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शनिवार, 21 दिसंबर 2024

Recapitulation of Necessities / अनिवार्यताओं का पुनःअवलोकन

 

पाप और उद्धार को समझना – 29

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पाप का समाधान - उद्धार - 26

अनिवार्यताओं का पुनःअवलोकन

    पिछले लेखों में एकत्रित किए गए, सीखे तथा समझे गए, पाप और उद्धार, और प्रभु यीशु मसीह के जन्म, जीवन, कार्य, मृत्यु, और पुनरुत्थान से संबंधित तथ्यों के आधार पर अब हम देखेंगे कि प्रभु यीशु मसीह ने संसार के सभी लोगों के लिए यह पापों की क्षमा, उद्धार, और परमेश्वर से मेल-मिलाप करवाकर, अदन की वाटिका में मनुष्य के पाप द्वारा खोई हुई स्थिति को किस प्रकार सभी मनुष्यों के लिए बहाल किया, और उनके लिए इस आशीष को प्राप्त कर लेने का मार्ग कैसे बना कर दिया, और इस महान कार्य से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों पर भी विचार करेंगे।

   इस बात को समझने के लिए हमें पहले देखी गई बातों को ध्यान में रखना होगा, उन्हें स्मरण करते रहना होगा। आज, पहले हम उन छः अनिवार्यताओं को देखते हैं, जो मनुष्यों के पापों का समाधान और निवारण करके देने वाले उस सिद्ध मनुष्य में होनी अनिवार्य थीं:

   

अनिवार्यता

प्रभु यीशु मसीह में पूर्ति

वह एक मनुष्य हो।  

प्रभु यीशु, माता के गर्भ में आने से लेकर उनकी मृत्यु होने तक, हर रीति से पूर्णतः मनुष्य थे; सामान्य साधारण मनुष्यों के सभी अनुभवों में से होकर निकले थे; और वे पूर्णतः परमेश्वर भी थे। 

वह अपने जीवन भर मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में पूर्णतः निष्पाप, निष्कलंक, और पवित्र रहा हो। 

प्रभु यीशु ने निष्पाप, निष्कलंक, निर्दोष, पवित्र, और सिद्ध जीवन व्यतीत किया। आज तक कभी भी, कोई भी उनके जीवन में किसी भी प्रकार के पाप को न दिखा सका है और न प्रमाणित कर सका है। 

वह अपना जीवन और सभी कार्य परमेश्वर की इच्छा और आज्ञाकारिता में होकर, उसे समर्पित रहकर करे। 

प्रभु यीशु मसीह ने अपने जन्म से लेकर मृत्यु, पुनरुत्थान, और स्वर्गारोहण तक, पृथ्वी के अपने समय में अपनी हर बात को परमेश्वर की इच्छा के अनुसार, और परमेश्वर के वचन में उनके बारे में दी गई भविष्यवाणियों के अनुसार ही किया। उन्होंने अपने आप को शून्य किया, परमेश्वर पिता की पूर्ण आज्ञाकारिता में, कोई आनाकानी अथवा संदेह किए बने रहे, और इस आज्ञाकारिता में पापी मनुष्यों के लिए क्रूस की मृत्यु भी सह ली। 

वह स्वेच्छा से सभी मनुष्यों के पापों को अपने ऊपर लेने और उनके दण्ड - मृत्यु को सहने के लिए तैयार हो।  

क्योंकि प्रभु यीशु निष्पाप और सिद्ध थे, इसलिए मृत्यु का उन पर कोई अधिकार नहीं था। उन्हें किसी भी अन्य स्वाभाविक मनुष्य के समान मृत्यु भोगने की आवश्यकता नहीं थी; और न ही उनमें कोई दोष अथवा अपराध था, जिसके लिए उन्हें कोई दण्ड सहना हो। 

   किन्तु उन्होंने क्रूस की अत्यंत पीड़ादायक और भयानक मृत्यु स्वेच्छा से सभी मनुष्यों के लिए सहन कर ली। 

वह मृत्यु से वापस लौटने की सामर्थ्य रखता हो; मृत्यु उस पर जयवंत नहीं होने पाए। 

सारे संसार के इतिहास में केवल एक प्रभु यीशु मसीह ही हैं जो मर कर भी अपनी उसी देह में वापस आए। उनका जीवन, उनकी मृत्यु, और उनका मृतकों में से पुनरुत्थान संसार के इतिहास में भली-भांति जाँचा, परखा, और प्रमाणित तथ्य है, जिसे पिछले 2000 वर्षों से लेकर आज तक कोई भी गलत अथवा झूठ प्रमाणित नहीं कर सका है। 

   जिन्होंने उसे गलत प्रमाणित करने के प्रयास किए, वे करने नहीं पाए और उनमें से बहुतेरे अंततः उपलब्ध प्रमाणों के समक्ष प्रभु यीशु मसीह के अनुयायी बन गए, उन्हें अपना उद्धारकर्ता स्वीकार कर लिया। 

वह अपने इस महान बलिदान के प्रतिफलों को सभी मनुष्यों को सेंत-मेंत देने के लिए तैयार हो। 

प्रभु यीशु ने सदा सब का भला ही किया, अपने बैरियों, विरोधियों, और सताने वालों का भी भला चाहा, उन्हें क्षमा किया, और उनके हित की चाह रखी। 

   उन्होंने अपने जीवन, शिक्षाओं, मृत्यु, और पुनरुत्थान से मिलने वाले लाभ कभी भी अपने पास नहीं रखे; और न ही उनके लिए कभी कोई कीमत लगाई। 

   उन्होंने पाप और मृत्यु पर प्राप्त अपनी विजय को सेंत-मेंत सारे संसार के लिए उपलब्ध करवा दिया, और यह आज भी सारे संसार के सभी लोगों के लिए उपलब्ध है। 

 

    यदि आप अभी भी प्रभु यीशु मसीह में, उनके जीवन, शिक्षाओं, बलिदान, और पुनरुत्थान में; और उनके आपकी वास्तविक पापमय स्थिति को भली-भांति जानने के बावजूद भी आपके लिए उनके प्रेम में विश्वास नहीं करते हैं, तो आप स्वयं भी प्रभु यीशु के जीवन, मृत्यु, और पुनरुत्थान से संबंधित प्रमाणों की जाँच कर सकते हैं, अपने आप को संतुष्ट कर सकते हैं। प्रभु यीशु आपको इस सांसारिक नाशमान जीवन से अविनाशी जीवन में लाना चाहता है; पाप के परिणाम से निकालकर परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप करवाकर अब से लेकर अनन्तकाल के लिए आपको स्वर्गीय आशीषों का वारिस बनाना चाहता है। 

प्रभु यीशु ने तो अपना काम कर के दे दिया है; किन्तु क्या आपने उसके इस आपकी ओर बढ़े हुए प्रेम और अनुग्रह के हाथ को थाम लिया है, उसकी भेंट को स्वीकार कर लिया है? या आप अभी भी अपने ही प्रयासों के द्वारा वह करना चाह रहे हैं जो मनुष्यों के लिए कर पाना असंभव है। 

शैतान की किसी बात में न आएं, उसके द्वारा फैलाई जा रही किसी गलतफहमी में न पड़ें, अभी समय और अवसर के रहते स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों से पश्चाताप कर लें, अपना जीवन उसे समर्पित कर के, उसके शिष्य बन जाएं। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा। 

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 Understanding Sin and Salvation – 29

English Translation

The Solution For Sin - Salvation - 26

Recapitulation of Necessities


    Now, on the basis of the facts related to sin and salvation, and the birth, life, works, death, and resurrection of the Lord Jesus Christ, all of which we have gathered together, understood and learnt, in the previous articles, we will see how the Lord Jesus made available the forgiveness for sin and salvation for the whole world, for entire mankind, provided the way for man’s reconciliation with God, and thereby the way to restoring back to man that which he lost in the Garden of Eden, restoring his blessings from God. We will also consider some related important questions as well.


To understand this, we need to keep in mind what we have seen so far, and keep reminding ourselves of them. Let us first look at the six imperatives, which needed to be fulfilled for the atonement and solution for sin, and had to be present in the perfect man who would accomplish the work of redemption. 


Imperative

Fulfillment in the Lord Jesus

He must be a man.  

The Lord Jesus, from the time of coming into the womb of His mother, till His death, was fully a man, in all respects; He went through the same situations and experiences as any other common man; He was fully God as well. 

He should have remained totally sinless, spotless, and holy throughout his life, in everything in his mind, heart, thoughts, and behavior. 

The Lord Jesus lived a sinless, spotless, guiltless, holy, and perfect life on earth. To date, no one has ever been able to show any sin, nor prove any shortcoming in His life. 

He would do everything in his life totally submitted to God and according to the will of God.

The Lord Jesus, from His birth to His death, resurrection, and ascension to heaven, everything of His life on earth, He did according to the will of God, and to fulfill the prophecies written in God’s Word about Him. He emptied Himself, always fully obeyed God the Father, without any doubts or reluctance to what God had said, and in this obedience, He even suffered the death of the cross.

He would be willing to voluntarily take all the sins of the entire mankind upon himself and suffer their punishment - death for everyone. 

Since the Lord Jesus was sinless and perfect, therefore, death had no hold on Him. He had no need to suffer death like any natural man; And neither did He have any fault or shortcoming, for which He needed to suffer any punishment. 

Nevertheless, He suffered the extremely painful and horrible death of the cross for all of mankind.

He should be capable of returning back from death; death should never be victorious over him.

In the entire history of the world, it is only the Lord Jesus who died and then came back to life in the same body. His life, His death, and His resurrection from the dead is a well examined, cross-checked, and proven fact, and nobody has been able to disprove it for the past 2000 years, since it happened. 

   Those who tried to disprove it, they could not do so, and many of them, in view of the proofs in front of them, became the followers of the Lord Jesus, accepted Him as their Lord and Savior.

He would be willing to freely share the benefits of His great sacrifice with all of mankind.  

The Lord Jesus only did good to everyone, wanted the good of even His enemies, opponents, and tormentors, He forgave them, and wanted to do something beneficial for them. 

   He never kept to Himself any of the benefits of His life, death, and resurrection, nor did He ever put any price to them. 

  He made available the victory He won over sin and death freely to the entire world, and even today it is freely available to everyone who wants to take it.

If you too, despite knowing your own sinful condition, still do not believe in the love that the Lord Jesus has for you, in His life, teachings, sacrifice, and resurrection, then you too can examine and evaluate all the evidences available about the Lord, His life, death and resurrection, and then draw your own conclusions. The Lord wants to draw you out of this temporal life into eternal life with Him. He wants to redeem you from the consequences of sin, to reconcile you with God, and make you a child of God, inheritor of God’s heavenly eternal blessings. Please do not get beguiled by Satan, do not fall for any of his ploys and false stories; check out everything about the Lord for yourself, be convinced of the facts, and then believe in Him.

The Lord Jesus has done His part; He has made ready and available salvation with all the benefits freely to everyone; but have you accepted His offer? Have you taken His hand of love and grace extended towards you and the free gift He offers; or are you still determined to do that which no man can ever accomplish through his own efforts?

If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



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शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024

The Solution for Sin - Salvation - A Review / पाप का समाधान - उद्धार - पुनः अवलोकन

 

पाप और उद्धार को समझना – 28

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पाप का समाधान - उद्धार - 25

पाप का समाधान - उद्धार - पुनःअवलोकन


पिछले तीन सप्ताह से हम मनुष्य के पाप के समाधान और निवारण, और इस कार्य में प्रभु यीशु मसीह की भूमिका के विषय में देखते और सीखते हुए आ रहे हैं। अब हम इस विषय का निष्कर्ष, प्रभु यीशु मसीह ने यह कार्य किस प्रकार किया को देखना आरंभ करेंगे। अभी तक जो हमने देखा है, आज उसका एक संक्षिप्त पुनः अवलोकन कर लेते हैं; कल प्रभु के द्वारा मनुष्यों के उद्धार के लिए किए गए कार्य को परमेश्वर के वचन बाइबल के पदों के साथ देखेंगे और समझेंगे। 


अभी तक के विवरण का सार इस प्रकार से है:


हमने परमेश्वर के वचन बाइबल की पहली पुस्तक के आरंभिक तीन अध्यायों में से देखा है कि परमेश्वर ने मनुष्य को अपने ही स्वरूप में सृजा और अपनी ही श्वास से उसे जीवन प्रदान किया। उसके सृजे जाने के समय मनुष्य निष्पाप, निष्कलंक, निर्दोष, और पवित्र था। उन प्रथम मनुष्यों, आदम और हव्वा, के लिए परमेश्वर ने एक आशीष का स्थान - अदन की वाटिका को लगा कर दिया था, जहाँ पर परमेश्वर उनसे संगति रखता था, उनसे मिला करता था। परमेश्वर ने केवल एक को छोड़, अदन की वाटिका के अन्य सभी फलों को मनुष्य के खाने के लिए उपलब्ध करवाया था; और मनुष्य को चेतावनी दी थी कि जिस दिन उसने वह वर्जित फल खाया, उसी दिन उसकी मृत्यु हो जाएगी। किन्तु शैतान के बहकावे में आकर मनुष्य ने परमेश्वर की बात पर, और उनके प्रति परमेश्वर की भली मनसा पर संदेह किया, परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता की, और उस वर्जित फल को खा लिया। इसी अनाज्ञाकारिता के कारण पाप का संसार में प्रवेश हुआ, जिसका दुष्प्रभाव सारी सृष्टि में फैल गया और मनुष्य में पाप करने की प्रवृत्ति आ गई, और फिर वंशागत रीति से एक से दूसरी पीढ़ी में चलती चली गई। परिणाम स्वरूप, स्वाभाविक रीति से गर्भ में आने और जन्म लेने वाले प्रत्येक मनुष्य में पाप का दोष और पाप करने की प्रवृत्ति उसके गर्भ में आने, जन्म लेने से लेकर मृत्यु तक बनी रहती है। 


मृत्यु का अर्थ है एक अपरिवर्तनीय पृथक हो जाना, ऐसा जिसे कोई भी मनुष्य अपने किसी भी प्रयास से पलट कर पहले की स्थिति को बहाल नहीं कर सकता है। मृत्यु दो प्रकार की है - आत्मिक और शारीरिक। आत्मिक मृत्यु अर्थात पाप के कारण परमेश्वर से अलग हो जाना, क्योंकि परमेश्वर पाप के साथ समझौता और संगति नहीं कर सकता है - जिस दिन मनुष्य ने पाप किया, उसी दिन वह परमेश्वर की संगति से पृथक हो गया। शारीरिक मृत्यु, अर्थात शरीर का क्षय होते चले जाना, और अंततः वापस मिट्टी में मिल जाना - यह प्रक्रिया भी पाप करते ही मनुष्य में आरंभ हो गई, और अंततः सभी मनुष्य देर-सवेर मर जाते हैं, अर्थात शरीर और आत्मा अपरिवर्तनीय रीति से पृथक हो जाते हैं, शरीर नाश हो जाता है, आत्मा अनन्त काल के परिणाम भोगने चली जाती है। मनुष्य के जन्म लेते ही उसकी शारीरिक मृत्यु की ओर निरंतर बढ़ते जाने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है; तथा वह जन्म से ही पाप के प्रभाव के अंतर्गत होने के कारण परमेश्वर से पृथक, अर्थात आत्मिक मृत्यु की दशा में होता है।


मनुष्य के पाप ने परमेश्वर को एक असंभव प्रतीत होने वाली विडंबना में डाल दिया। मनुष्य के प्रति उसका प्रेम, उसे मनुष्य को नाश होते हुए नहीं देखने देता; और परमेश्वर का निष्पक्ष न्यायी और धर्मी होना, उसे पाप को दण्ड दिए बिना नहीं छोड़ने देता। परमेश्वर कभी झूठ नहीं बोलता, उसकी कही बात सदा पूरी होती है, इसलिए पाप का दण्ड, मृत्यु, को भी पापी पर लागू किया जाना अनिवार्य था। अब इस विडंबना, इस असंभव प्रतीत होने वाली स्थिति का समाधान और निवारण क्या हो सकता था। जो मनुष्य के लिए असंभव था, परमेश्वर ने ही उसके लिए मार्ग बनाया। एक ऐसा मनुष्य जो निष्पाप, निष्कलंक, निर्दोष, पवित्र, परमेश्वर तथा उसके प्रति परमेश्वर की योजनाओं पर कभी संदेह न करने वाला, परमेश्वर का पूर्ण आज्ञाकारी हो, उसे पाप का दण्ड, परमेश्वर से दूरी और मृत्यु - आत्मिक एवं शारीरिक सहने की कोई आवश्यकता नहीं थी, चाहिए था। यह सिद्ध मनुष्य यदि स्वेच्छा से मनुष्यों के पापों को अपने ऊपर लेकर, उनके स्थान पर स्वयं उन पापों का दण्ड अर्थात मृत्यु को सह ले, और मृत्यु को पराजित कर के वापस सदेह जीवित हो उठे, और फिर अपने इस बलिदान तथा पुनरुत्थान के लाभ को सेंत-मेंत सभी मनुष्यों को उपलब्ध करवा दे, तो इस समस्या का समाधान और निवारण हो जाएगा। परमेश्वर की बात भी पूरी हो जाएगी, उसके न्याय के माँग भी पूरी हो जाएगी, मृत्यु का प्रभाव भी जाता रहेगा, और फिर पापों के परिणाम से बचाया गया मनुष्य परमेश्वर की संगति में भी बहाल हो सकता है। 


किन्तु मनुष्य तो पाप के दोष और पाप करने की प्रवृत्ति में आ चुका था, स्वाभाविक रीति से जन्म लेने वाला हर मनुष्य पाप के दोष और प्रवृत्ति के साथ ही जन्म लेता। इसलिए वह तो कभी निष्पाप, निष्कलंक, और निर्दोष हो नहीं सकता था। इसलिए इस समाधान और निवारण को कार्यान्वित करने के लिए एक ऐसे मनुष्य की आवश्यकता थी जिसमें पाप का दोष और प्रवृत्ति भी न हो, और वह उपरोक्त सभी आवश्यकताओं को भी पूरा करता हो। इसलिए परमेश्वर स्वयं एक विशिष्ट रीति से मनुष्य बनकर, प्रभु यीशु मसीह के नाम से संसार में आ गया। परमेश्वर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से प्रभु यीशु ने संसार में एक विशेष रीति से तैयार की गई देह में होकर, जो इस कार्य के लिए समर्पित और आज्ञाकारी कुँवारी, मरियम की कोख में एक भ्रूण के समान रखी गई थी, प्रवेश किया। एक सामान्य मनुष्य के समान वह देह, भ्रूण से लेकर मानव शिशु स्वरूप तक, उस कोख में विकसित हुई, और उसने जन्म लेने के सारे अनुभव, अन्य किसी भी मनुष्य के समान सहे। फिर एक सामान्य, साधारण मनुष्य के समान दुख-सुख सभी कुछ अनुभव करते हुए प्रभु यीशु शिशु अवस्था से वयस्क हुए, किन्तु उन्होंने कभी भी मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में कोई पाप नहीं किया। लगभग तीस वर्ष की आयु में उन्होंने पृथ्वी की अपनी निर्धारित सेवकाई आरंभ की; लोगों को परमेश्वर के राज्य के आगमन के बारे में सिखाने और सचेत करने, तथा पापों से पश्चाताप करने का आह्वान किया, और सभी की भलाई करते रहे। 


लगभग साढ़े तीन वर्ष की सेवकाई के बाद, उन्हें तब के धर्म के अगुवों ने उनकी स्पष्टवादिता, खराई, और उन धर्म के अगुवों के दोगलेपन को प्रकट करते रहने के कारण उनके प्रति द्वेष और बैर के कारण पकड़ कर उस समय की सबसे क्रूर, पीड़ादायक और वीभत्स मृत्यु, जो समाज के सबसे निकृष्ट और जघन्य अपराध करने वालों को दी जाती थी - क्रूस की मृत्यु, उस समय के उनके शासक, रोमी गवर्नर, के हाथों दिलवाई। प्रभु यीशु मसीह क्रूस पर मारे गए, उन्हें कब्र में कफन में लपेट कर दफनाया गया, और कब्र के मुँह पर पत्थर लगा कर उसे मोहर-बंद कर दिया गया, और आधिकारिक सुरक्षा-कर्मी वहां तैनात कर दिए गए जिससे कोई उनकी देह को चुरा न सके। किन्तु तीसरे दिन वे अपने कहे के अनुसार जीवित हो उठे, सार्वजनिक रीति से लोगों से मिलते रहे, दिखाई देते रहे, लोगों से बात करते रहे, उन्हें सिखाते-समझाते रहे, और फिर अपने शिष्यों की आँखों के सामने स्वर्ग पर उठा लिए गए। अपने स्वर्गारोहण से पहले उन्होंने अपने शिष्यों को आज्ञा दी कि वे सारे संसार में जाकर उनके द्वारा समस्त संसार के सभी लोगों के लिए उपलब्ध करवाए गए पापों की क्षमा और उद्धार के मार्ग के बारे में उन्हें बताऐं और उन्हें प्रभु यीशु के शिष्य बनाएं, प्रभु की बातें सिखाएं। जो स्वेच्छा से प्रभु के द्वारा किए गए कार्य को स्वीकार करेगा, अपने पापों से पश्चाताप करेगा, और अपना जीवन प्रभु यीशु को समर्पित करेगा, वह पापों की क्षमा अर्थात उद्धार या नया जन्म पाकर अनन्तकाल के लिए परमेश्वर की संतान, उसके राज्य का वारिस बन जाएगा, और परमेश्वर की संगति में बहाल हो जाएगा।


प्रभु यीशु ने न तो कभी कोई धर्म दिया, न किसी धर्म को बनाने की शिक्षा अथवा आज्ञा दी, न किसी धर्म-विशेष को मानने-मनवाने, और न ही किसी का भी धर्म परिवर्तन करने की कोई बात अपने शिष्यों से कही। उन्होंने तो सभी मनुष्यों के पाप की प्रवृत्ति और दोष से मन परिवर्तन करने और पाप से क्षमा प्राप्त करने, तथा उनकी शिष्यता एवं आज्ञाकारिता में पापी मनुष्यों को पवित्र जीवन जीने के लिए सक्षम करे जाने की शिक्षा लोगों को बताने, और इसे स्वीकार करने का निर्णय उन लोगों के हाथों में ही छोड़ देने की आज्ञा दी।


प्रभु यीशु ने तो अपना काम कर के दे दिया है; किन्तु क्या आपने उसके इस आपकी ओर बढ़े हुए प्रेम और अनुग्रह के हाथ को थाम लिया है, उसकी भेंट को स्वीकार कर लिया है? या आप अभी भी अपने ही प्रयासों के द्वारा वह करना चाह रहे हैं जो मनुष्यों के लिए कर पाना असंभव है। यदि अभी भी आपने प्रभु यीशु के बलिदान के कार्य को स्वीकार नहीं किया है, तो  अभी समय और अवसर के रहते स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों से पश्चाताप कर लें, अपना जीवन उसे समर्पित कर के, उसके शिष्य बन जाएं। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा।   

 

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 Understanding Sin and Salvation – 28

English Translation

The Solution For Sin - Salvation - 25

The Solution for Sin - Salvation - A Review


For the past three weeks we have been looking at the various aspects of sin, its atonement and solution, and the role of the Lord Jesus Christ for this. Now we will begin looking at the conclusion of this subject, how the Lord Jesus accomplished this. Today we will review what we have considered so far; from tomorrow, through the relevant Bible verses, we will look into and understand what the Lord has done.


The summary of all that we have considered so far is as follows:


We have seen from the first three chapters of the first book of the Bible that God created man in His own image and Himself breathed life into him. At the time of his creation man was without sin, spotless, free of any guilt, and holy. For those first human beings, Adam and Eve, God also made and planted the Garden of Eden - a place of blessing, where God used to come for fellowship with man. Except for the fruit of one tree, God had given the fruits of every other tree of the garden as food for man. God had warned man that if he eats the forbidden fruit, he will die. But being beguiled by Satan, man doubted God’s well-intentioned instructions for him and disobeyed God, and ate the forbidden fruit. Because of this disobedience sin entered the world, its deleterious effects spread throughout the creation, and the tendency to sin came into man, and became hereditary, getting passed on from one generation to another. Consequently, every person being conceived in the natural manner, is conceived with the sin nature and tendency to sin; i.e., since coming into the womb, from birth every human being is in a state of death, dying off day-by-day, till eventually he dies off.


Death means a humanly irreversible state of separation, that no man can overturn and revert back to the previous condition. Death is of two kinds - spiritual and physical. Spiritual death is man’s separation from the fellowship of God because of sin, since God cannot compromise with or fellowship with sin - the day man sinned, he became separated from fellowship with God, died spiritually. Physical death, i.e., gradually decaying away, and eventually turning back to dust - this process too started with the sin, and eventually all humans die off; i.e. the body and the soul irreversibly separate, the body decays to dust, and the soul goes to bear the eternal consequences of man's life. Man begins to physically die the moment he is born, and since the moment of his birth he is also in the state of being spiritually dead, i.e., alienated from fellowship with God.


The sin of man put God in a seemingly impossible situation, a very serious dilemma. God’s love for man did not want to see him die and perish in sin; and God being an impartial, righteous judge, He could not ignore sin and let it go unpunished. Also, God never tells a lie, what He say, is always fulfilled; therefore, the death penalty had to be carried out on the sinful man. Now, what could be the solution to this seemingly impossible imbroglio, this dilemma before God? What is impossible for man, is possible for God; and God provided the way out of this seeming impossibility. A sinless, blameless, guiltless, holy man was required, who would be fully obedient to God’s instructions, without doubting in any manner God’s intentions and instructions for him; such a man would need to suffer death, i.e., the spiritual and physical separation from God. If this perfect man would voluntarily be willing to take upon himself the sins of entire mankind, and suffer death for them, then be victorious over death and be resurrected from the dead in his physical body, and willingly freely share the benefits of his sacrifice and resurrection with mankind, the problem will be solved. What God has said will be fulfilled, the demand of His justice will be met, the hold of death will be annulled from mankind, and then the man so saved form the consequences of sin would be brought back into the fellowship with God.


But man had already come under the guilt of sin, having a sin nature and tendency to sin since the time of being conceived; and since every person born in the natural manner of men is born with this sin nature and its effects, therefore, no man could be sinless, spotless, guiltless, pure and holy, to carry out this solution. Hence, to carry out this solution, a pure, holy, and perfect man without the sin nature and tendency was required, who would be willing and able to fulfill all the aforementioned conditions. Therefore, God, in a special way, came down to earth and was born as a man, the Lord Jesus Christ. Through the power of the Holy Spirit, God came into the world in a specially created body, which was placed in the womb of the obedient and submissive virgin, Mary, developed and grew inside her like any human embryo, and was born in the natural manner of men in that body, without a sin nature, without the tendency to sin, but passing through all the same situations and experiences as every other human being does since conception. After birth too, he lived like and experienced everything that an average common person does. But in all of this, never ever, in His mind, thoughts or behavior did He sin in any manner. He began His ministry at around 30 years of age, He warned and taught the people about the soon to come kingdom of God, called them all to repentance for their sins, and went about doing good to all.


After about three and a half years of His ministry on earth, because of His being honest and forthright in His teachings, and since He kept exposing the hypocrisy of the religious leaders of His time, those religious leaders filled with jealousy because of His popularity, and with rage because of His being forthright against them, acted in enmity against Him, and had Him caught. They then compelled the then Roman Governor to have Him executed in the most cruel, painful, and terrible manner, by crucifixion - which at that time was the method of inflicting the death penalty upon the worst of the criminals. The Lord Jesus Christ died on the cross, His body was wrapped in linen cloth along with a hundred pounds of burial material, placed in a tomb, which was closed by rolling a huge stone on its mouth and sealing it, and official guards were placed to prevent anyone from stealing the body. But, on the third day, as He had said, He rose up from the dead, walked out of the grave, and for the next forty days kept on appearing before people and meeting them. He proved to them His resurrection, explained and taught His disciples about their coming responsibility and ministry, and was then lifted to heaven in front of their eyes. Before His ascension to heaven, He instructed His disciples to go into the world and tell everybody about the way of forgiveness of sins and salvation, prepared and made freely available by Him for the entire mankind, ask them to become disciples of Christ Jesus and teach them all the things He had taught them. Whosoever will voluntarily accept the work done by the Lord Jesus Christ, repent of sins, submit his life to the Lord Jesus, he will receive the forgiveness of sins and salvation, i.e., will be Born-Again to become a child of God for eternity, will become a heir of God, will be restored back into God’s fellowship.


The Lord Jesus never propounded any religion, nor ever gave any instructions for a religion to be made and preached in His name, nor ever asked for anyone to practice a particular religion, or to convert people into followers of a particular religion. He only asked for the good news of the way for forgiveness of sins and restoration into the fellowship of God for everyone, through faith in Him to be preached; the message of change of heart and discipleship of the Lord. He only asked that people be told that it is now possible for them to lead a life of obedience to God, through the ability He provides; and of sinful man being accepted as pure and holy by God, when they come to God through Him. To accept or reject His invitation, this decision He has left for every man to take for himself.


      The Lord Jesus has done His part; He has made ready and available salvation with all the benefits freely to everyone; but have you accepted His offer? Have you taken His hand of love and grace extended towards you and the free gift He offers; or are you still determined to do that which no man can ever accomplish through his own efforts?


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.  

 

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गुरुवार, 19 दिसंबर 2024

The Lord Jesus Provided the Way to Salvation for All / प्रभु यीशु में उद्धार का मार्ग सभी के लिए

 

पाप और उद्धार को समझना – 27

Click Here for the English Translation

पाप का समाधान - उद्धार - 24

प्रभु यीशु में उद्धार का मार्ग सभी के लिए



पिछले लेखों में हम देखते आ रहे हैं कि मनुष्य के पाप से उत्पन्न हुई स्थिति के समाधान और निवारण के लिए एक ऐसे सिद्ध मनुष्य की आवश्यकता थी जो परमेश्वर के पूर्ण आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करे, और सभी के पापों के लिए अपने आप को स्वेच्छा से बलिदान करके, उनके लिए मृत्यु को सह ले। किन्तु उसे मृत्यु को पराजित भी करना था, अर्थात मृतकों में से लौट कर आना था, जिससे मनुष्यों पर से मृत्यु की पकड़ मिट जाए, और फिर उसके द्वारा दिए गए अपने बलिदान, अपने पुनरुत्थान, और मृत्यु पर विजय को सारे संसार के सभी मनुष्यों के साथ सेंत-मेंत बांटने को तैयार हो। अभी तक हमने देखा कि प्रभु यीशु मसीह ही वह एकमात्र ऐसा निष्पाप, निष्कलंक, पवित्र, सिद्ध मनुष्य था जिसने अपने पृथ्वी के जीवन में इन सभी आवश्यक बातों को पूरा किया, और मृतकों में से जी भी उठा। 


    आज हम परमेश्वर के वचन बाइबल से देखेंगे कि प्रभु यीशु ने अपने जीवन, बलिदान, और पुनरुत्थान के लाभ को सेंत-मेंत समस्त मानवजाति को उपलब्ध भी करवा दिया है। उसने अपने लिए कुछ नहीं रख छोड़ा, अपना सब कुछ हम पापी मनुष्यों के प्रति अपने प्रेम के अंतर्गत न्योछावर कर दिया। यह हम पापी मनुष्यों के प्रति उसका अनुग्रह है, अर्थात उसकी वह भलाई है, जिसके हम योग्य नहीं हैं, और न ही जिसे कभी अपने किसी धर्म-कर्म, रीतियों, और धार्मिकता के कार्यों के द्वारा कमा सकते हैं। भला एक पापी मनुष्य कुछ भी कर ले, किन्तु क्या वह कभी भी एक निर्दोष, निष्पाप, निष्कलंक, पवित्र मनुष्य से बढ़कर योग्य हो सकता है? क्या पापी मनुष्य उस सिद्ध के द्वारा अपने प्राणों के एक भयानक, वीभत्स, अत्यंत यातनाएँ सहते हुए दिए गए बलिदान की कोई कीमत लगा सकता है; और फिर उस कीमत को चुकाने के योग्य हो सकता है? मनुष्य केवल प्रभु यीशु के कार्य को कृतज्ञ और धन्यवादी होकर एक भेंट के रूप में स्वीकार ही कर सकता है; उसे किसी भी रीति से प्रभु से खरीद नहीं सकता है, प्रभु के कार्य के प्रत्युत्तर में उसके समान या उससे बढ़कर कुछ ऐसा नहीं कर सकता है जिसके सहारे वह फिर प्रभु के कार्य के लाभों कीमत चुका कर उससे उसको प्राप्त कर सके। 


    परमेश्वर के वचन बाइबल में लिखे इन पदों पर ध्यान कीजिए: “पर जैसा अपराध की दशा है, वैसी अनुग्रह के वरदान की नहीं, क्योंकि जब एक मनुष्य के अपराध से बहुत लोग मरे, तो परमेश्वर का अनुग्रह और उसका जो दान एक मनुष्य के, अर्थात यीशु मसीह के अनुग्रह से हुआ बहुतेरे लोगों पर अवश्य ही अधिकाई से हुआ। और जैसा एक मनुष्य के पाप करने का फल हुआ, वैसा ही दान की दशा नहीं, क्योंकि एक ही के कारण दण्ड की आज्ञा का फैसला हुआ, परन्तु बहुतेरे अपराधों से ऐसा वरदान उत्पन्न हुआ, कि लोग धर्मी ठहरे। क्योंकि जब एक मनुष्य के अपराध के कारण मृत्यु ने उस एक ही के द्वारा राज्य किया, तो जो लोग अनुग्रह और धर्म रूपी वरदान बहुतायत से पाते हैं वे एक मनुष्य के, अर्थात यीशु मसीह के द्वारा अवश्य ही अनन्त जीवन में राज्य करेंगे। इसलिये जैसा एक अपराध सब मनुष्यों के लिये दण्ड की आज्ञा का कारण हुआ, वैसा ही एक धर्म का काम भी सब मनुष्यों के लिये जीवन के निमित धर्मी ठहराए जाने का कारण हुआ। क्योंकि जैसा एक मनुष्य के आज्ञा न मानने से बहुत लोग पापी ठहरे, वैसे ही एक मनुष्य के आज्ञा मानने से बहुत लोग धर्मी ठहरेंगे” (रोमियों 5:15-19)। इन पदों से प्रकट बातें हैं:


* प्रभु यीशु मसीह द्वारा किया गया कार्य, परमेश्वर द्वारा अनुग्रह के वरदान समान उपलब्ध करवाया गया है। 


* यह कुछ सीमित और परिभाषित लोगों के लिए नहीं वरन “बहुतेरों” के लिए है; अर्थात उनके लिए जो उसके इस बलिदान और अनुग्रह की भेंट को स्वीकार कर लेंगे।


* जो भी प्रभु यीशु से उसके इस अनुग्रह के दान को स्वीकार करेगा, वही परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी ठहरेगा; और प्रभु यीशु मसीह के द्वारा अनन्त जीवन में राज्य करेगा। 


* प्रभु यीशु मसीह का यह कार्य “सब मनुष्यों के लिए” उन्हें अनन्त जीवन के लिए धर्मी ठहराए जाने के लिए है; सभी के लिए पर्याप्त है, उपलब्ध है। किन्तु इसे स्वीकार अथवा अस्वीकार करना, प्रत्येक व्यक्ति का अपना निर्णय है। 


* प्रभु यीशु मसीह द्वारा की गई परमेश्वर की आज्ञाकारिता, आदम और हव्वा द्वारा की गई अनाज्ञाकारिता के परिणामों को पलट कर वापस लोगों को धर्मी ठहराने के लिए सक्षम और पर्याप्त है। 


     प्रभु यीशु का यह कार्य सारे संसार के सभी मनुष्यों के लिए है, उसके अनुग्रह से उसके द्वारा समस्त मानवजाति को दान के समान उपलब्ध करवाया गया है। दान को कृतज्ञता के साथ स्वीकार तथा प्रयुक्त किया जाता है; दान को किसी भी प्रकार से मोल लेने का प्रयास करना, उस दान की कीमत और महत्व को गौण करना, तथा उस दान और दान देने वाले, दोनों का ही अपमान करना है। 


    इसी प्रकार से प्रभु ने अपने पुनरुत्थान और उससे मृत्यु पर मिली विजय को भी अपने अनुग्रह के दान के समान समस्त मानव जाति के लिए सेंत-मेंत उपलब्ध करवा दिया है: “इसलिये जब कि लड़के मांस और लहू के भागी हैं, तो वह आप भी उन के समान उन का सहभागी हो गया; ताकि मृत्यु के द्वारा उसे जिसे मृत्यु पर शक्ति मिली थी, अर्थात शैतान को निकम्मा कर दे। और जितने मृत्यु के भय के मारे जीवन भर दासत्व में फंसे थे, उन्हें छुड़ा ले” (इब्रानियों 2:14-15)।


    प्रभु यीशु ने हम पापी मनुष्यों के उद्धार और परमेश्वर से मेल-मिलाप को बहाल करवाने के लिए जो कुछ भी आवश्यक था, वह सब संपूर्ण करके दे दिया, उसे हमें सेंत-मेंत में अर्थात मुफ़्त में, उपलब्ध भी करवा दिया। यह उद्धार और बहाली परमेश्वर की ओर से हमारे प्रति उसके अनुग्रह का कार्य है, जिसे वह हमारे प्रति अपने प्रेम के अंर्तगत एक दान, एक भेंट के रूप में उपलब्ध करवाता है। भेंट या दान इसलिए, क्योंकि किसी मनुष्य में यह योग्यता अथवा क्षमता नहीं है कि वह प्रभु परमेश्वर यीशु मसीह के द्वारा किए गए इस कार्य के लाभ को मोल ले सके; और यदि परमेश्वर इसकी कोई कीमत लगा देता, तो उनका क्या होता जो किसी भी कारण से वह कीमत चुका पाने में असमर्थ होते - वे तो फिर उद्धार के लाभ से वंचित रह जाते। परमेश्वर सभी से समान प्रेम करता है, इसलिए सभी के लिए, वह कोई भी, कैसा भी, कहीं भी क्यों न हो, सभी को एक समान अवसर प्रदान किया है।


    प्रभु यीशु ने तो अपना काम कर के दे दिया है; किन्तु क्या आपने उसके इस आपकी ओर बढ़े हुए प्रेम और अनुग्रह के हाथ को थाम लिया है, उसकी भेंट को स्वीकार कर लिया है? या आप अभी भी अपने ही प्रयासों के द्वारा वह करना चाह रहे हैं जो मनुष्यों के लिए कर पाना असंभव है। यदि अभी भी आपने प्रभु यीशु के बलिदान के कार्य को स्वीकार नहीं किया है, तो अभी समय और अवसर के रहते स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों से पश्चाताप कर लें, अपना जीवन उसे समर्पित कर के, उसके शिष्य बन जाएं। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा। 

 

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 Understanding Sin and Salvation – 27

English Translation

The Solution For Sin - Salvation - 24

The Lord Jesus Provided the Way to Salvation for All



We have been seeing in the previous articles that to atone for and provide the remedy for the situation arisen from the sin of man, God required a man who would live a life of complete obedience to Him, and was willing to voluntarily sacrifice himself for the sins of the whole world, be willing to suffer death for the entire mankind. Also, he should defeat death, i.e., return back from death, so that the hold of death on mankind would be abolished; and then he should be willing to freely share with everyone the benefits of the victory he achieved by his sacrificial death, his victory over death, and his resurrection. So far, we have seen that the Lord Jesus was the one and only sinless, blameless, holy, perfect man, who fulfilled all of God’s requirements for this solution; and He came back from the dead as well.


Today we will see that as required, the Lord Jesus also freely made available the benefits of His life, sacrifice, and resurrection to mankind. He kept back nothing for Himself, but out of His love for us sinful humans, He gave everything to us. This is His grace towards us sinners, i.e., it is His unmerited favor towards us for which we are not deserving in any manner; and neither can we ever qualify for it through any kind of works - religious or good, or by fulfilling of rituals, traditions, and observing feasts, or through our own contrived works of righteousness. Just pause for a moment and ponder, whatever a sinful man does, can he ever be able to do anything over and above or better than what a sinless, spotless, holy person can do? Can a sinful man be able to put any price for that holy and perfect person’s sacrifice, accomplished by suffering such a terrible, painful, and horrifying death; and then be able to pay that price? Man can only accept the Lord Jesus’s work of redemption as a gift with a grateful and thankful heart; he can never earn it or pay for it in any manner. Neither can man ever do anything that would be better than the work of the Lord, through which he would then be able to pay back to the Lord for what the Lord has done for the sinful man.


Ponder over these verses from God’s Word: “But the free gift is not like the offense. For if by the one man's offense many died, much more the grace of God and the gift by the grace of the one Man, Jesus Christ, abounded to many. And the gift is not like that which came through the one who sinned. For the judgment which came from one offense resulted in condemnation, but the free gift which came from many offenses resulted in justification. For if by the one man's offense death reigned through the one, much more those who receive abundance of grace and of the gift of righteousness will reign in life through the One, Jesus Christ. Therefore, as through one man's offense judgment came to all men, resulting in condemnation, even so through one Man's righteous act the free gift came to all men, resulting in justification of life. For as by one man's disobedience many were made sinners, so also by one Man's obedience many will be made righteous” (Romans 5:19). It is evident from these verses that:


* The work accomplished by the Lord Jesus, has been made available as a gracious gift to mankind.


* It is not just for a few or some special or chosen people, but for “many”; i.e., for them who would accept this sacrifice as a gift of grace.


* Only those who accept this gift of grace from God, will be accepted as righteous in the eyes of God; and will enter into eternal life through the Lord Jesus.


* This work of the Lord Jesus is for all men, to make them righteous for eternal life; is sufficient for everyone in all respects, and is freely available. But to accept it or reject it is every person’s own decision.


* The work of obedience towards God by the Lord Jesus, is not only able to undo the effect of the disobedience by Adam and Eve, is more than enough to make those who accept it, righteous again.


This work of the Lord Jesus is for all the people of the whole world, has been made available through His grace as a gift to the entire mankind. A gift is always to be accepted and used with thankfulness and gratitude; any attempts to pay for it in any manner, implies demeaning the value and importance of that gift, and is tantamount to insulting both, the gift as well as the giver of the gift.


Similarly, the Lord Jesus too has made available His victory over sin and death achieved through His sacrificial death and resurrection, as a gracious gift to entire mankind: “Inasmuch then as the children have partaken of flesh and blood, He Himself likewise shared in the same, that through death He might destroy him who had the power of death, that is, the devil, and release those who through fear of death were all their lifetime subject to bondage” (Hebrews 2:14-15).


The Lord Jesus has done and made freely available, all that was required for the salvation of sinful men and for their reconciliation with God. This salvation and restoration into fellowship with God, is an act of grace, a gift, prepared and provided to us because of His great and indescribable love for us. It is a free and gracious gift since no man has the capability to put a price and pay in any manner for what the Lord Jesus Christ has done; and if God were to put a price to it, then no man, not even the entire mankind collectively, could ever have been able to pay that price. Even if there was a price which some men could have somehow paid and bought this salvation for themselves, what of those who were incapable of paying that price? They then would have been rendered incapable of being saved. God loves everyone just the same, therefore, He desires to see everyone saved, provide the same and equal opportunity to everyone - whosoever the person may be; therefore, it had to be a free gift of grace for everyone, to be received and utilized voluntarily, by each person through his own free will.


The Lord Jesus has done His part; He has made ready and available salvation with all the benefits freely to everyone; but have you accepted His offer? Have you taken His hand of love and grace extended towards you and the free gift He offers; or are you still determined to do that which no man can ever accomplish through his own efforts?


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.


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