पाप का समाधान - उद्धार - 5
पिछले चार लेखों से हम बाइबल
की प्रथम पुस्तक, उत्पत्ति के 3 अध्याय
में दिए गए प्रथम पाप और उसके परिणामों और प्रभावों के विवरण पर आधारित पाप के समाधान, तथा उद्धार से संबंधित
तीन महत्वपूर्ण प्रश्नों को देख रहे हैं। हमने पहले प्रश्न – “उद्धार किससे और क्यों” पर विचार करने और उसके
निष्कर्ष पर पहुँचने के पश्चात, पिछले लेख में दूसरे प्रश्न
“व्यक्ति इस उद्धार को कैसे प्राप्त कर सकता है?” पर विचार आरंभ किया था। इस दूसरे प्रश्न के अंतर्गत हमें देखा कि पाप
व्यक्ति के द्वारा व्यक्तिगत रीति से की गई परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता है; जब प्रथम पाप किया गया, उस समय न तो वहाँ कोई धर्म
था, और न ही किसी धर्म का कोई उल्लंघन हुआ, और न ही परमेश्वर ने किसी धर्म के द्वारा उस पाप के समाधान और निवारण की
बात की। पाप करने का आधार तथा कारण मनुष्य का परमेश्वर की मनुष्य के प्रति योजनाओं
और इच्छाओं में अविश्वास करना था। इसीलिए, परमेश्वर ने मनुष्य के जीवन में आई पाप
की इस समस्या का समाधान मनुष्य के स्वेच्छा और सच्चे मन से उसकी पूर्ण आज्ञाकारिता
में आ जाने और पापों से पश्चाताप तथा प्रभु यीशु मसीह को उद्धारकर्ता स्वीकार कर
लेने और उसके साथ उस खोए हुए विश्वास के संबंध को बहाल कर लेने के द्वारा दिया।
पाप के इस समाधान में निहित कुछ अन्य आधारभूत और अति
महत्वपूर्ण तात्पर्य हैं। इस संबंध की पुनः स्थापना के साथ ही प्रत्येक व्यक्ति
द्वारा व्यक्तिगत रीति से इन तात्पर्यों को भी स्वीकार करना और उनके अनुसार अपने
जीवन के विषय निर्णय लेना और जीवन को सुधारना भी अनिवार्य है।
ये निहित तात्पर्य हैं:
- क्योंकि
पाप का प्रवेश व्यक्तिगत अनाज्ञाकारिता के कारण हुआ - अनाज्ञाकारी होकर उस
वर्जित फल को हव्वा ने भी खाया और आदम ने भी खाया (उत्पत्ति 3:6), इसीलिए पाप का समाधान और
निवारण भी किसी धर्म विशेष को मानने वाले परिवार में जन्म लेने, और उस धर्म से
संबंधित रीति-रिवाज़ों के निर्वाह के द्वारा नहीं, वरन, प्रत्येक व्यक्ति के
द्वारा अपने पापों के लिए परमेश्वर के समक्ष व्यक्तिगत पश्चाताप, परमेश्वर को सम्पूर्ण समर्पण, और फिर उसकी
आज्ञाकारिता में बने रहने के निर्णय के द्वारा ही है।
- यह
समाधान पैतृक
विरासत अथवा वंशागत
नहीं व्यक्तिगत है; अर्थात, माता-पिता या परिवार के किसी अन्य सदस्य
अथवा परिवार के प्राचीनों के पश्चाताप और समर्पण के द्वारा उनकी संतान,
संबंधी, और भावी पीढ़ी उद्धार नहीं पाती
है। हर पीढ़ी, और हर व्यक्ति को, अपने
पापों के लिए स्वयं ही पश्चाताप और समर्पण करना होता है “परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें
परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें
जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लहू से, न
शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं” (यूहन्ना
1:12-13)।
- कोई
भी व्यक्ति मसीही विश्वासी के रूप में जन्म नहीं लेता है; प्रत्येक व्यक्ति को मसीही
विश्वासी तथा परमेश्वर की संतान बनने के लिए शारीरिक जन्म के बाद स्वेच्छा और
सच्चे समर्पण के द्वारा, परमेश्वर के परिवार में, एक
आत्मिक जन्म लेना पड़ता है – अपने पापों के पश्चाताप और प्रभु यीशु मसीह को
अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता स्वीकार करने के द्वारा यह “नया जन्म” लेना पड़ता है। उसके सांसारिक परिवार
के लोगों और पूर्वजों की धार्मिकता और उनका उद्धार, उसे
उद्धार प्रदान नहीं करते हैं।
- मनुष्य
किसी भी प्रकार से परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए इस सिद्ध कार्य को न तो
संवार सकता है, न ही सुधार
कर और बेहतर कर सकता है। अपनी बुद्धि, समझ, और योजनाओं को इसमें मिलाने के द्वारा इसे बिगाड़ कर व्यर्थ अवश्य कर
सकता है “क्योंकि मसीह ने मुझे बपतिस्मा देने को
नहीं, वरन सुसमाचार सुनाने को भेजा है, और यह भी शब्दों के ज्ञान के अनुसार नहीं, ऐसा न हो कि मसीह का क्रूस व्यर्थ ठहरे” (1 कुरिन्थियों 1:17)।
- इस
उद्धार के लिए जो भी करना था, जो भी कीमत चुकानी थी, वह सब कुछ परमेश्वर ने
पूर्णतः कर के दे दिया है। मनुष्य को परमेश्वर द्वारा किए गए इस उद्धार के
कार्य में अब और कुछ नहीं जोड़ना है, कुछ नहीं करना है,
“क्योंकि तुम जानते हो, कि तुम्हारा
निकम्मा चाल-चलन जो बाप दादों से चला आता है उस से तुम्हारा छुटकारा चान्दी
सोने अर्थात नाशमान वस्तुओं के द्वारा नहीं हुआ। पर निर्दोष और निष्कलंक
मेम्ने अर्थात मसीह के बहुमूल्य लहू के द्वारा हुआ” (1 पतरस 1:18-19)। न कोई कर्म-कांड, न कोई विधि-विधान, न किसी अन्य मनुष्य की
मध्यस्थता अथवा सहयोग की आवश्यकता। बस स्वेच्छा से प्रभु यीशु को अपना व्यक्तिगत
उद्धारकर्ता स्वीकार कर लेना है, उसके प्रति समर्पित
होकर, अपने जीवन को उसके प्रति आज्ञाकारी कर लेना है –
इसे ही नया जन्म पाना कहते हैं, जिसके बिना कोई स्वर्ग
में प्रवेश तो दूर, उसे देख भी नहीं सकता है “यीशु ने उसको उत्तर दिया; कि मैं तुझ से सच सच
कहता हूं, यदि कोई नये सिरे से न जन्मे तो परमेश्वर का
राज्य देख नहीं सकता।” “यीशु
ने उत्तर दिया, कि मैं तुझ से सच सच कहता हूं; जब तक कोई मनुष्य जल और आत्मा से न जन्मे तो वह परमेश्वर के राज्य
में प्रवेश नहीं कर सकता” (यूहन्ना 3:3, 5)।
- बाइबल
यह स्पष्ट बताती है कि मनुष्य के लिए धर्म के निर्वाह की धार्मिकता अपर्याप्त
है “क्योंकि
मैं तुम से कहता हूं, कि यदि तुम्हारी धामिर्कता शास्त्रियों
और फरीसियों की धामिर्कता से बढ़कर न हो, तो तुम स्वर्ग
के राज्य में कभी प्रवेश करने न पाओगे” (मत्ती 5:20); परमेश्वर के दृष्टि में मैले चिथड़ों के समान व्यर्थ है “हम तो सब
के सब अशुद्ध मनुष्य के से हैं, और हमारे धर्म के
काम सब के सब मैले चिथड़ों के समान हैं। हम सब के सब पत्ते के समान मुर्झा जाते
हैं, और हमारे अधर्म के कामों ने हमें वायु के समान उड़ा
दिया है” (यशायाह 64:6)।
पाप और उद्धार से संबंधित
चर्चा के इस महत्वपूर्ण दूसरे प्रश्न का निष्कर्ष है कि पाप का समाधान और उद्धार
किसी धर्म के कार्य अथवा धर्म के निर्वाह के द्वारा नहीं है; न ही यह किसी धर्म विशेष की बात है; और न ही पैतृक
अथवा वंशागत है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने पापों के लिए स्वयं पश्चाताप करना होगा,
उनके लिए स्वयं प्रभु यीशु से क्षमा माँगनी होगी, स्वयं ही अपना जीवन प्रभु यीशु को समर्पित करना होगा, उसका आज्ञाकारी शिष्य बनने का स्वयं ही निर्णय लेना होगा।
बाइबल पाठ: रोमियों 7:15-8:1
रोमियों
7:15 और जो मैं करता हूं, उसको नहीं जानता, क्योंकि जो मैं चाहता
हूं, वह नहीं किया करता, परन्तु जिस से
मुझे घृणा आती है, वही करता हूं।
रोमियों
7:16 और यदि, जो मैं नहीं चाहता वही करता हूं, तो मैं मान लेता हूं,
कि व्यवस्था भली है।
रोमियों
7:17 तो ऐसी दशा में उसका करने वाला मैं नहीं, वरन पाप है, जो मुझ में बसा हुआ है।
रोमियों
7:18 क्योंकि मैं जानता हूं, कि मुझ में अर्थात मेरे शरीर में कोई अच्छी वस्तु वास नहीं
करती, इच्छा तो मुझ में है, परन्तु भले
काम मुझ से बन नहीं पड़ते।
रोमियों
7:19 क्योंकि जिस अच्छे काम की मैं इच्छा करता हूं, वह तो नहीं करता, परन्तु जिस बुराई की
इच्छा नहीं करता वही किया करता हूं।
रोमियों
7:20 परन्तु यदि मैं वही करता हूं, जिस की इच्छा नहीं करता, तो उसका करने
वाला मैं न रहा, परन्तु पाप जो मुझ में बसा हुआ है।
रोमियों
7:21 सो मैं यह व्यवस्था पाता हूं, कि जब भलाई करने की इच्छा करता हूं, तो
बुराई मेरे पास आती है।
रोमियों
7:22 क्योंकि मैं भीतरी मनुष्यत्व से तो परमेश्वर की व्यवस्था से बहुत प्रसन्न रहता
हूं।
रोमियों
7:23 परन्तु मुझे अपने अंगों में दूसरे प्रकार की व्यवस्था दिखाई पड़ती है, जो मेरी बुद्धि की व्यवस्था से लड़ती है,
और मुझे पाप की व्यवस्था के बन्धन में डालती है जो मेरे अंगों में है।
रोमियों
7:24 मैं कैसा अभागा मनुष्य हूं! मुझे इस मृत्यु की देह से कौन छुड़ाएगा?
रोमियों
7:25 मैं अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर का धन्यवाद करता हूं: निदान मैं
आप बुद्धि से तो परमेश्वर की व्यवस्था का, परन्तु शरीर से पाप की व्यवस्था का सेवन करता हूँ।
रोमियों 8:1 सो अब जो मसीह यीशु में हैं, उन पर दण्ड की आज्ञा नहीं: क्योंकि वे शरीर के अनुसार नहीं वरन आत्मा के अनुसार चलते हैं।
एक साल में बाइबल:
· भजन 140-142
· 1 कुरिन्थियों 14:1-20
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें