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बुधवार, 10 जुलाई 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 126

 

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आरम्भिक बातें – 87


विश्वासियों का न्याय – 1

 

अभी तक हमने इब्रानियों 6:1-2 में दी गई आरंभिक बातों में से छठी बात, “अन्तिम न्याय” के सम्बन्ध में कुछ बातों को देखा है। हमने प्रेरितों 17:3-31 से देखा कि परमेश्वर ने सारे सँसार का, सभी मनुष्यों का न्याय होना निर्धारित किया है। परमेश्वर ने इस न्याय के होने के लिए एक दिन निर्धारित किया हुआ है, प्रभु यीशु मसीह को न्यायी नियुक्त किया है, और वह धार्मिकता से न्याय करेगा; और इसीलिए परमेश्वर सभी स्थानों पर सभी लोगों को यह आज्ञा देता है कि अपने पापों से पश्चाताप करें, बचाए जाने या उद्धार पाने के लिए उस की ओर मुड़ें और आने वाले न्याय के लिए तैयार हों। हमने देखा है कि प्रभु यीशु केवल उन्हीं बातों के आधार पर न्याय करेगा जो परमेश्वर के वचन बाइबल में लिखी हुई हैं, न कि मनुष्यों के बनाए हुए नियमों, तरीकों, और परंपराओं के आधार पर, और न ही किसी भी डिनॉमिनेशन की शिक्षाओं और रीतियों के अनुसार। साथ ही किसी भी व्यक्ति की, वह चाहे कोई भी क्यों न हो, उसकी इस न्याय में कोई भूमिका नहीं होगी, कोई भी प्रभु के न्याय पर ऐसे या वैसे कोई भी प्रभाव नहीं डालने पाएगा। हमने यह भी देखा कि यह न्याय सदा काल के लिए, अपरिवर्तनीय, और कभी मिटाया न जा सकने वाला होगा। मृत्यु होने पर मनुष्य का आत्मा अपने अनन्तकालीन स्थान पर पहुँच जाता है – या तो सुख और शान्ति के स्थान में, अन्यथा पीड़ा के स्थान में; और वह जहाँ भी पहुँचता है, हमेशा के लिए वैसे ही स्थान में बना रहेगा। परमेश्वर के वचन में किसी अन्तरिम स्थान की धारणा का, जहाँ पर मृतकों की आत्माओं को रखा जाता है और पृथ्वी पर लोग उन के लिए जो करते हैं उसके आधार पर उन्हें निकाल कर स्वर्ग में ले जाया जाए, का कोई प्रावधान नहीं है। न ही परमेश्वर का वचन बहुत से लोगों की इस धारणा का कोई समर्थन करता है कि क्योंकि परमेश्वर प्रेमी और दयालु है, इसलिए अन्ततः वह सभी को क्षमा कर देगा और उन्हें अपने साथ स्वर्ग में ले लेगा। ये सभी झूठी, गलत, और शैतानी शिक्षाएँ हैं, जो कभी पूरी होने वाली नहीं हैं; और जो इन बातों में विश्वास रखते हैं, वे एक बहुत बड़ी, कभी पार न हो सकने वाली, कभी पलटी नहीं जाने वाली, अनन्तकालीन समस्या में जा रहे हैं, जिस में वो सदा काल तक फँसे रहेंगे।

आज से हम अन्तिम न्याय के एक अन्य पक्ष पर विचार आरम्भ करेंगे; यह एक ऐसा पक्ष है जिस पर सिखाया जाना या प्रचार किया जाना बहुत ही कम होता है, और जिस के बारे में लोगों में काफी दुविधा और गलतफहमियाँ हैं। इसलिए इस पक्ष के विषय यहाँ पर जो लिखा जाएगा, पाठकों के लिए उस पर काफी मनन करने तथा इस के बारे में अन्तिम लेख के लिखे जाने तक धैर्य के साथ प्रतीक्षा करने, तथा फिर जो कुछ लिखा गया है उसे दोहराने के बाद ही निष्कर्ष निकाल पाने की आवश्यकता होगी। हम आज से जो देखने जा रहे हैं, कि अन्तिम न्याय मसीही विश्वासियों का होगा, न कि अविश्वासियों का; यह बाइबल का एक ऐसा तथ्य है जो लगभग सभी मसीहियों या ईसाइयों की सामान्य समझ के विपरीत जाता है! बाइबल में सामान्यतः जिस न्याय की बात की जाती है वह परमेश्वर के लोगों का न्याय है, न कि उनका जिन्होंने परमेश्वर का तिरस्कार कर दिया है और कभी उस के अनुयायी या उसके लोग बने ही नहीं हैं।

आज हम आरम्भ करेंगे बाइबल के दो बहुत महत्वपूर्ण, अटल, अपरिवर्तनीय तथ्यों के साथ, जिन का इस विषय पर जिसे हम आरम्भ कर रहे हैं महत्वपूर्ण प्रभाव है। पहला तथ्य है कि उद्धार सदा काल के लिए है; जिस ने एक बात उद्धार पा लिया है वह अनन्त काल के लिए पा लिया है और अब से लेकर अनन्तकाल तक अपने उस उद्धार में बना रहेगा। किसी का अभी उद्धार, किसी भी कारण से, किसी भी तरीके से, जा नहीं सकता है, चाहे उस व्यक्ति ने कैसा भी जीवन क्यों न जिया हो, उस के काम कैसे भी क्यों न रहे हों; इन बातों से उसके अनन्तकाल के प्रतिफलों पर तो प्रभाव पड़ेगा, लेकिन उस के उद्धार पाए हुए होने की दशा पर कोई प्रभाव नहीं होगा; वह हमेशा ही परमेश्वर की सन्तान, कलीसिया का एक सदस्य, प्रभु की देह और दुल्हन का एक भाग, और हमेशा अन्य विश्वासियों के साथ स्वर्ग में परमेश्वर के साथ रहने का अधिकारी बना ही रहेगा। दूसरी बात, वाक्यांश “न्याय किया जाना” का सीधा और साधारण सा अर्थ है कि कुछ निर्धारित मानकों के आधार पर किसी को जाँचा-परखा जाना, उस जाँचने और परखने के आधार पर निष्कर्ष निकालना, और फिर जाँचने-परखने तथा निष्कर्ष के आधार पर उसे उचित परिणामों को दे देना। बाइबल के अनुसार भी, “न्याय किया जाना” का हमेशा ही अर्थ अविश्वासियों, भक्तिहीनों, दुष्टों, और उद्धार न पाए हुओं से हिसाब लेकर उनको उनके द्वारा किये या नहीं किये के लिए दण्ड देना नहीं है। वाक्यांश “न्याय किया जाना” मसीही विश्वासियों पर भी उसी अर्थ के साथ वैसे ही लागू किया जा सकता है; और इस में फिर उन्हें उनके द्वारा किये या नहीं किये के लिए उचित परिणाम देना भी सम्मिलित है।

और उन लोगों को शान्त करने के लिए जिनके मन में घंटियाँ बजने लगी हैं, और जिन्हें परमेश्वर के वचन याद आ रहे हैं कि परमेश्वर की यह प्रतिज्ञा है कि, उसने हमारे पापों को अपनी पीठ पीछे फेंक दिया है, एक काली घटा के समान मिटा दिया है, वह कभी हमारे पापों को स्मरण नहीं करेगा – जी हाँ, यह सभी सत्य है, पूर्णतः बाइबल के अनुसार है, और परमेश्वर के इन कथनों में कोई विरोधाभास या कुछ भी गलती नहीं है, और ये बातें सभी वास्तव में उद्धार पाए हुए लोगों के लिए बिल्कुल सही और उन पर लागू हैं। इस अध्ययन में हम आते समयों में, आगे के लेखों में, इन बातों को देखेंगे, उन के निहितार्थों को और मसीही विश्वासियों पर उनके लागू किए जाने के बारे में भी देखेंगे।

अगले लेख में हम अनन्तकालीन न्याय के एक ऐसे पक्ष के बारे में बाइबल के कुछ उदाहरणों को देखेंगे, जो यहाँ इस पृथ्वी से आरम्भ होता है, और फिर हमेशा के लिए अनन्तकाल ताक बना रहता है।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 87


Judgment of Believers – 1

 

   In our study of the “Eternal Judgment,” the sixth elementary principle given in Hebrews 6:1-2, so far, we have seen from Acts 17:30-31 that God has ordained for the whole world, all human beings to be judged. God has fixed a day for this to happen, and has made the Lord Jesus the Judge, and He will judge in righteousness; and therefore God commands everyone, everywhere to prepare themselves for this judgment by repenting of their sins and turning to Him to be saved. We have seen that the Lord Jesus will judge only on the basis of whatever is written in God’s Word the Bible, and not on the basis of any man-made rules, regulations, and practices, not on the basis of any denominational teachings and practices; and no person, whosoever he may be, will have any role whatsoever in this judgment, none can in any way influence the Lord’s judgment one way or the other. We have also seen that this judgment is eternal, unalterable, irrevocable. On death, the soul of the person goes to his eternal state – either in a place of peace and bliss, or in the place of torment; and wherever it reaches, it will always stay in the place like that. There is no provision in God’s Word of an interim place where the souls of the dead are held, and depending upon what people do for them on earth, they may be taken to heaven. Neither does God’s Word support the belief of many that since God is loving and forgiving, so eventually, He will forgive everyone and take them all into heaven. These are false satanic teachings, that will never happen, and those who believe in them are heading for a huge, unsurmountable, irreversible, eternal problem for their eternity.

Today we will begin to consider another aspect of the Eternal Judgment; it is an aspect usually not taught or preached, and about which people usually have some confusion and misunderstanding. Therefore, this aspect will require the readers to do some serious pondering over what is written, waiting for the final article about this topic, and then revising it all to draw their final conclusions. What we are going to start looking into today is a Biblical fact that goes contrary to the common thinking of practically all the Christian Believers – the last and final judgment will be of the Christian Believers, and not of the unbelievers! The judgment God’s Word the Bible usually talks about is the judgment of God’s people, not of those who have rejected God and have never become His people, His followers.

Let us start by stating two very important, absolute and unchangeable Biblical facts that have an important bearing on this consideration that we are about to begin. First is that salvation is eternal; once saved is always saved till and into eternity; no-one will ever lose their salvation, not on any grounds, not by any means, no matter how, or what kind of life the truly saved or Born-Again person may have lived. As we will see in the course of this study, the saved person’s life and deeds will affect his eternal rewards, but will never ever alter his status of being saved, of being a child of God, of being a part of the Church, the Body and Bride of the Lord Jesus, of being entitled to stay in heaven for eternity with the other truly Born-Again Christian Believers and the Lord God. Secondly, the term “judgment” simply means evaluating based on some criteria, through that evaluation coming to a conclusion, and handing out the results of the evaluation and conclusions. Even Biblically speaking, “judgment” does not always and necessarily mean taking the unbelievers, the ungodly, the wicked, and the unsaved to task and making them pay for all that they have done and not done. The term “judgment” can just as well apply to the evaluation of the Christian Believers, and then making them receive the consequences of all that they have done and not done.

And for the benefit of those, whose mental alarm-bells are ringing, and they are recalling God’s statement that God has promised that He will never remember their sins, He has cast them all behind His back, land like a dark cloud He has wiped them away forever – yes, that is very true, is absolutely Biblical, there is nothing wrong or contradictory in those statements of God, they are true and applicable to all the truly saved people of God; and in due course we will consider them, their implications, and their application for the Christian Believers, in this study.

In the next article we will see Biblical examples of an aspect of the eternal judgment that starts here on earth, and carries on forever into eternity.

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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मंगलवार, 14 जून 2022

बाइबल – पाप और उद्धार / The Bible, Sin, and Salvation – 32


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पाप का समाधान - उद्धार - 28 -

कुछ संबंधित प्रश्न और उनके उत्तर (ज़ारी)

 

पिछले लेख में हमने उद्धार से संबंधित कुछ सामान्यतः पूछे जाने वाले प्रश्नों को देखा था। आज भी हम प्रश्नों की इसी शृंखला को ज़ारी रखेंगे, और एक अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न को देखेंगे। 

प्रश्न: क्या उद्धार खोया जा सकता है? क्या व्यक्ति का उद्धार उससे वापस लिया जा सकता है? 

उत्तर: जैसा हम उद्धार से संबंधित पिछले लेखों में बारंबार देखते चले आ रहे हैं, परमेश्वर ने अपने अनुग्रह में होकर हमें उद्धार एक उपहार के समान मुफ़्त में दिया है। उसका दिया गया यह उद्धार अनन्तकालीन है; कभी समाप्त नहीं होगा; कभी वापस नहीं लिया जाएगा; कोई व्यक्ति किसी भी रीति से अपने उद्धार को खो नहीं सकता है। 

इस प्रश्न के उत्तर को समझने के लिए, पहले परमेश्वर के कुछ गुणों का एक संक्षिप्त अवलोकन आवश्यक है; और फिर उन गुणों के आधार पर हम उत्तर को बेहतर समझने पाएंगे। 

परमेश्वर के गुण: संक्षेप में परमेश्वर के कुछ गुण और चरित्र हैं:     

  • वह ईमानदार है, कभी झूठ नहीं बोलता है और कभी धोखा नहीं देता है (तीतुस 1:2)।

  • वह न तो कभी गलती करता है, और न कभी बदलता है (इब्रानियों 6:17-18; याकूब 1:17)।

  • वह जो कहता है, वही करता है (गिनती 23:19; भजन 89:34), और जो वह कहता है, वह हो कर रहता है, कोई उसे रोक नहीं सकता है।

  • वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर है (उत्पत्ति 17:1; प्रकाशितवाक्य 21:22)। कोई भी, किसी भी रीति से, किसी भी शक्ति, बुद्धि, या युक्ति से, उस पर या उसकी योजनाओं और इच्छाओं पर प्रबल नहीं हो सकता है, उन्हें बदल नहीं सकता है, मिटा नहीं सकता है।

  • वह हर बात के बारे में सब कुछ जानता है – सर्वज्ञानी है – आरंभ से ही अन्त को भी जानता है (यशायाह 46:10)।

  • उसका वचन मनुष्य के अंदर के सबसे गहरे स्थान तक भी छेदता और उसे खोलता है, और हर बात को स्पष्ट एवं प्रकट कर देता है (इब्रानियों 4:12)।

  • वह मनुष्य के विचारों के पीछे की मनसा तक को भी भली-भांति जानता है (1 इतिहास 28:9)।

  • वह समय द्वारा सीमित नहीं है – उसके लिए समय का कोई अस्तित्व नहीं है (भजन 90:4; 2 पतरस 3:8) – वह कभी नहीं बदलता, कल आज और युगानुयुग तक एक समान है (मलाकी 3:6; इब्रानियों 13:8)।

 

    इसलिए परमेश्वर या परमेश्वर से संबंधित कोई भी धारणा या विचार यदि उसके उपरोक्त तथा बाइबल में वर्णित अन्य गुणों के अनुरूप नहीं है, तो वह धारणा या विचार अपूर्ण है, गलत है, परमेश्वर को अस्वीकार्य है; उसका तिरस्कार कर देना चाहिए। चाहे वह धारणा या विचार रखने वाला व्यक्ति परमेश्वर के प्रति कितने भी श्रद्धा या भक्ति-भाव रखने वाला क्यों न हो, किन्तु उसके वचन से असंगत किसी का भी कोई भी विचार परमेश्वर को कदापि स्वीकार्य नहीं है। इस अति-महत्वपूर्ण बात को ध्यान में रखते हुए बाइबल के परमेश्वर ने उद्धार के विषय जो कहा है, उसमें से कुछ बातें, और उनसे संबंधित अभिप्रायों को देखते हैं: 

 

उद्धार के विषय परमेश्वर के कुछ कथन:

  • उसका उद्धार अनन्तकाल का है (2 तिमुथियुस 2:10; इब्रानियों 5:9) – ऐसी कोई भी शिक्षा जो इसे अस्वीकार, या इसका इनकार करती है, तो ऐसा करने से वह शिक्षा यह अभिप्राय देती है कि परमेश्वर और उसका वचन झूठा है, अविश्वासयोग्य है, उनमें त्रुटियाँ तथा झूठे आश्वासन हैं।

  • चाहे हम अविश्वासी भी हों, तो भी वह हमारे प्रति विश्वासी बना रहेगा (2 तिमुथियुस 2:13 – यहाँ पद 12 उनके लिए है जो उद्धार के लिए प्रभु की पुकार को अस्वीकार करते रहते हैं; फिर मृत्योपरांत प्रभु भी उन्हें अस्वीकार कर देगा; 13 पद उद्धार पा लेने वालों, विश्वास करने वालों, के प्रति परमेश्वर का रवैया है); और वह हमें कभी नहीं छोड़ेगा न त्यागेगा (इब्रानियों 13:5)।

  • इसी प्रभु परमेश्वर ने यूहन्ना 10:27-29 में अपने लोगों/भेड़ों के लिए कहा है कि:

    • वह अपनी भेड़ों को जानता है

    • वह उन्हें अनन्त जीवन देता है

    • वे कभी नाश न होंगी

    • कोई उन्हें उसके हाथों से नहीं छीन सकता है

   

    अभिप्राय यह कि प्रभु के उपरोक्त दावों के होते हुए भी यह धारणा रखने और मानने/सिखाने कि उद्धार जा सकता है, का अर्थ यह कहना और सिखाना है कि:

  • परमेश्वर झूठा तथा अविश्वासयोग्य है – उसके कहने और करने में फर्क है। उसके दावों के बावजूद न तो वह अपनी भेड़ों को जानता है, न उन्हें अनन्त जीवन देता है, और न ही यह सुनिश्चित कर सकता है कि वे कभी नाश नहीं होंगी। अर्थात, इसलिए यह भी संभव है कि अपने दावे के बावजूद वह अपने विश्वासी के प्रति विश्वासयोग्य बना न रहे और किसी समय पर उसे त्याग दे या छोड़ दे।

  • परमेश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है – वरन सृजा गया प्रधान स्वर्गदूत लूसिफर, जो परमेश्वर के विरुद्ध की गई बगावत के कारण शैतान बन गया, सृष्टिकर्ता परमेश्वर से अधिक शक्तिशाली है – वह परमेश्वर के हाथों में से उसके उद्धार पाए हुए लोगों को अपनी किसी युक्ति अथवा शक्ति द्वारा छीन के ले जा सकता है (मत्ती 12:29; मरकुस 3:27 के साथ मिलाकर देखिए), और परमेश्वर कुछ नहीं करने पाता।

  • परमेश्वर गलती कर सकता है – वह सर्वज्ञानी नहीं है; अर्थात, आदि से अन्त को नहीं जानता है, मनुष्य के विचारों और मनसा, उसके हृदय की गहराइयों को नहीं जानता है। तात्पर्य यह कि जब उसने उद्धार को अनन्तकाल का कहा, तब उसे पता नहीं था कि लोग उसके अनुग्रह का दुरुपयोग करेंगे और उद्धार पा लेने को निश्चिंत होकर पाप करते रहने का आधार बना लेंगे। उसने गलती से एक बात तो कह दी, किन्तु अब उसे निभा पाने में असमर्थ है, इसलिए अब चुपचाप से लोगों से उनके उद्धार को वापस ले लेता है।

  • उद्धार पा लेने के बाद मनुष्य अपने कर्मों और व्यवहार से इतना धर्मी बना रह सकता है कि परमेश्वर को उसे स्वर्ग में स्वीकार करना ही पड़ेगा (यशायाह 64:6; अय्यूब 14:4; 15:4; 25:4-6; इफिसियों 2:1-9 से तुलना करें)। यदि यह संभव होता, तो मनुष्य फिर उद्धार से पहले भी यह कर सकता था; तो फिर प्रभु यीशु मसीह को संसार में आने, अपमानित होने, एक घृणित मृत्यु सहने की क्या आवश्यकता थी? वह तो स्वर्ग से ही मनुष्यों को प्रोत्साहित कर सकता था, उनका मार्गदर्शन कर सकता था, कि अपने कर्मों के द्वारा उद्धार प्राप्त कर लें। 

   

    उपरोक्त अभिप्रायों से प्रकट है कि उद्धार के खोए जा सकने का विचार परमेश्वर के गुणों, चरित्र, अनुग्रह, और प्रेम, के विरुद्ध कितना गलत और निन्दनीय है; इसलिए पूर्णतः अस्वीकार्य है। ऐसा विचार रखने वाले को दीन होकर पश्चाताप करने, परमेश्वर से उसके विरुद्ध ऐसे कुविचार रखने के लिए क्षमा माँगने की आवश्यकता है। एक अन्य इससे संबंधित प्रश्न उठाया जाता है कि यदि उद्धार कभी नहीं जा सकता है, तब तो परमेश्वर ने मनुष्यों को पाप करने का लाइसेंस दे दिया है - एक बार उद्धार पा लो, और फिर उसके बाद जैसा चाहो वैसा करो, क्योंकि उद्धार तो जाएगा नहीं, स्वर्ग तो हर हाल में मिलेगा ही। यह भी शैतान द्वारा फैलाई जाने वाली एक गलत शिक्षा, एक गलत धारणा है, और इसे हम कल देखेंगे। अभी के लिए, आप से विनम्र निवेदन है कि यदि आप ने अभी तक प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार नहीं किया है, उसके शिष्य नहीं बने हैं, तो आज और अभी, जब यह अवसर आपके पास है, तो इसे व्यर्थ न जाने दें; प्रभु के इस आह्वान को स्वीकार कर लें, अपने जीवन में कार्यान्वित कर लें। कल तो क्या, अगले पल को भी किसी ने नहीं देखा है, कब क्या हो जाए, कोई नहीं जानता है; इसलिए अवसर को बहुमूल्य समझें और सही निर्णय ले लीजिए। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ आपके द्वारा की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को आशीषित तथा स्वर्गीय जीवन बना देगा। अभी अवसर है, अभी प्रभु का निमंत्रण आपके लिए है - उसे स्वीकार कर लीजिए।


एक साल में बाइबल: 

  • एज्रा 9-10

  • प्रेरितों 1

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English Translation

The Solution for Sin - Salvation - 28

Some Related Questions and their Answers (Contd.)


In the previous article, we had seen some commonly asked questions regarding salvation, and their answers. We will continue looking at further questions, and today we will be considering one very important question.


Question: Can salvation be lost? Can a person’s salvation be taken away from him?


Answer: As we have been repeatedly seeing in the previous articles concerning salvation, God has given salvation to us in His grace, as a free gift. This salvation that He has bestowed upon us is eternal; it will never come to an end; it will never be taken back; no person, once saved, can ever lose his salvation by any means.


To understand this answer, we need to first do a quick review of some of God’s characteristics and attributes; and then based on them, we will be able to understand the answer better.


Some Attributes and Characteristics of God, in brief, are:

  • He is completely honest, and never lies, never deceives anybody (Titus 1:2).

  • He neither makes any mistake, nor ever changes (Hebrews 6:17-18; James 1:17).

  • He always does what He says (Numbers 23:19; Psalms 89:34), and whatever He has said, always happens; no one stop it from being fulfiled.

  • He is the omnipotent God (Genesis 17:1; Revelations 21:22). No one, by any means, or power, or wisdom, or trick, can ever overpower or outwit Him, His will, or His plans - they cannot be changed or overturned by anyone.

  • He knows everything about everything - is omniscient - He knows the end from the beginning (Isaiah 46:10).

  • His Word pricks and lays open the deepest part of man, exposing and making evident everything inside him (Hebrews 4:12).

  • He very well knows even the intents behind the thoughts of man (1 Chronicles 28:9).

  • He is not limited by time - time does not exist for Him (Psalm 90:4; 2 Peter 3:8) - He never changes, remains the same, yesterday, today and tomorrow (Malachi 3:6; Hebrews 13:8).

    Therefore, if any notion, any thought or point-of-view is not in accordance with the attributes and characteristics of God, then it is false, incomplete, unacceptable before God, and has to be rejected. It is absolutely inconsequential, how pious and religious the person having such wrong notions is, but anything inconsistent with what God’s Word teaches about God, is never to be accepted from anyone. Keeping this extremely important fact in mind, let us look at some of the things that the God of the Bible has stated about salvation, and their implications.


Some Statements of God regarding Salvation:

  • His salvation is eternal (2 Timothy 2:10; Hebrews 5:9) - any teaching or doctrine that negates or rejects these verses, implies that God is a liar and His Word is a lie, they cannot be relied and believed upon, there are errors and false assurances in them.

  • Even if we are unbelieving and faithless towards Him, yet He always remains faithful towards us (2 Timothy 2:13; Note - this verse 13 is God’s attitude towards those who are Believers, who have obtained salvation; the preceding verse 12 is regarding those who keep on rejecting God’s call to salvation to them; therefore, after their death, God too will reject them); and He has promised to never leave nor forsake us, ever (Hebrews 13:5). 

  • That is why, in John 10:27-29, God has said about His sheep, i.e., His people:

    • He knows them

    • He gives them eternal life

    • They will never perish

    • No one can snatch them out of His hands

    Therefore, the evident implication of the above statements is that despite the afore-mentioned facts about God and His salvation, if someone still maintains, and teaches that salvation can be lost, then what that person believes in and teaches is tantamount to saying: 

  • God is a liar, and cannot be relied upon - there is no consistency between what He says and what He does. Despite His claims to the contrary, He neither knows all His sheep, nor does He give all of them eternal life, nor can He make sure that they will never perish. Therefore, He cannot be relied upon to always remain faithful towards His Believers, and is liable to abandon His people at any time.

  • God is not omnipotent - rather, the created archangel Lucifer, who became Satan because of rebelling against God, he is more powerful and wiser than God - because he can by his power and devious tricks, take the people away, out of the hands of God (read Matthew 12:29 along with Mark 3:27), and God can do nothing, remaining helpless about it.

  • God can make mistakes - He is not omniscient; i.e., does not actually know the end from the beginning, does not know what is in the heart of man, nor knows the intents and thoughts of man. Meaning, when He called salvation to be “eternal”, He had not actually realized that people will misuse His grace, and having been saved, will become complacent about salvation, continue to sin with impunity, being assured of heaven for eternity. He erroneously gave an assurance, a statement, and is now incapable of fulfilling it, therefore quietly, He takes away the salvation from people.

  • After salvation, man can, through his works and behavior, make himself so holy and righteous, that God will be compelled to accept him in heaven (compare this thought with Isaiah 64:6; Job 14:4; 15:4; 25:4-6; Ephesians 2:1-9). If this would be possible, then man could have done the same works and behavior before being saved, and there would have been no need for the Lord Jesus Christ to come to earth, be humiliated, and suffer a shameful and demeaning death? Instead, He could have encouraged and guided people from heaven itself, how they could be saved and become righteous by their works and behavior.

    It is clear from the above, how wrong and abhorrent to God’s attributes, characteristics, love, and grace this notion of salvation being lost is; and is absolutely unacceptable. Anyone harboring such thoughts should repent, humble himself, and ask for God’s forgiveness for allowing such thoughts against God to come in him. Another related question that is raised with this question is that if salvation can never be lost, then God has given an unbridled licence to sin to man - be saved once, and after that do what you feel like, live as you want to, since salvation will not be lost, entry into heaven will never be denied. This too is a wrong teaching taught and popularized by Satan, and we will start considering it from the next article.


For now, rest assured that the Lord Jesus has done His part; He has made ready and available salvation with all the benefits freely to everyone; but have you accepted His offer? Have you taken His hand of love and grace extended towards you and the free gift He offers; or are you still determined to do that which no man can ever accomplish through his own efforts?


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.


Through the Bible in a Year: 

  • Ezra 9-10

  • Acts 1




रविवार, 26 सितंबर 2021

परमेश्वर का वचन, बाइबल – पाप और उद्धार - 32

 

पाप का समाधान - उद्धार - 28 - कुछ संबंधित प्रश्न और उनके उत्तर (2)

 

पिछले लेख में हमने उद्धार से संबंधित कुछ सामान्यतः पूछे जाने वाले प्रश्नों को देखा था। आज भी हम प्रश्नों की इसी शृंखला को ज़ारी रखेंगे, और एक अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न को देखेंगे। 

प्रश्न: क्या उद्धार खोया जा सकता है? क्या व्यक्ति का उद्धार उससे वापस लिया जा सकता है? 

उत्तर: जैसा हम उद्धार से संबंधित पिछले लेखों में बारंबार देखते चले आ रहे हैं, परमेश्वर ने अपने अनुग्रह में होकर हमें उद्धार एक उपहार के समान मुफ़्त में दिया है। उसका दिया गया यह उद्धार अनन्तकालीन है; कभी समाप्त नहीं होगा; कभी वापस नहीं लिया जाएगा; कोई व्यक्ति किसी भी रीति से अपने उद्धार को खो नहीं सकता है। 

इस प्रश्न के उत्तर को समझने के लिए, पहले परमेश्वर के कुछ गुणों का एक संक्षिप्त अवलोकन आवश्यक है; और फिर उन गुणों के आधार पर हम उत्तर को बेहतर समझने पाएंगे।  

परमेश्वर के गुण: संक्षेप में परमेश्वर के कुछ गुण और चरित्र हैं:     

  • वह ईमानदार है, कभी झूठ नहीं बोलता है और कभी धोखा नहीं देता है (तीतुस 1:2)
  • वह न तो कभी गलती करता है, और न कभी बदलता है (इब्रानियों 6:17-18; याकूब 1:17)
  • वह जो कहता है, वही करता है (गिनती 23:19; भजन 89:34), और जो वह कहता है, वह हो कर रहता है, कोई उसे रोक नहीं सकता है।
  • वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर है (उत्पत्ति 17:1; प्रकाशितवाक्य 21:22)। कोई भी, किसी भी रीति से, किसी भी शक्ति, बुद्धि, या युक्ति से, उस पर या उसकी योजनाओं और इच्छाओं पर प्रबल नहीं हो सकता है, उन्हें बदल नहीं सकता है, मिटा नहीं सकता है।
  • वह हर बात के बारे में सब कुछ जानता है – सर्वज्ञानी है – आरंभ से ही अन्त को भी जानता है (यशायाह 46:10)
  • उसका वचन मनुष्य के अंदर के सबसे गहरे स्थान तक भी छेदता और उसे खोलता है, और हर बात को स्पष्ट एवं प्रकट कर देता है (इब्रानियों 4:12)
  • वह मनुष्य के विचारों के पीछे की मनसा तक को भी भली-भांति जानता है (1 इतिहास 28:9)
  • वह समय द्वारा सीमित नहीं है – उसके लिए समय का कोई अस्तित्व नहीं है (भजन 90:4; 2 पतरस 3:8) – वह कभी नहीं बदलता, कल आज और युगानुयुग तक एक समान है (मलाकी 3:6; इब्रानियों 13:8) 

       इसलिए परमेश्वर या परमेश्वर से संबंधित कोई भी धारणा या विचार यदि उसके उपरोक्त तथा बाइबल में वर्णित अन्य गुणों के अनुरूप नहीं है, तो वह धारणा या विचार अपूर्ण है, गलत है, परमेश्वर को अस्वीकार्य है। चाहे वह धारणा या विचार रखने वाला व्यक्ति परमेश्वर के प्रति कितने भी श्रद्धा या भक्ति-भाव रखने वाला क्यों न हो, किन्तु उसके वचन से असंगत किसी का भी कोई भी विचार परमेश्वर को कदापि स्वीकार्य नहीं है। इस अति-महत्वपूर्ण बात को ध्यान में रखते हुए बाइबल के परमेश्वर ने उद्धार के विषय जो कहा है, उसमें से कुछ बातें, और उनसे संबंधित अभिप्रायों को देखते हैं: 

उद्धार के विषय परमेश्वर के कुछ कथन:

  • उसका उद्धार अनन्तकाल का है (2 तिमुथियुस 2:10; इब्रानियों 5:9) – ऐसी कोई भी शिक्षा जो इसे अस्वीकार, या इसका इनकार करती है, तो ऐसा करने से वह शिक्षा यह अभिप्राय देती है कि परमेश्वर और उसका वचन झूठा है, अविश्वासयोग्य है, उनमें त्रुटियाँ तथा झूठे आश्वासन हैं।
  • चाहे हम अविश्वासी भी हों, तो भी वह हमारे प्रति विश्वासी बना रहेगा (2 तिमुथियुस 2:13 – यहाँ पद 12 उनके लिए है जो उद्धार के लिए प्रभु की पुकार को अस्वीकार करते रहते हैं; फिर मृत्योपरांत प्रभु भी उन्हें अस्वीकार कर देगा; 13 पद उद्धार पा लेने वालों, विश्वास करने वालों, के प्रति परमेश्वर का रवैया है); और वह हमें कभी नहीं छोड़ेगा न त्यागेगा (इब्रानियों 13:5)
  • इसी प्रभु परमेश्वर ने यूहन्ना 10:27-29 में अपने लोगों/भेड़ों के लिए कहा है कि:
    • वह अपनी भेड़ों को जानता है
    • वह उन्हें अनन्त जीवन देता है
    • वे कभी नाश न होंगी
    • कोई उन्हें उसके हाथों से नहीं छीन सकता है

      अभिप्राय यह कि प्रभु के उपरोक्त दावों के होते हुए भी यह धारणा रखने और मानने/सिखाने कि उद्धार जा सकता है, का अर्थ यह कहना और सिखाना है कि:

  • परमेश्वर झूठा तथा अविश्वासयोग्य है – उसके कहने और करने में फर्क है। उसके दावों के बावजूद न तो वह अपनी भेड़ों को जानता है, न उन्हें अनन्त जीवन देता है, और न ही यह सुनिश्चित कर सकता है कि वे कभी नाश नहीं होंगी। अर्थात, इसलिए यह भी संभव है कि अपने दावे के बावजूद वह अपने विश्वासी के प्रति विश्वासयोग्य बना न रहे और किसी समय पर उसे त्याग दे या छोड़ दे।
  • परमेश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है – वरन सृजा गया प्रधान स्वर्गदूत लूसिफर, जो परमेश्वर के विरुद्ध की गई बगावत के कारण शैतान बन गया, सृष्टिकर्ता परमेश्वर से अधिक शक्तिशाली है – वह परमेश्वर के हाथों में से उसके उद्धार पाए हुए लोगों को अपनी किसी युक्ति अथवा शक्ति द्वारा छीन के ले जा सकता है (मत्ती 12:29; मरकुस 3:27 के साथ मिलाकर देखिए), और परमेश्वर कुछ नहीं करने पाता।
  • परमेश्वर गलती कर सकता है – वह सर्वज्ञानी नहीं है; अर्थात, आदि से अन्त को नहीं जानता है, मनुष्य के विचारों और मनसा, उसके हृदय की गहराइयों को नहीं जानता है। तात्पर्य यह कि जब उसने उद्धार को अनन्तकाल का कहा, तब उसे पता नहीं था कि लोग उसके अनुग्रह का दुरुपयोग करेंगे और उद्धार पा लेने को निश्चिंत होकर पाप करते रहने का आधार बना लेंगे। उसने गलती से एक बात तो कह दी, किन्तु अब उसे निभा पाने में असमर्थ है, इसलिए अब चुपचाप से लोगों से उनके उद्धार को वापस ले लेता है।
  • उद्धार पा लेने के बाद मनुष्य अपने कर्मों और व्यवहार से इतना धर्मी बना रह सकता है कि परमेश्वर को उसे स्वर्ग में स्वीकार करना ही पड़ेगा (यशायाह 64:6; अय्यूब 14:4; 15:4; 25:4-6; इफिसियों 2:1-9 से तुलना करें)। यदि यह संभव होता, तो मनुष्य फिर उद्धार से पहले भी यह कर सकता था; तो फिर प्रभु यीशु मसीह को संसार में आने, अपमानित होने, एक घृणित मृत्यु सहने की क्या आवश्यकता थी? वह तो स्वर्ग से ही मनुष्यों को प्रोत्साहित कर सकता था, उनका मार्गदर्शन कर सकता था, कि अपने कर्मों के द्वारा उद्धार प्राप्त कर लें। 

उपरोक्त अभिप्रायों से प्रकट है कि उद्धार के खोए जा सकने का विचार परमेश्वर के गुणों और चरित्र के विरुद्ध कितना गलत और निन्दनीय है; इसलिए पूर्णतः अस्वीकार्य है। ऐसा विचार रखने वाले को दीन होकर पश्चाताप करने, परमेश्वर से उसके विरुद्ध ऐसे कुविचार रखने के लिए क्षमा माँगने की आवश्यकता है। एक अन्य इससे संबंधित प्रश्न उठाया जाता है कि यदि उद्धार कभी नहीं जा सकता है, तब तो परमेश्वर ने मनुष्यों को पाप करने का लाइसेंस दे दिया है - एक बार उद्धार पा लो, और फिर उसके बाद जैसा चाहो वैसा करो, क्योंकि उद्धार तो जाएगा नहीं, स्वर्ग तो हर हाल में मिलेगा ही। यह भी शैतान द्वारा फैलाई जाने वाली एक गलत शिक्षा, एक गलत धारणा है, और इसे हम कल देखेंगे। अभी के लिए, आप से विनम्र निवेदन है कि यदि आप ने अभी तक प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार नहीं किया है, उसके शिष्य नहीं बने हैं, तो आज और अभी, जब यह अवसर आपके पास है, तो इसे व्यर्थ न जाने दें; प्रभु के इस आह्वान को स्वीकार कर लें, अपने जीवन में कार्यान्वित कर लें। कल तो क्या, अगले पल को भी किसी ने नहीं देखा है, कब क्या हो जाए, कोई नहीं जानता है; इसलिए अवसर को बहुमूल्य समझें और सही निर्णय ले लीजिए। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ आपके द्वारा की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लेंआपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को आशीषित तथा स्वर्गीय जीवन बना देगा। अभी अवसर है, अभी प्रभु का निमंत्रण आपके लिए है - उसे स्वीकार कर लीजिए।

 बाइबल पाठ: इब्रानियों 3:7-15

इब्रानियों 3:7 सो जैसा पवित्र आत्मा कहता है, कि यदि आज तुम उसका शब्द सुनो।

इब्रानियों 3:8 तो अपने मन को कठोर न करो, जैसा कि क्रोध दिलाने के समय और परीक्षा के दिन जंगल में किया था।

इब्रानियों 3:9 जहां तुम्हारे बाप दादों ने मुझे जांच कर परखा और चालीस वर्ष तक मेरे काम देखे।

इब्रानियों 3:10 इस कारण मैं उस समय के लोगों से रूठा रहा, और कहा, कि इन के मन सदा भटकते रहते हैं, और इन्होंने मेरे मार्गों को नहीं पहचाना।

इब्रानियों 3:11 तब मैं ने क्रोध में आकर शपथ खाई, कि वे मेरे विश्राम में प्रवेश करने न पाएंगे।

इब्रानियों 3:12 हे भाइयो, चौकस रहो, कि तुम में ऐसा बुरा और अविश्वासी मन न हो, जो जीवते परमेश्वर से दूर हट जाए।

इब्रानियों 3:13 वरन जिस दिन तक आज का दिन कहा जाता है, हर दिन एक दूसरे को समझाते रहो, ऐसा न हो, कि तुम में से कोई जन पाप के छल में आकर कठोर हो जाए।

इब्रानियों 3:14 क्योंकि हम मसीह के भागी हुए हैं, यदि हम अपने प्रथम भरोसे पर अन्त तक दृढ़ता से स्थिर रहें।

इब्रानियों 3:15 जैसा कहा जाता है, कि यदि आज तुम उसका शब्द सुनो, तो अपने मनों को कठोर न करो, जैसा कि क्रोध दिलाने के समय किया था।

एक साल में बाइबल:

· यशायाह 1-2  

· गलातियों 5