आज्ञाकारिता -
परमेश्वर की, या मनुष्यों की?
पिछले लेख में हम
देख चुके हैं कि परमेश्वर की दृष्टि में, उसके प्रति मनुष्य
की आज्ञाकारिता ही सबसे महत्वपूर्ण और अनिवार्य बात है। कोई मनुष्य अपनी स्वेच्छा
से, या अपने बनाए विधि-विधानों, रीति-रिवाज़ों,
और तौर-तरीकों से परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकता है। यदि मनुष्य
परमेश्वर को प्रसन्न करना चाहता है, तो उसे वही और वैसा ही
करना होगा, जैसा परमेश्वर ने करने को कहा है। उसके अतिरिक्त
अन्य कुछ भी, वह चाहे कितना भी उत्तम, भक्तिपूर्ण,
और मानवीय बुद्धि एवं समझ के अनुसार भला और प्रशंसनीय क्यों न हो,
परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकता है; और इस
उद्देश्य के लिए व्यर्थ है। मसीही जीवन और मसीही सेवकाई में भी, तथा मसीही सेवकाई में पवित्र आत्मा द्वारा दिए गए वरदानों के उचित उपयोग
में भी यह बात इतनी ही महत्वपूर्ण है। इसलिए मसीही विश्वासियों और सेवकाई में लगे
लोगों को यह जानना और समझना बहुत आवश्यक, अनिवार्य है कि वे
मसीह के नाम में, अपनी इच्छा के अनुसार कुछ करके, परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकते हैं, चाहे उनके वे
कार्य मनुष्यों की दृष्टि में कितने भी प्रशंसनीय, लोगों के
लिए लाभकारी, और भक्तिपूर्ण क्यों न दिखाई दें।
प्रभु यीशु मसीह ने स्वयं अपने जीवन से
इस आज्ञाकारिता के महत्व को दिखाया, और शिष्यों को सिखाया भी। प्रभु यीशु का समस्त मानवजाति के
लिए पापों की क्षमा और उद्धार का मार्ग बनाकर देने के लिए पृथ्वी पर आगमन ही
परमेश्वर की इच्छा में, परमेश्वर के वचन में पहले से प्रभु
के विषय लिखी गई बातों की पूर्ति के लिए था (इब्रानियों 10:5-7; 1 कुरिन्थियों 15:1-4; लूका 24:44; यूहन्ना 5:39)। अपने पृथ्वी के जीवन के दौरान,
प्रभु ने यह स्पष्ट किया कि वह अपनी इच्छा नहीं, वरन परमेश्वर पिता की इच्छा के अनुसार कार्य करता है, जैसा पिता परमेश्वर बताता है, वही कहता है और वैसे
ही कार्य करता ही (यूहन्ना 4:34; 5:19, 30; 6:38; 8:28)।
इसीलिए प्रभु यीशु को उदाहरण बनाकर मसीही सेवकों के लिए लिखा गया है, “जैसा मसीह यीशु का स्वभाव था वैसा ही तुम्हारा भी स्वभाव हो। जिसने
परमेश्वर के स्वरूप में हो कर भी परमेश्वर के तुल्य होने को अपने वश में रखने की
वस्तु न समझा। वरन अपने आप को ऐसा शून्य कर दिया, और दास का स्वरूप
धारण किया, और मनुष्य की समानता में हो गया। और मनुष्य के
रूप में प्रगट हो कर अपने आप को दीन किया, और यहां तक
आज्ञाकारी रहा, कि मृत्यु, हां,
क्रूस की मृत्यु भी सह ली। इस कारण परमेश्वर ने उसको अति महान भी
किया, और उसको वह नाम दिया जो सब नामों में श्रेष्ठ है”
(फिलिप्पियों 2:5-9)।
प्रभु यीशु के पृथ्वी के समय पर जो लोग
परमेश्वर के वचन के ज्ञाता, धर्म के अगुवे, और परमेश्वर के मंदिर
के अधिकारी माने जाते थे, उन्होंने परमेश्वर के वचन में,
अपनी समझ और इच्छा के अनुसार अपनी ही व्याख्या और अर्थ डाल देने के
द्वारा, बहुत से “संशोधन” कर लिए थे, जिससे उनके लिए परमेश्वर के वचन का
निर्वाह करना अधिक सुविधाजनक एवं लाभकारी हो जाए। वे लोग जन-सामान्य को अपनी यही
व्याख्या और अर्थ सिखाया और समझाया करते थे; और लोगों को यही
कहते थे कि जो वो कह रहे हैं, उन्हें वही मानना है और वैसा
ही करना है। और आज भी मसीही या ईसाई धर्म के निर्वाह में यही स्थिति देखी जाती है।
मत-समुदाय-डिनॉमिनेशंस के अगुवे और अधिकारी जो और जैसा बोल देते हैं, उस मण्डली के लोग वह और वैसा करते हैं। आज भी जन-साधारण के लोगों के लिए
परमेश्वर के वचन को जानना और मानना उतना महत्व नहीं रखता है जितना अपने
मत-समुदाय-डिनॉमिनेशंस के अगुवे और अधिकारियों की कही बातों और शिक्षाओं को जानना
और मानना रखता है। ये लोग यह भूल जाते हैं कि अन्ततः उन्हें अपने न्याय के लिए,
अपने जीवन का हिसाब देने के लिए प्रभु यीशु मसीह के सामने खड़े होना
पड़ेगा, और उनके साथ ही उनके ये अगुवे और अधिकारी भी अपनी गलत
शिक्षाओं एवं धारणाओं के लिए हिसाब देने के लिए प्रभु के सामने खड़े होंगे। क्योंकि
हम सभी का न्याय तो परमेश्वर के वचन के अनुसार होगा (यूहन्ना 5:45-46;12:48),
न कि किसी मत-समुदाय-डिनॉमिनेशंस के अगुवे और अधिकारियों की बातों
और शिक्षाओं के अनुसार।
प्रभु यीशु ने अपने समय के इन
धर्म-अधिकारियों की उनके इस व्यवहार के लिए भर्त्सना करते हुए उन्हें कपटी कहा और
यशायाह नबी की कही बात स्मरण करवाई, “हे कपटियों, यशायाह ने तुम्हारे
विषय में यह भविष्यवाणी ठीक की। कि ये लोग होंठों से तो मेरा आदर करते हैं,
पर उन का मन मुझ से दूर रहता है। और ये व्यर्थ मेरी उपासना करते हैं,
क्योंकि मनुष्यों की विधियों को धर्मोपदेश कर के सिखाते हैं”
(मत्ती 15:7-9)। जब प्रभु के शिष्यों ने प्रभु
से कहा कि उन धर्म-अधिकारियों को प्रभु की कही बात रास नहीं आई थी, तो प्रभु ने भी अपने शिष्यों को बता दिया, कि उन
धर्म-अधिकारियों की कोई बात बचेगी नहीं, सभी मिटा दी जाएंगी “तब चेलों ने आकर उस से कहा, क्या तू जानता है कि
फरीसियों ने यह वचन सुनकर ठोकर खाई? उसने उत्तर दिया,
हर पौधा जो मेरे स्वर्गीय पिता ने नहीं लगाया, उखाड़ा जाएगा” (मत्ती 15:12-13)। इसीलिए अपने पहाड़ी उपदेश (मत्ती 5-7 अध्याय) में
प्रभु ने अपने अनुयायियों से बारंबार उस समय की प्रचलित गलत शिक्षाओं के विषय कहा,
“तुम सुन चुके हो”, और फिर उन शिक्षाओं का सही
स्वरूप बताते हुए कहा “परंतु मैं तुम से कहता हूँ” - प्रभु उन्हें सिखा रहा था कि मनुष्यों द्वारा बताई और सिखाई जाने वाली
बातों पर नहीं वरन परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को सीखो और उनका पालन करो। और
आज हमें परमेश्वर के वचन को सिखाने और समझाने के लिए प्रभु ने अपना पवित्र आत्मा
हम में सर्वदा रहने के लिए प्रदान किया है (यूहन्ना 14:16, 26; 16:13, 14)। यदि हम उसके द्वारा किए गए इस प्रावधान का सदुपयोग नहीं करेंगे, और स्वेच्छा से गलत शिक्षाओं एवं मनुष्यों द्वारा गढ़ी गई बातों के निर्वाह
में ही लगे रहेंगे, तो अन्ततः होने वाली हमारी हानि के लिए हमारे अतिरिक्त और कौन ज़िम्मेदार होगा?
यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह अनिवार्य है कि परमेश्वर के वचन को पढ़ने, अध्ययन करने और सीखने, तथा उसका पालन करने में समय बिताएं। तब ही आप अपनी मसीही सेवकाई का ठीक से निर्वाह करने पाएंगे, पवित्र आत्मा द्वारा आपको इस सेवकाई के लिए दिए गए वरदानों का सही उपयोग करने पाएंगे, और परमेश्वर को प्रसन्न करने वाले तथा उसके लिए उपयोगी ऐसे जन बनने पाएंगे, जिनके साथ प्रभु परमेश्वर रहता है (यूहन्ना 14:21, 23)। गंभीरता से विचार कीजिए, यदि स्वयं प्रभु यीशु के लिए अपने समय के धर्म-अधिकारियों के बैर को आमंत्रित करते हुए भी, उनकी सभी गलत शिक्षाओं और मन-गढ़न्त धारणाओं और मनुष्यों की गढ़ी हुई बातों से हट कर, परमेश्वर की आज्ञाकारिता एवं उसके समर्पण का जीवन जीना अनिवार्य था, तो मैं और आप यह करने से कैसे बच सकते हैं? इसलिए, अपने आत्मिक वरदानों के उचित उपयोग के लिए मनुष्यों के नहीं, परमेश्वर के आज्ञाकारी बनिए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- दानिय्येल
3-4
- 1 यूहन्ना 5
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