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मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 55

 

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आरम्भिक बातें – 16

परमेश्वर पर विश्वास करना – 3

 

    पिछले लेख में, इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छः आरम्भिक बातों में से दूसरी आरंभिक बात, अर्थात “परमेश्वर पर विश्वास करना” पर विचार करते हुए, हमने देखा था कि किसी काल्पनिक ईश्वर अथवा सृजे गई वस्तु या जन पर नहीं बल्कि एकमात्र सच्चे परमेश्वर, प्रभु परमेश्वर यहोवा, पर दृढ़ और स्थिर विश्वास रखना क्यों आवश्यक है। यही परमेश्वर प्रभु यीशु मसीह के रूप में देहधारी होकर पृथ्वी पर आया, ताकि समस्त मानवजाति के लिए उद्धार और अनन्त जीवन का मार्ग तैयार कर के दे, और जो भी अपने पापों से पश्चाताप करता है, उस पर विश्वास लाता है, और अपना जीवन उसे समर्पित करता है कि उसकी तथा उसके वचन की आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करे, वह प्रभु से पापों के लिए क्षमा और अनन्त जीवन सेंत-मेंत प्राप्त करता है। जैसा हमने पिछले लेख में इब्रानियों 11:6 से देखा था, परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए यह विश्वास होना अनिवार्य है। यदि व्यक्ति परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में स्थिर और दृढ़ नहीं होगा, तो शैतान उसके मन में परमेश्वर, परमेश्वर के गुणों और विशेषताओं, परमेश्वर के चरित्र के बारे में सन्देह उत्पन्न कर देगा, और फिर उन्हें पाप करने के मार्ग में बहका देगा, जैसा उसने अदन की वाटिका में हव्वा के साथ किया था। एक बार जब व्यक्ति गलती और पाप करने में गिर जाता है, तो फिर वह औरों को भी उनमें ले आता है, जैसे हव्वा ने आदम से पाप करवा दिया। इसलिए यह अनिवार्य है कि हम शैतान को कोई अवसर न दें कि वह अपनी किसी भी युक्ति से हमें परमेश्वर पर सन्देह करने और पाप में डालने में सफल हो जाए; और इसका एकमात्र मार्ग है परमेश्वर में स्थिर और दृढ़ विश्वास को बनाए रखना, जो कि परमेश्वर के सम्पूर्ण वचन से भली-भांति परिचित होने से होता है, क्योंकि तब शैतान परमेश्वर के वचन की कोई गलत व्याख्या या किसी हवाले का गलत उपयोग हमारे सामने लाकर हमें किसी झूठी शिक्षा अथवा गलत सिद्धान्त पर विश्वास करने में नहीं फँसाने पाता है।

    परमेश्वर का वचन बाइबल हमें यह भी बताती है कि परमेश्वर की दृष्टि में विश्वास रखने का क्या अर्थ है – “अब विश्वास आशा की हुई वस्तुओं का निश्चय, और अनदेखी वस्तुओं का प्रमाण है” (इब्रानियों 11:1)। यहाँ पर जिस वाक्यांश को प्रमुख किया गया है वह हमारे वर्तमान विचार के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि बाइबल का परमेश्वर आत्मा है, न कि कोई भौतिक शरीर (1 यूहन्ना 4:12, 20); और जब तक वह स्वयं ही अपने आप को प्रत्यक्ष नहीं दिखाता है, कोई उसे देख नहीं सकता है। जैसा कि प्रभु यीशु ने कहा, परमेश्वर की आराधना उसके अदृश्य आत्मा रूप में ही होनी है “परमेश्वर आत्मा है, और अवश्य है कि उसके भजन करने वाले आत्मा और सच्चाई से भजन करें” (यूहन्ना 4:24)। इसलिए सच्चा विश्वास, बाइबल की परिभाषा के अनुसार, यह माँग करता है कि हम परमेश्वर में विश्वास रखें, उस पर भरोसा रखें, उसकी उपासना करें और उसके आज्ञाकारी रहें, चाहे वह हमें दिखाई न भी दे। हमारे ऐसा करने के लिए परमेश्वर ने न तो हमें हमारी कल्पनाओं पर छोड़ा है, और न ही हम से उस पर अन्धविश्वास रखने के लिए कहा है। उसने हमारी सहायता के लिए न केवल स्वयं के विषय आवश्यक प्रमाण उपलब्ध करवाए हैं, बल्कि साथ ही खुला निमंत्रण भी दिया है कि हम उसे परख कर देख लें कि वह कितना भला है, “परखकर देखो कि यहोवा कैसा भला है! क्या ही धन्य है वह पुरुष जो उसकी शरण लेता है” (भजन 34:8)। यह एक अनुपम बात है, जो सारे सँसार भर में, किसी भी अन्य ईश्वर के प्रति विश्वास रखने के साथ कदापि नहीं देखी जाती है। मसीही विश्वास के अतिरिक्त, अन्य सभी विश्वास और किसी भी अन्य ईश्वर की उपासना में, माँग एक अन्धविश्वास की रहती है, जिस में कोई सन्देह करने अथवा प्रश्न उठाने का कोई स्थान नहीं होता है। और यदि कोई उस ईश्वर या देवी-देवता के अस्तित्व, या उसकी सामर्थ्य, या उसकी क्षमताओं पर कोई प्रश्न उठाता है, तो उसे विधर्मी माना जाता है। साथ ही उस ईश्वर पर सन्देह करने, या उसके बारे में प्रश्न उठाने को उस ईश्वर का अपमान करना समझा जाता है और फिर उसके अनुयायी सन्देह करने या प्रश्न उठाने वाले को यह अपमान करने के लिए दण्ड देते हैं।

    बाइबल के परमेश्वर के साथ ऐसा नहीं है; उसे कोई आपत्ति नहीं है कि कोई उसके बारे में जाँचे-परखे, वह इसे बुरा नहीं मानता है; और जाँचने-परखने वाले पर छोड़ देता है कि यह सब करने के बाद स्वयं ही उस पर विश्वास करने के बारे में निष्कर्ष निकालें, वह उन्हें विश्वास करने के लिए बाध्य नहीं करता है। उसने अपनी सृष्टि में अपने बारे में बहुतेरे प्रमाण रखे हैं (अय्यूब 12:7-9; भजन 8:3; 19:1-3; 33:6-9; रोमियों 1:20), और लोकप्रिय किन्तु गलत शैतानी धारणा के विपरीत, विज्ञान बाइबल के विरुद्ध नहीं है और न ही परमेश्वर के अस्तित्व को नकारता है। इस धारणा के विपरीत, सभी वैज्ञानिक आविष्कार एक सृष्टिकर्ता की ओर संकेत करते हैं, एक बुद्धिमान हस्ती के द्वारा की गई सुनियोजित, और व्यवस्थित सृष्टि की ओर, न कि विज्ञान के नाम पर किए जाने वाले खोखले दावों के अनुसार अनियंत्रित और अनायास ही कुछ भी हो जाने के द्वारा सभी कुछ बन जाने की ओर। इसलिए, चाहे बाइबल का परमेश्वर आत्मा है, अदृश्य है, लेकिन फिर भी उस ने अपनी सृष्टि में अपने बारे में प्रमाण रखे हैं जो कि उसके अनदेखे होने पर भी अस्तित्व में होने को प्रमाणित करते हैं। ये प्रमाण, अर्थात हम जो उसके वचन से, और उसकी सृष्टि से उसके गुणों, विशेषताओं, और उसके चरित्र के बारे में सीखते हैं, वह हमें वह आधार प्रदान करते हैं कि हम “परमेश्वर पर विश्वास” करें। अब हम परमेश्वर के कुछ महत्वपूर्ण गुणों और विशेषताओं के बारे में देखेंगे, और उसके चरित्र के बारे में भी सीखेंगे।

    बाइबल का परमेश्वर ही वह एकमात्र परमेश्वर है जो अपनी समस्त सृष्टि की देखभाल करता है, चाहे उसके सृजे हुए लोग उस में विश्वास करें या न करें, उसका अंगीकार करके उसके आज्ञाकारी रहें अथवा न रहें; वह फिर भी उनकी भौतिक या शारीरिक आवश्यकताओं का ध्यान रखता है, उनके लिए उपलब्ध करवाता है “यहोवा सभों के लिये भला है, और उसकी दया उसकी सारी सृष्टि पर है” (भजन 145:9; साथ ही मत्ती 5:45; लूका 6:35; प्रेरितों 14:15-17 भी देखें)। वह धीरजवन्त और विलम्ब से क्रोध करने वाला परमेश्वर है, और सभी के भले या बुरे कामों को धैर्य के साथ बर्दाश्त करता रहता है, उन्हें पर्याप्त अवसर देता रहता है, स्मरण दिलाता रहता है कि लोग अपने पापों से पश्चाताप करें और उसकी ओर लौट आएँ, “प्रभु अपनी प्रतिज्ञा के विषय में देर नहीं करता, जैसी देर कितने लोग समझते हैं; पर तुम्हारे विषय में धीरज धरता है, और नहीं चाहता, कि कोई नाश हो; वरन यह कि सब को मन फिराव का अवसर मिले” (2 पतरस 3:9)। किन्तु वह न्यायी परमेश्वर भी है, और जो पापों से पश्चाताप करके उसे समर्पण नहीं करते हैं, उसके आज्ञाकारी नहीं बनते हैं, उस से क्षमा प्राप्त नहीं करते हैं, उन्हें फिर अन्ततः उसका सामना एक न्यायी के समान करना पड़ेगा और उसके न्याय को झेलना पड़ेगा “… यहोवा, यहोवा, ईश्वर दयालु और अनुग्रहकारी, कोप करने में धीरजवन्त, और अति करुणामय और सत्य, हजारों पीढ़ियों तक निरन्तर करुणा करने वाला, अधर्म और अपराध और पाप का क्षमा करने वाला है, परन्तु दोषी को वह किसी प्रकार निर्दोष न ठहराएगा, वह पितृों के अधर्म का दण्ड उनके बेटों वरन पोतों और परपोतों को भी देने वाला है” (निर्गमन 34:6-7 )।

    अगले लेख में हम परमेश्वर के कुछ और गुणों, विशेषताओं पर, और उसके चरित्र के बारे में विचार करेंगे, यह जानने के लिए कि क्यों बाइबल का परमेश्वर विश्वास करने के योग्य है, और क्यों विश्वासियों को उसमें स्थिर और दृढ़ विश्वास बनाए रखना चाहिए।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 16

Faith Towards God - 3

 

    In the last article, considering the second i.e., the principle of “Faith Towards God,” of the six elementary principles given in Hebrews 6:1-2, we had seen the necessity of having a firm, unshakeable faith towards not any imaginary deity or created being, but in the one true God, the Lord God Jehovah, who manifested on earth as the Lord Jesus Christ, to provide the way of salvation and eternal life for all of mankind. Anyone who repents of his sins, believes in Him, and submits his life to Him, to live in obedience to Him and His Word, obtains His pardon for their sins and eternal life freely, from Him. As we saw from Hebrews 11:6 in the previous article, this faith is necessary to be pleasing to Him. Unless one is firm and unshakeable in his faith towards God, Satan will be able to create doubts in him about God, God’s attributes and characteristics, God’s character, and then mislead them into committing sin, as he did with Eve in the Garden of Eden. Once a person falls into errors and sins, he leads others also into them, as Eve led Adam into sinning. Hence, it is imperative that we do not provide Satan any opportunity to make us fall into doubting God and sinning through any of his ploys; and the way to do that is to have a firm, unshakeable faith in God and to be well versed in all of God’s Word, so that Satan is unable to misquote and misinterpret God’s Word to us, and make us believe in some false teaching or wrong doctrine.

    God’s Word the Bible also tells us what God considers having faith – “Now faith is the substance of things hoped for, the evidence of things not seen” (Hebrews 11:1). The phrase made prominent here is important for our current consideration since the God of the Bible is a Spirit, and not a physical being (1 John 4:12, 20); and unless He chooses to make Himself visible, no one can see Him. As the Lord Jesus has said, God is to be worshipped as Spirit, i.e., in His invisible form “God is Spirit, and those who worship Him must worship in spirit and truth” (John 4:24). So, true faith, going by the Biblical definition, demands that we believe in God, trust Him, worship and obey Him, though He remains invisible to us. For this, God has neither left us to our own imaginations, nor has He asked us to have a blind faith in Him. To help us He has not only provided the requisite proofs, but has also given the open invitation to taste and see how good He is “Oh, taste and see that the Lord is good; Blessed is the man who trusts in Him” (Psalm 34:8). This is something unique, quite unlike any other belief in any other deity, anywhere in the world. Except for the Christian Faith, in practically every other belief and form of worship of any deity, having a blind, unquestioning faith is often the demand; and anyone who questions the existence, or the power, or the abilities of that deity is seen as a heretic. Moreover, having doubts and raising any questions about the deity is taken as insulting the deity, deserving of punishment, and those who doubt or question are punished by the followers of that deity for demeaning that deity.

    Not so with the God of Bible; He is willing to be examined and prove Himself without any ill-will towards anyone about this; and still leaving it to those checking Him out to draw their own conclusions about believing in Him, instead of forcing them to believe in Him. He has put many proofs about Himself in His creation (Job 12:7-9; Psalm 8:3; 19:1-3; 33:6-9; Romans 1:20), and unlike the popular but satanic notion, science does not contradict the Bible nor disproves the existence of God. On the contrary, all scientific discoveries are pointing towards the creator and an intelligent, planned, orderly creation, instead of the random occurrences by chance that are claimed and taught in the name of science. So, even though the God of the Bible is a Spirit, is invisible, yet He has placed abundant proofs about Himself in His creation, that provide the evidence of Him who is not seen. This evidence, i.e., what we learn about His attributes, characteristics, and character from His Word and from His creation provide for us the basis of our having “Faith Towards God.” We will now look at some important attributes and characteristics about the Lord, and also learn of His character.

    The God of the Bible, is the only God who takes care of all His creation, whether or not they believe in Him, acknowledge Him, obey Him; He still meets their physical needs and provides for them “The Lord is good to all, And His tender mercies are over all His works” (Psalm 145:9; see also Matthew 5:45; Luke 6:35; Acts 14:15-17). He is a longsuffering God, who patiently puts up with the deeds, whether right or wrong, of everyone, and provides ample opportunities and reminders for people to repent of their sins and return to Him, “The Lord is not slack concerning His promise, as some count slackness, but is longsuffering toward us, not willing that any should perish but that all should come to repentance” (2 Peter 3:9). But He is also a God of justice, and those who do not repent and submit to Him in obedience to be forgiven, will eventually have to face Him as their Judge and suffer His judgment “…The Lord, the Lord God, merciful and gracious, longsuffering, and abounding in goodness and truth, keeping mercy for thousands, forgiving iniquity and transgression and sin, by no means clearing the guilty, visiting the iniquity of the fathers upon the children and the children's children to the third and the fourth generation” (Exodus 34:6-7).

    In the next article we will consider some more attributes and characteristics of God, and His Character, to see why the God of the Bible is worthy of being believed in, and the Believers should be firm and unshakeable in their Faith Towards God.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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सोमवार, 29 अप्रैल 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 54

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आरम्भिक बातें – 15

परमेश्वर पर विश्वास करना – 2

 

    प्रत्येक मसीही विश्वासी को न केवल परमेश्वर के सम्पूर्ण वचन को पढ़ने और जानने की आवश्यकता है, बल्कि वचन का अध्ययन करने, उसे सीखने, और उसका पालन करने में भी बढ़ते रहने की आवश्यकता है; तब ही वह अपने आत्मिक जीवन एवं परिपक्वता में बढ़ने पाएगा, और परमेश्वर से आशीषित रहेगा। इस बात के लिए हम कुछ ऐसी मौलिक शिक्षाओं के बारे में सीख रहे हैं, जो परमेश्वर के वचन और मसीही जीवन में दृढ़ता तथा स्थिरता से स्थापित होकर बने रहने के लिए नींव का काम करती हैं। वर्तमान में हम इब्रानियों 6:1-2 से, जहाँ छः आरम्भिक बातें जो विश्वासियों को सीखनी चाहिए दी गई हैं, दूसरी आरम्भिक बात – “परमेश्वर पर विश्वास करने” के बारे में सीख रहे हैं। पिछले लेख में हमने देखा था कि यद्यपि इब्रानियों को लिखी गई पत्री के पाठक वे लोग थे जो यहूदियों में से आए थे और प्रभु यीशु में विश्वास करते थे, अर्थात, वे एक ही ईश्वर को मानने वाले और प्रभु परमेश्वर यहोवा में विश्वास रखने वाले लोग थे; लेकिन फिर भी, किसी कारणवश, पवित्र आत्मा की अगुवाई में, इब्रानियों की पत्री के लेखक ने यह आवश्यक समझा कि इन विश्वासियों को यह स्मरण करवाए कि वे “परमेश्वर पर विश्वास करने” में दृढ़ और स्थापित होना सीखें। यह इसलिए था क्योंकि उनके चारों ओर व्याप्त अन्यजाति मूर्तिपूजा की संस्कृति ने किसी तरह से परमेश्वर पर उनके विश्वास को प्रतिकूल रीति से प्रभावित किया था, जिससे वे अपने विश्वास में, परमेश्वर पर भरोसा रखने में, परमेश्वर के वचन को सीखने में कमजोर पड़ गए थे। इसलिए यह अनिवार्य हो गया था कि इन विश्वासियों को परमेश्वर के प्रति उनके विश्वास में दृढ़, और परमेश्वर के वचन को सीखने में स्थापित करें।

    मसीही विश्वास में परमेश्वर पर विश्वास रखना बहुत आवश्यक है, जैसा कि इब्रानियों 11:6 में लिखा है, “और विश्वास बिना उसे प्रसन्न करना अनहोना है, क्योंकि परमेश्वर के पास आने वाले को विश्वास करना चाहिए, कि वह है; और अपने खोजने वालों को प्रतिफल देता है।” इस का अर्थ यह नहीं है कि किसी भी ईश्वर में विश्वास रखा जाए, न ही मात्र औपचारिकता की पूर्ति के लिए यह कह देना भर है कि व्यक्ति प्रभु यीशु और प्रभु परमेश्वर यहोवा में विश्वास करते हैं। बल्कि इसका अर्थ है कि प्रभु यीशु और प्रभु परमेश्वर यहोवा के गुणों में पूरे मन से सम्पूर्ण विश्वास करना और भरोसा रखना, और परमेश्वर के वचन बाइबल में वर्णन किए गए परमेश्वर के चरित्र पर पूरा भरोसा रखना। बाइबल परमेश्वर के कुछ बहुत महत्वपूर्ण गुणों और उसके चरित्र के बारे में बताती है, और शैतान हमेशा ही उन गुणों और चरित्र की बातों के विरुद्ध बातें फैलाने के प्रयास में लगा रहता है। शैतान ऐसा इसलिए करता है ताकि परमेश्वर और उसके उद्देश्यों को बदनाम करे, उनके बारे में, लोगों के प्रति, विशेषकर उसके अपने लोगों के प्रति परमेश्वर के व्यवहार के बारे में सन्देह उत्पन्न करे। हम इसे अदन की वाटिका में होते हुए देखते हैं, जहाँ शैतान हव्वा के पास साँप के रूप में आया और परमेश्वर ने जो उन से कहा था उसके बारे में उस से प्रश्न किए, और फिर परमेश्वर के भले और सच्चे-खरे होने के बारे में उसके मन में सन्देह उत्पन्न किए (उत्पत्ति 3:1-5)। जब हव्वा ने शैतान की बात को मान लिया, जब उस में परमेश्वर के प्रति सन्देह आ गया, तब उसने अपने दिमाग, योग्यताओं, और विचार करने की क्षमता का उपयोग किया, और परमेश्वर के कहे की बजाए अपने ही निष्कर्षों को मान लेने की शैतानी युक्ति में गिर गई। यह करने से न केवल वह स्वयं पाप में गिरी, बल्कि आदम से भी पाप करवा दिया (उत्पत्ति 3:6-7)।

    यदि उसने परमेश्वर और उसके द्वारा उनसे कही गई बात के प्रति एक दृढ़, स्थिर निर्णय बनाए रखा होता, तो शैतान चाहे जो भी कहता या तात्पर्य देता, लेकिन कभी भी हव्वा को बहकाने, भरमाने, और गिराने नहीं पाता। दूसरे शब्दों में शैतान उसे अपने दिमाग, योग्यताओं, और विचार करने की क्षमता का उपयोग कर के किसी गलत निष्कर्ष पर पहुँचने, और फिर अपने निष्कर्ष को परमेश्वर के कहे से अधिक मान्य समझकर परमेश्वर के कहे के विरुद्ध जाने के लिए उकसाने नहीं पाता। और इस बात को ध्यान में बनाए रखिए कि शैतान यह सब तब कर सका जब सँसार में और आदम या हव्वा में कोई पाप नहीं था; आदम और हव्वा सिद्ध, निष्पाप, परमेश्वर के साथ नियमित और खुली संगति रखते थे। लेकिन फिर भी अपने शब्दों और सुझाव देने के उपयोग के द्वारा शैतान ने न केवल हव्वा से परमेश्वर पर सन्देह करवाया, उस से पाप करवाया, वरन उस से आदम को भी पाप में गिरवा दिया। इसकी तुलना में, आज, जब सारे सँसार में पाप व्यापक रीति से छाया हुआ है, शैतानी लोग और युक्तियाँ हमारे चारों ओर भरे पड़े हैं, सारे सँसार में झूठी शिक्षाएँ और गलत सिद्धान्तों की भरमार है, और वास्तविक नया-जन्म पाए हुए विश्वासी भी जाने-अनजाने त्रुटिपूर्ण शिक्षाओं को सिखाने लगे हैं, तो हम मसीही विश्वासी आज बहकाए और भरमाए जाने, पाप में गिराए जाने की सम्भावना कहीं अधिक बढ़ गई है। इस से बचने का एक ही मार्ग है कि परमेश्वर के वचन को सीखें और परमेश्वर पर विश्वास में स्थिर दृढ़ बने रहें, नहीं तो शैतान की युक्तियों और झूठी शिक्षाओं की सच्चाई को पहचान नहीं पाएंगे।

    यह इस दूसरी आरम्भिक बात – “परमेश्वर पर विश्वास करना”  के बारे में, जिस पर हम विचार कर रहे हैं, के प्रति हमारे सामने एक बहुत महत्वपूर्ण और मौलिक बात को लाता है। यदि परमेश्वर के प्रति हमारा विश्वास दृढ़ और स्थिर नहीं है, तो शैतान हमें परमेश्वर पर, उसके गुणों पर, और हमारे प्रति उसके उद्देश्यों पर सन्देह में डाल देगा। एक बार जब हम परमेश्वर और उसके वचन पर सन्देह करने लगेंगे, तो न केवल हम गलतियों और पाप में गिरेंगे, बल्कि अपने साथ औरों को भी गलतियों और पाप में गिरा देंगे। यह हम विश्वासियों के सामने एक बहुत गंभीर और महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी को भी लाता है, कि किसी के भी द्वारा अपने दिमाग, योग्यताओं, और विचार करने की क्षमता के उपयोग के द्वारा कही गई किसी भी बात या शिक्षा पर तुरन्त विश्वास न कर लें, परन्तु हमेशा पहले परमेश्वर के वचन से बात को जाँच-परख लें, और उसके बाद ही जो बाइबल के अनुसार सही है (प्रेरितों 17:11; 1 कुरिन्थियों 14:29; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21), केवल उसी पर विश्वास करें; अन्यथा न केवल हम गलतियों और पाप में गिरेंगे, बल्कि औरों को भी गलतियों और पापों में ले जाएँगे।

    परमेश्वर पर हमारा विश्वास तब ही स्थिर और दृढ़ होगा यदि हमारे अन्दर परमेश्वर का वचन बना रहेगा और यदि हम परमेश्वर के वचन से उसके गुणों के बारे में जानेंगे और उसके चरित्र पर विश्वास करेंगे, भरोसा रखेंगे। अगले लेख में हम इस अध्ययन को यहाँ से आगे बढ़ाएंगे।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 15

Faith Towards God - 2

 

    Every Christian Believer not only needs to read and know all of God’s Word, but also keep growing in studying, learning, and obeying it; only then will he grow in his spiritual life as well as maturity, and remain blessed by God. To this end we are studying about some fundamental teachings that serve as the foundation to stay firmly established and grow in God’s Word and Christian life. Presently, from Hebrews 6:1-2, where six elementary principles that the Believers need to learn are given, we are considering the second elementary principle – “Faith Towards God.” In the previous article we had seen that though the recipients of the letter to the Hebrews were Jewish converts and Believers in the Lord Jesus, i.e., they were mono-theistic people who believed in the Lord God Jehovah, in Christ Jesus; yet for some reason, under the inspiration of the Holy Spirit, the author of the letter to Hebrews found it necessary to remind these Believers to learn and be established in “Faith Towards God”. This was since, quite likely the gentile idolatrous culture around them had in some way adversely affected their faith in God, and thereby they had become weak in their faith, in trusting God, and learning God’s Word. Therefore, it was necessary to have these Believers get back into being strong in their faith towards God, and learning God’s Word.

    Having faith in God is crucial in the Christian faith; it is written in Hebrews 11:6, “But without faith it is impossible to please Him, for he who comes to God must believe that He is, and that He is a rewarder of those who diligently seek Him.” This is not just about believing that there is a god, nor merely perfunctorily saying that one believes in the Lord Jesus and the Lord God Jehovah. Rather, it means whole heartedly believing in and trusting the attributes of the Lord Jesus and the Lord God Jehovah, and fully trusting His character as all these are described and taught in God’s Word the Bible. The Bible teaches some very important attributes and characteristics of God, and Satan keeps attempting to contradict those attributes and characteristics. Satan does this to malign God and create doubts about God and His intentions, about His dealing with people, particularly His own people. We see this happening from the Garden of Eden, where Satan came to Eve in the form a serpent and questioned her about what God had said, and then created doubts in her heart about God being good and truthful with them (Genesis 3:1-5). It was after Eve accepted what Satan was saying, doubted God, that she started to use her mind, abilities, and reasoning, and fell for the satanic ploy of trusting her conclusions rather than trusting what God had said; this not only led to her into falling in sin but also leading Adam into committing sin as well (Genesis 3:6-7).

    Had she taken a firm, unshakeable stand towards God and the Word He had spoken to them, against whatever Satan had spoken or implied, Satan would not have been able to beguile her. In other words, Satan would not have been able to induce her into using her mind, abilities, and reasoning, then drawing her own erroneous conclusions, and going against what God had said to them, by placing her own conclusions over and above what God had said. And, do keep in mind, Satan could do this at a time when there was no sin – neither in in the world, nor in Adam and Eve; they were perfect, sinless, having a regular and open fellowship with God. Yet merely with his words and power of suggestions Satan not only got Eve to doubt God and commit sin, but to also bring Adam into committing sin. In contrast, today, with sin rampant in the world, satanic people and ploys being all around us, false teachings, wrong doctrines abounding all over the world, and even the genuine, Born-Again true Christian Believers inadvertently having become teachers of erroneous teachings, we Christian Believers are in a far more vulnerable and precarious position, in constant danger of being beguiled into committing sin. The only way out is to know God’s Word and stand firm in faith towards God, else we will not be able to discern Satan’s ploys and false teachings.

    This brings before us a very basic and important point regarding this second elementary principle that we are considering – “Faith Towards God.” If our faith in God is not firm and sure, is not unshakeable, then Satan will be able to induce us into doubting God, His attributes, and His intentions for us. Once we start doubting God and His Word, not only will we fall into errors and sin, but we will also lead others into errors and sin. This also places before the Believers the very serious and important responsibility of not readily going by what man says through his mind, abilities, and reasoning, but to always confirm from God’s Word all that is preached and taught (Acs 17:11; 1 Corinthians 14:29; 1 Thessalonians 5:21), and then only believe that which is Biblically true; else not only will we fall into errors and sin, but will also lead others into similar errors and sin.

    Our faith in God will be firm and unshakeable if we have His Word abiding in us, and if we know God’s attributes and characteristics from God’s Word, and firmly believe in and trust the character of God. In this study we will carry on from here in the next article.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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रविवार, 28 अप्रैल 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 53

 

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आरम्भिक बातें – 14

परमेश्वर पर विश्वास करना – 1

 

    परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी की इस श्रृंखला में हम सीख रहे हैं कि कैसे परमेश्वर के सम्पूर्ण वचन का अध्ययन करने, उसे सीखने, और अपने जीवन में उसे लागू करने के द्वारा प्रत्येक मसीही विश्वासी आत्मिक जीवन में बढ़ोतरी और परिपक्वता प्राप्त कर सकता है। तीन प्रकार की मौलिक शिक्षाएँ हैं जिन्हें प्रत्येक मसीही विश्वासी को सीखना चाहिए, क्योंकि वे शिक्षाएँ उसके विश्वास में स्थिर खड़े रहने और मसीही जीवन में उन्नति करने के लिए एक नींव का काम करेंगी। इन तीन में से एक, सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाओं को हम देख चुके हैं; और वर्तमान में दूसरी प्रकार की शिक्षाओं – इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छः आरम्भिक बातों के बारे में सीख रहे हैं। पिछले लेख तक हमने इन छः में से पहली, अर्थात मरे हुए कामों से मन फिराने के बारे में सीखा है। आज हम इन छः में से दूसरी आरम्भिक बात – “परमेश्वर पर विश्वास करना” पर विचार करना आरम्भ करेंगे।

    यह वाक्याँश इस बात का संकेत करता है कि विश्वासी परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखता है और जो भी सीखना है वह परमेश्वर के प्रति विश्वास रखने के बारे में सीखना है। क्योंकि यह पत्री उन्हें लिखी गई है जो यहूदियों में से मसीही विश्वास में आए थे, अर्थात पहली यहूदी थे, इसलिए इसका अर्थ है कि इस पत्री के पाठक न केवल परमेश्वर में विश्वास करते थे, वरन प्रभु परमेश्वर यहोवा में विश्वास करते थे, जिसके बारे में तब के पवित्र शास्त्र, अर्थात हमारा पुराना नियम बताता और सिखाता है, तथा एक ही ईश्वर के मानने वाले थे। वर्तमान के मसीही विश्वासी भी उसी परमेश्वर में विश्वास रखते हैं; और साथ ही, क्योंकि इस पत्री के पाठक मसीही विश्वासी थे, इसका तात्पर्य है कि वे लोग प्रभु यीशु में विश्वास रखते थे। इसलिए यह प्रश्न सामने आता है कि परमेश्वर और प्रभु यीशु पर विश्वास रखने से सम्बन्धित इस सारी पृष्ठभूमि के बावजूद, उनके लिए “परमेश्वर पर विश्वास करना” एक ऐसा आरम्भिक सिद्धान्त कैसे हो गया, जिसे इस पत्री के पाठकों को फिर से सीखने की आवश्यकता पड़ गई?

    इस प्रश्न के उत्तर के लिए इस तथ्य पर ध्यान कीजिए कि न केवल पुराना नियम इस्राएल में तथा इस्राएल के चारों और अनेकों देवी-देवताओं के माने जाने का उल्लेख करता है, वरन यह भी बताता है कि परमेश्वर के निर्देशों और शिक्षाओं के बावजूद, यहूदी बहुधा उन देवी-देवताओं की उपासना में, मूर्ति-पूजा में, गिर जाते थे। साथ ही, प्रभु यीशु मसीह की पृथ्वी की सेवकाई तथा प्रथम कलीसिया के समय में, जब इस्राएल रोमी शासन के आधीन था, रोमी सम्राट के देवता के समान पूजे जाने की भी प्रथा थी। फिर, हम प्रेरितों 17:16-17 से देखते हैं कि अथेने नगर मूर्तिपूजा से भरा हुआ था। इसी प्रकार से प्रेरितों 19:26-29 से हम देखते हैं कि इफिसुस नगर, एक ऐसा स्थान जहाँ पर पौलुस ने सेवकाई की थी, देवी डायना का नगर था। दूसरे शब्दों में, अनेकों नगर अन्यजातियों के देवी-देवताओं के नगर थे, और उन देवी-देवताओं के उपासक वहां पर आया करते थे। इसलिए उस समय की व्याप्त अन्यजाति संस्कृति में, विशेषकर उनके लिए जो गैर-यहूदी थे और जो इस्राएल राज्य की सीमाओं के बाहर से थे, ‘परमेश्वर’ का अर्थ कोई भी, और कुछ भी हो सकता था।

    पहले आरम्भिक सिद्धान्त, अर्थात मरे हुए कामों से मन फिराने के हमारे अध्ययन में इस बात पर बल दिया गया था कि जब भी परमेश्वर के लोगों ने परमेश्वर के वचन को अध्ययन करना, सीखना, और पालन करना बँद किया, वे हमेशा ही समस्याओं में पड़े, और उन समस्याओं से निकलने का एक ही मार्ग रहा कि वे फिर से परमेश्वर के वचन को अध्ययन करने, सीखने, और पालन करने वाले बन जाएँ। अब, इब्रानियों 6:1-2 से सम्बन्धित हमारे इस अध्ययन के इब्रानियों 5:11-14 से परिचय का ध्यान कीजिए। उन परिचय की बातों में हमने देखा था कि ये इब्रानी विश्वासी अपने विश्वास में पीछे हो गए थे, अपने विश्वास में कमजोर पड़ गए थे, और लेखक उन्हें जो गूढ़ बातें सिखाना चाहता था, उन्हें समझ पाने के अयोग्य हो गए थे। हमने इस पर विचार करते हुए देखा था कि ऐसा संभवतः इसलिए हुआ था क्योंकि ये लोग अब वचन के अध्ययन, सीखने, और पालन करने में ढीले पड़ गए थे। इस दूसरी आरम्भिक बात, “परमेश्वर पर विश्वास करना” का लिखा जाना, उनके परमेश्वर से दूर हो जाने के एक अन्य पक्ष की ओर संकेत करता है - किसी कारणवश परमेश्वर पर उनका विश्वास भी कमज़ोर पड़ गया था। यद्यपि इस पत्री का लेखक यह तो नहीं कहता है कि वे मूर्तिपूजा में पड़ गए थे, किन्तु संभव है कि उस समय की अन्यजाति मूर्तिपूजा की संस्कृति ने उन पर कुछ प्रभाव डाला हो, और वे यहोवा को कई देवताओं में से एक समझने लगे हों, बजाए उसे एकमात्र परमेश्वर मानने के। यह कोई अनजानी समस्या नहीं है; आज भी बहुत से ईसाई या मसीही यह मानते हैं कि यीशु या यहोवा कई ईश्वरों में से एक ईश्वर है, कुछ यह भी मानते हैं कि स्वर्ग पहुँचने के कई मार्ग हैं, और यीशु में विश्वास करना, उनमें से एक मार्ग है। इसलिए, मसीही विश्वास की आरंभिक बातों में से एक के रूप में, बाइबल की इस शिक्षा को सीखना और मानना अनिवार्य है कि केवल एक ही परमेश्वर है, और उसके अतिरिक्त और कोई नहीं है (यशायाह 44:8; 45:21-22)।

    अगले लेख में हम यहाँ से आगे बढ़ेंगे, और परमेश्वर के प्रति विश्वास के बारे में सीखेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 14

Faith Towards God - 1

 

    In this series on Growth through God’s Word, we are learning how every Christian Believer can grow and mature spiritually through studying, learning, and applying in life, the whole of God’s Word. There are three fundamental kinds of teachings that every Christian Believer must know, since those teachings will serve as a foundation for him to stand firm in his faith and grow in his Christian life. Of these three, we have completed studying one kind of teachings – related to the gospel; and presently are learning the second kind of teachings – related to the six elementary principles, as given in Hebrews 6:1-2. Of these six, till the last article, we have learnt about the first elementary principle – repentance from dead works. Today we will begin considering the second of these six principles – “Faith Towards God.”

    While most translations have used the phrase “Faith Towards God” some, e.g., the NIV, have used the phrase “Faith in God” – in either case it presupposes or takes for granted that the Believer already believes in the existence of God, and what has to be learned has to about faith towards God. Since this letter was written to those who had come into the Christian faith from Judaism, i.e., had been Hebrews, therefore, it means that the then readers of this letter not only believed in God, but believed in the Lord God Jehovah, that the Scriptures of that time, i.e., our Old Testament talks and teaches about, and were also mono-theistic, i.e., believed in only one God. The present-day Christian Believers too believe in the same God; moreover, since the readers of this letter were Christian Believers, that means, the readers of this letter believed in the Lord Jesus. Therefore, the question arises, despite all this background related to their believing in God and in the Lord Jesus, why would “Faith Towards God” be considered an ‘elementary principle’ for them, one that had to be re-learned by the readers of this letter?

    To answer the question, consider the fact that not only does the Old Testament speak of many gods and goddesses that the pagans in and around Israel believed in and worshipped, but that despite God’s teachings and commands to the contrary, the Jews often fell into worshipping those pagan gods and goddesses as well, i.e., fell into idolatry. Also, during the time of the earthly ministry of the Lord Jesus, and the time of the first Church, when the nation of Israel was under Roman rule, there was even the practice of worshipping the Roman emperor as a deity. Then, we see from Acts 17:16-17 that the city of Athens was given over to idols, similarly Acts 19:26-29 shows us that Ephesus, another place where Paul ministered, was the city of the goddess Diana. In other words, many cities were designated places of pagan deities, and the worshippers of those deities would come there to worship them. So, in the prevailing gentile culture of that time, especially for the non-Jews and those outside of the land of Israel, ‘god’ could mean anything or anyone.

    In our considerations of the first elementary principle i.e., of ‘repentance from dead works’ it has been emphasized that whenever God’s people have stopped learning, studying, and obeying God’s Word, they have always fallen into problems; and the way out of those problems has been their reverting to studying, learning, and obeying God’s Word. Now, also recall the introduction about Hebrews 6:1-2, from Hebrews 5:11-14. In those preliminary considerations we had seen that these Hebrew Believers had fallen back, become weak in their faith, and were unable to grasp the deeper things that the author of this letter wanted to teach them. We had seen in those considerations that this was probably because they were no longer seriously and diligently studying, learning, and obeying God’s Word. The mention of this second elementary principle, “Faith Towards God” indicates another aspect of their slipping away from God – for some reason their faith in God had also come down. Though the author of this letter does not say that they had fallen into idolatry, but the pagan culture of idolatry may have had an influence, and they might have started to think of Jehovah as one of the ‘gods’ or one amongst many gods, instead of seeing Him as the one and only God. This is not an unknown problem; even today many Christians have the view that Jesus or Jehovah is one of the gods, and some even believe that there are many ways to heaven, and believing in Jesus is just one of them. Therefore, as one of the elementary principles of the Christian Faith, it is imperative to learn and follow the Biblical teaching that there is but one God (Isaiah 44:8; 45:21-22), and none other.

    In the next article we will carry on from here and learn about having faith towards God.

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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शनिवार, 27 अप्रैल 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 52

 

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आरम्भिक बातें – 13

मरे हुए कामों से मन फिराना – 9

 

    परमेश्वर का वचन बाइबल हमें सिखाती है कि परमेश्वर के लोगों की आत्मिक बढ़ोतरी और परिपक्वता उनके द्वारा परमेश्वर के सम्पूर्ण वचन में बढ़ने, उसका पालन करने, और उसे अपने जीवनों में लागू करने पर निर्भर है। जब भी, किसी भी कारण से, यदि परमेश्वर के लोगों ने ऐसा नहीं किया है तो हमेशा ही वे परमेश्वर से दूर हुए हैं, और अनेकों तरह की समस्याओं में फंस गए हैं। दूसरी ओर, उनका इन समस्याओं से बाहर निकलना हमेशा ही इस स्थिति के सुधारे जाने, अर्थात हमेशा ही परमेश्वर के वचन को सीखने, पालन करने, और अपने जीवनों में लागू करने पर ही निर्भर रहा है।

    इस श्रृंखला में, हम तीन प्रकार की मौलिक शिक्षाओं के बारे में सीख रहे हैं जिन्हें प्रत्येक मसीही विश्वासी को सीखना और जानना चाहिए, ताकि वे परमेश्वर के वचन में उसकी बढ़ोतरी और परिपक्वता के लिए नींव के समान हो सकें। हम इन तीन में से एक प्रकार की शिक्षाओं, सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाओं के बारे में देख चुके हैं। वर्तमान में हम दूसरी प्रकार की शिक्षाओं, आरंभिक बातों के बारे में इब्रानियों 6:1-2 से देख रहे हैं, जहाँ पर छः प्रकार की आरंभिक शिक्षाएँ दी गई हैं। हम अभी इन छः में से पहली आरंभिक शिक्षा – मरे हुए कामों से मन फिराने, अर्थात उन धार्मिक और भले प्रतीत होने वाले कामों के बारे में, जो चाहे कितनी भी भक्ति, लगन, और ईमानदारी से किए गए हों, किन्तु मसीही विश्वासी के जीवन में कोई आत्मिक बढ़ोतरी या परिपक्वता नहीं लाते हैं, के बारे में विचार कर रहे हैं। वास्तव में ये शैतानी युक्तियाँ होती हैं जो विश्वासियों को व्यर्थ और निष्फल बातों में फँसाए रखती हैं, ताकि वे परमेश्वर और उसके वचन से दूर बने रहें। अभी तक हमने इस प्रकार के कार्यों के कुछ उदाहरण बाइबल से देखे हैं। अभी तक जो हमने देखा है वह इन कामों की सम्पूर्ण सूची नहीं है, किन्तु केवल यह दिखाने और समझाने के लिए कुछ उदाहरण हैं कि मरे हुए काम, जिन से मन फिराना है,  क्या होते हैं; साथ ही यह भी सीख सकें कि शैतान कितनी चालाकी और चुपके से मसीही विश्वासियों को धार्मिक, भक्तिपूर्ण, और भले प्रतीत होने वाले, किन्तु वास्तव में व्यर्थ और निष्फल कामों में फँसा देता है। जब विश्वासी उस में निवास करने वाली पवित्र आत्मा की अधीनता और मार्गदर्शन में परमेश्वर के वचन को पढ़ने और अध्ययन करने में समय बिताते हैं, तब वे परमेश्वर के वचन से ऐसे अन्य व्यर्थ कामों को पहचानने और समझने भी लगते हैं। आज हम एक अन्य प्रकार के मरे हुए काम के उदाहरण को देखेंगे, मसीही विश्वासियों के मनुष्यों को प्रसन्न करने वाले हो जाना, बजाए प्रभु, उसके वचन, और मसीही अनुशासन के प्रति खरे बने रहने के।

    गलतियों 2:11-16 में हम प्रेरित पौलुस द्वारा अन्‍ताकिया में आए हुए प्रेरित पतरस को डाँट लगाने की घटना दर्ज पाते है। प्रेरित पौलुस (शाऊल) और बरनबास भी वहीं अन्‍ताकिया में रहते और सेवकाई करते थे (प्रेरितों 13:1), और वह नगर अन्यजातियों की कलीसिया का एक प्रमुख केंद्र था। इसी नगर में मसीह यीशु के अनुयायी सब से पहले मसीही कहलाए थे (प्रेरितों 11:28)। यह कलीसिया के इतिहास का वह समय था जब यहूदी मसीही विश्वासियों और अन्यजातियों से बने मसीही विश्वासियों में तनाव बना हुआ था। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से यहूदी अपने आप को उच्च समझते थे और अन्यजातियों के साथ मेल-जोल रखने को अनुचित मानते थे (प्रेरितों 10:25-29); और उनके मसीही विश्वासी होने के बाद भी उनकी यह मानसिकता हटी नहीं थी, जैसा कि गलतियों 2:12 से प्रकट है। अन्‍ताकिया में रहते हुए, आरम्भ में पतरस को कोई समस्या नहीं थी, वह अन्यजातियों में से मसीही बने लोगों के साथ रहता और खाता-पीता था। लेकिन उसके वहाँ रहने के दौरान, कुछ और लोग यरूशलेम से अन्‍ताकिया आए, जिन्हें यरूशलेम की कलीसिया के एक अगुवे और प्रभु के भाई याकूब ने (गलतियों 1:19; 2:9) ने भेजा था। जब यरूशलेम से ये लोग अन्‍ताकिया आए तो पतरस ने तुरन्त अपना व्यवहार बदल कर यह जताना चाहा कि वह  अन्यजातियों से मसीही बने लोगों के साथ घुल-मिल नहीं रहा है, उन से अपने उचित दूरी बनाए हुए है, जिससे कि यरूशलेम से कोई उस पर कोई दोष न लगा सके। याकूब और अन्य यहूदी मसीहियों को प्रसन्न करने के लिए पतरस पाखण्ड में पड़ गया; और न केवल पतरस, बल्कि उसके साथ कई और, जिन में बरनबास भी सम्मिलित था, इसी पाखण्ड में पड़ गए (गलतियों 2:13)।

    इस से पौलुस बहुत नाराज़ हुआ, और उसने उसके इस पाखंड के लिए पतरस को डाँटा (गलतियों 2:11)। हम गलतियों 2:14 से देखते हैं कि पतरस ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि ये विश्वासी “सुसमाचार की सच्चाई पर सीधी चाल नहीं चलते” थे; और पौलुस ने ऐसा सब के सामने किया, सार्वजनिक रीति से किया। पौलुस ऐसा व्यक्ति नहीं था जो किसी के भी द्वारा परमेश्वर के वचन के विरुद्ध किए गए काम को चुपचाप ग्रहण कर ले। साथ ही गलतियों 2:4-5 भी देखिए, जहाँ पर पौलुस, जब वह यरूशलेम में था, तो यरूशलेम की कलीसिया में घुस आए झूठे भाइयों के बिल्कुल भी अधीन नहीं हुआ। पौलुस को इस बात की चिन्ता नहीं थे कि ऐसा करने के लिए उसके बारे में कौन क्या कहेगा या करेगा। उसके लिए अपने प्रभु के प्रति सही और खरा होना, और प्रभु को पसंद आने वाले काम करना सबसे ऊपर था (2 कुरिन्थियों 5:9)। इसी प्रकार से कुरिन्थुस के विश्वासियों के नाम लिखी पत्री में वह उन्हें चेतावनी देता है कि प्रभु की बजाए मनुष्यों के पीछे चलने के जाल में न फंसें (1 कुरिन्थियों 1:11-13; 3:3-6)। यहाँ पर पौलुस मनुष्यों के पीछे चलने के लिए विश्वासियों का बच्चों के समान, शारीरिक, और मनुष्यों की रीति पर (अर्थात, अविश्वासियों के समान, या, मसीही विश्वासियों के विपरीत) चलने वाले होना कहता है; दूसरे शब्दों में, वह व्यक्ति होना जिन में आत्मिक बढ़ोतरी और परिपक्वता नहीं है। यह चेतावनी देने के पीछे कारण है कि कोई भी मनुष्य चाहे कितना भी आत्मिक, भक्त, और ज्ञानवान क्यों न हो, लेकिन वह कभी भी सिद्ध नहीं होता है, उस में कोई न कोई कमी अवश्य होती है, वह कभी शैतान से अधिक सामर्थी नहीं होता है, और उसके शैतान द्वारा बहकाए जाने, और फिर दूसरों को भी उसे गलती में डाल देने की संभावना हमेशा ही बनी रहती है। इसलिए मनुष्यों को प्रसन्न करने के लिए मनुष्यों का अनुसरण करने के परिणाम प्रकट हैं; यदि कोई विश्वासी किसी मनुष्य का अनुसरण करने लगता है, तो फिर अनुसरण करने वाला उस मनुष्य की गलतियों को भी सीख एवं अपना लेगा और उनके साथ समझौता भी कर लेगा, और जाने-अनजाने, स्वयं भी उन्हीं गलतियों को करने लगेगा, नहीं तो कम से कम उनकी अनदेखी करने अथवा उन्हें हल्के में लेकर माफ कर देगा, जिस से उस के अपने आत्मिक जीवन में समझौते आ जाएँगे, जो न केवल उसकी आत्मिक बढ़ोतरी और परिपक्वता में बाधाएँ डालेंगे, बल्कि उसकी आशीषों और अनन्तकालीन प्रतिफलों पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालेंगे। यही बरनबास और अन्य यहूदियों ने किया, जब पतरस ने अपना व्यवहार बदल लिया (गलतियों 2:13); और क्योंकि वे मनुष्यों को प्रसन्न करने वाले बन गए थे, इसलिए न तो बरनबास में, और न ही किसी अन्य में सत्य बोलने तथा पतरस को सुधारने का साहस रहा था। वे चुपचाप होकर जो भी पतरस कर रहा था, चाहे वह सही हो अथवा गलत, उसी का अनुसरण करने लग गए। केवल पौलुस, जो मनुष्यों को प्रसन्न करने वाला नहीं था, वरन केवल परमेश्वर को ही प्रसन्न करने के प्रयास में रहता था (2 कुरिन्थियों 5:9), केवल उसी में यह साहस और आत्मिक परिपक्वता थी कि वह पतरस का सामना कर सका, और जो गलती वह कर रहा था तथा उसके पीछे अन्य लोग करने लगे थे, उसे सब के सामने सुधार सका।

    इसी पत्री में, इस से पहले भी पौलुस ने एक सुस्पष्ट बात कही थी जो मनुष्यों का अनुसरण करने के प्रति उसके दृष्टिकोण को परिभाषित करती है “अब मैं क्या मनुष्यों को मनाता हूं या परमेश्वर को? क्या मैं मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहता हूं? यदि मैं अब तक मनुष्यों को ही प्रसन्न करता रहता, तो मसीह का दास न होता” (गलतियों 1:10)। दूसरे शब्दों में, मनुष्यों का अनुसरण करना, और ‘मसीह का दास’ होना साथ-साथ नहीं हो सकता है, यह बाइबल का कथन है। एक विश्वासी या तो प्रभु के प्रति पूर्णतः समर्पित होगा, पूर्णतः प्रभु ही का आज्ञाकारी होगा, और तब न केवल उस में सही और गलत में फर्क करने की समझ होगी, बल्कि प्रभु और उसके वचन की सच्चाइयों के लिए खड़े होने का साहस भी होगा। अन्यथा, यदि विश्वासी मनुष्यों के पीछे चलने वाला, मनुष्यों को प्रसन्न रखने वाला होगा, तो फिर वह समझौते का जीवन जीएगा, जिस व्यक्ति का वह अनुसरण करता है, उसकी कमियों और गलतियों की अनदेखी करेगा और उन्हें स्वीकार कर लेगा, स्वयं भी अपना लेगा, ताकि जिस को प्रसन्न रखना चाहता है उसे बुरा न लगे – प्रभु को चाहे जैसा भी लगता रहे, कोई बात नहीं। लेकिन ऐसे विश्वासी फिर अपनी आशीषें और अनन्तकालीन प्रतिफलों की भी हानि उठाएंगे, क्योंकि फिर वे भी वही गलतियाँ करेंगे जो वह करता है जिसे वे प्रसन्न रखना चाहते हैं, जिसके पीछे वे हो लिए हैं; और इस प्रकार दोनों ही को अपने अनन्तकालीन प्रतिफलों की हानि उठानी पड़ेगी; मनुष्यों को प्रसन्न रखने के लिए उनका अनुसरण करने की एक बड़ी और अनन्तकालीन कीमत चुकानी पड़ती है। साथ ही, जैसा पौलुस ने 1 कुरिन्थियों 3:3-4 में कहा है और हमने ऊपर देखा भी है, मनुष्यों को प्रसन्न करने के लिए उनका अनुसरण करना, विश्वासी का बच्चों के समान और शारीरिक होने, अर्थात आत्मिक बढ़ोतरी और परिपक्वता की घटी होने, का एक चिह्न है – एक प्रकार के मरे हुए काम है जिस से विश्वासी को मन फिराना है और जिसे त्याग देना है। इसलिए प्रत्येक विश्वासी को, हर कीमत पर, प्रत्येक परिस्थिति में, हमेशा ही केवल प्रभु ही के पीछे चलने वाला, केवल प्रभु ही को प्रसन्न करने वाला, केवल प्रभु और उसके वचन बाइबल का पालन करने वाला होना है, न कि उनके बारे में किसी व्यक्ति की व्याख्याओं और शिक्षाओं का पालन करने वाला।

    अगले लेख में हम दूसरी आरंभिक बात, “परमेश्वर पर विश्वास करना” के बारे में देखना आरंभ करेंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 13

Repentance From Dead Works - 9


    God’s Word the Bible teaches that the spiritual growth and maturity of God’s people depends upon their growing and maturing in all of God’s Word, obeying it, and applying it in their lives. Wherever and whenever God’s people have failed or fallen short in doing this, they have always fallen away from God and have got into various kinds of problems. On the other hand, their recovery from troubles has always been the rectification of this situation, i.e., has always been their coming back into learning, following, and obeying God’s Word.

    In this series, we are learning about the three fundamental kinds of teachings that every Christian Believer must learn and know, as the foundation for growing and maturing in God’s Word, and being able to apply it in their lives. We have already considered one of these three basic kinds of teachings, i.e., the teachings related to the gospel. Presently we are studying the second kind of these basic teachings, i.e., the elementary principles given in Hebrews 6:1-2. Of the six elementary principles given there, presently we are considering the first one – repentance from dead works; i.e., those seemingly religious and good works that do not cause any growth or maturity in the Christian Believer’s life, no matter how diligently and piously they may be done. Actually, they are satanic ploys to keep the Christian Believers away from God and His Word by keeping the Believers involved in vain and fruitless activities. We have seen Biblical examples of various kinds of such works so far. What we have considered is by no means an exhaustive list of dead works, but is just to serve as an illustration of understanding and identifying what the dead works are; and learning how cleverly and insidiously Satan entangles the Christian Believers in these apparently religious, pious, and good, but actually worthless works. As the Believers spend time reading and studying God’s Word in submission to and under the guidance of the Holy Spirit residing in them, they, in God’s Word the Bible, will come across other examples of such vain works as well. Today we will consider another kind of dead works, that of Christian Believers becoming man-pleasers, instead of remaining true to the Lord, His Word, and their Christian discipline.

    In Galatians 2:11-16, is recorded the Apostle Paul’s admonition of the Apostle Peter, who had come to Antioch, a city in Syria. The Apostle Paul (Saul) and Barnabas also lived and ministered (Acts 13:1) in Antioch, and the city was a prominent center of the Gentile Church. It was in this city that the disciples of Christ were first called Christians (Acts 11:28). This was a period in the history of the first Church when there were ongoing problems between the Jewish converts and the Gentile converts to Christianity. Historically, the Jews considered themselves superior to the Gentiles and did not consider it appropriate to mingle with the Gentiles; this mentality persisted in them, despite becoming followers of the Lord Jesus (Acts 10:25-29), and is apparent from Galatians 2:12. While in Antioch, initially Peter had no problems staying and eating with the Gentiles. But while he was there, some more men came from Jerusalem to Antioch, sent by James, one of the leaders of the Church in Jerusalem, and the brother of the Lord Jesus (Galatians 1:19; 2:9). When these men from Jerusalem came, Peter immediately changed his behavior, tried to maintain the impression that he was not mingling the Gentile Believers, was maintain a distance from them, so that none from Jerusalem might fault him. To be pleasing to James and other Jewish Christians, Peter fell into hypocrisy; not only Peter, but along with him many others, including Barnabas, fell into this same hypocrisy (Galatians 2:13).

    This really displeased Paul, and he admonished Peter for his hypocrisy (Galatians 2:11). We see from Galatians 2:14 that Paul did this because these Believers “were not straightforward about the truth of the gospel”; and Paul did this publicly, before all others. Paul was not a person to put up with anything not in accordance with the Word of God, from anyone. Also see Galatians 2:4-5, where Paul, while in Jerusalem, openly refuses to submit to false brethren who had infiltrated into the Church in Jerusalem. Paul was not concerned about whatever anyone may think of him, say about him or do to him for this; for him being true to his Lord and doing what pleased the Lord came first (2 Corinthians 5:9). Similarly in his first letter to the Corinthians, he cautions the Corinthian Believers against falling into the trap of following men, instead of the Lord (1 Corinthians 1:11-13; 3:3-6). Here Paul calls being followers of men as being child-like, carnal, and behaving like mere men (i.e., behaving like the unsaved, or, not behaving like Christian Believers), in other words behaving in a manner that demonstrated a lack of spiritual growth and maturity. The reason for this caution is that howsoever spiritual, pious, and knowledgeable a person may be, yet he is never perfect, will always have some short-coming or the other, is never stronger than the devil, and is always prone to being misled by satanic ploys and then also leading others into the same errors. Therefore, the consequences of following men are evident; if any Believer starts following any man, then the follower will also learn and put up with that man’s short-comings and either inadvertently follow them, or at the least tend to overlook and condone them, leading to compromises in his own spiritual life, which not only will hamper his spiritual growth and maturity, but also adversely affect his eternal rewards and blessings. That is what Barnabas and the other Jews did when Peter changed his behavior (Galatians 2:13); and because they had become men-pleasers, therefore neither Barnabas, nor anyone else had the courage to speak the truth and correct Peter. They silently kept following Peter and doing whatever Peter was doing, whether it was right or wrong. Only Paul, who was not a follower of men, was not a man-pleaser, but only cared for being pleasing to God (2 Corinthians 5:9) had the courage and spiritual maturity to stand up to Peter and publicly correct him for the wrong he was doing and leading others into doing.

    Earlier in this letter Paul had made a categorical statement that defined his perspective on being followers of men “For do I now persuade men, or God? Or do I seek to please men? For if I still pleased men, I would not be a bondservant of Christ” (Galatians 1:10). In other words, being men-pleasers and being ‘bondservants of Christ,’ i.e., living a life fully submitted and obedient to the Lord, cannot go hand-in-hand, that is a Biblical statement. A Believer can either be fully submitted and obedient to the Lord, and then not only be able to discern the right from the wrong, but also have the courage and conviction to stand up for the Lord, for His Word, and for the truths of the Lord and His Word. Or, else the Believer can be a man-pleaser, and then live a life of compromise, accepting and putting up with the errors and wrong-doings of the person he is following, ignoring and condoning that person’s short-comings, so that that person does not feel offended – however the Lord may feel about it, that does not matter. But then such Believers will also lose their blessings and eternal rewards, since they too will be committing the same or similar errors which the person they follow commits, and so both will end up losing their eternal benefits; being men-pleasers, followers of men always comes at a great eternal price. Moreover, as Paul said to the Corinthian Believers in 1 Corinthians 3:3-4, and we have seen above, being followers of men is a sign of being carnal and child-like; i.e., of lacking spiritual growth and maturity – it is a kind of dead work, that needs to be repented of and cast away. Therefore, every Believer, at all costs, in all circumstances, always needs to be one who wants to please only the Lord, be the follower of only the Lord Jesus and His Word the Bible, and obey only them, instead of obeying some person’s interpretations and teachings about them.

    In the next article, we will begin considering the second of the elementary principles, i.e., “faith toward God.”

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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