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मंगलवार, 10 सितंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 186

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 31


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (6) 


इस सन्देश को हिन्दी में सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें 


पिछले लेखों में हमने देखा है कि व्यावहारिक मसीही जीवन को जीने के लिए आरम्भिक मसीही विश्वासी, प्रेरितों 2:42 में दी गई चार बातों का, जिन्हें “मसीही जीवन के स्तम्भ” भी कहा जाता है, लौलीन होकर निर्वाह करते थे। अभी हम इन चार में से तीसरे स्तम्भ, “रोटी तोड़ना” यानि कि प्रभु-भोज या प्रभु की मेज़ में भाग लेने के बारे में, 1 कुरिन्थियों 11:17-34 से देख और सीख रहे हैं। पिछले लेख में हमने इस खण्ड के 23 पद से सीखा था कि पौलुस ने इस बात को स्पष्ट कह दिया कि प्रभु भोज से सम्बन्धित जो निर्देश वह दे रहा है, वह उसकी अपनी कल्पना या धारणा नहीं हैं, वरन उसे प्रभु से मिले निर्देश हैं। अर्थात, उसके द्वारा लिखे गए निर्देशों की अनदेखी करना, प्रभु द्वारा दिए गए निर्देशों की अनदेखी करना है। पवित्र आत्मा को पौलुस द्वारा ये निर्देश इस लिए देने पड़े, क्योंकि कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों ने प्रभु भोज के स्वरूप, निर्वाह, और अर्थ को बिगाड़ दिया था; उसमें अपनी ही इच्छा और सोच के अनुसार परिवर्तन कर दिए थे। जिसके दुष्परिणाम भी उस कलीसिया में दिखने आरम्भ हो गए थे। पवित्र आत्मा ने पौलुस द्वारा कुरिन्थुस के विश्वासियों के लिए आवश्यक सुधारों को लिखवा दिया; और इस बात को परमेश्वर के अटल और अपरिवर्तनीय वचन में भावी मसीही विश्वासियों एवं कलीसियाओं के लिए भी रख दिया। अर्थात, प्रभु भोज को, उसकी स्थापना के समय, प्रभु द्वारा दी गई विधि, स्वरूप, और अभिप्राय के अन्तर्गत ही लेना है; अन्यथा दुष्परिणामों का भागीदार होना पड़ेगा। आज हम इससे आगे बढ़ेंगे, और प्रभु की मेज़ एक अभिप्राय के बारे में देखेंगे। 

4. प्रभु-भोज के लिए प्रभु के निर्देश - उद्देश्य - पद 23-26 - (भाग 2)  


पवित्र आत्मा द्वारा 1 कुरिन्थियों 11:24-25 में लिखवाया गया है कि प्रभु की मेज़ धन्यवाद की मेज़ है। जैसा मत्ती 26:26-28 और मरकुस 14:22-24 में भी लिखा है, प्रभु यीशु ने इस मेज़ की स्थापना के समय आशीष माँगकर रोटी तोड़ी और धन्यवाद देकर कटोरा शिष्यों को दिया था। आम धारणा के विपरीत, रोटी और कटोरे के लिए यह आशीष और धन्यवाद वह नहीं था जिसके साथ हम भोजन का आरम्भ करते हैं। मत्ती 26:21, 26 और मरकुस 14:18, 22 में लिखा हुआ है, फसह के पर्व का भोजन आरम्भ हो चुका था; यूहन्ना 13:4 में लिखा है कि प्रभु ने भोजन से उठकर शिष्यों के पाँव धोए। अर्थात, जैसा हमने यहूदा इस्करियोती के मेज़ में भाग न लेने के लेख में देखा था, प्रभु की मेज़ की स्थापना प्रभु ने भोजन करने के दौरान की। इसलिए भोजन के लिए जो धन्यवाद की प्रार्थना और आशीष माँगी जाती है, वह उस भोजन के आरम्भ के समय हो चुकी होगी। इसलिए प्रकट है कि अब शिष्यों को रोटी तोड़ कर देने और प्याला देने के समय जो धन्यवाद और आशीष प्रभु ने माँगी, वह भोजन के आरम्भ की आशीष और प्रार्थना नहीं थी; उस से भिन्न थी। प्रभु ने उस तोड़ी गई रोटी को अपनी देह और प्याले के दाखरस को अपना लहू भी कहा। इससे यह प्रकट है कि प्रभु अपनी देह के तोड़े जाने और लहू के बहाए जाने के लिए पिता परमेश्वर का धन्यवाद कर रहा था, आशीष मांग रहा था। इस आधार पर हम समझ सकते हैं कि शिष्यों को अपनी देह और लहू के चिह्नों को देने से पहले, प्रभु यीशु ने परमेश्वर का धन्यवाद किया, और आशीष माँगी:

  • उसके जीवन और सेवकाई के लिए। 

  • उसे बलिदान होने के लिए मनुष्य की देह में भेजने के लिए (इब्रानियों 10:5)। 

  • उसे मानव जाति के उद्धार के लिए उपयोग करने के लिए। 

  • उस सारे उपहास और पीड़ा के लिए जिसे वह थोड़े समय बाद परमेश्वर की योजना पूरी करने के लिए सहने जा रहा था। 


प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को सिखाया था कि उन्हें उसके अनुयायी होने के कारण बैर, निन्दा, विरोध, और पीड़ा का सामना करेगा। और कहा था कि जब ऐसा हो तो वे दुखी नहीं, वरन बहुत आनन्दित हों (लूका 6:22-23)। आज प्रभु उनके समक्ष इसी शिक्षा को अपने पर लागू कर के दिखा रहा था। और बाद में, शिष्यों ने भी यही किया (प्रेरितों 5:40-41); तथा पतरस ने अपनी पत्री में एक बार फिर से इसी बात को सिखाया (1 पतरस 4:13-16)। इस बात से, प्रभु की मेज़ में भाग लेने के लिए, हम अपने लिए क्या शिक्षाएं लेते हैं? थोड़ा सा विचार करने से यह प्रकट हो जाता है कि प्रभु भोज में भाग लेना किसी रस्म की पूर्ति और एक औपचारिकता निभाना मात्र नहीं है। वरन, प्रभु की मेज़ उन के लिए है:

  • जिन्होंने अपने आप को परमेश्वर पिता के हाथों में सौंप दिया है कि वह उन्हें अपने उद्देश्यों और महिमा के लिए जैसे उपयुक्त लगे, वैसे उपयोग करे।

  • जो परमेश्वर की योजना के अन्तर्गत, मानव जाति की भलाई के लिए, परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने के लिए समर्पित और प्रतिबद्ध हैं; चाहे इसके लिए उन्हें कोई भी कीमत चुकानी पड़े, कुछ भी क्यों न सहना पड़े। 

  • जो हर बात और परिस्थिति के लिए परमेश्वर पर अपना भरोसा बनाए रखते हैं। चाहे बात उनकी समझ में आए अथवा न आए, वे कभी भी, किसी भी बात के लिए परमेश्वर पर सन्देह नहीं करते हैं, निराश नहीं होते हैं। 

  • जो हमेशा, हर बात और परिस्थिति के लिए परमेश्वर के धन्यवादी बने रहते हैं (1 थिस्सलुनीकियों 5:18), क्योंकि उन्हें भरोसा है कि अन्ततः हर बात और परिस्थिति के द्वारा परमेश्वर उनका भला ही करेगा (रोमियों 8:28)।


और हम प्रभु के उन शिष्यों के जीवनों से भी, तथा बाद में सारे संसार भर में जब भी, जहाँ भी सच्चे, प्रतिबद्ध मसीही खड़े हुए, उनके जीवनों से भी उपरोक्त बातों को पूरा होते हुए देखते हैं। जो लोग प्रभु की मेज़ को हल्के में, एक रस्म, एक औपचारिकता के समान लेते आए हैं, उन्हें वचन की शिक्षा पर, और अपनी धारणाओं पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए, और अपने जीवनों में जिन बातों को सुधारना है, उन्हें ठीक करते हुए ही प्रभु की मेज़ में भाग लेना चाहिए। अगले लेख में हम यहीं से आगे बढ़ेंगे, और इस विषय को आगे देखेंगे। 

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 


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English Translation


Things Related to Christian Living – 31


The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (6)


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In previous articles we have seen that in order to live a practical Christian life, the early Christian Believers steadfastly followed the four things given in Acts 2:42, also known as the “Pillars of the Christian life.” Presently, in our study we are looking at and learning from 1 Corinthians 11:17-34 about the third of these four pillars, i.e., the “breaking of bread,” or, partaking of the Lord's Supper or in the Lord's Table. In the previous article, we learned from verse 23 of this section that Paul had made it clear that the instructions he is giving regarding the Lord's Supper are not of his own imagination or notions, but are instructions he has received from the Lord. Implying that to ignore the instructions written by him, is to ignore the instructions given by the Lord. The Holy Spirit had to give these instructions through Paul, because the Christian Believers in Corinth had distorted the form, observance, and meaning of the Lord's Supper; and had made changes in them according to their own desires and thinking. The ill effects of their doing this had also started becoming apparent in that church. The Holy Spirit had Paul write down the corrections required for the Corinthian Believers; and these were also made a part of God's firmly established and unalterable Word, for the future Christians and churches. We learnt from this that the Lord's Supper is to be taken in the form, by the method, and the purpose that was given by the Lord at the time of its establishment; else the consequences will have to be suffered. Today we will go further, and look at one of the implications of the Lord's Table.


4. Lords instructions for the Holy communion – The purposes - verses 23-26 - (part 2)

 

 It is written by the Holy Spirit in 1 Corinthians 11:24-25 that the Lord's table is a table of thanksgiving. The same is also written in Matthew 26:26-28 and Mark 14:22-24; where we see that at the time of the establishment of this table, Lord Jesus blessed and broke the bread, and gave thanks for the cup, then gave it to the disciples. Contrary to popular belief, this blessing and thanksgiving over the bread and cup was not the one with which we begin a meal. In Matthew 26:21, 26 and Mark 14:18, 22 we read that the Passover meal had already begun; and it is written in John 13:4 that the Lord rose from the meal to wash the feet of the disciples. So, as we saw in the article on Judas Iscariot not partaking of the table, the Lord's Table was established by the Lord during the eating of the Passover meal. Therefore, the prayers of thanksgiving and blessings that are asked for the food must have already been done at the time of the beginning of that meal. Therefore, it is evident that the thanksgiving and blessing that the Lord asked at the time of breaking the bread and giving the cup to the disciples was not the blessing and prayer offered at the beginning of the meal; they were different from that. The Lord also called the bread that was broken His body, and the wine that was in the cup His blood. This shows that the Lord was thanking God the Father, and was asking for blessings, for the breaking of His body and the shedding of His blood. Through this we can understand that before giving the representations of His body and blood to the disciples, the Lord Jesus thanked God and asked for His blessing:

·   For his life and ministry.

·   For sending Him in human flesh to be sacrificed (Hebrews 10:5).

·   For using Him for the salvation of mankind.

·  For all the ridicule and suffering he was going to endure in a short time, to fulfill God's plan.


The Lord Jesus had taught His disciples that they would face hatred, humiliation, opposition, and sufferings because of being His followers. And had said that when this happens, they should not be sad, but should rejoice, be joyful (Luke 6:22-23). Today the Lord was practically demonstrating this teaching to them, was applying it to Himself. We see that later, the disciples too did the same (Acts 5:40-41); and Peter taught the same thing once again in his letter (1 Peter 4:13-16). What lessons do we take from this for ourselves regarding partaking of the Lord's table? A little pondering over makes it apparent that participating in the Lord's Supper is not just the fulfillment of a ritual, nor is it a formality. Rather, the Lord's table is for:

·  Those who have handed themselves over to God the Father to use them as He sees fit to fulfill His purposes and for His glory.

·  Those who are fully submitted and committed to being used by God, for His plans for the good of mankind; no matter what price they may have to pay, and no matter what they may have to suffer for this.

·  Those who place and maintain their trust in God in every situation and for everything. Whether or not they understand it, but they never doubt God about anything, nor are disappointed.

·  Those who are always thankful to God for everything (1 Thessalonians 5:18), because they trust that in the end God will make everything work for their good (Romans 8:28).


And we see the above things fulfilled in the lives of not only these disciples of the Lord, but later in the lives of the true, committed Christian Believers, at any time and anywhere in the world. Those who have been treating the Lord's Table lightly, as a ritual, as a formality, should seriously ponder over the teachings of the Word of God, and also over their own notions; and correct what needs to be corrected in their lives before participating in the Lord's table. In the next article we will proceed from here, and look at this topic further.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


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बुधवार, 8 मार्च 2023

आराधना (4) / Understanding Worship (4)

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परमेश्वर की आराधना के तरीके (2) - धन्यवाद एवं स्तुति


पिछले लेख में हमने परमेश्वर को अर्पित करने के, अर्थात उसकी आराधना करने के विभिन्न तरीकों और स्वरूपों को देखा था। अकसर किसी भौतिक वस्तु को अर्पित करने के साथ, एक मौखिक स्वरूप को भी प्रयोग किया जाता है। परन्तु, परमेश्वर की आराधना के लिए सबसे अधिक उपयोग किया जाने वाला तरीका मौखिक, यानी शब्दों के द्वारा आराधना चढ़ाना ही है। हमने पिछले लेख के समापन के समय देखा था कि परमेश्वर की आराधना के लिए तीन प्रकार की अभिव्यक्तियाँ उपयोग की जाती हैं - परमेश्वर का धन्यवाद करना, उसकी स्तुति करना, और उसका गुणानुवाद करना। आज हम इन में से पहली दो अभिव्यक्तियों, धन्यवाद एवं स्तुति के बारे में देखेंगे, जिस से इन्हें बेहतर समझ सकें।


1. परमेश्वर का धन्यवाद करना: यह आराधना चढ़ाने का सबसे आम तौर से उपयोग किए जाने वाला तरीका है। बहुत से मसीही विश्वासी परमेश्वर के साथ अपने सम्पर्क और वार्तालाप को प्रार्थना से और आगे बढ़ा कर, उन बातों के लिए जो परमेश्वर ने उनके जीवनों में की हैं और उनके विभिन्न अनुभवों के लिए धन्यवाद भी करने तक उन्नत कर लेते हैं। लेकिन फिर भी जब लोगों को किसी सभा में आराधना चढ़ाने का अवसर दिया जाता है तब माँगना, यानि कि प्रार्थना और धन्यवाद करना दोनों का मिला-जुला स्वरूप सुनने और देखने को मिलता है, जो न तो प्रार्थना ही होता है, और न पूर्णतः आराधना, बल्कि दोनों की एक खिचड़ी होता है। किन्तु परमेश्वर इसका भी आदर करता है, इन बालकों के समान प्रयासों को कभी तुच्छ नहीं समझता है। परमेश्वर ऐसे प्रयासों से भी प्रेम करता है, उन्हें स्वीकार करता है, उनका आदर करता है, उनके लिए व्यक्ति को आशीष देता है; किन्तु यह खिचड़ी वह सामर्थी हथियार नहीं है जो वास्तविक आराधना होती है। इसे एक उदाहरण के द्वारा समझिए: एक बच्चा तलवार को पकड़ सकता है, हो सकता है कि उसे उठा भी ले, और उसे थोड़ा-बहुत हिला ले, घुमा ले, किन्तु उसे उस प्रभावी रीति से उपयोग नहीं कर पाएगा जैसे कि हथियार के रूप में उसे किया जाना चाहिए, जो कि एक वयस्क और प्रशिक्षित व्यक्ति ही कर सकता है। धन्यवादी होने के साथ एक समस्या यह भी है कि अकसर इसे औपचारिकता निभाने के लिए भी प्रयोग किया जाता है, एक साधारण और शिष्टाचार के अनुकूल वाक्यांश के रूप में, जिस में परमेश्वर के प्रति फिर कोई सच्ची निष्ठा या वास्तविक कृतज्ञता का भाव नहीं होता है, वह बस कहने मात्र ही की बात रह जाती है। इसलिए धन्यवादी होने का आराधना की अभिव्यक्ति के समान उपयोग तभी है जब वह समझते तथा जानते-बूझते हुए वास्तविक कृतज्ञता के साथ अर्पित की जाए। जैसे कि तब, जब परमेश्वर कुछ उपलब्ध करवा कर देता है, किसी कठिन परिस्थिति से छुड़ाता है, किसी बीमारी से चंगा करता है, इत्यादि। चाहे स्वरूप जो भी हो, सार्वजनिक रीति से धन्यवादी होना, यह दिखाता है कि व्यक्ति का परमेश्वर में भरोसा एवं विश्वास है; परमेश्वर की सामर्थ्य में, उसकी योग्यता में, व्यक्ति के पक्ष में होकर कार्य करने में विश्वास है। और परमेश्वर इस की सराहना करता है, और इसका प्रतिफल भी देता है। धन्यवाद की आराधना करने वाला व्यक्ति अब परमेश्वर की सामर्थ्य और कार्य में भरोसा रखने वाला बनता जा रहा है और उस में विश्वास में बढ़ रहा है।


2. परमेश्वर की स्तुति करना: स्तुति करना धन्यवादी होने से एक कदम और आगे बढ़ना है। यह परमेश्वर को महिमा और आदर देना है। यह तरीका है आनन्द के साथ परमेश्वर के कार्यों का, उसके द्वारा प्रदान की गई किसी बात का, जो उसने उस व्यक्ति अथवा किसी अन्य के लिए किया है बखान करने का, और इनके लिए औरों के सामने परमेश्वर को महिमा देने का। इसलिए स्तुति का दायरा किसी कार्य या परिस्थिति या घटना में परमेश्वर की भूमिका और सहायता तक ही सीमित रह जाता है। धन्यवादी होने में हम परमेश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता को व्यक्त करते हैं; जब कि स्तुति में हम परमेश्वर ने जो किया है उसे सार्वजनिक रीति से बखान करते हैं, जैसे कि इन बातों के लिए:

  • परमेश्वर द्वारा हमारे लिए किए गए कार्य के लिए

  • परमेश्वर द्वारा आश्चर्यजनक या अद्भुत रीति से कुछ उपलब्ध करवा देने के लिए

  • परमेश्वर द्वारा दी गई किसी चंगाई के लिए

  • परमेश्वर द्वारा शैतानी हमलों से बचाने और उन पर जयवंत करने के लिए

  • परमेश्वर द्वारा खोले गए मार्गों और प्रदान किए गए अवसरों के लिए

  • परमेश्वर द्वारा विरोधियों के मनों को बदलने, और उन्हें सहायक बना देने के लिए

आदि।


अकसर धन्यवाद और स्तुति साथ मिलाकर कर अर्पित किए जाते हैं, क्योंकि स्तुति का विषय ही धन्यवाद चढ़ाने का कारण भी होता है। स्तुति रूपी आराधना करने वाला विश्वासी, परमेश्वर के साथ अपनी संगति और सहभागिता में एक कदम और आगे बढ़ गया है, और अपनी आराधना अर्पित करने में और अधिक उच्च या उन्नत हो गया है। अब, स्तुति करने वाला विश्वासी न केवल उसके जीवन में ज़ारी परमेश्वर के कार्य और सामर्थ्य को देखने और पहचानने लगा है, वरन उसका खुलकर सब के सामने बयान तथा सराहना भी करने लग गया है। इसलिए, अब परमेश्वर के साथ अपनी विश्वास की यात्रा में, वह अपने ऊपर, अर्थात अपनी बुद्धि और समझ, अपनी सामर्थ्य और क्षमता, अपनी योग्यता, आदि पर कम, परन्तु परमेश्वर पर अधिक भरोसा करने लग गया है। अब वह उसके जीवन में तथा उसके पक्ष में होकर कार्य कर रही परमेश्वर की सामर्थ्य पर अधिक भरोसा रखने लग गया है। जैसे-जैसे वह छोटी-छोटी बातों के लिए भी परमेश्वर का धन्यवाद और स्तुति करने वाला बनता जाता है, वह परमेश्वर पर अधिक-और-अधिक भरोसा रखने वाला होता चला जाता है। इस से वह शैतान की चालाकियों के प्रति सचेत और उन्हें बेहतर पहचानने वाला हो जाता है, तथा उन से बच कर निकलने और शैतान के द्वारा उसके जीवन में लाई गई परिस्थितियों पर विजयी होने वाला हो जाता है। धीरे-धीरे, इस अभ्यास के साथ, परमेश्वर के प्रति विश्वास के साथ जीवन जीना उसकी जीवन-शैली बन जाता है, और उसके जीवन में होकर कार्य करने वाली परमेश्वर की सामर्थ्य प्रकट होने लगती है। इसलिए, किसी भी शैतानी हमले के द्वारा उसे गिराए या फंसाए जाने की संभावना अब बहुत कम हो जाती है, क्योंकि अब वह हर परिस्थिति और हर बात के लिए अपने ऊपर कम और परमेश्वर पर अधिक भरोसा रखता है।


अगले लेख में हम तीसरे और सर्वोच्च मौखिक आराधना के तरीके, परमेश्वर का गुणानुवाद करने के बारे में देखेंगे; और फिर परमेश्वर के साथ संपर्क और वार्तालाप की इन चारों अभिव्यक्तियों, प्रार्थना, धन्यवाद, स्तुति, और गुणानुवाद को एक उदाहरण के द्वारा समझेंगे, जिस से हम इन्हें व्यवहारिक रीति से उपयोग करना समझ और सीख सकें।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • व्यवस्थाविवरण 5-7           

  • मरकुस 11:1-19      


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Ways of Worshiping God (2) - Thanking and Praising


In the previous article we had seen the various ways and forms of giving to God, i.e., worshipping God. Often, worshipping God through giving or offering something material is combined with an oral or verbal form of giving as well. But, by far the most commonly used form of worshipping God, or giving to God are the oral or verbal expressions. We had concluded the previous article by mentioning three oral or verbal expressions used for worshipping God - Thanking God, Praising God, Exalting God. Today we will see in some detail about the first two of these expressions, to understand them better.


1. THANKING GOD: This is the most commonly used form of 'worship' i.e., of giving to God. A good number of Believers improve their communication with God, by moving ahead from only praying to also becoming thankful to Him for various things and life experiences. Still, often when people are given the opportunity to WORSHIP in a gathering, then asking i.e., praying, and thanking are often mixed up; so, the net result is neither this nor that - neither prayer nor worship. God does not disregard or look down upon these baby efforts. He still loves and honors them, He gives them credit, He still blesses the person, but this hotchpotch does not actually constitute the powerful tool that Worship is meant to be. Understand it through an example: A child can hold a sword, or even lift up a sword and maybe also move it around or swing it a bit, but cannot use it effectively the way it is meant to be used; so even though it is a weapon in the child’s hands, but it will not be as effective as it will be in the hands of a trained mature person. Another problem with being thankful is that often it can be perfunctory, i.e., something stated as a casual or formal expression, without it actually coming from the heart, or with a sense of gratitude and obligation towards God, or being associated with a heartfelt meaning and acknowledgement. So, its actual utility as a form of worship is only when it is a very sincere expression of gratitude, consciously offered, as when God provides something, or delivers from a difficult situation, or heals from a sickness etc. Whatever be the form, it is still openly or publicly acknowledging that God has been instrumental in doing something for the Believer. Hence being Thankful is an expression of having trust and faith in God; of believing in His power, in His ability and willingness to work for His child. And God does appreciate and reward that too. The person offering worship in the form of being thankful has now become one who believes in and trusts the power on working of God, and is growing in his faith in God.


2. PRAISING GOD: Praise is a step ahead of being Thankful. It is bringing glory and honor to God. It is a way of joyfully declaring God's works - for self or for others, and glorifying God before others for what He has done, in a given situation in or about some particular thing. So, the scope of this expression of worship remains limited to a particular situation or event or action of God. In being Thankful, we express our gratitude to God; whereas in Praise, we publicly proclaim what God has done, e.g.:

  • God has helped me in this manner.

  • God has miraculously provided.

  • God has healed.

  • God has overcome and delivered from satanic attacks.

  • God has opened doors and opportunities.

  • God has turned the hearts of opponents into favoring.

etc.


Often Thankfulness and Praise are mixed up, because the subject of Praise is also often the cause for being Thankful. The Praising Believer has matured one more step in his fellowship with God, and has risen that much higher in his worship of God. Now, the Praising Believer has not only started to see and believe the power of God operating in his life, but also to openly acknowledge it, i.e., declare and appreciate it before others. Therefore, in His walk of faith in God, he now begins to rely less on self, i.e., his own wisdom, strength, and abilities, and more upon God, since he has started to recognize and appreciate the power of God working for him and in his life. As he continues to Praise God for even seemingly small and routine things, he becomes more and more trusting upon God. This makes him that much more discerning and aware of the tricks of the devil, as well as able to avoid them and to overcome the traps and adverse situations the satanic forces put up in his paths. Gradually, living by confident faith becomes his lifestyle, and God's power can be readily seen working in and through him. Now he is that much less likely to succumb to satanic attacks against him, since he is relying more upon God and less upon himself, for everything, and in every situation.


In the next article we will consider about the third and highest expression of orally or verbally worshipping God, i.e., Exalting God, and then illustrate these four forms of communicating with God i.e., Prayer, Thanking, Praising, and Exalting God through applying them to an example; which will also help us in understanding better, in a practical way, these four forms of communicating with God.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.  


Through the Bible in a Year: 

  • Deuteronomy 5-7

  • Mark 11:1-19


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मंगलवार, 30 मार्च 2021

स्तुति और आराधना

 

          स्विस घड़ीसाज़, फिलिप ने एक आवर्धक लेंस और बारीक चिमटी की सहायता से मुझे दिखाया और समझाया कि वह किस प्रकार घड़ी के सूक्ष्म पुर्ज़ों को खोल कर उन्हें साफ़ करता है और फिर वापस एक साथ जोड़ कर उन घड़ियों को ठीक कर के देता है। उन सभी छोटे-छोटे, जटिल पुर्ज़ों को दिखाते हुए, फिलिप ने मुझे घड़ी के सबसे महत्वपूर्ण पुर्जे, उसके मुख्य स्प्रिंग को दिखाया। वह मुख्य स्प्रिंग ही है जो घड़ी की सारी गरारियों और पुर्ज़ों को चलाता है, जिससे घड़ी ठीक से कार्य कर पाती है और सही समय जाना जा सकता। यदि वह मुख्य स्प्रिंग न हो तो घड़ी चाहे कितनी भी निपुणता से क्यों न बनी हो, बिलकुल काम नहीं कर सकती है।

          परमेश्वर के वचन बाइबल में नए नियम में इब्रानियों की पुस्तक के एक सुन्दर खण्ड में, लेखक प्रभु यीशु की स्तुति और प्रशंसा करता है कि उसमें होकर हमारी सृष्टि की प्रत्येक वस्तु सृजी गई (इब्रानियों 1:2)। सौर-मण्डल, नक्षत्रों, सितारों के समूहों से लेकर हम में से प्रत्येक व्यक्ति की अंगुलियों की अनुपम भिन्न रेखाओं तक, सब कुछ प्रभु यीशु के द्वारा बारीकी और बड़े ध्यान से सृजा गया है।

          लेकिन सृजनहार  होने से भी बढ़कर, घड़ी के उस मुख्य स्प्रिंग के समान, प्रभु यीशु इस सारी सृष्टि की प्रत्येक बात को संचालित और नियंत्रित भी करता है, उसी के द्वारा हर बात बिलकुल ठीक से स्थापित, नियंत्रित, और सक्रिय रहती है। उसकी निरंतर बनी रहने वाली उपस्थिति, उसके सामर्थी वचन के द्वारा, हर समय हर बात को संभाले रहती है (पद 3), जिससे समस्त सृष्टि उसकी विलक्षण जटिलता के बावजूद सुचारु रीति से कार्य करती रहती है।

          आज जब आप के पास सृष्टि की भव्य सुन्दरता को देखने का समय है, तो साथ ही इस बात का भी ध्यान करें कि प्रभु यीशु मसीह में होकर ही सब बातें स्थिर बनी रहती हैं (कुलुस्सियों 1:17)। सृष्टि के सृजन और संचालन में प्रभु यीशु मसीह की प्रमुख और अति-महत्वपूर्ण भूमिका को पहचानते हुए, हम आनन्द से भरे हुए हृदय के द्वारा उसकी स्तुति और आराधना करें, और निरंतर हमारे लिए, हमारे पक्ष में, उसके द्वारा किए जा रहे कार्यों के लिए उसके कृतज्ञ हों। - लिसा सामरा

 

प्रभु आपके द्वारा अपनी इस सृष्टि को संभाले रखने और संचालित करने के लिए आपका धन्यवाद।

और वही सब वस्तुओं में प्रथम है, और सब वस्तुएं उसी में स्थिर रहती हैं। - कुलुस्सियों 1:17

बाइबल पाठ: इब्रानियों 1:1-4

इब्रानियों 1:1 पूर्व युग में परमेश्वर ने बाप दादों से थोड़ा थोड़ा कर के और भांति भांति से भविष्यद्वक्ताओं के द्वारा बातें कर के।

इब्रानियों 1:2 इन दिनों के अन्त में हम से पुत्र के द्वारा बातें की, जिसे उसने सारी वस्तुओं का वारिस ठहराया और उसी के द्वारा उसने सारी सृष्टि रची है।

इब्रानियों 1:3 वह उस की महिमा का प्रकाश, और उसके तत्व की छाप है, और सब वस्तुओं को अपनी सामर्थ्य के वचन से संभालता है: वह पापों को धोकर ऊंचे स्थानों पर महामहिमन के दाहिने जा बैठा।

इब्रानियों 1:4 और स्‍वर्गदूतों से उतना ही उत्तम ठहरा, जितना उसने उन से बड़े पद का वारिस हो कर उत्तम नाम पाया।

 

एक साल में बाइबल: 

  • न्यायियों 9-10
  • लूका 5:17-39

मंगलवार, 15 दिसंबर 2020

स्तुति

 

          मैं इस्राएल के ऐइन करेम में स्थित चर्च ‘ऑफ़ द विज़िटेशन’ के आँगन में बैठी थी, और वहाँ सड़सठ भाषाओं में सड़सठ मोज़ाएक (पच्चीकारी) पट्टियों पर प्रदर्शित की गई लूका 1:46-55 की सुन्दरता को देख कर अभिभूत हो गई थी। परमेश्वर के वचन बाइबल के इस खण्ड को पारंपरिक रूप में उसके लातीनी भाषा के नाम ‘मैग्निफिकेट’ अर्थात स्तुतिगान से जाना जाता है। ये पद मरियम का आनंदमय प्रत्युत्तर हैं, स्वर्गदूत द्वारा उसे बताए जाने पर कि परमेश्वर ने उसे चुना है कि वह जगत के उद्धारकर्ता मसीहा की माँ बनेगी।

          वहाँ लगी प्रत्येक मोज़ाएक (पच्चीकारी) पट्टियों पर मरियम के स्तुतिगान के शब्द लिखे हुए थे, जिनमें “मेरा प्राण प्रभु की बड़ाई करता है। और मेरी आत्मा मेरे उद्धार करने वाले परमेश्वर से आनन्दित हुई।...क्योंकि उस शक्तिमान ने मेरे लिये बड़े बड़े काम किए हैं, और उसका नाम पवित्र है” (46-49) भी सम्मिलित हैं। उन टाइल्स में लिखे गए स्तुतिगान के वे शब्द मरियम द्वारा परमेश्वर की उसके प्रति तथा इस्राएल के प्रति विश्वासयोग्यता को स्मरण करते हैं और बयान करते हैं।

          मरियम परमेश्वर के अनुग्रह की कृतज्ञ पात्र थी, और अपने उद्धार में आनन्दित हुई (पद 47)। उसने बयान किया कि परमेश्वर का इस्राएल के प्रति अनुग्रह सदियों और पीढ़ियों से चलता चला आ रहा है (पद 50)। इस्राएलियों के प्रति परमेश्वर की देखभाल का ध्यान कर के मरियम परमेश्वर के द्वारा उनके लिए किए गए सामर्थी कार्यों के लिए उसकी स्तुति करती है (पद 51)। वह परमेश्वर का धन्यवाद और स्तुति उसकी दैनिक आवश्यकताओं के उपलब्ध करवाते रहने के लिए भी करती है (पद 53)।

          यहाँ से मरियम से हम सीखते हैं कि परमेश्वर द्वारा हमारे लिए किए गए महान कार्यों को स्मरण करने से हम आनन्दित होने और उसकी स्तुतिगान करने के लिए उभारे जा सकते हैं। इस क्रिसमस के समय में, इस वर्ष का  पुनःअवलोकन करते समय परमेश्वर की भलाइयों को स्मरण करें, और आप स्वतः ही अपने आप को परमेश्वर की स्तुति करते हुए पाएँगे। - लीसा सामरा

 

परमेश्वर की भलाइयों को स्मरण करें, उन्हें औरों को बताएँ, 

और उनके लिए उसकी स्तुति-आराधना करें।


और हन्ना ने प्रार्थना कर के कहा, “मेरा मन यहोवा के कारण मगन है; मेरा सींग यहोवा के कारण ऊंचा, हुआ है। मेरा मुंह मेरे शत्रुओं के विरुद्ध खुल गया, क्योंकि मैं तेरे किए हुए उद्धार से आनन्दित हूँ।” - 1 शमूएल 2:1

बाइबल पाठ: लूका 1:46-55

लूका 1:46 तब मरियम ने कहा, मेरा प्राण प्रभु की बड़ाई करता है।

लूका 1:47 और मेरी आत्मा मेरे उद्धार करने वाले परमेश्वर से आनन्दित हुई।

लूका 1:48 क्योंकि उसने अपनी दासी की दीनता पर दृष्टि की है, इसलिये देखो, अब से सब युग युग के लोग मुझे धन्य कहेंगे।

लूका 1:49 क्योंकि उस शक्तिमान ने मेरे लिये बड़े बड़े काम किए हैं, और उसका नाम पवित्र है।

लूका 1:50 और उस की दया उन पर, जो उस से डरते हैं, पीढ़ी से पीढ़ी तक बनी रहती है।

लूका 1:51 उसने अपना भुजबल दिखाया, और जो अपने आप को बड़ा समझते थे, उन्हें तित्तर-बित्तर किया।

लूका 1:52 उसने बलवानों को सिंहासनों से गिरा दिया; और दीनों को ऊंचा किया।

लूका 1:53 उसने भूखों को अच्छी वस्तुओं से तृप्त किया, और धनवानों को छूछे हाथ निकाल दिया।

लूका 1:54 उसने अपने सेवक इस्राएल को सम्हाल लिया।

लूका 1:55 कि अपनी उस दया को स्मरण करे, जो इब्राहीम और उसके वंश पर सदा रहेगी, जैसा उसने हमारे बाप-दादों से कहा था।

 

एक साल में बाइबल: 

  • आमोस 1-3
  • प्रकाशितवाक्य 6

गुरुवार, 3 दिसंबर 2020

कृतज्ञ

 

         मैं एक कैंसर इलाज केंद्र में अपनी माँ की देखभाल कर रही थी; वहाँ पर मेरी भेंट एक और स्त्री, लोरी से हुई जो अपने पति की देखभाल कर रही थी, और हम मित्र बन गए। हम दोनों साथ बातें करते, हंसते, अपने दिल की भड़ास एक-दूसरे के सामने निकालते, रोते, और प्रार्थना करते थे। अपने प्रिय जनों के देखभाल करते हुए हमें एक दूसरे की सहायता करते रहने में आनन्द आता था।

         एक दिन मैं कैंसर केंद्र से दुकानों तक आने-जाने के लिए देखभाल करने वालों के लिए उपलब्ध करवाई गई मुफ्त बस सेवा में जाने से चुक गई। लोरी ने प्रस्ताव किया कि वह मुझे शाम को अपनी कार में दुकानों तक खरीददारी के लिए ले जाएगी। कृतज्ञता के आँसुओं के साथ, मैंने उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। मैंने उस से कहा, “जो तुम हो, उसके लिए बहुत धन्यवाद” मैं वास्तव में जो वह थी उसके लिए उसकी बहुत सराहना करती थी, न कि केवल उस सहायता के लिए जो मुझे उससे मिलती थी।

         परमेश्वर के वचन बाइबल में भजन 100 में भजनकार परमेश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता को व्यक्त करता है, उस सब के लिए जो परमेश्वर है, न कि केवल उसके लिए जो वह करता है। इस भजन में भजनकार “सारी पृथ्वी के लोगों को” (पद 1) “आनन्द से यहोवा की आराधना” करने के लिए निमंत्रण देता है (पद 2), इस बात में भरोसा रखते हुए कि “यहोवा ही परमेश्वर है” (पद 3)। हमारा सृजनहार हमें अपनी उपस्थिति में आमंत्रित करता है कि हम आकर धन्यवाद दें और उसकी स्तुति करें (पद 4)। हमारा प्रभु परमेश्वर हमारे निरंतर धन्यवाद का पात्र है क्योंकि “वह भला है,” “उसकी करुणा सदा की है,” और “उसकी सच्चाई पीढ़ी से पीढ़ी तक बनी रहती है (पद 5)”।

         परमेश्वर सदा ही जगत का सृजनहार और पालनहार, तथा हमारा बहुतायत से प्रेम करते रहने वाला प्रेमी पिता रहेगा। जो वह है, उसके लिए वह हमारी कृतज्ञता का पात्र है। - सोहचील डिक्सन

 

आज आप किसे के साथ परमेश्वर के प्रेम को बाँट सकते हैं?


हर बात में धन्यवाद करो: क्योंकि तुम्हारे लिये मसीह यीशु में परमेश्वर की यही इच्छा है। - 1 थिस्स्लुनीकियों 5:18

बाइबल पाठ: भजन  100

भजन संहिता 100:1 हे सारी पृथ्वी के लोगों यहोवा का जयजयकार करो!

भजन संहिता 100:2 आनन्द से यहोवा की आराधना करो! जयजयकार के साथ उसके सम्मुख आओ!

भजन संहिता 100:3 निश्चय जानो, कि यहोवा ही परमेश्वर है। उसी ने हम को बनाया, और हम उसी के हैं; हम उसकी प्रजा, और उसकी चराई की भेड़ें हैं।

भजन संहिता 100:4 उसके फाटकों से धन्यवाद, और उसके आंगनों में स्तुति करते हुए प्रवेश करो, उसका धन्यवाद करो, और उसके नाम को धन्य कहो!

भजन संहिता 100:5 क्योंकि यहोवा भला है, उसकी करुणा सदा के लिये, और उसकी सच्चाई पीढ़ी से पीढ़ी तक बनी रहती है।

 

एक साल में बाइबल: 

  • यहेजकेल 45-46
  • 1 यूहन्ना 2