पवित्र आत्मा परीक्षाओं में हमारी सहायता करता है – 5
पिछले कुछ लेखों में हम मसीही विश्वासियों के परमेश्वर द्वारा उन्हें दिए गए संसाधनों के भले भण्डारी होने के बारे में देखते आ रहे हैं। इन संसाधनों में से एक परमेश्वर पवित्र आत्मा भी है, जो व्यक्ति के पापों के पश्चाताप करने और प्रभु यीशु मसीह में विश्वास लाने के पल से ही उस में आकर निवास करने लगता है। पवित्र आत्मा को विश्वासी का सहायक या साथी होने के लिए दिया गया है, कि परमेश्वर के वचन के अनुसार जीवन जीने और परमेश्वर द्वारा दी गई सेवकाई और जिम्मेदारियों को पूरा करने में उसकी सहायता और मार्गदर्शन करे। लेकिन कुछ विश्वासी पवित्र आत्मा को अपने स्थान पर काम करने वाला बनाना चाहते हैं; और हम देख चुके हैं कि यह बाइबल के अनुसार सही नहीं है, और इसलिए यह होने की जितनी भी प्रार्थनाएँ की जाएँ, वे हमेशा ही अनुत्तरित ही रहेंगी। इस सन्दर्भ में हम देख चुके हैं कि परमेश्वर जो कहता है, वही चाहता भी है, और यदि वह किसी विश्वासी से कुछ करने के लिए कहता है, तो उसमें निहित है कि वह जानता है कि वह व्यक्ति क्या कर सकता है, और साथ ही परमेश्वर ने उसे उस काम को करने के लिए आवश्यक संसाधन भी प्रदान कर रखे हैं। साथ ही, परमेश्वर पवित्र आत्मा तो उनका मार्गदर्शन और सहायता करने के लिए उनके साथ है ही।
किन्तु कुछ विश्वासी, अपने इस दावे को सही ठहराने के लिए कि परमेश्वर द्वारा कही गई कुछ ऐसी बातें भी हैं जिन्हें, मनुष्य होने के नाते, वे कर पाने के अयोग्य हैं, परमेश्वर के वचन की व्याख्या और व्यवहार में कुछ गलतियाँ करते हैं। इस से वे परमेश्वर के वचन, उसकी आज्ञाओं, और व्यवहारिक मसीही जीवन में उनके लागू करने में एक विरोधाभास की स्थिति ले आते हैं। उनके इस तर्क के गलत होने को दिखाने के लिए, पिछले लेख से हमने ‘पवित्रता’ को उदाहरण के रूप में लिया है, जो मसीही जीवन का एक आधारभूत गुण है (इब्रानियों 12:14), परमेश्वर द्वारा अपने लोगों के लिए आज्ञा भी है (1 पतरस 1:15-16, पद 13-16 देखी), तथा अधिकांश लोगों के द्वारा असंभव नहीं तो कठिन अवश्य मानी जाती है। हम इसका एक उदाहरण के रूप में उपयोग करेंगे, यह सीखने के लिए कि परमेश्वर के वचन और आज्ञाओं की सही समझ रखने और व्याख्या करने के द्वारा प्रतीत होने वाले ये विरोधाभास, जिन्हें एक गढ़े हुए उद्देश्य के अन्तर्गत डाला गया है, दूर हो जाते हैं।
जब परमेश्वर कहता है कि जैसा तुम्हारा बुलाने वाला पवित्र है, तुम भी अपने सारे चाल चलन में पवित्र बनो, तो उसने जो कहा है, वही उसका तात्पर्य है, वह वही चाहता भी है। ध्यान कीजिए कि 1 पतरस के इन पदों में वह विश्वासियों के सिद्ध और निष्पाप होने की बात नहीं कर रहा है, और न ही वह यह कह रहा है कि विश्वासियों को उसी माप तक पवित्र होना है जितना कि परमेश्वर है – यह मनुष्यों के लिए असंभव है। जब वह कहता है कि पवित्र बनो, जैसा तुम्हारा बुलाने वाला पवित्र है, तो वह चाहता है कि विश्वासियों में भी वही स्वभाव, वही गुण हो जो परमेश्वर में है, वे परमेश्वर के समान पवित्र होने की प्रवृत्ति और लालसा रखें, उसके लिए चेष्टा करें। परमेश्वर ने अपने तुल्य सिद्ध पवित्रता कभी भी, किसी से भी नहीं माँगी है, और न ही उसने कभी किसी का उसके समान पवित्र न होने के कारण तिरस्कार किया है। एक विश्वासी की धार्मिकता प्रभु है (यिर्मयाह 23:6; 33:16), उसके काम नहीं (रोमियों 3:20; गलातियों 3:11, 24; इफिसियों 2:8-9; तीतुस 3:5), परमेश्वर हमें मसीह में होकर धर्मी देखता है, अन्य किसी प्रकार से नहीं।
इस सन्दर्भ में परमेश्वर के कुछ लोगों के उदाहरण देखिए:
· परमेश्वर ने अय्यूब को खरा, सीधा, परमेश्वर का भय मानने वाला, और बुराई से दूर रहने वाला कहा (अय्यूब 1:8; 2:3), लेकिन जब अय्यूब का परमेश्वर से सामना हुआ तो उसे अपनी वास्तविक स्थिति का एहसास हुआ, उसे अपने आप पर घृणा आई, और उसने पश्चाताप किया (अय्यूब 40:3-4; 42:3-6)।
· परमेश्वर ने दाऊद को अपने मन के अनुसार व्यक्ति कहा है (1 शमूएल 13:14; प्रेरितों 13:22), लेकिन दाऊद न तो सिद्ध था और न ही निष्पाप। लेकिन दाऊद द्वारा लिखे गए भजन, उसका जीवन आज भी हमें भक्ति का जीवन जीने और सीखने में, तथा कठिन समयों में प्रोत्साहित करने में सहायता करते हैं।
· परमेश्वर ने सुलैमान को दो बार दर्शन दिए, उसे सबसे बुद्धिमान और धनी व्यक्ति बनाया; किन्तु अपने बाद के वर्षों में सुलैमान मूर्ति-पूजा में पड़ गया (1 राजाओं 11:1-4)। लेकिन फिर भी उसके लेख परमेश्वर के वचन के महत्वपूर्ण भाग हैं।
· परमेश्वर ने अब्राहम को अपना मित्र कहा (यशायाह 41:8; याकूब 2:23), जिस से वह अपने उद्देश्य छिपाए रखना नहीं चाहता था (उत्पत्ति 18:17), किन्तु अब्राहम तो सिद्ध कदापि नहीं था।
· परमेश्वर का वचन मूसा को सबसे नम्र व्यक्ति कहता है (गिनती 12:3), लेकिन मूसा को उसके घमण्ड में होकर बात करने के लिए दण्डित किया गया, उसे कनान में प्रवेश नहीं करने दिया गया।
· इब्रानियों 11 अध्याय में उल्लेखित विश्वास के नायकों के बारे में विचार कीजिए; उन में से कोई भी न तो सिद्ध था और न ही पूर्णतः पवित्र; लेकिन फिर भी उन्हें उस विश्वास के उदाहरण दिखाया गया है जो दोषी हो सकने वालों को भी धर्मी, और असिद्ध लोगों को परमेश्वर को स्वीकार्य बना देता है।
परमेश्वर विश्वासियों से निष्पाप सिद्धता की माँग नहीं कर रहा है, जो कोई मनुष्य कभी नहीं कर सकता है। इसलिए जब परमेश्वर कहता है कि वह चाहता है कि उसके लोग पवित्र बनें, तो उसका अर्थ है वह उन्हें उसका आज्ञाकारी होने के लिए प्रयास करने वाले, और उस प्रकार से जीवन जीने वाले देखना माँगता है, जैसा उन्हें बुलाने वाला था, अर्थात प्रभु यीशु मसीह के समान जो हमेशा परमेश्वर का आज्ञाकारी और उसे पूर्णतः समर्पित बना रहा। मसीह में होकर वह विश्वासियों को पवित्र और स्वीकार्य देखता है। वह चाहता है कि विश्वासी, मसीह के समान व्यवहार रखें, परमेश्वर के आज्ञाकारी और पूर्णतः समर्पित बने रहने वाले हों।
लेकिन क्योंकि ये विश्वासी कुछ बातों में प्रभु के प्रति पूर्णतः आज्ञाकारी और समर्पित नहीं होते हैं, वे सँसार की कुछ बातों का भी आनन्द लेते रहना चाहते हैं और परमेश्वर की आशीषों को भी पाना चाहता हैं, इसलिए अपने विवेक को शान्त रखने के लिए तथा औरों को भक्त और धर्मी प्रतीत होने के लिए वे न केवल परमेश्वर के वचन की गलत व्याख्या करते हैं, बल्कि उस गलत व्याख्या को औरों को भी सिखाते हैं, उनसे भी उसका पालन करवाते हैं; चाहे उनकी इस गलत व्याख्या के कारण परमेश्वर के वचन में और उसके बच्चों के लिए उसकी आज्ञाओं में एक विरोधाभास ही क्यों न आ जाए। परमेश्वर ने अपने बच्चों के लिए संसाधन दिए हैं, और उन संसाधनों के उचित उपयोग में सहायता और मार्गदर्शन करने के लिए सहायक भी दिया है। अब यह विश्वासी पर निर्भर है कि वह उन संसाधनों का सदुपयोग करे, अपनी सेवकाई और जिम्मेदारियों को पूरा करे; न कि लापरवाह बना रह कर अपनी असफलताओं की ज़िम्मेदारी उलट कर परमेश्वर पर ही डाल दे।
यदि परमेश्वर की मनसा जो उसने कहा है उसका पालन होते हुए देखने की नहीं होती, तो वह कुछ इस तरह से कह देता, “यदि तुम को पवित्र होने में कठिनाई हो रही हो, तो मुझ से प्रार्थना करना कि तुम्हें पवित्र बना दूँ, और मैं तुम्हारे लिए यह कर दूँगा; तुमको उसके लिए न तो कोई चिन्ता करने की आवश्यकता है और न ही कोई प्रयास, बस अपनी अयोग्यता या अक्षमता को व्यक्त कर दो, और मैं उसे तुम्हारे लिए कर दूँगा।” लेकिन परमेश्वर ने ऐसा न तो कभी कहा है और न ही कभी किया है, और हमें भी ऐसा कुछ भी कहना या करना नहीं चाहिए। जब उन अन्य बातों का इसी प्रकार से विश्लेषण किया जाता है, जिसे कुछ विश्वासी सोचते या समझते हैं कि उनके लिए कठिन अथवा असंभव हैं, तो यह प्रकट हो जाता है कि उस असफलता का कारण परमेश्वर के वचन और आज्ञाओं में नहीं, वरन उस विश्वासी ही में है। और बहुधा यह कारण होता है किसी साँसारिक बात के साथ बने रहने और फिर भी लोगों को भक्त और धर्मी दिखते रहने के लिए कुछ बातों में समझौते का जीवन।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Holy Spirit Helps in Our Tests – 5
For the past few articles, we have been considering about Christian Believers being good stewards of their God given provisions, including God the Holy Spirit residing in every Believer, since the moment of his being Born-Again by repenting of sins and coming to faith in the Lord Jesus. The Holy Spirit has been given to be a Believer’s Helper or Companion, to guide and help him live his life according to God’s Word and fulfil God given ministry and responsibilities. But some Believers want to use the Holy Spirit as their substitute; and we have seen how this is unBiblical, and all prayers for this to happen will always remain unanswered. In this context we have seen that God means what He says, and if He wants the Believers to do something, it implies that He knows that they are capable of doing it, and that He has also equipped them with the resources to do it, besides God the Holy Spirit being with them to guide and help them about it.
But some Believers, to justify their claims that as men, they actually are incapable of doing all that God asks them to do, also have a tendency to misinterpret and misrepresent God’s Word, and thereby they bring in a contradiction in God’s Word and His Commandments and their practical application in Christian living. To illustrate the fallacy of this argument, since the last article we have taken ‘Holiness’, a fundamental characteristic of God’s people (Hebrews 12:14), and God’s command for his people to be holy (1 Peter 1:15-16, see vs 13-16), and considered by most to be very difficult if not an impossibility. We will use it as an example to learn how a proper understanding and interpretation of God’s instructions does away with the apparent contradiction that is often seen and interpreted here, to serve a contrived purpose.
When God says be holy in all your conduct as He who has called you is holy, then He means what He says. God never makes vain or casual, inapplicable statements. Note that in these verses from 1 Peter, God is not asking for Believer’s being perfect and sinless, nor is He asking the Believers to be holy in the same measure as God is – an impossibility for man. When He calls for us to be holy as He is holy, He wants Believers to have the nature, the tendency and desire of being holy, just like God has it in His nature, it is His characteristic, and strive for it. Similarly striving to be holy should be a Believer’s tendency and characteristic. God has never demanded absolute holiness like Him, nor Has He ever rejected anyone for not being as holy as He is. A Believer’s righteousness is the Lord (Jeremiah 23:6; 33:16), not our works (Romans 3:20; Galatians 3:11, 24; Ephesians 2:8-9; Titus 3:5), God sees us righteous through Christ, not anything else.
In this context consider some examples of God’s people:
God called Job blameless, upright, one who fears God and shuns evil (Job 1:8; 2:3); but even Job eventually repented and abhorred himself when he realized his actual condition before God (Job 40:3-4; 42:3-6).
God called David a man after His own heart (1 Samuel 13:14; Acts 13:22), but David was far from being sinless and perfect. Yet David's Psalms and life are written in God's Word and they even today instruct us about godly living and faith, and encourage us in difficult times.
God appeared twice to Solomon, made him the wisest and wealthiest man ever; but Solomon fell for idolatry in his later years (1 Kings 11:1-4). But his writings are an important part of God's Word.
God called Abraham His friend (Isaiah 41:8; James 2:23), from whom He did not want to hide His intentions (Genesis 18:17), but Abraham was far from perfect.
God’s Word calls Moses the meekest person (Numbers 12:3), but Moses was punished for his arrogance and denied entry into Canaan.
Consider all the heroes of faith mentioned in Hebrews 11; None of them was perfect or absolutely holy; yet they are all shown as examples of the kind of faith that justifies even fallible, imperfect people before God.
So, when God says that He wants His people to be holy, it means to be ones who strive to live in obedience to Him, and in the manner that He wants us to live - as He who called us, i.e., the Lord Jesus lived in submission and obedience to God. God is not asking for a sinless perfection from Believers, which is something that no man can ever achieve. In Christ He already sees Believers as holy and acceptable to Him. He wants Believers to live as Christ lived towards Him, in submission and obedience.
But since these Believers are not fully submissive and obedient to the Lord in some things, wanting to enjoy the world as well as God’s blessings, therefore, to pacify their own conscience, as well as appear godly and righteous to others, they not only misinterpret God’s Word but also teach that misinterpretation for others to follow; even though their misinterpretation brings a contradiction in God’s Word and in His commands for His children. God has provided the resources, and the Helper to guide His children about using His resources properly. Now it is the Believer’s responsibility to utilize them and fulfill His command, instead of being careless about them and placing the onus back on God of their own failures.
Had God not meant what He has said, He would have said something like, “If you find it difficult to be holy, then pray to me to make you holy, and I will do it for you; you will not have to worry or work for it, just express your inability and weakness, and I will do it for you.” But God has neither done nor said that, and neither should we. Similarly, when other things that the Believers think or feel are difficult or impossible for them to do, are analyzed, it becomes apparent that the reason for the Believer’s failure is not in God or God’s Word, but in the Believer himself; and most often, his failure is because of his desire to live with some kind of compromise with the world, and yet appear godly and faithful to God to others.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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