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गुरुवार, 9 सितंबर 2021

परमेश्वर का वचन, बाइबल – पाप और उद्धार - 15

 

पाप का समाधान - उद्धार - 11

कल से हमने उद्धार से संबंधित तीसरे और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न किइसके लिए यह इतना आवश्यक क्यों हुआ कि स्वयं परमेश्वर प्रभु यीशु को स्वर्ग छोड़कर सँसार में बलिदान होने के लिए आना पड़ा?” पर विचार आरंभ किया था। पाप और उसके प्रभावों, तथा सभी मनुष्यों के लिए उद्धार की अनिवार्यता के संदर्भ में हमने देखा था कि पाप के कारण उत्पन्न परिस्थिति से यदि परमेश्वर निष्पक्ष, खरे, न्यायी के समान व्यवहार करता, तो मनुष्य नाश हो जाते; और यदि वह उनके प्रति अपने प्रेम में होकर उनके पाप को अनदेखा कर देता, तो उसका निष्पक्ष, खरा, न्यायी होने की प्रतिष्ठा जाती रहती। इस विडंबना के समाधान के लिए परमेश्वर को कोई ऐसा मनुष्य चाहिए था जो पूर्णतः निष्पाप और निष्कलंक हो, इतना सामर्थी हो कि मृत्यु उसे वश में न रख सके, और इतना कृपालु हो कि मनुष्यों के पापों को स्वेच्छा से अपने ऊपर लेकर, उनके दण्ड को मनुष्यों के स्थान पर सह ले, और फिर प्रतिफल को मनुष्यों में सेंत-मेंत बाँट दे। केवल ऐसा मनुष्य ही पाप के दण्ड को सभी के लिए चुका सकता था, और मनुष्य को मृत्यु से स्वतंत्र कर के, उनका मेल-मिलाप परमेश्वर से करवा सकता था, अदन की वाटिका में खोई गई स्थिति को मनुष्यों के लिए वापस बहाल कर सकता था। 

साथ ही हमने देखा था ऐसा मनुष्यों में से यह हो पाना संभव नहीं था, क्योंकि आदम और हव्वा के पाप के बाद से प्रत्येक मनुष्य पाप के स्वभाव के साथ ही अपनी माता के गर्भ में आता है और शिशु अवस्था से ही पाप की प्रवृत्ति को प्रकट करता रहता है। इसलिए मनुष्यों की प्रणाली के अनुसार माता के गर्भ में पड़ने और जन्म लेने वाला कोई भी मनुष्य पूर्णतः निष्पाप, पवित्र, और निष्कलंक नहीं ठहर सकता। अब समस्या थी कि पाप का निवारण करने वाले को मनुष्य भी होना था, और अपने अस्तित्व के बिल्कुल आरंभ से ही पाप से पूर्णतः विहीन भी होना था। 

परमेश्वर ने यह समाधान अदन की वाटिका में ही प्रदान कर दिया था। शैतान द्वारा सर्प के शरीर में होकर आदम और हव्वा को पाप में गिराने के कारण, परमेश्वर की ओर से पहला श्राप और दण्ड सर्प पर आयातब यहोवा परमेश्वर ने सर्प से कहा, तू ने जो यह किया है इसलिये तू सब घरेलू पशुओं, और सब बनैले पशुओं से अधिक शापित है; तू पेट के बल चला करेगा, और जीवन भर मिट्टी चाटता रहेगा” (उत्पत्ति 3:14)। फिर अपनी इसी बात को आगे ज़ारी रखते हुए शैतान को संबोधित करते हुए, उसे उसका अंत बताया, “और मैं तेरे और इस स्त्री के बीच में, और तेरे वंश और इसके वंश के बीच में बैर उत्पन्न करूंगा, वह तेरे सिर को कुचल डालेगा, और तू उसकी एड़ी को डसेगा” (उत्पत्ति 3:15)। यहाँ पर परमेश्वर द्वारा कही गई बात में शैतान द्वारा उद्धारकर्ता को डसे जाने - मृत्यु चखने, और शैतान के सिर को कुचले जाने, अर्थात शैतान के अंत होने की बाइबल की पहली भविष्यवाणी दी गई है - शैतान जिस उद्धारकर्ता की एड़ी को डसेगा, अर्थात उसे मृत्यु चखाएगा, वही उद्धारकर्ता शैतान के सिर को कुचल डालेगा। हम इस बात को बाद में और विस्तार से देखेंगे। अभी ध्यान देने के लिए हमारे संदर्भ से संबंधित एक बहुत महत्वपूर्ण वाक्यांश यहाँ पर भविष्यवाणी के रूप में दिया गया है -इसके वंश”, अर्थात स्त्री का वंश!

सामान्यतः, संसार भर के सभी लोगों में वंश पिता से माना जाता है, इसीलिए लोग पुत्रों की इतनी लालसा रखते हैं - ताकि उनका वंश चलता रहे। किन्तु यहाँ पर परमेश्वर ने स्त्री के वंश की बात की; अर्थात वह उद्धारकर्ता संसार की सामान्य रीति के अनुसार जन्म नहीं लेगा, उसके स्त्री के गर्भ में आने और जन्म लेने में किसी पुरुष का कोई कार्य नहीं होगा। साथ ही, क्योंकि उस जगत के उद्धारकर्ता को एक सामान्य मनुष्य के समान ही होना था, मनुष्यों के अनुभवों में से होकर निकलना था, और उन परिस्थितियों में भी अपने निष्पाप, पवित्र, निष्कलंक होने को बनाए रखना था, इसलिए उसका जन्म भी मनुष्यों के समान ही होना था। मानवीय जीवन का कोई ऐसा अनुभव नहीं बचना था, जिससे होकर वह न निकले और फिर भी पूर्णतः निर्दोष और पवित्र रहे। 

प्रभु यीशु मसीह ही संसार के इतिहास में एकमात्र हैं जो मनुष्यों की रीति से तो गर्भ में नहीं आए, किन्तु फिर भी किसी भी अन्य मनुष्य के समान गर्भ में रहने, जन्म की पीड़ा और अनिश्चितता सहने, असहाय और माँ पर पूर्णतः निर्भर शिशु होने, फिर बाल्यावस्था से लेकर वयस्क होने के सभी अनुभवों में से होकर निकले। प्रभु यीशु मसीह का अपनी माँ के गर्भ में आना परमेश्वर का किया आश्चर्यकर्म था: उन के संसार में आने के लिए परमेश्वर की ओर से एक देह तैयार की गईइसी कारण वह जगत में आते समय कहता है, कि बलिदान और भेंट तू ने न चाही, पर मेरे लिये एक देह तैयार किया” (इब्रानियों 10:5), और फिर उस देह को मरियम के गर्भ में रखा गया, जहाँ वह किसी भी अन्य मनुष्य के समान उन सभी परिस्थितियों से होते हुए विकसित हुई और फिर उन्होंने एक सामान्य मनुष्य के समान संसार में जन्म लियाअब यीशु मसीह का जन्म इस प्रकार से हुआ, कि जब उस की माता मरियम की मंगनी यूसुफ के साथ हो गई, तो उन के इकट्ठे होने के पहिले से वह पवित्र आत्मा की ओर से गर्भवती पाई गई” (मत्ती 1:18)। उत्पत्ति 3:15 में कही गई परमेश्वर की बात और भविष्यवाणी, सारे जगत के उद्धारकर्ता कास्त्री का वंशहोना पूरी हुई। 

परमेश्वर कभी झूठ या गलत नहीं बोलता है, उसका कहा कभी नहीं टलता है, वह असंभव लगने वाली स्थिति में से भी मार्ग बना देता है। जैसे उसने समस्त जगत के उद्धारकर्ता की भविष्यवाणी की, वैसे ही जगत के अंत और न्याय की भी भविष्यवाणी की है, और यह भी बात दिया कि जब ऐसा होना निकट होगा, उस समय संसार के क्या हाल होंगे, क्या परिस्थितियाँ होंगी (मत्ती 24 अध्याय) जिससे वह समय लोगों पर अनायास और अनपेक्षित न आ जाए, लोग सचेत हो जाएं, अपने आप को उसके पुनः आगमन, और न्याय के लिए उसके सामने खड़े होने के लिए तैयार कर लें। आज की संसार की परिस्थितियाँ और बातें स्पष्ट दिखा रहे हैं कि हम अंत और न्याय के समय के बहुत निकट हैं। क्या आपने अपने आप को परमेश्वर के सम्मुख खड़े होने के लिए तैयार कर लिया है? जैसा हम पीछे देख चुके हैं, केवल वे ही बचाए जाएंगे जिन्होंने नया जन्म, उद्धार पाया है; धर्म के निर्वाह, धार्मिकता के कामों, वचन का ज्ञान आदि पर भरोसा रखने वाले यहीं पीछे छूट जाएंगे। 

यदि आप ने अभी भी नया जन्म, उद्धार नहीं पाया है, अपने पापों के लिए प्रभु यीशु से क्षमा नहीं मांगी है, तो अभी आपके पास अवसर है। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटे प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपको जगत के न्याय से बचाकर स्वर्ग की आशीषों का वारिस बना देगा। क्या आप आज, अभी यह निर्णय लेंगे?

बाइबल पाठ: लूका 1:26-38 

लूका 1:26 छठवें महीने में परमेश्वर की ओर से जिब्राईल स्वर्गदूत गलील के नासरत नगर में एक कुंवारी के पास भेजा गया।

लूका 1:27 जिस की मंगनी यूसुफ नाम दाऊद के घराने के एक पुरुष से हुई थी: उस कुंवारी का नाम मरियम था।

लूका 1:28 और स्वर्गदूत ने उसके पास भीतर आकर कहा; आनन्द और जय तेरी हो, जिस पर ईश्वर का अनुग्रह हुआ है, प्रभु तेरे साथ है।

लूका 1:29 वह उस वचन से बहुत घबरा गई, और सोचने लगी, कि यह किस प्रकार का अभिवादन है?

लूका 1:30 स्वर्गदूत ने उस से कहा, हे मरियम; भयभीत न हो, क्योंकि परमेश्वर का अनुग्रह तुझ पर हुआ है।

लूका 1:31 और देख, तू गर्भवती होगी, और तेरे एक पुत्र उत्पन्न होगा; तू उसका नाम यीशु रखना।

लूका 1:32 वह महान होगा; और परमप्रधान का पुत्र कहलाएगा; और प्रभु परमेश्वर उसके पिता दाऊद का सिंहासन उसको देगा।

लूका 1:33 और वह याकूब के घराने पर सदा राज्य करेगा; और उसके राज्य का अन्त न होगा।

लूका 1:34 मरियम ने स्वर्गदूत से कहा, यह क्योंकर होगा? मैं तो पुरुष को जानती ही नहीं।

लूका 1:35 स्वर्गदूत ने उसको उत्तर दिया; कि पवित्र आत्मा तुझ पर उतरेगा, और परमप्रधान की सामर्थ्य तुझ पर छाया करेगी इसलिये वह पवित्र जो उत्पन्न होनेवाला है, परमेश्वर का पुत्र कहलाएगा।

लूका 1:36 और देख, और तेरी कुटुम्बिनी इलीशिबा के भी बुढ़ापे में पुत्र होने वाला है, यह उसका, जो बांझ कहलाती थी छठवां महीना है।

लूका 1:37 क्योंकि जो वचन परमेश्वर की ओर से होता है वह प्रभाव रहित नहीं होता।

लूका 1:38 मरियम ने कहा, देख, मैं प्रभु की दासी हूं, मुझे तेरे वचन के अनुसार हो: तब स्वर्गदूत उसके पास से चला गया।

एक साल में बाइबल:

·      नीतिवचन 6-7

·      2 कुरिन्थियों

बुधवार, 8 सितंबर 2021

परमेश्वर का वचन, बाइबल – पाप और उद्धार - 14

 

पाप का समाधान - उद्धार - 10

आज से हम अपने तीसरे प्रश्नइसके लिए यह इतना आवश्यक क्यों हुआ कि स्वयं परमेश्वर प्रभु यीशु को स्वर्ग छोड़कर सँसार में बलिदान होने के लिए आना पड़ा?” को देखना आरंभ करते हैं। पहले के लेखपाप का परिणाममें हम ने देखा था कि मनुष्य के पाप ने परमेश्वर के सामने एक विडंबना लाकर रख दी - उसका न्यायी, निष्पक्ष और खरा होना माँग करता था कि पाप करने वाले मनुष्य को उसके किए का दण्ड भुगतना होगा; किन्तु मनुष्य के प्रति उसका प्रेम मनुष्य कोमृत्युअर्थात उससे अनन्त विछोह में, नरक में देखना नहीं चाहता था। अब उसे कोई ऐसा मार्ग चाहिए था जिससे उसका न्याय की माँग भी पूरी हो जाए, और मनुष्य को नाश में भी न जाना पड़े। 

इस समाधान के लिए उसे कोई ऐसा मनुष्य चाहिए था हो जो पूर्णतः निष्पाप और निष्कलंक हो, इतना सामर्थी हो कि मृत्यु उसे वश में न रख सके, और इतना कृपालु हो कि मनुष्यों के पापों को स्वेच्छा से अपने ऊपर लेकर, उनके दण्ड को मनुष्यों के स्थान पर सह ले, और फिर प्रतिफल को मनुष्यों में सेंत-मेंत बाँट दे। ऐसा मनुष्य पाप के दण्ड को सभी के लिए चुका सकता था, और मनुष्य को मृत्यु से स्वतंत्र कर के, उनका मेल-मिलाप परमेश्वर से करवा सकता था, अदन की वाटिका में खोई गई स्थिति को मनुष्यों के लिए वापस बहाल कर सकता था।

मनुष्यों के पाप का समाधान प्रदान करने वाले में इन बातों का होना अनिवार्य था:

  • वह एक मनुष्य हो 
  • वह अपना जीवन और सभी कार्य परमेश्वर की इच्छा और आज्ञाकारिता में होकर, उसे समर्पित रहकर करे  
  • वह अपने जीवन भर मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में पूर्णतः निष्पाप, निष्कलंक, और पवित्र रहा हो
  • वह स्वेच्छा से सभी मनुष्यों के पापों को अपने ऊपर लेने और उनके दण्ड - मृत्यु को सहने के लिए तैयार हो 
  • वह मृत्यु से वापस लौटने की सामर्थ्य रखता हो; मृत्यु उस पर जयवंत नहीं होने पाए
  • वह अपने इस महान बलिदान के प्रतिफलों को सभी मनुष्यों को सेंत-मेंत देने के लिए तैयार हो 

 

       इन सभी बातों की पूर्ति किसी मनुष्य के लिए कर पाना असंभव था। आदम और हव्वा के पाप ने उनमें और फिर उनकी संतान में पाप करने के प्रवृत्ति डाल दी थी। हर मनुष्य पाप करने के स्वभाव के साथ ही जन्म लेता है, जैसा दाऊद ने अपने एक भजन में कहादेख, मैं अधर्म के साथ उत्पन्न हुआ, और पाप के साथ अपनी माता के गर्भ में पड़ा” (भजन 51:5); दाऊद ने यह नहीं कहा कि मैं पाप के द्वारा या पाप के कारण अपनी माता के गर्भ में पड़ा, वरन माता के गर्भ में पड़ने के समय से ही उस में पाप विद्यमान था। यह केवल कहने की बात नहीं है, एक व्यावहारिक तथ्य है; बच्चे पाप के स्वभाव के साथ ही जन्म लेते हैं। एक शिशु जो अभी बोलना भी नहीं जानता है, वह क्रोध करता है, लालच करता है - अपनी पसंद की चीज़ को छोड़ना या किसी और देना नहीं चाहता है, अपने किए किसी अनुचित कार्य के लिए इनकार करना, उसे अस्वीकार करना जानता है, आदि। किसी ने भी उसे ऐसा करना नहीं सिखाया है, वह स्वतः ही ऐसा करने की समझ और क्षमता रखता है। हम अकसर इन बातों कोबाल-व्यवहारकह और समझ कर, हंस कर टाल देते हैं। किन्तु जब यहीबाल व्यवहारकी बातें कोई थोड़ा बड़ा बच्चा या वयस्क करता है तो इसी को हम ही बुरा, आपत्तिजनक, अस्वीकार्य कहते हैं; और जो बारंबार ऐसा करता रहता है उसे बुरा या पापी मानते हैं। व्यवहार और मनसा वही है, केवल आयु का अंतर है। इसलिए हम उस मनसा और व्यवहार को संज्ञा चाहे कोई भी दे लें, वास्तविकता तो अपरिवर्तनीय है, बनी ही रहेगी - प्रत्येक मनुष्य पाप की प्रवृत्ति, पाप के दोष के साथ जन्म लेता है। यह प्रवृत्ति और मनसा सभी के मन में बनी रहती है, और समय तथा अवसर के अनुसार प्रकट होकर व्यवहार में दिखने लगती है। तब हम व्यक्ति को पापी कहना आरंभ कर देते हैं। 

मनुष्य अपने प्रयासों से अपनी इस प्रवृत्ति को दबा सकता है, नियंत्रित कर सकता है, बाहर प्रकट होने से रोक सकता है; किन्तु मन-ध्यान-विचारों में इस प्रकार का पाप आने को नहीं रोक सकता है। हम देख चुके हैं कि परमेश्वर की दृष्टि में मन के अप्रत्यक्ष पाप भी, व्यवहार में किए गए प्रत्यक्ष पापों के समान ही दण्डनीय हैं। इसीलिए बाइबल में अय्यूब की पुस्तक में लिखा गया है:

  • अशुद्ध वस्तु से शुद्ध वस्तु को कौन निकाल सकता है? कोई नहीं” (अय्यूब 14:4)
  • मनुष्य है क्या कि वह निष्कलंक हो? और जो स्त्री से उत्पन्न हुआ वह है क्या कि निर्दोष हो सके? देख, वह अपने पवित्रों पर भी विश्वास नहीं करता, और स्वर्ग भी उसकी दृष्टि में निर्मल नहीं हैफिर मनुष्य अधिक घिनौना और मलीन है जो कुटिलता को पानी के समान पीता है” (अय्यूब 15:14-16)
  • फिर मनुष्य ईश्वर की दृष्टि में धमीं क्योंकर ठहर सकता है? और जो स्त्री से उत्पन्न हुआ है वह क्योंकर निर्मल हो सकता है? देख, उसकी दृष्टि में चन्द्रमा भी अन्‍धेरा ठहरता, और तारे भी निर्मल नहीं ठहरतेफिर मनुष्य की क्या गिनती जो कीड़ा है, और आदमी कहां रहा जो केंचुआ है!” (अय्यूब 25:4-6)

       और यशायाह नबी ने लिखा, “हम तो सब के सब अशुद्ध मनुष्य के से हैं, और हमारे धर्म के काम सब के सब मैले चिथड़ों के समान हैं। हम सब के सब पत्ते के समान मुर्झा जाते हैं, और हमारे अधर्म के कामों ने हमें वायु के समान उड़ा दिया है” (यशायाह 64:6)

       तो अब परमेश्वर को एक ऐसा मनुष्य चाहिए था जो गर्भ में पड़ने के समय से लेकर जीवन पर्यंत मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में निष्पाप, पवित्र, और निष्कलंक रहा हो। मनुष्य की स्वाभाविक जन्म-प्रणाली के अनुसार यह असंभव था। 

       इसीलिए बाइबल और मसीही विश्वास की यह शिक्षा है कि प्रत्येक मनुष्य पापी है; प्रत्येक मनुष्य को पापों की क्षमा और उद्धार की आवश्यकता है। यदि आप ने अभी भी उद्धार नहीं पाया है, अपने पापों के लिए प्रभु यीशु से क्षमा नहीं मांगी है, तो अभी आपके पास अवसर है। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटे प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा।

बाइबल पाठ: अय्यूब 14:1-10 

अय्यूब 14:1 मनुष्य जो स्त्री से उत्पन्न होता है, वह थोड़े दिनों का और दुख से भरा रहता है।

अय्यूब 14:2 वह फूल के समान खिलता, फिर तोड़ा जाता हे; वह छाया की रीति पर ढल जाता, और कहीं ठहरता नहीं।

अय्यूब 14:3 फिर क्या तू ऐसे पर दृष्टि लगाता है? क्या तू मुझे अपने साथ कचहरी में घसीटता है?

अय्यूब 14:4 अशुद्ध वस्तु से शुद्ध वस्तु को कौन निकाल सकता है? कोई नहीं।

अय्यूब 14:5 मनुष्य के दिन नियुक्त किए गए हैं, और उसके महीनों की गिनती तेरे पास लिखी है, और तू ने उसके लिये ऐसा सिवाना बान्धा है जिसे वह पार नहीं कर सकता,

अय्यूब 14:6 इस कारण उस से अपना मुंह फेर ले, कि वह आराम करे, जब तक कि वह मजदूर के समान अपना दिन पूरा न कर ले।

अय्यूब 14:7 वृक्ष की तो आशा रहती है, कि चाहे वह काट डाला भी जाए, तौभी फिर पनपेगा और उस से नर्म नर्म डालियां निकलती ही रहेंगी।

अय्यूब 14:8 चाहे उसकी जड़ भूमि में पुरानी भी हो जाए, और उसका ठूंठ मिट्टी में सूख भी जाए,

अय्यूब 14:9 तौभी वर्षा की गन्‍ध पाकर वह फिर पनपेगा, और पौधे के समान उस से शाखाएं फूटेंगी।

अय्यूब 14:10 परन्तु पुरुष मर जाता, और पड़ा रहता है; जब उसका प्राण छूट गया, तब वह कहां रहा?

एक साल में बाइबल:

·      नीतिवचन 3-5

·      2 कुरिन्थियों

मंगलवार, 7 सितंबर 2021

परमेश्वर का वचन, बाइबल – पाप और उद्धार - 13


पाप का समाधान - उद्धार -

       पिछले कुछ लेखों में हम पाप और उस के समाधान, उद्धार, के बारे में परमेश्वर के वचन बाइबल की शिक्षाओं को देखते आए हैं। उद्धार के बारे में हम बाइबल की शिक्षाओं को तीन महत्वपूर्ण प्रश्नों के अंतर्गत देखते आ रहे हैं। ये प्रश्न हैं: 

· यह उद्धार, अर्थात बचाव, या सुरक्षा किस से और क्यों होना है?

· व्यक्ति इस उद्धार को कैसे प्राप्त कर सकता है?

· इसके लिए यह इतना आवश्यक क्यों हुआ कि स्वयं परमेश्वर प्रभु यीशु को स्वर्ग छोड़कर सँसार में बलिदान होने के लिए आना पड़ा?

       अभी तक हम इनमें से पहले दो प्रश्नों के उत्तरों तथा उनके निष्कर्षों को बाइबल की शिक्षाओं के अनुसार को देख चुके हैं। साथ ही हमने तीन धर्मी, परमेश्वर के वचन के ज्ञाता, और समाज में उच्च ओहदा रखने वाले लोगों के जीवनों को भी देखा था, और उनसे सीखा था कि इन सब बातों के होने के बावजूद वे परमेश्वर को स्वीकार्य होने की स्थिति में नहीं थे, और स्वयं उनका विवेक उन्हें इसके लिए बेचैन करता था। अब तीसरा प्रश्न देखना बाकी है; किन्तु इस सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न को देखने से पहले, जो बातें हम अभी तक देख और सीख चुके हैं, उन्हें ध्यान कर लेना, उनका पुनः अवलोकन कर लेना अच्छा रहेगा, जिससे परमेश्वर के मनुष्य बनकर, सभी मनुष्यों के पापों के लिए अपने आप को बलिदान कर देने को समझने में हमें कोई असमंजस न हो। 

पुनः अवलोकन 

पाप क्या है?

  • बाइबल के अनुसार, पाप की परिभाषा और व्याख्या किसी मनुष्य अथवा मनुष्यों के अनुसार नहीं है; वरन इसे स्वयं परमेश्वर ने बताया है। उसने जो कहा और निर्धारित किया है, अन्ततः वही माना जाएगा, और उसी के अनुसार ही सब को और सब कुछ को जाँचा-परखा जाएगा, हर निर्णय लिया जाएगा (यूहन्ना 12:48; 1 कुरिन्थियों 3:11-13) 
  • परमेश्वर ने बताया है कि पाप केवल कुछ शारीरिक कार्य करना ही नहीं है, वरन, मूलतः, परमेश्वर के नियमों, उसकी व्यवस्था का उल्लंघन करना है (1 यूहन्ना 3:4)। किसी भी प्रकार का अधर्म पाप है (1 यूहन्ना 5:17), वह चाहे किसी भी बात या परिस्थिति के अन्तर्गत अथवा उद्देश्य से क्यों न किया गया हो।
  • बाइबल सिखाती है कि पाप में होना एक मानसिक दशा है। हर प्रकार के पाप का आरंभ मन में होता है, और उचित परिस्थितियों एवँ समय में वह शारीरिक क्रियाओं में प्रगट हो जाता है (याकूब 1:14-15; मरकुस 7:20-23)। इसीलिए परमेश्वर की दृष्टि में विचारों में किए गए पाप भी वास्तव में किए गए पापों के समान ही दण्डनीय हैं (मत्ती 5:22, 28)
  • इसीलिए परमेश्वर की दृष्टि में ऐसे सभी प्रकार के विचार, दृष्टिकोण, भावनाएं, मनसा, प्रवृत्ति, कार्य, व्यवहार, इत्यादि पाप हैं जो उसके द्वारा दिए गए धार्मिकता के नियमों और मानकों के अनुसार उचित नहीं हैं, उन मानकों के अनुरूप नहीं हैं। ये बातें चाहे अभी मन ही में हों, किसी शारीरिक क्रिया में प्रकट नहीं भी हुई हों; किन्तु उनकी मन में उपस्थिति और स्थान ही मनुष्य को परमेश्वर की दृष्टि में “पापी” ठहराने के लिए पर्याप्त है।

पाप के परिणाम:

  • पवित्र, निष्पाप परमेश्वर पाप के साथ संगति नहीं कर सकता है। 
  • पाप परमेश्वर और मनुष्य में दीवार ले आता है, परस्पर संगति को तोड़ देता है। 
  • पाप मनुष्यों में मृत्यु, अर्थात, मानवीय क्षमताओं और संदर्भ में, एक अपरिवर्तनीय बिछड़ जाना ले आता है। आत्मिक रीति से, मनुष्य परमेश्वर से पाप करते ही बिछड़ गया; और शारीरिक रीति से उसी दिन से उसका शरीर क्षय होना आरंभ हो गया, और अन्ततः मर गया। मृत्यु की यही दशा प्रथम मनुष्यों से उनकी संतानों में भी आई, और आज भी विद्यमान है। इसी समस्या का निवारण परमेश्वर ने प्रभु यीशु में होकर समस्त मानव जाति को उपलब्ध करवाया है। 

उद्धार और संबंधित बातें:

  • उद्धारयाबचावका अर्थ होता हैकिसी खतरे अथवा हानि से सुरक्षा मिलना”; अर्थात उद्धार दिए जाने का अर्थ है बचाया जाना, सुरक्षित कर दिया जाना।
  • उद्धार हमेशा परमेश्वर की ओर से दिया जाता है; कोई भी व्यक्ति कभी भी, किसी भी रीति से परमेश्वर के उद्धार को कमा नहीं सकता है; अपने किसी भी प्रयास से अपने आप को उद्धार प्राप्त करने का अधिकारी अथवा योग्य नहीं कर सकता है; अर्थात, अपने आप को स्वर्ग में प्रवेश और निवास के योग्य शुद्ध और पवित्र नहीं कर सकता है।
  • परमेश्वर का समाधान, मनुष्य के स्वेच्छा तथा सच्चे मन से परमेश्वर के प्रति संपूर्ण विश्वास रखने, और अपने इस विश्वास पर आधारित परमेश्वर की सम्पूर्ण आज्ञाकारिता एवं समर्पण के साथ उसकी आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करने के निर्णय कर लेने पर निर्भर है। 
  • इस पूरी प्रक्रिया में मनुष्य को केवल परमेश्वर द्वारा उपलब्ध करवाए गए समाधान को अपने जीवन में कार्यान्वित करना है; उसमें अपनी कोई बात, योजना, विधि आदि नहीं सम्मिलित करनी है, और न ही किसी अन्य मनुष्य की मध्यस्थता अथवा योगदान को सम्मिलित करना है।
  • यह उद्धार, अर्थात बचाव, या सुरक्षा किस से और क्यों होना है?
    • किस से - उद्धार या बचाव पाप के दुष्प्रभावों से होना है, जिन के कारण मनुष्यों में आत्मिक एवं शारीरिक मृत्यु, डर, अहं, दोष, लज्जा, परमेश्वर से दूरी, अपनी गलतियों के लिए बहाने बनाना तथा दूसरों पर दोषारोपण करने, परमेश्वर की कृपा को नजरंदाज करने जैसी प्रवृत्ति और भावनाएं आ गई हैं। प्रभु यीशु मसीह हमें पाप के प्रभावों से मुक्त कर केपवित्र, निष्कलंक, निर्दोष, बेदाग और बेझुर्रीबनाकर अपने साथ, अपनी कलीसिया, अर्थात मसीही विश्वासियों के कुल समुदाय को, अपनी दुल्हन बनाकर खड़ा करना चाहता है (इफिसियों 5:25-27) 
    • क्यों - क्योंकि हमारा सृष्टिकर्ता परमेश्वर हम सभी मनुष्यों से अभी भी, हमारी पाप में पतित दशा में भी प्रेम करता है, हमारे साथ संगति में रखना चाहता है, चाहता है कि हम उस से मेल-मिलाप कर लें, और उसके पुत्र-पुत्री होने के दर्जे को स्वीकार कर लें (यूहन्ना 1:2-13) और स्वर्ग के वारिस बन जाएं। वह हमें विनाश में नहीं आशीष में देखना चाहता है।
  • व्यक्ति इस उद्धार को कैसे प्राप्त कर सकता है?
    • पाप और उद्धार से संबंधित चर्चा के इस महत्वपूर्ण दूसरे प्रश्न का निष्कर्ष है कि पाप का समाधान और उद्धार किसी धर्म के कार्य अथवा धर्म के निर्वाह के द्वारा नहीं है; न ही यह किसी धर्म विशेष की बात है; और न ही पैतृक अथवा वंशागत है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने पापों के लिए स्वयं पश्चाताप करना होगा, उनके लिए स्वयं प्रभु यीशु से क्षमा माँगनी होगी, स्वयं ही अपना जीवन प्रभु यीशु को समर्पित करना होगा, उसका आज्ञाकारी शिष्य बनने का स्वयं ही निर्णय लेना होगा।

 

तीन व्यक्तियों, नीकुदेमुस, धनी जवान धर्मी अधिकारी, और पौलुस के जीवन दिखाते हैं कि धर्म का निर्वाह, परमेश्वर के वचन का मनुष्यों एवं अपनी समझ से प्राप्त किया गया ज्ञान, धार्मिक कार्य, धार्मिक उन्माद, धार्मिकता के द्वारा समाज में उच्च और प्रतिष्ठित होना, आदि, कुछ भी मनुष्य को परमेश्वर के सामने धर्मी और स्वीकार्य, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश के लिए योग्य नहीं बनाता है। यह केवल नया जन्म पा लेने, अर्थात, प्रत्येक मनुष्य के स्वेच्छा और सच्चे मन से पापों के लिए पश्चाताप करने और प्रभु यीशु मसीह को उद्धारकर्ता स्वीकार करके अपना जीवन उसे समर्पित करने, उसकी आज्ञाकारिता में, उसकी शिष्यता में आ जाने के द्वारा ही है; उद्धार का यही एक मात्र मार्ग है। 

यदि आप ने अभी भी अपने पापों के लिए प्रभु यीशु से क्षमा नहीं मांगी है, तो अभी आपके पास अवसर है। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटे प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा।

 

बाइबल पाठ: रोमियों 6:15-23

रोमियों 6:15 तो क्या हुआ क्या हम इसलिये पाप करें, कि हम व्यवस्था के आधीन नहीं वरन अनुग्रह के आधीन हैं? कदापि नहीं।

रोमियों 6:16 क्या तुम नहीं जानते, कि जिस की आज्ञा मानने के लिये तुम अपने आप को दासों के समान सौंप देते हो, उसी के दास हो: और जिस की मानते हो, चाहे पाप के, जिस का अन्त मृत्यु है, चाहे आज्ञा मानने के, जिस का अन्त धामिर्कता है

रोमियों 6:17 परन्तु परमेश्वर का धन्यवाद हो, कि तुम जो पाप के दास थे तौभी मन से उस उपदेश के मानने वाले हो गए, जिस के सांचे में ढाले गए थे।

रोमियों 6:18 और पाप से छुड़ाए जा कर धर्म के दास हो गए।

रोमियों 6:19 मैं तुम्हारी शारीरिक दुर्बलता के कारण मनुष्यों की रीति पर कहता हूं, जैसे तुम ने अपने अंगों को कुकर्म के लिये अशुद्धता और कुकर्म के दास कर के सौंपा था, वैसे ही अब अपने अंगों को पवित्रता के लिये धर्म के दास कर के सौंप दो।

रोमियों 6:20 जब तुम पाप के दास थे, तो धर्म की ओर से स्वतंत्र थे।

रोमियों 6:21 सो जिन बातों से अब तुम लज्जित होते हो, उन से उस समय तुम क्या फल पाते थे?

रोमियों 6:22 क्योंकि उन का अन्त तो मृत्यु है परन्तु अब पाप से स्वतंत्र हो कर और परमेश्वर के दास बनकर तुम को फल मिला जिस से पवित्रता प्राप्त होती है, और उसका अन्त अनन्त जीवन है।

रोमियों 6:23 क्योंकि पाप की मजदूरी तो मृत्यु है, परन्तु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु मसीह यीशु में अनन्त जीवन है।

 

एक साल में बाइबल:

·      नीतिवचन 1-2

·      1 कुरिन्थियों 16 

सोमवार, 6 सितंबर 2021

परमेश्वर का वचन, बाइबल – पाप और उद्धार - 12

 

पाप का समाधान - उद्धार - 8

      पिछले दो लेखों में हम दो लोगों के जीवनों के उदाहरण देख चुके हैं जो बहुत धर्मी थे, धार्मिकता का निर्वाह करते थे, परमेश्वर के वचन और आज्ञाओं को जानते थे और उनका पालन करने का दावा करते थे, समाज में उच्च ओहदा रखते थे। किन्तु दोनों ही अपने अंदर जानते थे कि अपने इस धर्म के निर्वाह, वचन की बातों को मानने, लोगों के दृष्टि में धर्मी और आदरणीय होने के बावजूद, वे परमेश्वर के सम्मुख खड़े हो पाने और उसके राज्य में प्रवेश कर पाने के अयोग्य थे। उनके मन और विवेक उन्हें चेतावनी दे रहे थे कि अभी, समय रहते, जब प्रभु का अनुग्रह उन्हें उपलब्ध है, इस स्थिति को ठीक कर लें; और इसी लिए समाधान को ढूँढने के लिए वे प्रभु यीशु मसीह के पास आए थे। उनमें से एक, नीकुदेमुस तो संभवतः आगे चलकर प्रभु यीशु मसीह का विश्वासी बन गया था, उसने अरमतियाह के यूसुफ के साथ मिलकर प्रभु यीशु की देह को क्रूस पर से उतरवाकर दफनाया था (यूहन्ना 19:38-39); किन्तु दूसरा व्यक्ति, जो धनी जवान सरदार था, सांसारिक संपत्ति के मोह से अपने आप को अलग नहीं कर पाया और वापस संसार में लौट गया। 

आज हम तीसरे व्यक्ति के जीवन के उदाहरण से देखेंगे कि धर्म का निर्वाह कैसे व्यक्ति को सत्य के प्रति अंधा एवं सत्य का पालन करने वालों के प्रति क्रूर और निर्मम, अमानवीय, बना देता है। किन्तु जब सत्य से व्यक्ति की पहचान हो जाती है, तो जिस वचन की गलत समझ के कारण वह अनुचित व्यवहार करता था, उसकी सही समझ आ जाने से उसका जीवन, दृष्टिकोण, और व्यवहार कैसे अद्भुत रीति से बदल जाता है। यह तीसरा उदाहरण नए नियम के जाने-माने नायक पौलुस प्रेरित का है, जो मसीही विश्वासी होने से पहले शाऊल के नाम से जाना जाता था (प्रेरितों 13:9)। अपनी परवरिश और शिक्षा से पौलुस एक कट्टर फरीसी था; उसने अपने समय के बहुत आदरणीय और उत्तम शिक्षक गमलीएल (प्रेरितों 5:34) से शिक्षा पाई थी (प्रेरितों 22:3) 

इस कट्टर फरीसी, पौलुस का मानना था कि यीशु मसीह तथा मसीही विश्वासी विधर्मी हैं, परमेश्वर और उसकी व्यवस्था का अपमान कर रहे हैं, और उन्हें इसके लिए पकड़ना और दंड दिलवाना चाहिए। इसके लिए वह स्थान-स्थान पर जाकर प्रभु यीशु मसीह के शिष्यों को पकड़ कर लाया करता था, जिससे धर्म के ठेकेदार उन्हें विधर्मी होने के लिए दंडित कर सकें (प्रेरितों 7:60; 8:2-3; 26:12)। उसके दृष्टिकोण और विचारों को उसके ही शब्दों में देखते हैं:मैं ने भी समझा था कि यीशु नासरी के नाम के विरोध में मुझे बहुत कुछ करना चाहिए। और मैं ने यरूशलेम में ऐसा ही किया; और महायाजकों से अधिकार पाकर बहुत से पवित्र लोगों को बन्‍दीगृह में डाला, और जब वे मार डाले जाते थे, तो मैं भी उन के विरोध में अपनी सम्मति देता था। और हर आराधनालय में मैं उन्हें ताड़ना दिला दिलाकर यीशु की निन्दा करवाता था, यहां तक कि क्रोध के मारे ऐसा पागल हो गया, कि बाहर के नगरों में भी जा कर उन्हें सताता था” (प्रेरितों 26:9-11)

उसे मिली उसके धर्म की शिक्षा और धार्मिकता के निर्वाह तथा व्यवहार के आधार पर, पौलुस की समझ उसे प्रेरित करती थी कि:

  • उसे यीशु नासरी के विरुद्ध बहुत कुछ करना चाहिए;
  • उसे पवित्र लोगों को बंदीगृह में डालना चाहिए
  • वह उन लोगों के मसीही विश्वास के लिए मार डाले जाने में सहमत रहे
  • हर आराधनालय में वह उनकी ताड़ना करता और उनसे जबरन यीशु की निन्दा करवाए;
  • बाहर के नगरों में भी जाकर मसीही विश्वासियों को सताए

उनके विरुद्ध क्रोध के मारे वह पागल सा हो गया था। 

पौलुस के धर्म, और धर्म के उसके ज्ञान ने उसका यह अमानवीय व्यवहार करवाने वाला हाल बना दिया था। किन्तु जब ऐसे ही एक अभियान पर दमिश्क जाते समय प्रभु यीशु मसीह से, उनके महिमित स्वरूप में, उसका साक्षात्कार हुआ, तो उसका जीवन, समझ, दृष्टिकोण, और व्यवहार सभी बदल गए (प्रेरितों 9:2-6; 26:13-15)। उस पहले साक्षात्कार में ही पौलुस ने यीशु कोप्रभुमान लियाउसने पूछा; हे प्रभु, तू कौन है? उसने कहा; मैं यीशु हूं; जिसे तू सताता है” (प्रेरितों 9:5)। प्रभु यीशु ने उसके समर्पण को स्वीकार किया और उद्धार के सुसमाचार के प्रचार की सेवकाई सौंपी, परंतु साथ ही यह भी बता दिया कि इस सेवकाई के निर्वाह में उसे बहुत दुख उठाने होंगेपरन्तु प्रभु ने उस से कहा, कि तू चला जा; क्योंकि यह, तो अन्यजातियों और राजाओं, और इस्राएलियों के सामने मेरा नाम प्रगट करने के लिये मेरा चुना हुआ पात्र है। और मैं उसे बताऊंगा, कि मेरे नाम के लिये उसे कैसा कैसा दुख उठाना पड़ेगा” (प्रेरितों के काम 9:15-16); साथ ही यह आश्वासन भी दिया कि उन सभी कठिन और दुखदाई परिस्थितियों में प्रभु उसकी रक्षा करेगा, उसके साथ रहेगाऔर मैं तुझे तेरे लोगों से और अन्यजातियों से बचाता रहूंगा, जिन के पास मैं अब तुझे इसलिये भेजता हूं। कि तू उन की आंखें खोले, कि वे अंधकार से ज्योति की ओर, और शैतान के अधिकार से परमेश्वर की ओर फिरें; कि पापों की क्षमा, और उन लोगों के साथ जो मुझ पर विश्वास करने से पवित्र किए गए हैं, मीरास पाएं” (प्रेरितों के काम 26:17-18)। और तुरंत ही पौलुस इस सेवकाई में लग गयाऔर वह तुरन्त आराधनालयों में यीशु का प्रचार करने लगा, कि वह परमेश्वर का पुत्र है” (प्रेरितों 9:20) 

जिस धर्मशास्त्र की अपनी समझ के अनुसार वह प्रभु यीशु और उसके शिष्यों का घोर विरोध करता था, प्रभु से उसी धर्मशास्त्र की सही समझ प्राप्त करने के बाद वह उसी धर्मशास्त्र में से यीशु के मसीह होने को प्रमाणित करने लगापरन्तु शाऊल और भी सामर्थी होता गया, और इस बात का प्रमाण दे देकर कि मसीह यही है, दमिश्क के रहने वाले यहूदियों का मुंह बन्द करता रहा” (प्रेरितों 9:22); “जब सीलास और तीमुथियुस मकिदुनिया से आए, तो पौलुस वचन सुनाने की धुन में लगकर यहूदियों को गवाही देता था कि यीशु ही मसीह है” (प्रेरितों 18:5); “और पौलुस अपनी रीति के अनुसार उन के पास गया, और तीन सबत के दिन पवित्र शास्त्रों से उन के साथ विवाद किया। और उन का अर्थ खोल खोल कर समझाता था, कि मसीह को दुख उठाना, और मरे हुओं में से जी उठना, अवश्य था; और यही यीशु जिस की मैं तुम्हें कथा सुनाता हूं, मसीह है” (प्रेरितों 17:2-3)

अपने जीवन, तथा परमेश्वर के वचन के प्रति अपने दृष्टिकोण के इस अद्भुत परिवर्तन के विषय पौलुस ने फिलिप्पी की मसीही मंडली को लिखा, कि व्यवस्था की जिन बातों को वह पहले अति महत्वपूर्ण समझता था, अब मसीह यीशु द्वारा मानव जाति के उद्धार और मनुष्यों को परमेश्वर को स्वीकार्य बनाने के लिए प्रभु यीशु द्वारा किए गए कार्य की सही पहचान हो जाने के बाद, वह अपनी उन पिछली धारणाओं के गलत एवं व्यर्थ होने को समझ गया, वचन और व्यवस्था के प्रति उसका दृष्टिकोण सुधर कर ठीक हो गया, और अब वह केवल मसीह यीशु के ज्ञान में बढ़ने की चाह रखने लगा, व्यवस्था से धर्मी माने जाने की नहीं (फिलिप्पियों 3:4-14) 

शाऊल/पौलुस के धर्म, शिक्षा, और उसकी अपनी समझ ने उसे उसी परमेश्वर और उस परमेश्वर के शिष्यों का बैरी और नाश करने वाला बना दिया, जिसकी वह सेवा करना चाहता था। किन्तु प्रभु यीशु मसीह पर लाए विश्वास ने उसे धर्मशास्त्र की सही समझ दी, उसकी सेवा को सही उद्देश्य और दिशा दी, उसे हर परिस्थिति में प्रभु परमेश्वर का साथ और सहायता को प्रदान किया। उसकी मसीही सेवकाई का जीवन बहुत कठिन और दुखों से भरा हुआ था; किन्तु अपने जीवन के अंत के समय उसके पास अभूतपूर्व शांति थी, उसे एक आश्वासन था, जो उसने सभी मसीही विश्वासियों के लिए भी व्यक्त कियाक्योंकि अब मैं अर्घ के समान उंडेला जाता हूं, और मेरे कूच का समय आ पहुंचा है। मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूं मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है, जिसे प्रभु, जो धर्मी, और न्यायी है, मुझे उस दिन देगा और मुझे ही नहीं, वरन उन सब को भी, जो उसके प्रगट होने को प्रिय जानते हैं” (2 तीमुथियुस 4:6-8) 

पौलुस के जीवन में जो काम उसकी परवरिश एवं परमेश्वर के वचन के बारे में तथा धर्म के निर्वाह के लिए उसे मनुष्यों से मिली शिक्षा नहीं कर सकी; इन बातों पर आधारित उसकी समझ के अनुसार किए गए उसकेधर्म के कामनहीं कर सके, वह प्रभु यीशु मसीह के प्रति सच्चे समर्पित विश्वास ने एक पल में करवा दिया; उसका जीवन, व्यवहार, और दृष्टिकोण बिल्कुल बदल दिया। पौलुस के धर्म ने उसे अनजाने में ही पागलों के समान मनुष्यों और परमेश्वर का विरोधी, उनका सताने वाला, प्रभु परमेश्वर का निरादर करने वाला बना दिया था। मसीही विश्वास ने उसे दुख उठा कर भी धीरज, सहनशीलता, और प्रेम के साथ मनुष्यों की भलाई और प्रभु परमेश्वर की सेवकाई करने वाला बना दिया, परमेश्वर के वचन के ऐसी गहरी, सच्ची, और ठोस समझ प्रदान की जो उसे और कहीं से नहीं मिल सकती थी। पौलुस में होकर परमेश्वर के वचन की वह व्याख्या हमें उपलब्ध हुई है, जो आज दो हज़ार साल बाद भी लोगों के दर्शनों को खोल रही है, उनके जीवन बदल रही है, और संसार के अंत तथा न्याय के लिए मसीही विश्वासियों को तैयार कर रही है। 

अपने जीवन का आँकलन करके देखिए। कहीं आप भी धर्म और धार्मिकता के नाम पर मनुष्यों के बैरी, उन्हें सताने वाले, और परमेश्वर की निन्दा का कारण तो नहीं बन रहे हैं? प्रभु यीशु मसीह के सच्ची पहचान में आइए, उसे अपना प्रभु स्वीकार कीजिए, आपके जीवन का दृष्टिकोण और व्यवहार ही बदल जाएगा; परमेश्वर के वचन के प्रति आपकी समझ खुल जाएगी, नई हो जाएगी; आप परमेश्वर की निन्दा के नहीं, प्रशंसा के कारण, उसके गवाह बन जाएंगे। स्वेच्छा से, सच्चे पश्चाताप और समर्पण के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं पापी हूँ और आपकी अनाज्ञाकारिता करता रहता हूँ। मैं स्वीकार करता हूँ कि आपने मेरे पापों को अपने ऊपर लेकर, मेरे बदले में उनके दण्ड को कलवरी के क्रूस पर सहा, और मेरे लिए अपने आप को बलिदान किया। आप मेरे लिए मारे गए, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए तीसरे दिन जी उठे। कृपया मुझ पर दया करके मेरे पापों को क्षमा कर दीजिए, मुझे अपनी शरण में ले लीजिए, अपना आज्ञाकारी शिष्य बनाकर, अपने साथ कर लीजिए।सच्चे मन से की गई पश्चाताप और समर्पण की एक प्रार्थना आपके जीवन को अभी से लेकर अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय जीवन बना देगी, स्वर्गीय आशीषों का वारिस कर देगी। 

 

बाइबल पाठ: फिलिप्पियों  3:4-14

फिलिप्पियों 3:4 पर मैं तो शरीर पर भी भरोसा रख सकता हूं यदि किसी और को शरीर पर भरोसा रखने का विचार हो, तो मैं उस से भी बढ़कर रख सकता हूं

फिलिप्पियों 3:5 आठवें दिन मेरा खतना हुआ, इस्राएल के वंश, और बिन्यमीन के गोत्र का हूं; इब्रानियों का इब्रानी हूं; व्यवस्था के विषय में यदि कहो तो फरीसी हूं

फिलिप्पियों 3:6 उत्साह के विषय में यदि कहो तो कलीसिया का सताने वाला; और व्यवस्था की धामिर्कता के विषय में यदि कहो तो निर्दोष था

फिलिप्पियों 3:7 परन्तु जो जो बातें मेरे लाभ की थीं, उन्‍हीं को मैं ने मसीह के कारण हानि समझ लिया है

फिलिप्पियों 3:8 वरन मैं अपने प्रभु मसीह यीशु की पहचान की उत्तमता के कारण सब बातों को हानि समझता हूं: जिस के कारण मैं ने सब वस्तुओं की हानि उठाई, और उन्हें कूड़ा समझता हूं, जिस से मैं मसीह को प्राप्त करूं

फिलिप्पियों 3:9 और उस में पाया जाऊं; न कि अपनी उस धामिर्कता के साथ, जो व्यवस्था से है, वरन उस धामिर्कता के साथ जो मसीह पर विश्वास करने के कारण है, और परमेश्वर की ओर से विश्वास करने पर मिलती है

फिलिप्पियों 3:10 और मैं उसको और उसके मृत्युंजय की सामर्थ्य को, और उसके साथ दुखों में सहभागी होने के मर्म को जानूँ, और उस की मृत्यु की समानता को प्राप्त करूं

फिलिप्पियों 3:11 ताकि मैं किसी भी रीति से मरे हुओं में से जी उठने के पद तक पहुंचूं

फिलिप्पियों 3:12 यह मतलब नहीं, कि मैं पा चुका हूं, या सिद्ध हो चुका हूं: पर उस पदार्थ को पकड़ने के लिये दौड़ा चला जाता हूं, जिस के लिये मसीह यीशु ने मुझे पकड़ा था

फिलिप्पियों 3:13 हे भाइयों, मेरी भावना यह नहीं कि मैं पकड़ चुका हूं: परन्तु केवल यह एक काम करता हूं, कि जो बातें पीछे रह गई हैं उन को भूल कर, आगे की बातों की ओर बढ़ता हुआ

फिलिप्पियों 3:14 निशाने की ओर दौड़ा चला जाता हूं, ताकि वह इनाम पाऊं, जिस के लिये परमेश्वर ने मुझे मसीह यीशु में ऊपर बुलाया है

 

एक साल में बाइबल:

·      भजन 148-150

·      1 कुरिन्थियों 15:29-58