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प्रभु की मेज़ - जो प्रभु को समर्पित नहीं हैं उनके लिए नहीं
हम चारों सुसमाचारों में से प्रभु द्वारा फसह का भोज खाते समय प्रभु भोज की स्थापना के वृतांत का अध्ययन करते आ रहे हैं। जैसा हम पहले भी कह चुके हैं, इस अध्ययन का उद्देश्य सुसमाचारों के विवरणों में सामंजस्य बैठाना और उन्हें क्रमवार प्रस्तुत करना नहीं है, वरन प्रभु की मेज़ के अर्थ, महत्व, और उसमें भाग लेने के बारे में सीखना है। अब हम इस घटनाक्रम के सबसे महत्वपूर्ण भाग पर आते हैं - प्रभु भोज की स्थापना, और एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न पर भी, कि क्या उस पहले प्रभु भोज में यहूदा इस्करियोती भी सम्मिलित हुआ था? इसका उत्तर और उसके अभिप्राय हम केवल चारों सुसमाचारों के विवरणों का अध्ययन कर के उन्हें साथ मिलाकर देखने के द्वारा ही प्राप्त कर सकते हैं।
यहाँ हमें इस घटनाक्रम के दो महत्वपूर्ण भागों को ध्यान में रखना बहुत आवश्यक है। पहला है फसह के भोज का खाया जाना, और दूसरा है प्रभु द्वारा अपने शिष्यों को रोटी और प्याले को अपनी देह और लहू के चिह्नों के रूप में देना, कि भविष्य में वे उसकी याद में यही करते रहें, जब तक कि वह लौट कर नहीं आ जाता है (लूका 22:19; 1 कुरिन्थियों 11:24-26)। जैसा हम पहले देख चुके हैं, प्रभु ने पहले यूहन्ना और पतरस को एक विशेष घर में भेजा था कि फसह के भोज की तैयारी करें, और फिर वहाँ शिष्यों के साथ गया था कि फसह का भोज उनके साथ खाए। जैसा हम यूहन्ना 13 से देख चुके हैं, कि भोजन खाने के दौरान, प्रभु ने उठकर शिष्यों के पाँव धोए, उन्हें दीनता और एक दूसरे को आदर देने का व्यावहारिक पाठ सिखाया। हो सकता है कि उसने यह इस कारण किया क्योंकि तब शिष्यों में वाद -विवाद चल रहा था कि उनमें से बड़ा कौन है (लूका 22:24-30)। भोजन करते समय, शिष्यों के पाँव धोने के पश्चात, प्रभु ने उन्हें बताया कि उनमें से एक उसे पकड़वाएगा, और फिर इस बात को लेकर शिष्यों में चर्चा आरंभ हो गई। फसह के भोज को खाते समय और पकड़वाने वाले की पहचान के रूप में, प्रभु ने रोटी का टुकड़ा डुबोकर यहूदा को दिया, और उससे कहा कि उसे जो करना है वह कर ले (यूहन्ना 13:26-27)। यहाँ पर यूहन्ना घटनाक्रम का एक बहुत महत्वपूर्ण भाग दर्ज करता है - यहूदा ने वह डुबोया हुआ टुकड़ा लिया और बाहर अँधियारे में चला गया (यूहन्ना 13:30), किसी भी सुसमाचार में यह नहीं लिखा है कि यहूदा ने वह टुकड़ा खाया भी। यह भिगो कर दिया गया टुकड़ा, उसके प्रति प्रभु के प्रेम और अभी भी प्रभु द्वारा उसे आदर दिए जाने का प्रतीक था, क्योंकि परंपरा के अनुसार परिवार का मुख्या, फसह खाते समय, यह टुकड़ा वहाँ उपस्थित आदरणीय और प्रेम के भागी व्यक्ति को देता था।
यह भिगोया हुआ रोटी का टुकड़ा दिए जाने, और टुकड़ा लेकर यहूदा के वहाँ से चले जाने के बाद, जब शेष शिष्य भोजन खा रहे थे, तब प्रभु यीशु ने रोटी ली, आशीष मांग कर तोड़ी और शिष्यों को उसके तोड़े गए बदन के प्रतीक के रूप में दे दिया; फिर उसने प्याला भी लिया और उन्हें उसमें से भाग लेने के लिए कहा, उनके लिए बहाए गए लहू के प्रतीक के रूप में, जैसा कि मत्ती 26:26-29; मरकुस 14:22-25; लूका 22:18-20 में लिखा गया है। इसलिए, इन सारी घटनाओं के विवरण को साथ मिलाकर देखने के द्वारा, हमारे सामने यह स्पष्ट हो जाता है कि यहूदा ने उस प्रथम प्रभु भोज में भाग नहीं लिया था, वह उस प्रभु भोज के स्थापित किए जाने के समय वहाँ उपस्थित नहीं था। यह हमारे द्वारा निर्गमन 12 से देखी गई बात के साथ पूर्णतः मेल खाता है कि फसह का भोज और प्रभु भोज केवल प्रभु परमेश्वर के प्रतिबद्ध, समर्पित लोगों ही के लिए है, किसी अन्य के लिए नहीं। कुछ लोग लूका के वृतांत के क्रम से इसके बारे में असमंजस में पड़ सकते हैं, क्योंकि लूका ने फसह के भोज वाला वर्णन और प्रभु यीशु द्वारा यह कहना कि उसके पकड़वाने वाले का हाथ उसके साथ मेज़ पर है, प्रभु भोज की स्थापना के बाद लिखा है। हमें समझने में सहायता के लिए यह ध्यान रखना चाहिए कि लूका फसह के भोज के समय यहूदा की उपस्थिति को बता रहा है, न कि प्रभु भोज के समय पर; क्योंकि यूहन्ना 13 का घटनाक्रम यह स्पष्ट बताता है कि रोटी का डुबोया हुआ टुकड़ा लेने के बाद यहूदा वहाँ से चला गया, उसके जाने के बाद भोजन चलता रहा, तथा शेष घटनाएं हुईं, जिनमें प्रभु भोज की स्थापना भी है। साथ ही यहूदा ने न तो रोटी का डुबोया हुआ टुकड़ा खाया, और न ही वह प्रभु भोज की स्थापना के समय वहाँ उपस्थित था।
कभी-कभी लोग यह तर्क देते हैं कि क्योंकि प्रभु यीशु ने यहूदा इस्करियोती को उस प्रथम प्रभु भोज में भाग लेने दिया, तो फिर आज क्यों वे लोग जो प्रभु यीशु को समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं हैं, इसमें भाग नहीं ले सकते हैं? हमें इसे दो दृष्टिकोण से समझने की आवश्यकता है - पहला, जैसे के हम ऊपर देख चुके हैं, प्रभु यीशु ने यहूदा को प्रथम प्रभु भोज में भाग नहीं लेने दिया। दूसरी बात, जैसा कि हमने बारंबार निर्गमन 12 के अध्ययन के समय बल देकर कहा है, प्रभु की मेज़ में भाग लेना एक यादगार है, प्रभु के बलिदान और हमें पाप के दासत्व से छुड़ाने के उसके काम की; इसमें भाग उसका आदर और आज्ञाकारिता करने के लिए है। प्रभु की मेज़ में भाग लेने से कोई पवित्र और धर्मी नहीं बनता है, और न ही कोई परमेश्वर को स्वीकार्य अथवा स्वर्ग में प्रवेश पाने के योग्य हो जाता है - इस विचारधारा के समर्थन एवं पुष्टि के लिए बाइबल में कोई हवाला अथवा उदाहरण नहीं है। तो फिर, बिना प्रभु यीशु के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध हुए, प्रभु भोज में भाग लेने के द्वारा किसी को क्या लाभ होगा और कैसे? बल्कि, जैसा कि 1 कुरिन्थियों 11:27-31 में लिखा है, जो इसमें अयोग्य रीति से भाग लेते हैं, वे अपने ऊपर परमेश्वर के न्याय को लाते हैं। इसलिए जो प्रभु परमेश्वर के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं हैं, उनके लिए प्रभु की मेज़ में भाग लेना किसी लाभ का नहीं परंतु बड़ी हानि का कारण होगा; इसलिए उन्हें अपने लाभ के लिए इसमें भाग लेने से रोक कर रखना चाहिए। यह निर्गमन 12:43-49 की बात के समान है, फसह में केवल तब ही कोई परदेशी भाग ले सकता था, जब वह अपने आप को परमेश्वर और अब्राहम के मध्य हुई वाचा के अंतर्गत ले आता था, और खतने के द्वारा इसकी गवाही दे देता था।
अगले लेख से हम 1 कुरिन्थियों 11 पर जाएंगे, तथा आगे की बातें वहाँ से सीखेंगे। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
मलाकी 1-4
प्रकाशितवाक्य 22
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The Lord’s Table - Not for Those not Committed to the Lord
In our study from the four Gospels, we have been looking at the Lord’s instituting the Holy Communion, while eating the Passover with His disciples. As we have said before, the purpose of this study is not to harmonize the Gospel accounts and present them in a chronological order, but to learn about the meaning, significance, and participation in the Lord’s Table. We now come to the crucial part of the event - the actual establishing of the Table by the Lord, and a very crucial question and its implications, did Judas Iscariot participate in that first Holy Communion? The answer and its inferences can only be derived by studying the four Gospel accounts and putting together the events sequentially.
We need to keep in mind two important parts of this event, first is the eating of the Passover meal and the second is Lord’s giving the bread and the cup as symbols of His body and blood to the disciples, for them to keep doing in remembrance of Him, in the times to come, till He comes (Luke 22:19; 1 Corinthians 11:24-26). The Lord had first sent Peter and John to prepare for the Passover in a specific house, as we have seen earlier, and had then gone to eat the Passover with His disciples. It was during the meal, as we saw from John 13, that He rose up and washed the feet of the disciples and gave them a practical lesson in humility and honoring others. This might have been prompted by the dispute among the disciples as to which one among them should be considered the greatest (Luke 22:24-30). It was during the meal, after the washing of the feet of the disciples, that the Lord informed that He was going to be betrayed by one amongst them, because of which a discussion as to who it is ensued amongst the disciples. As a part of eating of this Passover meal and as a sign of identification of the betrayer, the Lord gave the sop - the piece of bread dipped in the broth, to Judas, and asked him to do what he wanted to do (John 13:26-27). John records a very important part of the events here - Judas took the sop, and went out into the night (John 13:30), but in none of the gospel accounts is it written that Judas actually ate that sop given to Him by the Lord, which was also a sign of Lord’s love for him and of still giving him a place of honor, since the head of the family, at Passover, gave the sop to a loved and honorable person present at the Passover meal.
It is after the sop had been given, and Judas after receiving the sop had gone out, while the others were eating the meal (Matthew 26:26; Mark 14:22) that the Lord took the bread, blessed and broke it and gave it to the disciples as a symbol of His body broken for them; He then took the cup and asked them to share from it, as a symbol of the Lord’s blood shed for them, as is recorded in Matthew 26:26-29; Mark 14:22-25; Luke 22:18-20. Therefore, by piecing together the sequence of events, it becomes clear that Judas was not present at the time of the Lord establishing the Table, and did not participate in the first Holy Communion established by the Lord. This is in perfect agreement with what we have seen earlier, from Exodus 12, that the Passover, as well as Lord’s Table are only for the actual committed people of the Lord, not for anyone else. Some people may be confused by the account given in Luke, since Luke records the events of eating the Passover meal and the Lord’s saying that the hand of His betrayer is with Him in the dish, after the establishing of the Lord’s Table, whereas Matthew and Mark record it as before the Lord established the Table. What helps us to understand and clarify is that Luke is recording the presence of Judas for the Passover meal not for the Table; since the events of John 13 help us understand that eating of the meal was in presence of Judas, who left after taking the sop, and the continuation of the meal and the rest of the events, including the establishing of the Lord’s Table, followed after that. Moreover, Judas did not even eat the sop, and neither was he present at the institution of the Lord’s Table.
Sometimes, people argue that since the Lord allowed Judas Iscariot to partake of the first Holy Communion, so why can’t people who are not actually committed to the Lord do the same today? We need to understand it from two different perspectives - firstly, as we have seen above, the Lord Jesus did not let Judas partake of the first Holy Communion. Secondly, as we have repeatedly emphasized during the study from Exodus 12, partaking in the Lord’s Table is in remembrance of the sacrifice of the Lord to deliver us from the bondage of sin; it is to honor and obey Him. Partaking of the Lord’s Table does not accord anyone any holiness or righteousness, nor makes anyone acceptable to God, nor worthy of entering into heaven - there is no Biblical reference to support and affirm this thinking. So, how would anyone benefit, and in what manner, by participating in the Holy Communion, without being committed to the Lord? Rather, as it says in 1 Corinthians 11:27-31, those who participate unworthily, invite God’s judgement upon themselves. Therefore, for those not committed to the Lord, participating in the Lord’s Table is more harmful than of any good; and for their own benefit they should refrain from doing so, till they make a commitment to the Lord and join themselves to Him; as was the instruction for the Passover - only those who first came under the covenant of God with Abraham, witnessed for it through circumcision, could participate in the Passover (Exodus 12:43-49).
From the next article, we will shift to 1 Corinthians 11 and learn more from there. If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Malachi 1-4
Revelation 22
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