पाप का समाधान - उद्धार - 4
- किस
से - उद्धार या
बचाव पाप के दुष्प्रभावों से होना है, जिन के कारण
मनुष्यों में आत्मिक एवं शारीरिक मृत्यु, डर, अहं, दोष, लज्जा, परमेश्वर से दूरी, अपनी गलतियों के लिए बहाने
बनाना तथा दूसरों पर दोषारोपण करने, परमेश्वर की कृपा
को नजरंदाज करने जैसी प्रवृत्ति और भावनाएं आ गई हैं।
- क्यों - क्योंकि हमारा सृष्टिकर्ता
परमेश्वर हमारे पापों में पड़े हुए होने की दशा में भी,
हम सभी मनुष्यों से अभी भी प्रेम करता है, हमारे साथ
संगति में रखना चाहता है; वह चाहता है कि हम उस से मेल-मिलाप कर लें, और उसके पुत्र-पुत्री होने के दर्जे को स्वीकार कर लें (यूहन्ना 1:2-13)। वह हमें विनाश में नहीं आशीष में देखना चाहता है और अपने साथ
स्वर्ग में स्थान देना चाहता है। परमेश्वर की इस मनसा को स्वीकार करना अथवा
नहीं करना, प्रत्येक
मनुष्य का अपना निर्णय है।
आज से हम दूसरे प्रश्न,
“व्यक्ति इस उद्धार को कैसे प्राप्त कर सकता है?” पर विचार आरंभ करेंगे, और हमारे विचार का आधार बाइबल
की प्रथम पुस्तक, उत्पत्ति के 3 अध्याय
में दिया गया पहले पाप का विवरण ही रहेगा।
हम देख चुके हैं कि उद्धार, उस प्रथम पाप द्वारा
कार्यान्वित हुई विनाशक प्रक्रिया और उसके परिणामों को उलट कर वापस सृष्टि के
समय की हमारी प्रथम स्थिति में बहाल किए जाने, तथा परिणामस्वरूप परमेश्वर के साथ टूटी हुई इस संगति में
पुनः पहले के समान स्थापित हो जाना, तथा मृत्यु अर्थात
परमेश्वर से उस अनन्त दूरी से बच जाना है।
मनुष्य उद्धार कैसे प्राप्त करे के संदर्भ में कुछ अति-महत्वपूर्ण,
समझने के लिए अनिवार्य, एवं समाधान के लिए निर्णायक बातों पर ध्यान कीजिए:
- मनुष्य
के उस प्रथम पाप के कारण किसी धर्म के निर्वाह का उल्लंघन नहीं हुआ था –
क्योंकि जब वह प्रथम पाप हुआ, तब वहाँ कोई धर्म तो था ही नहीं! क्योंकि परमेश्वर का न तो कोई धर्म
है, और न ही परमेश्वर ने कभी कोई भी धर्म बनाया अथवा
बनवाया। संसार के सभी धर्म, ईसाई धर्म सहित, पाप में गिरे हुए मनुष्य के मन और विचारों की उपज हैं और पाप के कारण
मनुष्यों में आई हुई परमेश्वर से विमुख कर देने वाली प्रवृत्ति एवं मानसिकता, मनुष्य को परमेश्वर की ओर फेर देना वाला उपाय नहीं प्रदान कर सकती है “अशुद्ध वस्तु से शुद्ध वस्तु
को कौन निकाल सकता है? कोई नहीं” (अय्यूब 14:4)।
- इसीलिए, अपने सभी दावों और आश्वासनों के
बावजूद, आज तक कभी भी कोई भी धर्म किसी भी मनुष्य को
निष्पाप, पवित्र, और परमेश्वर के
समक्ष खड़ा होने योग्य नहीं बना सका है “हम तो सब के
सब अशुद्ध मनुष्य के से हैं, और हमारे धर्म के काम सब
के सब मैले चिथड़ों के समान हैं। हम सब के सब पत्ते के समान मुर्झा जाते हैं,
और हमारे अधर्म के कामों ने हमें वायु के समान उड़ा दिया है”
(यशायाह 64:6)।
- मनुष्य
को पाप से उभारने का एक मात्र उपाय पापों से पश्चाताप करना, उनके लिए प्रभु यीशु मसीह से
क्षमा माँगना, और स्वेच्छा तथा सम्पूर्ण समर्पण के साथ
प्रभु यीशु मसीह का शिष्य बनना, ईसाई या किसी धर्म में नहीं मसीही विश्वास में आना है, “इसलिये परमेश्वर अज्ञानता
के समयों में आनाकानी कर के, अब हर जगह सब मनुष्यों
को मन फिराने की आज्ञा देता है” (प्रेरितों 17:30)। “यदि तू अपने मुंह से यीशु को प्रभु जानकर
अंगीकार करे और अपने मन से विश्वास करे, कि परमेश्वर ने
उसे मरे हुओं में से जिलाया, तो तू निश्चय उद्धार
पाएगा। क्योंकि धामिर्कता के लिये मन से विश्वास किया जाता है, और उद्धार के लिये मुंह से अंगीकार किया जाता है” (रोमियों 10:9-10)।
- क्योंकि
पाप धर्म के उल्लंघन से नहीं है, इसलिए इसके निवारण में भी किसी भी धर्म का (वह चाहे कोई भी धर्म,
चाहे ईसाई धर्म ही क्यों न हो), कोई भी
स्थान या महत्व नहीं है “क्योंकि विश्वास के द्वारा अनुग्रह
ही से तुम्हारा उद्धार हुआ है, और यह तुम्हारी ओर से
नहीं, वरन परमेश्वर का दान है। और न कर्मों के
कारण, ऐसा न हो कि कोई घमण्ड करे” (इफिसियों 2:8-9)।
- समस्या
व्यक्तिगत रीति से परमेश्वर और मनुष्य के मध्य विश्वास में विच्छेद से
उत्पन्न हुई; आदम और हव्वा
ने व्यक्तिगत रीति से, अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार,
अनाज्ञाकारिता, अर्थात, पाप करने का निर्णय लिया। मनुष्य ने शैतान की बातों में आकर परमेश्वर
की कही बातों, उसके द्वारा मनुष्य के लिए दिए प्रावधानों, तथा मनुष्य के प्रति परमेश्वर
की इच्छा तथा योजना के सर्वोत्तम और भले होने पर अविश्वास किया; और इसी अविश्वास के अन्तर्गत मनुष्य ने अपनी समझ-बूझ, अपने आँकलन को परमेश्वर की समझ-बूझ और उसके आँकलन से बेहतर समझा,
जिसके कारण फिर उन्होंने परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता भी की।
- इसीलिए
प्रत्येक मनुष्य के पाप का समाधान भी परमेश्वर और प्रत्येक मनुष्य के मध्य
व्यक्तिगत रीति से विश्वास को पुनः
स्थापित करने के द्वारा ही
है।
- इसके
लिए अनिवार्य है कि प्रत्येक मनुष्य स्वेच्छा से परमेश्वर की हर बात को, हर बात के लिए परमेश्वर की
समझ-बूझ और हर बात के लिए परमेश्वर के आँकलन एवं समाधान को, अपनी बात, अपनी समझ-बूझ और अपने आँकलन से उत्तम
तथा सर्वोपरि स्वीकार करे, और अपने आप को, अपनी हर सोच-समझ, दृष्टिकोण, प्रवृत्ति, सूझ-बूझ और व्यवहार को पूर्णतः
परमेश्वर के हाथों में समर्पित कर दे।
- अपनी
नहीं वरन केवल और केवल परमेश्वर के कहे के अनुसार ही करे - उस आज्ञाकारिता की
दशा में आ जाए, जिसमें उसकी
रचना की गई थी, और जिसके निर्वाह के लिए उसे कहा गया
था।
हम इस प्रश्न पर विचार को
ज़ारी रखेंगे; किन्तु अभी के लिए आपके सामने यह प्रश्न है -
आप अपने आप को परमेश्वर के समक्ष ग्रहण योग्य किस प्रकार बना रहे हैं - अपने धर्म-कर्म
के द्वारा, अथवा प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास के द्वारा?
परमेश्वर के वचन बाइबल में दिया गया उद्धार का मार्ग केवल प्रभु
यीशु मसीह ही है “यीशु ने उस से कहा, मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं; बिना मेरे
द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुंच सकता” (यूहन्ना 14:6)। यदि आपने अभी तक उसे अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता स्वीकार नहीं किया है,
तो अभी यह करने का अवसर आपके पास है। आपकी स्वेच्छा, सच्चे मन और अपने पापों के लिए पश्चाताप के साथ की गई एक छोटी प्रार्थना,
“हे प्रभु यीशु, मैं मान लेता हूँ कि मैंने
मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता करके पाप किया है। मैं धन्यवाद
करता हूँ कि आपने मेरे पापों को अपने ऊपर लेकर, मेरे स्थान
पर उनके मृत्यु-दण्ड को कलवरी के क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा सह लिया।
आप मेरे स्थान पर मारे गए, और मेरे उद्धार के लिए मृतकों में
से जी भी उठे। कृपया मुझ पर दया करें और मेरे पाप क्षमा करें। मुझे अपना शिष्य बना
लें, और अपनी आज्ञाकारिता में अपने साथ बना कर रखें” आपको पाप के विनाश से निकालकर परमेश्वर के साथ संगति और उसकी आशीषों में
लाकर खड़ा कर देगी। क्या आप यह प्रार्थना अभी समय रहते करेंगे - निर्णय आपका है?
बाइबल पाठ: रोमियों 5:1-10
रोमियों 5:1 सो जब हम विश्वास से
धर्मी ठहरे, तो अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर के
साथ मेल रखें।
रोमियों 5:2 जिस के द्वारा विश्वास
के कारण उस अनुग्रह तक, जिस में हम बने हैं, हमारी पहुंच भी हुई, और परमेश्वर की महिमा की आशा पर
घमण्ड करें।
रोमियों 5:3 केवल यही नहीं,
वरन हम क्लेशों में भी घमण्ड करें, यही जानकर
कि क्लेश से धीरज।
रोमियों 5:4 ओर धीरज से खरा निकलना,
और खरे निकलने से आशा उत्पन्न होती है।
रोमियों 5:5 और आशा से लज्जा नहीं
होती, क्योंकि पवित्र आत्मा जो हमें दिया गया है उसके द्वारा
परमेश्वर का प्रेम हमारे मन में डाला गया है।
रोमियों 5:6 क्योंकि जब हम निर्बल
ही थे, तो मसीह ठीक समय पर भक्तिहीनों के लिये मरा।
रोमियों 5:7 किसी धर्मी जन के लिये
कोई मरे, यह तो र्दुलभ है, परन्तु क्या
जाने किसी भले मनुष्य के लिये कोई मरने का भी हियाव करे।
रोमियों 5:8 परन्तु परमेश्वर हम पर
अपने प्रेम की भलाई इस रीति से प्रगट करता है, कि जब हम पापी
ही थे तभी मसीह हमारे लिये मरा।
रोमियों 5:9 सो जब कि हम, अब उसके लहू के कारण धर्मी ठहरे, तो उसके द्वारा
क्रोध से क्यों न बचेंगे?
रोमियों 5:10 क्योंकि बैरी होने की
दशा में तो उसके पुत्र की मृत्यु के द्वारा हमारा मेल परमेश्वर के साथ हुआ फिर मेल
हो जाने पर उसके जीवन के कारण हम उद्धार क्यों न पाएंगे?
एक साल में बाइबल:
· भजन 137-139
· 1 कुरिन्थियों 13
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