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मसीह विरोधी का प्रतिरोधक - यूहन्ना 14:30
हम पिछले लेखों में देखते आ रहे हैं कि एक मसीही विश्वासी के मसीही सेवकाई के जीवन में उसे व्यक्तिगत रीति से परमेश्वर पवित्र आत्मा किस प्रकार सहायता एवं मार्गदर्शन प्रदान करता है। पिछले लेख में हमने देखा था कि पवित्र आत्मा अपनी ओर से कभी कुछ नया नहीं कहता है; वह मसीहियों को मसीह यीशु के वचन, प्रभु की शिक्षाएं स्मरण करवाता है, और सेवकाई तथा मसीही जीवन से संबंधित सभी बातें सिखाता है। सीखने में व्यक्ति के परिश्रम, प्रयास, और पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता की आवश्यकता होती है। पवित्र आत्मा ने पतरस प्रेरित के द्वारा 2 पतरस 1:3-4 में लिखवाया है कि जीवन और भक्ति से संबंधित सभी बातें, प्रभु यीशु मसीह की पहचान में होकर हमें उपलब्ध करवा दी गई हैं; तथा साथ ही इस संसार की सड़ाहट से बचने और ईश्वरीय स्वभाव के संभागी होने का मार्ग भी दे दिया गया है। अर्थात पहली कलीसिया के उस युग में, जब परमेश्वर पवित्र आत्मा के अगुवाई में प्रेरित और प्रभु के जन उन पत्रियों की रचना कर रहे थे, जिन्हें संकलित करके नए नियम के रूप में बाइबल में रखा जाना था, उसी समय मसीही विश्वासी के लिए मसीही जीवन और सेवकाई से संबंधित जो कुछ भी आवश्यक था, वह उन्हें दे दिया गया था, लिखवा दिया गया था, और अब नए नियम के रूप में हमारे हाथों में विद्यमान है। तात्पर्य यह कि परमेश्वर का वचन आरंभिक कलीसिया के समय से ही पूर्ण हो चुका है, उसमें और कुछ जोड़ने, कुछ नया बताने की कोई आवश्यकता नहीं है। ऐसा करना परमेश्वर के वचन की अनाज्ञाकारिता है, परमेश्वर द्वारा दण्डनीय है (व्यवस्थाविवरण 12:32; नीतिवचन 30:6; प्रकाशितवाक्य 22:18-19)। परमेश्वर को स्वीकार्य और उसे प्रसन्न करने वाला जीवन जीने के लिए मानवजाति के लिए जो कुछ भी आवश्यक है, वह सब परमेश्वर पवित्र आत्मा ने लिखवा दिया है, उपलब्ध करवा दिया है; अब हमें केवल उसका पालन करना है, आज्ञाकारी रहना है, न कि उसमें कुछ जोड़ने का प्रयास करना है।
इसलिए आज के उन ‘नए’ दर्शनों, भविष्यवाणियों, शिक्षाओं, चमत्कारिक बातों, आदि का कोई औचित्य अथवा आवश्यकता नहीं है; और न ही परमेश्वर के वचन बाइबल से उनके लिए कोई समर्थन है, जिन्हें ‘पवित्र आत्मा की ओर से’ प्राप्त करने का दावा आज बहुत से मत और समुदाय, या डिनॉमिनेशन के अनुयायी करते हैं, जिनके बारे में औरों को भी सिखाते हैं, तथा औरों को भी करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। यदि पवित्र आत्मा से संबंधित बाइबल की शिक्षाएं, प्रभु यीशु की कही बातें सही हैं, तो इन लोगों के ऐसे सभी दावे बेबुनियाद हैं, व्यर्थ हैं, झूठे हैं, और उनमें पड़ने या उन्हें स्वीकार करने का कोई आधार नहीं है। परमेश्वर पवित्र आत्मा सत्य का आत्मा है, वह न तो कभी झूठ कहेगा या करेगा, न झूठ बुलवाएगा या करवाएगा। वह वही कहेगा और करेगा जो परमेश्वर के वचन में उसने अपने विषय पहले ही लिखवा कर रखा है। इसलिए इन भ्रामक और वचन के विपरीत शिक्षाओं से बच कर रहें, उन्हें स्वीकार न करें। ऐसी सभी लुभावनी, चमत्कारिक, आकर्षक, किन्तु वचन से असंगत बातें परमेश्वर की ओर से कदापि नहीं हैं, और उनके निर्वाह से परमेश्वर को प्रसन्न नहीं किया जा सकता है। ऐसी बातों के संदर्भ में मत्ती 7:21-23 तथा 2 थिस्सलुनीकियों 2:9 को सदा स्मरण रखें और 1 थिस्सलुनीकियों 5:21 के अनुसार सभी शिक्षाओं को बारीकी से जाँच-परख कर ही स्वीकार करें।
प्रभु ने यूहन्ना 14:30 में शिष्यों को इसी खतरे से सचेत किया, जब उन्होंने शिष्यों से कहा, “मैं अब से तुम्हारे साथ और बहुत बातें न करूंगा, क्योंकि इस संसार का सरदार आता है, और मुझ में उसका कुछ नहीं”। प्रभु जानता था कि शिष्यों द्वारा मसीही सेवकाई पर निकलते ही, उनके द्वारा सुसमाचार प्रचार आरंभ होते ही, 'संसार का सरदार' अर्थात शैतान उन पर टूट कर पड़ने वाला था; वह उन्हें बहकाने, भरमाने, और गलत मार्ग पर डालने का भरसक प्रयास करेगा। और यूहन्ना ने अपनी पहली ही पत्री में अपने पाठकों को लिखा, “हे लड़कों, यह अन्तिम समय है, और जैसा तुम ने सुना है, कि मसीह का विरोधी आने वाला है, उसके अनुसार अब भी बहुत से मसीह के विरोधी उठे हैं; इस से हम जानते हैं, कि यह अन्तिम समय है” (1 यूहन्ना 2:18)। उस मसीह विरोधी का सामना करने और उसकी युक्तियों पर शिष्यों को जयवंत रखने के लिए (2 कुरिन्थियों 2:11), प्रभु ने शिष्यों के लिए उनमें व्यक्तिगत रीति से परमेश्वर पवित्र आत्मा के सर्वदा निवास करते रहने का यह अद्भुत और अभूतपूर्व इंतजाम कर के दिया था कि वे कभी अकेले, निःसहाय न हों; भरमाए या भटकाए न जाएं, वरन हमेशा ईश्वरीय सामर्थ्य के द्वारा सुरक्षित रह सकें। किन्तु यह तब ही संभव है जब हम पवित्र आत्मा द्वारा कहे के अनुसार करें (गलातीयों 5:16-18, 25)। किन्तु यदि हम परमेश्वर द्वारा हमारे लिए निर्धारित की गई सीमाओं के बाहर जाएंगे, तो उसकी सुरक्षा के बाड़े के बाहर आ जाएंगे, और तब शैतान हमें डस लेगा, हमें मुसीबतों में डाल देगा (अय्यूब 1:10; सभोपदेशक 10:8)। हम पर “संसार का सरदार” आन पड़ा है; वह भरसक प्रयत्न कर रहा है कि हमें परमेश्वर से और हमारी सेवकाई से दूर कर दे; हमें सही सुसमाचार के प्रचार और प्रसार से भटका दे। उसके हथियारों में से एक वह है जिसे उसने आदान की वाटिका में प्रयोग किया था; हम अपनी आँखों, अभिलाषाओं, और समझ का सहारा लेकर परमेश्वर के वचन की अनदेखी करें, और वह करें जो हमें सही, आकर्षक, और लाभकारी प्रतीत होता है। ध्यान रखिए, हम आज तक हव्वा द्वारा इस विचार के अंतर्गत उठाए गए कदम के दुष्परिणामों को भोगते चले आ रहे हैं। जैसा कि प्रभु यीशु नेयूहन्ना 14:30 में कहा है, “मुझ में उसका कुछ नहीं” - शैतान और उसकी युक्तियों का प्रभु यीशु के साथ कुछ व्यवहार नहीं है। इसलिए जो भी प्रभु यीशु द्वारा कही बात या शिक्षा नहीं है, या उसके अनुरूप नहीं है, वह प्रभु परमेश्वर की ओर से कदापि नहीं है, वह चाहे किटें भी प्रभावी और आकर्षक शब्दों तथा कार्यों के साथ प्रस्तुत क्यों न की गई हो। वह केवल शैतानी है, उसका आउद्देश्य हमें भटकाना और भरमाना है, और हमें हर हाल में उससे दूर रहना है।
इसीलिए, यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो परमेश्वर के वचन, को जानने और मानने में अपना समय और ध्यान लगाइए; अपनी मन-मर्जी और पसंद के अनुसार नहीं, अपितु उसकी आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करें। प्रत्येक मसीही विश्वासी को व्यक्तिगत रीति से पवित्र आत्मा की सामर्थ्य दिए जाने का उद्देश्य यही है कि वह शैतान की युक्तियों को समझे, उनके प्रति सचेत रहे, और परमेश्वर के वचन को सीख समझ कर अपनी मसीही सेवकाई के लिए सक्षम, तत्पर, और तैयार हो जाए, उस सेवकाई में लग जाए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो थोड़ा थम कर विचार कीजिए, क्या मसीही विश्वास के अतिरिक्त आपको कहीं और यह अद्भुत और विलक्षण आशीषों से भरा सौभाग्य प्राप्त होगा, कि स्वयं परमेश्वर आप में आ कर सर्वदा के लिए निवास करे; आपको अपना वचन सिखाए; और आपको शैतान की युक्तियों और हमलों से सुरक्षित रखने के सभी प्रयोजन करके दे? और फिर, आप में होकर अपने आप को औरों पर प्रकट करे, तथा पाप में भटके लोगों को उद्धार और अनन्त जीवन प्रदान करने के अपने अद्भुत कार्य करे, जिससे अंततः आपको ही अपनी ईश्वरीय आशीषों से भर सके? इसलिए अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, उनके लिए प्रभु से क्षमा माँगकर, अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आप अपने पापों के अंगीकार और पश्चाताप करके, प्रभु यीशु से समर्पण की प्रार्थना कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए मेरे सभी पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” प्रभु की शिष्यता तथा मन परिवर्तन के लिए सच्चे पश्चाताप और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 43-45
प्रेरितों 27:27-44
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Counter-Acts the Antichrist - John 14:30
We have been seeing in the previous articles how God the Holy Spirit provides guidance and help in a Christian Believer’s life and ministry. In the previous article we had seen that the Holy Spirit never says or gives anything new from His side; He only brings to remembrance the words and teachings of the Lord Jesus, and based on them, He teaches and guides the Christian Believers in their life and ministry. To learn requires efforts, striving, and obedience to the Holy Spirit. The Holy Spirit has got it written through Peter in 2 Peter 1:3-4 that all things pertaining to life and godliness, and the way to escape from the corruption of the world have been made available to using the knowledge and understanding of the Lord Jesus. In other words, in the time of the First Church, when the men of God under the guidance of the Holy Spirit were still writing the letters and books, which would later be compiled in the form of the New Testament, even at that time the Christian Believer had been provided everything required for his life and ministry, in a written form, and the same is available to us now as the New Testament. The implication is that the Word of God was completed at the time of the First Church itself; there is nothing that needs to be added to it, no newer revelations about it are required. Any addition to, or subtraction from God’s Word is tantamount to the sin of disobedience and invites God’s punishment (Deuteronomy 12:32; Proverbs 30:6; Revelation 22:18-19). All that is required for man to live a life pleasing and acceptable to God, His Holy Spirit has already got it written and made available; now we only need to obey and follow it, not add anything else to it.
Therefore, there is no basis, need, or rational for any of the ‘new’ revelations, prophecies, teachings, charismatic works that are so often claimed and taught by many sects and denominations today. Though they claim all of these things to be from the Holy Spirit, but there is no support or affirmation for this from God’s Word, even though those people are very emphatic about these things, they teach and emphatically encourage their followers to indulge in them as a sign of their being saved and having received the Holy Spirit. If the related teachings of the Bible, and the things said by the Lord Jesus are true, then, all the claims and behavior of these people are baseless, false, vain, and there is no need to accept them or fall for them. We have seen that the Holy Spirit is the Spirit of truth; He will never speak anything false, nor make anyone else say anything false or inconsistent with God’s Word. He will only say and do what He has already got written in God’s Word beforehand. Therefore, please beware of these false doctrines and teachings, do not accept them or believe in them. All such attractive, charismatic, enticing things, which are inconsistent with the Word of God, are not from God and God cannot be pleased by our accepting and following them. For all such things, never forget Matthew 7:21-23 and 1 Thessalonians 2:9, and in obedience to 1 Thessalonians 5:21 always thoroughly examine and verify every teaching, only then accept it, believe in it.
The Lord Jesus warned His disciples about this in John 14:30 when He said to them, “I will no longer talk much with you, for the ruler of this world is coming, and he has nothing in Me.” The Lord knew that the moment the disciples step out for their Christian ministry, as soon as they start preaching the gospel, “the ruler of this world” will attack them, oppose them, and make every possible attempt to beguile and mislead them. The Apostle John wrote to his audience in his first letter, “Little children, it is the last hour; and as you have heard that the Antichrist is coming, even now many antichrists have come, by which we know that it is the last hour” (1 John 2:18). To enable the disciples to face and overcome the Antichrist, the Lord made this wonderful and unique provision of God the Holy Spirit coming to reside in each and every one of His Believer, so that they would never be alone and helpless, they should not get beguiled and misled, but should remain safe and secure under divine protection. But this protection is only efficacious if the disciples of the Lord remain obedient to the Holy Spirit (Galatians 5:16-18, 25). If we step out of the boundaries made by God, we will come out of the security hedge, the wall placed around us by God, and then Satan will bite and harm us (Job 1:10; Ecclesiastes 10:8). The “ruler of this world” is upon us; he is trying to do whatever he can to draw us away from God and our ministry; to prevent us from preaching and propagating the true Gospel. One of his weapons, as he used in the Garden of Eden, is to entice us into using our own eyes, intellect, and desires to disregard God’s Word and instructions, and do what seems right, attractive, and beneficial to us. Remember, we are still suffering the consequences of Eve’s believing and doing according to this line of thought. As the Lord Jesus has said in John 14:30, “he has nothing in Me” - Satan and his devices have nothing to do with the Lord Jesus; therefore, anything not in, or not in accordance with what the Lord has already said and taught, is not from the Lord, even if it is said and preached in the name of the Lord, with powerful words and works - it is satanic, meant to beguile and mislead, so stay away from it.
Therefore, if you are a Christian Believer, then spend your time in reading and learning the Word of God, the Bible; and live your life not according to what seems right to you, but according to what the Bible says to you. The purpose of every Christian Believer being given the Holy Spirit is so that he may recognize and understand the devices of Satan, be alert to them, avoid them, and by learning from the Word of God, should become empowered, prepared, and ready to effectively carry out his Christian ministry.
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 43-45
Acts 27:27-44
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