं, तो आप अभी यह कर सकते हैं; आपकी स्वेच्छा, सच्चे मन और अपने पापों के लिए पश्चाताप के साथ की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु, मैं मान लेता हूँ कि मैंने मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता करके पाप किया है। मैं धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों को अपने ऊपर लेकर, मेरे स्थान पर उनके मृत्यु-दण्ड को कलवरी के क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा सह लिया। आप मेरे स्थान पर मारे गए, और मेरे उद्धार के लिए मृतकों में से जी भी उठे। कृपया मुझ पर दया करें और मेरे पाप क्षमा करें। मुझे अपना शिष्य बना लें, और अपनी आज्ञाकारिता में अपने साथ बना कर रखें” आपको पाप के विनाश से निकालकर परमेश्वर के साथ संगति और उसकी आशीषों में लाकर खड़ा कर देगी। क्या आप यह प्रार्थना अभी समय रहते करेंगे - निर्णय आपका है?


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 Understanding Sin and Salvation – 6

English Translation

The Solution For Sin - Salvation - 3


In the last two articles, we've looked at the first question related to salvation – “salvation from whom and why.” Continuing on this theme, as described in Chapter 3 of the first book of the Bible, Genesis, we will look at the conclusion of this question today.


In the previous articles, we saw that sin creates guilt and a sense of shame in man, makes him feel afraid of facing the truth, provokes him to hide from God, and to try to hide his shame and guilt through his own vain efforts, and gives him a tendency to make excuses to show himself right. And it also raises up man’s ego, the tendency of not accepting one's mistake, but to blame others for his mistakes, and a nature of seeing and judging the faults of others rather than their own self. Along with man, because of his sin, the creation also came under the curse of sin and is waiting to be delivered from it (Romans 8:19-21). Even after giving man an opportunity to admit his mistake and repent, when man did not accept the opportunity given by God, did not take advantage of it, remained in his ego, then finally God had to take him out of being in the position of obtaining His grace, and to put him in the place of having to face His justice.


Just as God had warned man from the beginning (Genesis 2:17), because of this sin, man came under death — which took effect in his life in two ways. Spiritually he was separated from the fellowship with God, and physically from that moment onwards he (and from then on, all human beings since the moment of their birth) became subject to the irreversible process of dying moment by moment, which eventually culminates in his physical death. At the same time, all these things, the effects of sin and death, also became hereditary, i.e., they also were passed on to his posterity. Not only did man come under the penalty of death due to the curse of sin, but he also had to endure other things while he stayed alive. The woman was told that the pain of her labor would intensify and that she would bear children in pain; And she was brought under the lordship of her husband (Genesis 3:16). The land was also cursed because of Adam's sin, and it was ordained that Adam, in place of the good fruits of the Garden (Genesis 2:9, 16), would eat the produce of the earth with great labor and suffering for the rest of his life; and for all his toils the earth will also produce thorns and thistles - vain and useless produce (Genesis 3:17–19). They were cast out of that blessed place, the Garden of Eden (Genesis 3:23–24).


But these sad things weren't the only manifestations of God's justice for sin. These things show God’s justice; But simultaneously, God also expressed His loving, merciful, gracious, and caring nature to them. God has written about Himself in the Bible that all His plans are for the good of His people: “For I know the thoughts that I think toward you, says the Lord, thoughts of peace and not of evil, to give you a future and a hope” (Jeremiah 29:11); “And we know that all things work together for good for those who love God; That is, to those who are called according to his will" (Romans 8:28). We see these qualities of God in the process of God’s dealing with this first sin, first judgment, and first punishment. God expressed His love and care for them as well, along with the punishment:


* He replaced the perishable and temporary tunics of leaves man had made for himself with durable leather tunics that could last a long time. (Genesis 3:21)


* God also promised the woman that the Savior of the world, who will redeem mankind from sin and restore them to the initial position, will also come through her; will not be through a man's seed, but her (Genesis 3:16). This was accomplished in the Lord Jesus, who was conceived by the power of the Holy Spirit, in the womb of Mary while she was a virgin, and she was made the mother of the Son of God, not son of Adam, "But while he thought about these things, behold, an angel of the Lord appeared to him in a dream, saying, "Joseph, son of David, do not be afraid to take to you Mary your wife, for that which is conceived in her is of the Holy Spirit. And she will bring forth a Son, and you shall call His name Jesus, for He will save His people from their sins." So, all this was done that it might be fulfilled which was spoken by the Lord through the prophet, saying: "Behold, the virgin shall be with child, and bear a Son, and they shall call His name Immanuel," which is translated, "God with us."" (Matthew 1:20-23). This is a wonderful example of God's graciousness - the one by whom sin and its ruining effects entered the world, instead of destroying her, or, at least ignoring her, she was given the promise of bringing into the world the one who will remove the effects of sin and its ill effects, in this initial state itself by God.


* By giving a longing in the woman towards her husband and placing the woman under the headship of the husband, God now gave Adam the right to be the head of the family.


* If God wanted, he could destroy Adam and Eve and create a new man; But he did not do so. He chose to continue working on the earth with the same man He had created in His image with His own hands, and made a living being by His breath, and to bring forth from him the one who would redeem the world from sin.


* God put Adam and Eve out of the Garden of Eden, the place of blessing and fellowship with God, but not from the earth; Nor did He take away the authority given to them over all the earth and animals (Genesis 1:26-28).


* God kept on caring for them, helping them even when they were outside the Garden of Eden:

# At the time of the delivery of her first child, Eve said, “Now Adam knew Eve his wife, and she conceived and bore Cain, and said, "I have acquired a man from the Lord."” (Genesis 4:1). This was the first child-birth of man on earth; Neither Adam nor Eve knew anything about what to do or how, in this whole process of child-birth; but God Himself helped them in this.


# God also showed tolerance, providing protection for Cain who had lied to God, and had killed his brother (Genesis 4:13-16).


    In the Bible, even after this and in the rest of human history, we see many examples of God being similarly loving, gracious, and kind to sinful, disobedient, and stubborn humans. On the basis of these things, we can think about our first question “from whom is this salvation, i.e., being saved, or delivered, and why?” and derive the conclusions; the conclusions are clear:


From whom - Salvation, i.e., being saved, or delivered, is from the ill effects of sin, which causes a tendency of ignoring and putting aside God's grace in man, and creates fear, ego, guilt, shame, distance from God, making excuses for one's mistakes and blaming others, and has brought spiritual and physical death in humans. The Lord Jesus Christ wants to free and clean us i.e., the universal assembly of Christian Believers, His Church, from all the effects of sin and make us “holy, spotless, without any blemish and wrinkle” (Ephesians 5:25- 27), to stand with Him at His side as His Bride.


Why - because our Creator God, despite our sinful state, still loves all of us human beings. He wants to have fellowship with us restored, and wants us to be reconciled to him, and accept the status of being His sons & daughters (John 1:2-13). He wants to see us in a state of blessing, not in destruction. He created only humans; it is we humans who have divided ourselves according to place, religion, caste, clan, color, status, education, work etc., made ourselves as high or low, brought mutual enmity, hatred, jealousy, pride, malice etc. in our relationships. These are not the design or work of God, but the result of the corrupted thinking of sinful man, they are the "fig leaves" with which man wants to cover his shame, but instead of covering, keeps on multiplying his shame and guilt. God still loves us, and wants us to rise above all these things, and desires to give us a place in heaven with Him. To accept or not to accept this desire and invitation of God is each man's own decision.


Have you decided in favor of God's love, tolerance, grace and kindness? If not, you can do it now; A short prayer said voluntarily with a sincere heart and with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, and have committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible or not, is your personal decision. Will you say this prayer while you have the time and opportunity - the decision is yours.


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