वरदानों का प्रयोग - रोमियों 12:6-8 - सौंपी गई सेवकाई के अनुसार
परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा प्रत्येक
मसीही विश्वासी को सभी के भलाई और उन्नति के लिए उसे मिली उसकी सेवकाई के अनुसार
दिए गए वरदानों के प्रयोग के लिए व्यक्तिगत रीति से तैयार होने को सिखाने के बाद, पवित्र आत्मा उसके द्वारा दिए गए वरदानों के व्यावहारिक प्रयोग के बारे
में बताता है। इस अध्याय के पद 6-8 एक बार फिर हमारे सामने आत्मिक वरदानों से संबंधित सदा
ध्यान रखने और पालन करने वाले तथ्यों को दोहराता है। यह पद स्मरण दिलाते हैं कि:
- सभी
मसीही विश्वासियों को भिन्न-भिन्न वरदान दिए गए हैं; सभी को एक ही वरदान नहीं दिया
गया है, और न ही किसी एक को सभी या अधिकांश वरदान दिए
गए हैं। इसलिए किसी एक वरदान के सभी में विद्यमान होने की इच्छा रखना और
परमेश्वर से
यह माँग करने की शिक्षा वचन
के अनुसार सही नहीं है। क्योंकि न तो हर किसी की एक ही सेवकाई है, और न ही हर किसी को एक ही, या
समान वरदान दिया गया है।
- यहाँ
पर किसी सेवकाई अथवा वरदान को किसी अन्य की तुलना में बड़ा या छोटा, अथवा कम या अधिक महत्वपूर्ण
नहीं कहा गया है। मसीही सेवकाई और उनके निर्वाह के लिए दिए गए आत्मिक वरदानों
के विषय इस प्रकार की कोई धारणा रखना और सिखाना, वचन के
अनुसार सही नहीं है।
- प्रत्येक
मसीही विश्वासी को ये वरदान परमेश्वर द्वारा उसके अनुग्रह में होकर दिए गए
हैं। किसे कौन सी सेवकाई देनी है, और फिर उस सेवकाई के अनुसार किसे कौन सा वरदान देना है, यह परमेश्वर ही निर्धारित करता है। सेवकाई और वरदानों के दिए जाने
में किसी मनुष्य की किसी भी प्रकार की कोई भी भूमिका नहीं है। किसी को भी कोई
भी वरदान, उसकी किसी योग्यता अथवा गुण के अनुसार नहीं
दिए गए हैं। इसका एक उत्तम उदाहरण है प्रेरित पतरस और पौलुस को सौंपी गई
सुसमाचार प्रचार की सेवकाइयां। वचन बताता है कि पतरस एक “अनपढ़ और साधारण” मनुष्य था (प्रेरितों 4:13),
और पौलुस, उद्धार से पहले, परमेश्वर के वचन की उच्च शिक्षा पाया हुआ एक फरीसी था (प्रेरितों 22:3;
26:5)। दोनों को ही परमेश्वर ने सुसमाचार प्रचार के लिए
नियुक्त किया था। मानवीय बुद्धि और समझ, तथा उन दोनों
की योग्यताओं के अनुसार, उपयुक्त होता कि पतरस को
अन्यजातियों में भेजा जाए, जो परमेश्वर के वचन और
व्यवस्था के बारे में नहीं जानते थे; और पौलुस को जो व्यवस्था और वचन का
विद्वान था, यहूदियों के मध्य सेवकाई के लिए भेज जाए।
किन्तु परमेश्वर ने पतरस को यहूदियों के मध्य, और पौलुस
को अन्यजातियों में सुसमाचार प्रचार की सेवकाई के लिए नियुक्त किया (रोमियों 11:13;
गलातीयों 2:7), जो उनकी व्यक्तिगत
योग्यता के अनुसार कदापि नहीं था, किन्तु परमेश्वर ने
अपने अनुग्रह और योजना में अपनी इच्छा के अनुसार ठहराया था। साथ ही इस बात का
भी ध्यान करें कि न तो पतरस ने, और न ही पौलुस ने
परमेश्वर से कभी अपनी योग्यता और प्रशिक्षण के अनुसार अपनी सेवकाई या सेवकाई
के लोगों को बदलने की कोई प्रार्थना की। जैसा परमेश्वर ने जिसे सौंपा,
उसने वह वैसा परमेश्वर की आज्ञाकारिता और इच्छा के अनुसार,
उसके लिए परमेश्वर द्वारा दी गई सामर्थ्य और सद्बुद्धि के
अनुसार किया। यही बात हम वचन के अन्य भागों में भी देखते हैं।
- प्रत्येक
विश्वासी को परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई को ज़िम्मेदारी और वफादारी
से निभाना है। इन तीन पदों में पवित्र आत्मा पौलुस द्वारा मसीही विश्वासियों को लिखवा रहा है कि
जिसे जो सेवकाई सौंपी गई है, उसे उसी सेवकाई को अपनी भरसक सामर्थ्य के अनुसार करना है। पूरे वचन
में कहीं कोई उदाहरण नहीं है कि परमेश्वर के किसी प्रेरित अथवा सेवक ने उसके
लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित सेवकाई के बदले कोई अन्य सेवकाई प्राप्त की
हो। कुछ लोगों ने, जैसे कि योना नबी ने, और आरंभ में मूसा ने और यिर्मयाह ने अपनी सेवकाई को लेकर अप्रसन्नता
अवश्य व्यक्त की, उससे बचना चाहा, किन्तु बच कोई नहीं सका; अन्ततः उन्हें जाकर
वही करना पड़ा जो परमेश्वर ने उनके लिए ठहराया था।
- साथ
ही इन पदों तथा शेष पदों में लिखे गए निर्देश की वाक्य-रचना पर भी ध्यान
कीजिए - परमेश्वर द्वारा सौंपे गए सभी कार्यों को निरंतर चलते रहने, उन्हें लगातार किए जाते रहने
वाले भाव में कहा गया है। कहीं यह नहीं लिखा है, अथवा
ऐसा कोई संकेत दिया गया है कि उसके लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित की गई
सेवकाई समाप्त होने वाली या कुछ समय तक की ही है। अर्थात, जब तक परमेश्वर स्वयं किसी कारण उस सेवकाई में कोई परिवर्तन न करे,
तब तक मसीही सेवक को उसे सौंपे गए कार्य को करते ही चले जाना
है। पौलुस जीवन भर सुसमाचार प्रचार में ही लगा रहा। जब उसे बंदी बनाया गया,
तो उसने पत्रियाँ लिख कर इस सेवा को किया; जब वह बंदी नहीं था, तो एक से दूसरे स्थान पर
जाकर, हर सताव, कठिनाई, दुख, तिरस्कार, उत्पीड़न,
आदि को सहते हुए भी, वह अपनी सेवकाई को
करता ही रहा; एक के बाद एक अन्य स्थानों पर जाकर
सुसमाचार प्रचार के अवसर तलाशता रहा, उन अवसरों का प्रयोग
करता रहा। और यही बात अन्य प्रेरितों और सेवकों के जीवनों में भी देखी जाती
है। परमेश्वर के पूरे वचन में ऐसा कोई नहीं है जिसे उसकी परमेश्वर द्वारा
निर्धारित की गई सेवकाई से कभी “सेवा-निवृत्ति (retirement)”
मिली हो। उनका देहांत ही उनकी सेवकाई से सेवा-निवृत्ति थी,
और जब तक वे पृथ्वी पर रहे, परमेश्वर
उन्हें सामर्थ्य, बुद्धि और बल देता रहा कि वे अपने
कार्य को करते रहें, परमेश्वर के लिए उपयोगी बने रहें।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह अनिवार्य
है कि आप अपनी निर्धारित सेवकाई को पहचानें, और अपने आप को
तैयार कर के उस सेवकाई को परमेश्वर द्वारा दिए गए आत्मिक वरदानों की सहायता से
पूरा करें। जब तक परमेश्वर आपको किसी अन्य कार्य के लिए न कहे, जो उसने सौंपा है, उसे ही करते रहें। औरों की
सेवकाइयों को लेकर शैतान के किसी भ्रम या बहकावे में न पड़ें; और न ही पवित्र आत्मा के नाम से इस संबंध में 1 कुरिन्थियों
12:31 के आधार पर गलत शिक्षाएं देने वालों की भ्रामक बातों
में, जिनकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं, आएं। आप परमेश्वर के प्रति वफादार बने
रहिए, और वह
आपके प्रति वफादार रहेगा, आपको आपके अनन्त जीवन के लिए
सुरक्षित एवं आशीषित रखेगा।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक
स्वीकार नहीं किया है, तो
अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के
पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की
आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए
- उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से
प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ
ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस
प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद
करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया,
उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी
उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को
क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और
मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।”
सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा
भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- ज़कर्याह
13-14
- प्रकाशितवाक्य 21
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