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मसीही विश्वासी - क्रूस उठाकर चलने के लिए तैयार रहता है
सुसमाचारों में दिए गए प्रभु यीशु मसीह के शिष्य के गुणों में से यह छठा गुण है कि मसीही विश्वासी, प्रभु यीशु के कहे के अनुसार, अपना इनकार करते हुए प्रतिदिन अपना क्रूस उठाकर चलने को तैयार रहता है। प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों से कहा है:
- लूका 9:23 उसने सब से कहा, यदि कोई मेरे पीछे आना चाहे, तो अपने आप से इनकार करे और प्रति दिन अपना क्रूस उठाए हुए मेरे पीछे हो ले।
- लूका 14:27 और जो कोई अपना क्रूस न उठाए; और मेरे पीछे न आए; वह भी मेरा चेला नहीं हो सकता।
आज “क्रूस उठाकर चलना” एक मुहावरा बन कर रह गया है, और इससे उसका महत्व बहुत कम हो गया है। लोग किसी भी व्यक्तिगत कठिनाई, संकट, परेशानी, को अपना क्रूस बताने लगे हैं, और कठिनाइयों को झेलने को क्रूस उठाना कहने लगे हैं। किन्तु इसका वास्तविक और सही तात्पर्य बिल्कुल भिन्न है। वाक्यांश “क्रूस उठाकर चलना” के वास्तविक अर्थ को समझने के लिए इसके ऐतिहासिक अभिप्राय एवं प्रयोग को देखना होगा। प्रभु यीशु मसीह की पृथ्वी की सेवकाई के दिनों में क्रूस समाज के सबसे निकृष्ट और जघन्य अपराधियों को एक बहुत क्रूर और पीड़ादायक मृत्यु देने का तरीका था, जिसमें अपराधी बहुत धीरे-धीरे किन्तु अत्यधिक पीड़ा के साथ क्रूस पर टंगे-टंगे मरता था, कई बार उसे मरने में एक दिन से भी अधिक का समय लग जाता। क्रूस पर चढ़ाए जाने से पहले उस अपराधी को कोड़े मारने, पीटने, आदि के द्वारा सैनिक यातनाएं देते थे, फिर उस घायल अवस्था में उसी से उसका काठ का बना भारी क्रूस उठवाकर उसे मारे जाने के सार्वजनिक स्थान पर ले जाते थे, जहाँ पर फिर उसे नंगा कर के उसके हाथों और पैरों को काठ पर ठोक कर, उसे धीरे-धीरे मरने के लिए छोड़ दिया जाता था, और मरने के समय तक उसका उपहास, और उसे यातना देना चलता रहता था।
इसलिए उस समय के समाज में जब लोग किसी को क्रूस उठाए जाते हुए देखते थे, तो उनके लिए उसमें कुछ बातें निहित और स्पष्ट होती थीं। देखने वाले जानते और समझते थे कि:
वह व्यक्ति कोई बहुत जघन्य अपराधी है
उसने कुछ बहुत घृणित और निंदनीय कार्य किए हैं
इस कारण वह निन्दा, उपहास, और मृत्यु दण्ड के योग्य है
जहाँ वह व्यक्ति जा रहा है, वहाँ से अब वह जीवित वापस नहीं आएगा, केवल उसकी लाश ही लाई जाएगी।
प्रभु यीशु मसीह पर इनमें में से कोई भी बात लागू नहीं होती थी, फिर भी प्रभु ने अपनी ईश्वरीय महिमा, अपने स्वर्गीय वैभव, अपने परमेश्वरत्व के स्तर एवं सम्मान को छोड़ कर, यह सब, मेरे, आपके, और समस्त संसार के सभी लोगों के उद्धार का मार्ग बनाने के लिए, स्वेच्छा से, परमेश्वर पिता की आज्ञाकारिता में (इब्रानियों 10:5-7; यूहन्ना 4:34; 6:38), सहना स्वीकार कर लिया, और सह लिया।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जब प्रभु ने अपने शिष्यों से कहा कि उनके पीछे आने के लिए वे प्रतिदिन अपना क्रूस उठाकर उनके पीछे चलने के लिए तैयार रहें, तो उनका क्या अर्थ रहा होगा। प्रकट है कि प्रभु का अर्थ किसी व्यक्ति के द्वारा अपनी किसी व्यक्तिगत समस्या के लिए कठिनाई अथवा परेशानी का सामना करना नहीं था। स्वाभाविक अर्थ है कि जो भी प्रभु यीशु का शिष्य बनना चाहे, उनका अनुसरण करना चाहे, जैसे परमेश्वर की आज्ञाकारिता में प्रभु ने संसार और समाज से अनुचित और अकारण उपहास, निन्दा और अत्यधिक यातनाएं सहीं, उसी प्रकार वह शिष्य भी, मत्ती 10:16-20 तथा रोमियों 8:17-18 के अनुसार, प्रभु के अनुसरण, परमेश्वर के वचन की आज्ञाकारिता, और सुसमाचार प्रचार के लिए, प्रतिदिन:
अकारण अपमानित होने और निन्दा सहने के लिए तैयार रहे
लोगों के हाथों मारे-पीटे, यातनाएं दिए जाने, और दुख उठाने के लिए तैयार रहे
अपने प्राणों तक को बलिदान करने के लिए तैयार रहे (यूहन्ना 16:1-2)
अर्थात, जब प्रभु यीशु का शिष्य प्रभु की सेवकाई के लिए, प्रभु की आज्ञाकारिता में, घर से बाहर निकले तो किसी भी दुर्दशा, अथवा मृतक अवस्था में वापस लौटने के विचार के साथ निकले; और यह उसके लिए एक-दो दिन, अथवा यदा-कदा की नहीं, वरन प्रतिदिन की बात हो। साथ ही उसके अन्दर अपने लिए कोई महत्वाकांक्षा, किसी आदर-सम्मान को पाने, लोगों में कुछ स्तर रखने, अपने आप को किसी योग्य अथवा कुछ समझने की भावना न हो। उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य हर बात और हर परिस्थिति में, उन सभी के द्वारा, केवल परमेश्वर को आदर और महिमा देना होना चाहिएए।
यदि आप प्रभु यीशु मसीह के शिष्य हैं, तो प्रभु यीशु की शिष्यता की इस कसौटी पर आज अपने आप को कहाँ खड़ा हुआ पाते हैं? क्या आप वास्तव में प्रभु यीशु के पीछे चलने में उसके लिए, उसके वास्तविक अर्थ में, अपना क्रूस उठाने के लिए तैयार हैं; या यह आपके लिए केवल एक वाक्यांश है, जिसका वास्तविक निर्वाह आपको संभव नहीं लगता है? क्या अपने आप को प्रभु यीशु का शिष्य कहना आप के लिए एक औपचारिकता निभाना है, या आप सच्चे मन से उसके समर्पित और आज्ञाकारी शिष्य हैं?
और यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 20-22
प्रेरितों 21:1-17
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Christian Believer – Willing to Bear the Cross
The sixth characteristic of a disciple of the Lord Jesus, given in the Gospels is that the Christian Believer, as stated by the Lord Jesus, is always ready, for the Lord, for self-denial, and be willing to take up his cross daily. The Lord Jesus said to His disciples:
Luke 9:23 “Then He said to them all, "If anyone desires to come after Me, let him deny himself, and take up his cross daily, and follow Me.”
Luke 14:27 “And whoever does not bear his cross and come after Me cannot be My disciple.”
Today “carrying the cross” has become a phrase, and people often do not understand its meaning or importance. Usually, now-a-days, if anyone faces any problem, adversity, difficulty, etc., they start calling it their “cross”, and having to pass through any difficult circumstances is called “carrying the cross.” But the actual and true meaning of what the Lord said to His disciples is entirely different from any of this current and popular interpretation of this phrase. To understand the real meaning of this phrase, “carrying or bearing the cross”, we will have to step back in time, and see what it was actually used for in the days of the earthly ministry of the Lord. At the time the Lord Jesus Christ ministered on earth in a physical form, death by crucifixion was meant to be the most gruesome and painful death, and this penalty was given to the most heinous and depraved criminals. The criminal, condemned to death by crucifixion, died a very slow and very agonizing death, while hanging on the cross; and at times it would take him more than one day to die, all this while he hung on the cross, and suffered extremely. Before being crucified, the soldiers would first scourge him severely, and torture him in different ways; then in that wounded condition, the criminal would be made to lift his heavy wooden cross and carry it to the place where he was to be crucified, where he was then stripped naked, his hands and feet were nailed to the cross, and he was left hanging there to gradually die in torment. Till he died, the condemned criminal was subjected to a continual ridicule and verbal abuse; and was taken off the cross only after he had died.
Therefore, at that time, when the people of the community saw someone going, carrying a cross, then they knew and understood certain things about that person; that:
He is a heinous and depraved criminal
He has committed some very serious and deplorable crimes
For those crimes he is worthy of ridicule, abuse, and the death penalty
Where that person is headed, carrying the cross, from there he will never return; only his dead body might be brought back
None of the above was true or applicable for the Lord Jesus, but still, the Lord Jesus had left His heavenly glory, majesty, divinity, and honor, and come down to earth, knowing that He will have to suffer all of this. He willingly allowed Himself to be treated in this deplorable manner, for you, me, and for all the people of the world, the entire mankind, in obedience to God the Father (Hebrews 10:5-7; John 4:34; 6:38), so that He could prepare and provide the way of salvation and reconciliation with God for the entire mankind. Also, please bear in mind that when the Lord Jesus had said this phrase to His disciples, He had not yet been crucified; His crucifixion was till a future event. So, the disciples could have only understood the Lord’s statement in context of what they saw happening to others.
On the basis of these facts about crucifixion we can infer what He would have meant when the Lord asked His disciples to be willing to daily bear or carry their cross, in their being willing to follow Him. It is evident that the Lord was not talking about anyone’s individual problems or difficulties here. It is a natural conclusion that what the Lord meant to say was that His follower must be ready and prepared to be obedient to God, and for that obedience be willing to suffer ridicule, abuse, humiliation, and persecution to any extent possible - just as the Lord Jesus was obedient to God and suffered it all. As it says in Matthew 10:16-20 and Romans 8:17-18, a Christian Believer, a true disciple of the Lord should daily be willing to:
Be insulted, humiliated, and dishonored without any reason or cause
Be ready to be beaten up, persecuted, and made to suffer by the people of the world, even though he has done no wrong
Be prepared to be even be killed for being a follower of Christ Jesus (John 16:2).
In other words, when a committed and obedient disciple of the Lord Jesus, steps out of his house in obedience to the Lord, then he should do so expecting any of the above to happen to him at any time, and that he may not even come back home alive; and this will not be for a day or two, or something that would happen occasionally, but he should expect it to be a daily happening! Moreover, as a disciple of the Lord, he should not harbor any desires or expectations of recognition, honor, status etc. from the people, nor should he think of having any abilities, or have any ambitions and aspirations of being acknowledged and exalted in any way. The aim of his life should always be to glorify God in and through everything.
If you are a disciple of the Lord, then on the basis of this sixth characteristic, by self-evaluation, where do you see yourself to be? Are you really willing and ready to “bear or carry your cross” daily for the sake of the Lord; or is this merely a phrase for you, which you find difficult to live up to, in actual practice? Is being a disciple of the Lord Jesus only the fulfilling of some religious formalities for you; or are you actually a truly committed and obedient disciple of the Lord Jesus?
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 20-22
Acts 21:1-17
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