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परमेश्वर की आराधना के तरीके (2) - धन्यवाद एवं स्तुति
पिछले लेख में हमने परमेश्वर को अर्पित करने के, अर्थात उसकी आराधना करने के विभिन्न तरीकों और स्वरूपों को देखा था। अकसर किसी भौतिक वस्तु को अर्पित करने के साथ, एक मौखिक स्वरूप को भी प्रयोग किया जाता है। परन्तु, परमेश्वर की आराधना के लिए सबसे अधिक उपयोग किया जाने वाला तरीका मौखिक, यानी शब्दों के द्वारा आराधना चढ़ाना ही है। हमने पिछले लेख के समापन के समय देखा था कि परमेश्वर की आराधना के लिए तीन प्रकार की अभिव्यक्तियाँ उपयोग की जाती हैं - परमेश्वर का धन्यवाद करना, उसकी स्तुति करना, और उसका गुणानुवाद करना। आज हम इन में से पहली दो अभिव्यक्तियों, धन्यवाद एवं स्तुति के बारे में देखेंगे, जिस से इन्हें बेहतर समझ सकें।
1. परमेश्वर का धन्यवाद करना: यह आराधना चढ़ाने का सबसे आम तौर से उपयोग किए जाने वाला तरीका है। बहुत से मसीही विश्वासी परमेश्वर के साथ अपने सम्पर्क और वार्तालाप को प्रार्थना से और आगे बढ़ा कर, उन बातों के लिए जो परमेश्वर ने उनके जीवनों में की हैं और उनके विभिन्न अनुभवों के लिए धन्यवाद भी करने तक उन्नत कर लेते हैं। लेकिन फिर भी जब लोगों को किसी सभा में आराधना चढ़ाने का अवसर दिया जाता है तब माँगना, यानि कि प्रार्थना और धन्यवाद करना दोनों का मिला-जुला स्वरूप सुनने और देखने को मिलता है, जो न तो प्रार्थना ही होता है, और न पूर्णतः आराधना, बल्कि दोनों की एक खिचड़ी होता है। किन्तु परमेश्वर इसका भी आदर करता है, इन बालकों के समान प्रयासों को कभी तुच्छ नहीं समझता है। परमेश्वर ऐसे प्रयासों से भी प्रेम करता है, उन्हें स्वीकार करता है, उनका आदर करता है, उनके लिए व्यक्ति को आशीष देता है; किन्तु यह खिचड़ी वह सामर्थी हथियार नहीं है जो वास्तविक आराधना होती है। इसे एक उदाहरण के द्वारा समझिए: एक बच्चा तलवार को पकड़ सकता है, हो सकता है कि उसे उठा भी ले, और उसे थोड़ा-बहुत हिला ले, घुमा ले, किन्तु उसे उस प्रभावी रीति से उपयोग नहीं कर पाएगा जैसे कि हथियार के रूप में उसे किया जाना चाहिए, जो कि एक वयस्क और प्रशिक्षित व्यक्ति ही कर सकता है। धन्यवादी होने के साथ एक समस्या यह भी है कि अकसर इसे औपचारिकता निभाने के लिए भी प्रयोग किया जाता है, एक साधारण और शिष्टाचार के अनुकूल वाक्यांश के रूप में, जिस में परमेश्वर के प्रति फिर कोई सच्ची निष्ठा या वास्तविक कृतज्ञता का भाव नहीं होता है, वह बस कहने मात्र ही की बात रह जाती है। इसलिए धन्यवादी होने का आराधना की अभिव्यक्ति के समान उपयोग तभी है जब वह समझते तथा जानते-बूझते हुए वास्तविक कृतज्ञता के साथ अर्पित की जाए। जैसे कि तब, जब परमेश्वर कुछ उपलब्ध करवा कर देता है, किसी कठिन परिस्थिति से छुड़ाता है, किसी बीमारी से चंगा करता है, इत्यादि। चाहे स्वरूप जो भी हो, सार्वजनिक रीति से धन्यवादी होना, यह दिखाता है कि व्यक्ति का परमेश्वर में भरोसा एवं विश्वास है; परमेश्वर की सामर्थ्य में, उसकी योग्यता में, व्यक्ति के पक्ष में होकर कार्य करने में विश्वास है। और परमेश्वर इस की सराहना करता है, और इसका प्रतिफल भी देता है। धन्यवाद की आराधना करने वाला व्यक्ति अब परमेश्वर की सामर्थ्य और कार्य में भरोसा रखने वाला बनता जा रहा है और उस में विश्वास में बढ़ रहा है।
2. परमेश्वर की स्तुति करना: स्तुति करना धन्यवादी होने से एक कदम और आगे बढ़ना है। यह परमेश्वर को महिमा और आदर देना है। यह तरीका है आनन्द के साथ परमेश्वर के कार्यों का, उसके द्वारा प्रदान की गई किसी बात का, जो उसने उस व्यक्ति अथवा किसी अन्य के लिए किया है बखान करने का, और इनके लिए औरों के सामने परमेश्वर को महिमा देने का। इसलिए स्तुति का दायरा किसी कार्य या परिस्थिति या घटना में परमेश्वर की भूमिका और सहायता तक ही सीमित रह जाता है। धन्यवादी होने में हम परमेश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता को व्यक्त करते हैं; जब कि स्तुति में हम परमेश्वर ने जो किया है उसे सार्वजनिक रीति से बखान करते हैं, जैसे कि इन बातों के लिए:
परमेश्वर द्वारा हमारे लिए किए गए कार्य के लिए
परमेश्वर द्वारा आश्चर्यजनक या अद्भुत रीति से कुछ उपलब्ध करवा देने के लिए
परमेश्वर द्वारा दी गई किसी चंगाई के लिए
परमेश्वर द्वारा शैतानी हमलों से बचाने और उन पर जयवंत करने के लिए
परमेश्वर द्वारा खोले गए मार्गों और प्रदान किए गए अवसरों के लिए
परमेश्वर द्वारा विरोधियों के मनों को बदलने, और उन्हें सहायक बना देने के लिए
आदि।
अकसर धन्यवाद और स्तुति साथ मिलाकर कर अर्पित किए जाते हैं, क्योंकि स्तुति का विषय ही धन्यवाद चढ़ाने का कारण भी होता है। स्तुति रूपी आराधना करने वाला विश्वासी, परमेश्वर के साथ अपनी संगति और सहभागिता में एक कदम और आगे बढ़ गया है, और अपनी आराधना अर्पित करने में और अधिक उच्च या उन्नत हो गया है। अब, स्तुति करने वाला विश्वासी न केवल उसके जीवन में ज़ारी परमेश्वर के कार्य और सामर्थ्य को देखने और पहचानने लगा है, वरन उसका खुलकर सब के सामने बयान तथा सराहना भी करने लग गया है। इसलिए, अब परमेश्वर के साथ अपनी विश्वास की यात्रा में, वह अपने ऊपर, अर्थात अपनी बुद्धि और समझ, अपनी सामर्थ्य और क्षमता, अपनी योग्यता, आदि पर कम, परन्तु परमेश्वर पर अधिक भरोसा करने लग गया है। अब वह उसके जीवन में तथा उसके पक्ष में होकर कार्य कर रही परमेश्वर की सामर्थ्य पर अधिक भरोसा रखने लग गया है। जैसे-जैसे वह छोटी-छोटी बातों के लिए भी परमेश्वर का धन्यवाद और स्तुति करने वाला बनता जाता है, वह परमेश्वर पर अधिक-और-अधिक भरोसा रखने वाला होता चला जाता है। इस से वह शैतान की चालाकियों के प्रति सचेत और उन्हें बेहतर पहचानने वाला हो जाता है, तथा उन से बच कर निकलने और शैतान के द्वारा उसके जीवन में लाई गई परिस्थितियों पर विजयी होने वाला हो जाता है। धीरे-धीरे, इस अभ्यास के साथ, परमेश्वर के प्रति विश्वास के साथ जीवन जीना उसकी जीवन-शैली बन जाता है, और उसके जीवन में होकर कार्य करने वाली परमेश्वर की सामर्थ्य प्रकट होने लगती है। इसलिए, किसी भी शैतानी हमले के द्वारा उसे गिराए या फंसाए जाने की संभावना अब बहुत कम हो जाती है, क्योंकि अब वह हर परिस्थिति और हर बात के लिए अपने ऊपर कम और परमेश्वर पर अधिक भरोसा रखता है।
अगले लेख में हम तीसरे और सर्वोच्च मौखिक आराधना के तरीके, परमेश्वर का गुणानुवाद करने के बारे में देखेंगे; और फिर परमेश्वर के साथ संपर्क और वार्तालाप की इन चारों अभिव्यक्तियों, प्रार्थना, धन्यवाद, स्तुति, और गुणानुवाद को एक उदाहरण के द्वारा समझेंगे, जिस से हम इन्हें व्यवहारिक रीति से उपयोग करना समझ और सीख सकें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
व्यवस्थाविवरण 5-7
मरकुस 11:1-19
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Ways of Worshiping God (2) - Thanking and Praising
In the previous article we had seen the various ways and forms of giving to God, i.e., worshipping God. Often, worshipping God through giving or offering something material is combined with an oral or verbal form of giving as well. But, by far the most commonly used form of worshipping God, or giving to God are the oral or verbal expressions. We had concluded the previous article by mentioning three oral or verbal expressions used for worshipping God - Thanking God, Praising God, Exalting God. Today we will see in some detail about the first two of these expressions, to understand them better.
1. THANKING GOD: This is the most commonly used form of 'worship' i.e., of giving to God. A good number of Believers improve their communication with God, by moving ahead from only praying to also becoming thankful to Him for various things and life experiences. Still, often when people are given the opportunity to WORSHIP in a gathering, then asking i.e., praying, and thanking are often mixed up; so, the net result is neither this nor that - neither prayer nor worship. God does not disregard or look down upon these baby efforts. He still loves and honors them, He gives them credit, He still blesses the person, but this hotchpotch does not actually constitute the powerful tool that Worship is meant to be. Understand it through an example: A child can hold a sword, or even lift up a sword and maybe also move it around or swing it a bit, but cannot use it effectively the way it is meant to be used; so even though it is a weapon in the child’s hands, but it will not be as effective as it will be in the hands of a trained mature person. Another problem with being thankful is that often it can be perfunctory, i.e., something stated as a casual or formal expression, without it actually coming from the heart, or with a sense of gratitude and obligation towards God, or being associated with a heartfelt meaning and acknowledgement. So, its actual utility as a form of worship is only when it is a very sincere expression of gratitude, consciously offered, as when God provides something, or delivers from a difficult situation, or heals from a sickness etc. Whatever be the form, it is still openly or publicly acknowledging that God has been instrumental in doing something for the Believer. Hence being Thankful is an expression of having trust and faith in God; of believing in His power, in His ability and willingness to work for His child. And God does appreciate and reward that too. The person offering worship in the form of being thankful has now become one who believes in and trusts the power on working of God, and is growing in his faith in God.
2. PRAISING GOD: Praise is a step ahead of being Thankful. It is bringing glory and honor to God. It is a way of joyfully declaring God's works - for self or for others, and glorifying God before others for what He has done, in a given situation in or about some particular thing. So, the scope of this expression of worship remains limited to a particular situation or event or action of God. In being Thankful, we express our gratitude to God; whereas in Praise, we publicly proclaim what God has done, e.g.:
God has helped me in this manner.
God has miraculously provided.
God has healed.
God has overcome and delivered from satanic attacks.
God has opened doors and opportunities.
God has turned the hearts of opponents into favoring.
etc.
Often Thankfulness and Praise are mixed up, because the subject of Praise is also often the cause for being Thankful. The Praising Believer has matured one more step in his fellowship with God, and has risen that much higher in his worship of God. Now, the Praising Believer has not only started to see and believe the power of God operating in his life, but also to openly acknowledge it, i.e., declare and appreciate it before others. Therefore, in His walk of faith in God, he now begins to rely less on self, i.e., his own wisdom, strength, and abilities, and more upon God, since he has started to recognize and appreciate the power of God working for him and in his life. As he continues to Praise God for even seemingly small and routine things, he becomes more and more trusting upon God. This makes him that much more discerning and aware of the tricks of the devil, as well as able to avoid them and to overcome the traps and adverse situations the satanic forces put up in his paths. Gradually, living by confident faith becomes his lifestyle, and God's power can be readily seen working in and through him. Now he is that much less likely to succumb to satanic attacks against him, since he is relying more upon God and less upon himself, for everything, and in every situation.
In the next article we will consider about the third and highest expression of orally or verbally worshipping God, i.e., Exalting God, and then illustrate these four forms of communicating with God i.e., Prayer, Thanking, Praising, and Exalting God through applying them to an example; which will also help us in understanding better, in a practical way, these four forms of communicating with God.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Deuteronomy 5-7
Mark 11:1-19
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Praise the Lord sir aap k lekh ek avishawasi k jeevan ko fruitful karane wale h really I'm blessed. Again thank you and God bless you 🙂
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