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शनिवार, 24 सितंबर 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - उसको “मसीह” स्वीकार करने पर / The Church, or, Assembly of Christ Jesus - On Accepting Him to be the “Christ”


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वास्तविक कलीसिया प्रभु यीशु को “मसीह” स्वीकार करने वालों से है

 

पिछले लेखों में हमने परमेश्वर के वचन बाइबल में सबसे पहली बार “कलीसिया” शब्द के प्रयोग के पद - “और मैं भी तुझ से कहता हूं, कि तू पतरस है; और मैं इस पत्थर पर अपनी कलीसिया बनाऊंगा: और अधोलोक के फाटक उस पर प्रबल न होंगे” (मत्ती 16:18) के विश्लेषण से कलीसिया से संबंधित कुछ अति महत्वपूर्ण बातों को देखा और समझा था। सबसे पहले हमने देखा था कि बाइबल के अनुसार, कलीसिया शब्द का अर्थ कोई विशिष्ट भौतिक भवन अथवा आराधना स्थल नहीं है, वरन बुलाए गए या एकत्रित किए गए लोगों का समूह है। फिर हमने देखा और समझा था कि यह पद एक बहुत आम किन्तु बिलकुल गलत धारणा, कि प्रभु ने यहाँ पर अपनी कलीसिया को पतरस पर बनाने के लिए कहा है का कदापि समर्थन नहीं करता है। हमने यह भी देखा था अकी कलीसिया किसी मनुष्य पर नहीं, वरन प्रभु यीशु मसीह और परमेश्वर के द्वारा उसके प्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओं में होकर दिये गए प्रभु के वचन पर स्थापित की गई है। पतरस से संबंधित इस गलत धारणा के विषय विस्तार से देखते हुए हमने यहाँ पर प्रभु के द्वारा कहे शब्द “इस पत्थर” और उसके वास्तविक अर्थ को समझा था, तथा यह भी देखा था कि वचन के अन्य किसी भी भाग में इस बात का कोई संकेत भी नहीं है कि प्रभु यीशु ने पतरस पर कलीसिया बनाने की बात कही, और न ही पतरस के मसीही व्यवहार में वह स्थिरता एवं दृढ़ता थी कि प्रभु की कलीसिया उस पर बनाई जा सके। कलीसिया के वास्तविक अर्थ और पतरस के कलीसिया का आधार नहीं होने के स्पष्ट हो जाने के बाद, अब हम इस पद में प्रभु द्वारा कही गई और बातों को देखेंगे तथा समझेंगे, जिससे प्रभु द्वारा लोगों को मसीही विश्वास में बुलाने और उनके जीवनों से प्रभु के प्रयोजन को, उसके उद्देश्यों को हम भली-भांति समझ सकें।

 

मत्ती 16:18 में पतरस से संबंधित बात कहने के पश्चात, प्रभु यीशु का अगला वाक्य था, “...और मैं इस पत्थर पर अपनी कलीसिया बनाऊंगा…”। हम पहले देख चुके हैं कि “इस पत्थर” से प्रभु का अभिप्राय पतरस द्वारा मत्ती 16:16 में कही गई बात है कि “... तू जीवते परमेश्वर का पुत्र मसीह है”, जिसका अनुमोदन प्रभु ने पद 17 में किया, जिसके लिए पतरस को धन्य भी कहा, और यह भी कहा कि पतरस को यह प्रभु यीशु के विषय परमेश्वर द्वारा दिया गया स्वर्गीय दर्शन है, उसकी अपनी समझ अथवा बुद्धि की बात नहीं है। मत्ती 16:18 में प्रभु इसी दर्शन के अनुसार अपने द्वारा बुलाए हुए लोगों को एक समूह में एकत्रित करने, अपनी कलीसिया बनाने की बात करता है। मत्ती 16:18 की और बातों को आगे देखने से पहले यह बात समझना और ध्यान में रखना अनिवार्य है कि पतरस द्वारा पद 16 में कही गई बात कि “... तू जीवते परमेश्वर का पुत्र मसीह है” क्यों परमेश्वर द्वारा पतरस को दिया गया एक स्वर्गीय दर्शन है, और क्यों यह बात इतनी महत्वपूर्ण है कि यही प्रभु द्वारा उसकी कलीसिया के बनाए जाने का आधार ठहरेगी।


ध्यान कीजिए कि पतरस द्वारा मत्ती 16:16 में कही गई बात, “... तू जीवते परमेश्वर का पुत्र मसीह है” में प्रभु के लिए उसका नाम “यीशु” प्रयोग नहीं किया गया है, जबकि “यीशु” ही उसका नाम था, जो स्वर्गदूत ने यूसुफ को बताया था (मत्ती 1:20-21)। इसलिए यहाँ पर पतरस द्वारा यह कहना कि  “... तू जीवते परमेश्वर का पुत्र यीशु है” अधिक उचित एवं सही होता। किन्तु न तो पतरस ने यह कहा, न ही प्रभु ने उसे सुधार के उससे यह कहलवाया, अपितु, उसकी इसी बात के लिए उसे सराहा और उसे धन्य कहा, तथा इसी बात को पिता परमेश्वर द्वारा उसे प्रदान किया गया स्वर्गीय दर्शन बताया। यह कलीसिया की सही समझ प्राप्त करने के लिए अनिवार्य और अत्यावश्यक तथ्य है जिसकी अवहेलना करने के द्वारा कलीसिया के विषय अनेकों गलफहमियाँ ईसाई या मसीही समाज में व्याप्त हो गई हैं, शैतान ने फैला दी हैं। पतरस द्वारा “यीशु” के स्थान पर “मसीह” प्रयोग करने का क्या अर्थ एवं महत्व है?

 

आम धारणा के विपरीत, “मसीह” प्रभु का नाम नहीं है; वरन यह प्रभु को उसके कार्य एवं उद्देश्य के लिए दी गई उपाधि या पहचान है। “मसीह”, या अंग्रेजी का “Christ” शब्द मूल यूनानी भाषा के “Christos” शब्द से हैं; और “Christos” शब्द का शब्दार्थ होता है किसी विशेष कार्य के लिए अभिषिक्त या मस्सा किया हुआ, या अंग्रेजी में “the Anointed one”; और हिन्दी के “मस्सा किया हुआ” से ही “मसीह” शब्द आया है। अर्थात जब पतरस ने प्रभु के प्रश्न के उत्तर में कहा कि “... तू जीवते परमेश्वर का पुत्र मसीह है”, तो वास्तव में पिता परमेश्वर ने पतरस से प्रभु यीशु के लिए कहलवाया था कि “तू ही वह परमेश्वर का पुत्र है जो अभिषिक्त या मस्सा किया हुआ है” - पतरस पर पिता परमेश्वर द्वारा प्रभु यीशु के परमेश्वर का पुत्र और जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता होने का दर्शन प्रकट किया गया, और उसने इस दर्शन को अपने शब्दों में बोल दिया। और तब प्रभु यीशु ने पतरस द्वारा कहे गए इस वाक्य को वह “पत्थर”, अर्थात वह ‘पेत्रा’, या वह “स्थिर, दृढ़, और अडिग चट्टान” कहा जिस पर वह अपनी कलीसिया, या अपने बुलाए और एकत्रित किए हुए लोगों के समूह को स्थापित करने जा रहा था; अर्थात प्रभु के कहने का अभिप्राय था कि “जो भी इस विश्वास के साथ उसके पास आएगा कि केवल प्रभु यीशु ही परमेश्वर का पुत्र और पिता परमेश्वर की ओर से ठहराया हुआ, अभिषिक्त किया हुआ जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता है, वही और केवल वही उसके एकत्रित किए हुओं में सम्मिलित होगा, उनके लोगों का एक भाग होगा”। प्रभु की कलीसिया का सदस्य होने के लिए इस वाक्य के महत्व पर ध्यान कीजिए, उस को समझिए, और आज “कलीसिया” या “चर्च” से संबंधित कई गलत धारणाओं की सच्चाई प्रकट हो जाएगी।


साथ ही अपने आप को उस समय की स्थिति में लाकर पतरस द्वारा कही गई इस बात, तथा उसके बाद प्रभु के प्रत्युत्तर के झकझोर देने वाले प्रभाव पर भी विचार कीजिए। व्यवस्थाविवरण 18:15, 18 में मूसा ने इस्राएलियों से अपने समान एक परमेश्वर के नबी के आने की बात कही थी, और फिर परमेश्वर की ओर से भविष्यद्वक्ता उसके आने की भविष्यवाणियाँ करते चले आ रहे थे। प्रभु यीशु की पृथ्वी की सेवकाई के दिनों में लोगों में एक उत्साह और आशा थी, कि परमेश्वर द्वारा प्रतिज्ञा किया हुआ मसीहा आने वाला है, हालात संकेत कर रहे थे कि वह अब कभी भी आ जाएगा, जैसा सामरी स्त्री ने कहा (यूहन्ना 4:25, 29), तथा यहूदियों में भी एक प्रत्याशा थी (यूहन्ना 6:14; 7:41)। पतरस से उसके भाई अंद्रियास ने आरंभ में ही यीशु के मसीहा होने की बात कह दी थी (यूहन्ना 1:41); और सामरी स्त्री की बात सुनकर तथा प्रभु यीशु को स्वयं अनुभव कर के सामरिया के उस गाँव के लोग भी मान गए थे कि यीशु ही मसीह है (यूहन्ना 4:39, 42)। किन्तु अभी तक प्रभु यीशु ने कभी उन लोगों के द्वारा उसका वह प्रतिज्ञा किए हुए मसीहा होने की बात को जानने और मानने को ऐसा महत्व नहीं दिया था, जितना अब पतरस को परमेश्वर से मिले प्रकाशन के द्वारा यह कहने पर दिया।

 

पतरस तथा प्रभु के शिष्यों के लिए प्रभु द्वारा पतरस की बात को पिता परमेश्वर द्वारा दिया गया स्वर्गीय दर्शन बताना, और इसे आधार बनाकर अपने शिष्यों को एकत्रित करने की बात करना प्रभु यीशु द्वारा कही गई एक अभूतपूर्व बात थी। अब और यहाँ से, यह मानवीय समझ और धारणाओं से निकलकर ईश्वरीय पुष्टि के साथ उन शिष्यों के भविष्य को निर्धारित करने वाली बात हो गई थी। प्रभु ने अभी तक के अपने किसी भी शिष्य को इस विश्वास के आधार पर नहीं बुलाया था। उसने पतरस को और कुछ अन्य शिष्यों को “मनुष्यों को पकड़ने वाला” (मत्ती 4:19; लूका 5:10) बनाने के आश्वासन के साथ तो बुलाया था, किन्तु किसी के लिए यह नहीं कहा था कि जब तक वह उसे परमेश्वर का पुत्र और जगत का परमेश्वर द्वारा निर्धारित एकमात्र उद्धारकर्ता स्वीकार नहीं कर लेते हैं, वे उसके जन नहीं हो सकते हैं; यदि कहा होता तो संभवतः यहूदा इस्करियोती आरंभ में ही बाहर हो गया होता! किन्तु अब प्रभु उनसे और आने वालों उसके लोगों के लिए कह रहा था कि केवल वही उसका बुलाया हुआ और उसके साथ रहने के लिए एकत्रित किया हुआ होगा जो उसे परमेश्वर का पुत्र और परमेश्वर द्वारा नियुक्त जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता स्वीकार करेगा। प्रभु यीशु की इस बात के कारण संभवतः उन शिष्यों के मनों में एक खलबली मच गई होगी, वे अपने आप को देखने लगे होंगे कि क्या हम इस कसौटी पर खरे उतरते हैं कि नहीं? थोड़ा थम कर विचार कीजिए क्या पतरस की कही इस बात की समझ आपके मन में भी यही खलबली मचा रही है? आप अपने आप को मसीही किस आधार पर कहते हैं? मनुष्यों के ज्ञान की बातें नहीं, परमेश्वर की बातें ही मनों को टटोलती हैं, झकझोरती हैं, मनों की वास्तविकता को सामने लाती हैं (इब्रानियों 4:12)


यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं तो क्या आप का मसीही होना, अपने आप को मसीही विश्वासी कहना, पतरस द्वारा कही गई, और प्रभु द्वारा अनुमोदित की गई इसी बात, इसी स्वर्गीय दर्शन पर आधारित है? या आपने जिस परिवार में जन्म लिया है और किसी डिनॉमिनेशन अथवा मत या समुदाय की रीतियों और मान्यताओं के पालन के द्वारा अपने आप को “मसीही” समझते आ रहे हैं? 2 कुरिन्थियों 13:5 के अनुसार, अपने आप को परख कर देखें कि आप सच्चे मसीही विश्वास में हैं कि नहीं? कहीं आप किसी भ्रम में जीते आ रहे हों, और अंततः जब सच्चाई समझ में आए, आँख खुले, तब तक बहुत देर हो चुकी हो।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।



एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • श्रेष्ठगीत 4-5 

  • गलातियों 3


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English Translation

Of Those who Accept Jesus as “Christ”


In the previous article we had seen, analyzed, and understood some very important truths about the Church of the Lord Jesus Christ from the Lord’s statement “And I also say to you that you are Peter, and on this rock I will build My church, and the gates of Hades shall not prevail against it” (Matthew 16:18), in which the word Church has been used for the very first time in the Bible. First, we had seen that according to the Bible, the word Church does not stand for any building, place of worship, or an organization; rather it means a group of ‘called out people.’ We then saw that this verse does not at all support or imply a very commonly held misunderstanding that the Lord, here, was talking about building His Church on Peter. We also saw that the Church is founded not on any man, but on the Lord Jesus and His Word - the teachings given by God through His apostles and prophets. Considering the wrong notion about Peter in detail, we had understood the actual meaning of the words “this rock” used by the Lord Jesus, and had taken note of the fact that nowhere else in God’s Word has it ever been mentioned or even indicated that the Lord ever said anything about building His Church on Peter. We had also seen how the Christian life and behavior of Peter does not exhibit the firmness and qualities required to be the foundation for building the Church of Lord Jesus Christ. Having understood the actual meaning of the word “Church” and why the Church is not built on Peter, we will now look at and understand the other things said by the Lord in this verse, so that we can clearly understand the calling of the people by Lord Jesus into Christian Faith, His purpose for their lives, and what He is accomplishing through them.


In Matthew 16:18, after saying the part related to Peter, the next thing the Lord Jesus said was “...on this rock I will build My church...” We have already seen that the words “this rock” are meant for what Peter had stated in Matthew 16:16 that “...You are the Christ, the Son of the living God” which the Lord not only affirmed in verse 17, but also appreciated Peter and commended him for saying this, and said that his saying so was a heavenly revelation to him God the Father. In Matthew 16:18, the Lord Jesus is talking about gathering His called-out ones according to this heavenly revelation together, to form His Church. Before looking at the other things said in Matthew 16:18, it is necessary to understand and bear in mind why what Peter said in verse 16, “...You are the Christ, the Son of the living God”, is a heavenly revelation, and why this statement is so important that it would be the basis of the Lord building His Church.


Take note that in what Peter said in Matthew 16:16 “...You are the Christ, the Son of the living God”, he did not use the proper noun, the actual name of the Lord, “Jesus”, which was the name of the Lord, and which the angel had told his earthly father Joseph, would be his name (Matthew 1:20-21). Therefore, it would have been more appropriate and specific for Peter to have said “...You are Jesus, the Son of the living God.” But not only did Peter not say this, the Lord also did not correct him and had him say it. Rather, the Lord appreciated and commended Peter for what he said and called his statement a heavenly revelation given to Him by God. This is a very basic and important fact that is very necessary to learn and understand, to have a proper understanding of the Church. Because of neglecting to pay attention to it, because of ignoring it, many wrong doctrines and false teachings related to the Church have become rampant in Christendom, started and spread by Satan to cause harm to the Church. What is the meaning and importance of the word “Christ” used by Peter, instead of “Jesus”?


Contrary to the common belief and understanding, “Christ” is not the name of the Lord Jesus; it is a title given to Him in recognition of His work and purpose. The word “Christ” comes from the Greek word “Christos” used in the original language, and its literal meaning is ‘one who is anointed to carry out a specific work’, which in English can also be stated as ‘the Anointed One.’ So, when Peter, in response to the Lord’s question, said to Him “...You are the Christ, the Son of the living God”, what God the Father through the heavenly revelation had made him say was “you are the Anointed Son of God” - God the Father had revealed to Peter that the Lord Jesus was the Son of God, the Anointed one and only savior and redeemer of mankind, which Peter then spoke out in those words. Then, the Lord Jesus said for the statement Peter had made that it, i.e., the revelation received by Peter from God, was the “petra” i.e., the firm, unshakeable, established “rock” on which He will be building His Church, establishing the group of His called-out ones. The implication of what the Lord said regarding Peter’s statement can be surmised as follows: “whoever comes to Him with the faith that He, the Lord Jesus, is the Son of God and the only one anointed by God to be the one and only savior and redeemer, only that person will be included amongst His called-out ones, entitled to be one of His people.” Ponder over the importance of this statement about being a member of the Lord’s Church; understand it, and the actual truth about many of the wrong concepts and notions about the “Church” or “Assembly” prevalent today will be exposed and become clear.


Also, carry yourself to the time and circumstances when Peter made this tremendous statement, followed by what the Lord said; how it would have impacted and shaken up the listeners. In Deuteronomy 18:15, 18, Moses had told the Israelites about the coming of a Prophet like him, and then God had been prophesying through His prophets about His coming. During the days of the Lord Jesus’s earthly ministry there was an anticipation and expectation of His arrival at any time, as the Samaritan woman had said (John 4:25, 29) and the Jews were expecting (John 6:14; 7:41). Peter’s brother Andrew had said to him about Jesus being the Messiah (John 1:41); and after listening to the Samaritan woman and then personally experiencing Him, the people of that village had also accepted that Jesus is that promised Messiah (John 4:39, 42). But till this time, the Lord Jesus had not given as much importance to this fact of His being the promised Messiah, as He did now after Peter’s statement through revelation from God.


For Peter and the disciples of the Lord, the Lord Jesus’s calling Peter’s statement a revelation from God, and then making that statement the basis of gathering His called-out ones into one community, was something unimaginable and unprecedented from the Lord. From here onwards, this had become something beyond and apart from human concepts and understanding about the Lord; now it was a statement revealed by God and affirmed by the Lord Jesus, that would set and determine their future. As yet, the Lord had not called any of His disciple on the basis of this statement of faith in Him. The Lord had called Peter and some others with an assurance to make them “fishers of men” (Matthew 4:19; Luke 5:10), but as yet He had never said to anyone that unless they accepted Him as the Son of God and the one and only savior and redeemer of mankind appointed by God, they cannot be His people; had He said it, then quite likely Judas Iscariot would have been cast out or would have moved away. But now, the Lord was saying to them and to all others who would come to Him, that only that person will be His ‘called out one,’ one gathered to be with Him, who would accept Him as the Son of God, the one and only savior and redeemer of mankind. Quite likely, because of what the Lord Jesus said, the disciples would have been thrown in a turmoil within themselves; they would have started to look at themselves whether or not they stood up to this standard of evaluation. Pause for a moment and think it over; is Peter’s statement creating a turmoil within you about your standing with the Lord Jesus? On what basis do you call yourself a Christian? Not the things of human wisdom, but the words of God examine the hearts, shake up, and bring out the true condition of one’s heart (Hebrew 4:12).


If you are a Christian Believer, then is your saying so based upon the heavenly revelation that Peter said and the Lord Jesus affirmed? Or, is it that you have been considering yourself to be a Christian because of your birth in a particular family and having fulfilled the rites, rituals, and traditions of your sect or denomination? According to 2 Corinthians 13:5, examine yourself and see for yourself whether or not you actually are in the Christian Faith. May it not be that you continue to live in untenable, contrived, man-made concepts and understanding about Christianity, and eventually when the reality becomes apparent, your eyes open up to the truth, it is too late.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.




Through the Bible in a Year: 

  • Song of Solomon 4-5 

  • Galatians 3


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