पवित्र आत्मा – हमेशा हमारे साथ - 1
मसीही विश्वासी के परमेश्वर द्वारा उसे दिए गए संसाधनों, जिन में पवित्र आत्मा भी सम्मिलित है, के भले भण्डारी होने के हमारे इस अध्ययन में हम यूहन्ना 14:16 को देख रहे हैं। यह पद मसीह के प्रत्येक शिष्य को, उसका सहायक या साथी होने के लिए, परमेश्वर पवित्र आत्मा दिए जाने के बारे में बात करता है। पवित्र आत्मा के हमारा सहायक होने के सन्दर्भ में, हमने देखा है कि उन्हें हमें क्यों दिया गया है। साथ ही हमने यह भी देखा है कि यह प्रचलित धारणा कि हम परमेश्वर से प्रार्थना कर के उस से हमारे लिए और हमारे स्थान पर कुछ काम करने के लिए कह सकते हैं; ऐसे काम जिन्हें कर पाना हमारे लिए कठिन हो रहा है, या जिन में हम बारंबार असफल हो रहे हैं, एक गलत और बाइबल के प्रतिकूल धारणा है। ऐसा इसलिए क्योंकि परमेश्वर ने पहले से ही हमारे लिए वो सभी संसाधन उपलब्ध करवा दिए हैं जो हमारी किसी भी परिस्थिति का सामना करने में हमें चाहिए होंगे। हमने यह भी देखा है की हमारा उन संसाधनों का उचित उपयोग नहीं कर पाना, परिस्थितियों पर विजयी नहीं हो पाना हमारे द्वारा कुछ बातों के लिए सँसार के साथ समझौता कर लेने के कारण है, और साथ ही हम यह भी चाहते हैं कि परमेश्वर की सामर्थ्य हम में होकर काम करती रहे – और यह हो नहीं सकता है। इसीलिए हमारी सारी प्रार्थनाएँ, कि परमेश्वर हमारे स्थान पर आकर हमारे लिए काम को कर दे, अनुत्तरित ही रहेंगी, क्योंकि वे एक गलतफहमी, परमेश्वर के वचन की गलत व्याख्या पर आधारित हैं।
यूहन्ना 14:16 में, प्रभु यीशु ने यह भी कहा है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा उनके शिष्यों के साथ हमेशा बना रहेगा। परमेश्वर ने यह वायदा किया है कि वह न हमें कभी छोड़ेगा और न त्यागेगा (इब्रानियों 13:5)। परमेश्वर के वचन में मसीही विश्वासियों को पवित्र आत्मा का मंदिर कहा गया है, और वह उन में निवास करता है (1 कुरिन्थियों 3:16; 6:19-20)। यह विश्वासियों पर एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी डाल देता है। 1 कुरिन्थियों 3:17 में लिखा है, “यदि कोई परमेश्वर के मन्दिर को नाश करेगा तो परमेश्वर उसे नाश करेगा; क्योंकि परमेश्वर का मन्दिर पवित्र है, और वह तुम हो।” इस पद में जिस शब्द का अनुवाद ‘नाश’ किया गया है, मूल यूनानी भाषा में वह ‘फथीरो’ है, जिसका अर्थ होता है बिगाड़ना, नष्ट करना, भ्रष्ट करना। तात्पर्य यह है कि परमेश्वर के मंदिर के साथ कोई भी, जो भी दुर्व्यवहार करेगा, परमेश्वर भी उसके साथ वही दुर्व्यवहार करेगा।
फिर 1 कुरिन्थियों 6:19-20 में लिखा है, “क्या तुम नहीं जानते, कि तुम्हारी देह पवित्रात्मा का मन्दिर है; जो तुम में बसा हुआ है और तुम्हें परमेश्वर की ओर से मिला है, और तुम अपने नहीं हो? क्योंकि दाम देकर मोल लिये गए हो, इसलिये अपनी देह के द्वारा परमेश्वर की महिमा करो।” यहाँ पर, इन पदों में, पवित्र आत्मा से संबंधित एक बहुत महत्वपूर्ण तथ्य, और उसके दो परिणाम बताए गए हैं, और फिर उसके बाद, इनके सन्दर्भ में विश्वासी की ज़िम्मेदारी और प्रतिफल लिखे गए हैं।
इन पदों में जो तथ्य दिया गया है, वह है कि विश्वासियों को पवित्र आत्मा देने वाला परमेश्वर है; कोई भी उन्हें न तो किसी भी अन्य विधि से, और न ही अपने किसी भी प्रयास प्राप्त कर सकता है। पवित्र आत्मा के द्वारा, प्रेरित पौलुस ने यह पत्र कुरिन्थुस की सम्पूर्ण मण्डली को लिखा था, अर्थात उस कलीसिया के प्रत्येक सदस्य को। पौलुस ने इसे उनमें पाई जानी वाली गलतियों और कमियों को दिखाने के लिए तथा उनका समाधान बताने के लिए लिखा था। इन पदों में ध्यान कीजिए कि पौलुस कुछ लोगों को या किसी प्रकार के लोगों को चिह्नित कर के यह नहीं कह रहा है कि केवल वे ही पवित्र आत्मा पाने वाले और उसका मंदिर कहलाए जाने वाले लोग हैं; और न ही वह कुछ ऐसे लक्षण बताता है कि किस में पवित्र आत्मा है और किस में नहीं है। पौलुस सभी से कह रहा है कि परमेश्वर ने उन्हें पवित्र आत्मा दिया है। इसलिए यह प्रकट है कि प्रत्येक मसीही विश्वासी, उसका आत्मिक स्तर कैसा भी हो, उसकी शारीरिक और आत्मिक आयु कुछ भी हो, परमेश्वर द्वारा उन्हें कोई भी सेवकाई क्यों न दी गई हो, हर किसी को परमेश्वर ने पवित्र आत्मा प्रदान किया है, उनके साथ और उन में रहने के लिए, कि मसीही जीवन जीने के लिए उनका सहायक या साथी हो।
प्रत्येक विश्वासी के लिए इस बात के जो परिणाम हैं, अर्थात, प्रत्येक विश्वासी अब परमेश्वर का मन्दिर है, और अब वह अपना नहीं रहा है, उसे दाम – प्रभु यीशु के लहू और प्राण, दे कर मोल लिया गया। यह प्रत्येक विश्वासी को अपनी देह और आत्मा, जो परमेश्वर के हो गए हैं, के द्वारा परमेश्वर की महिमा करने का ज़िम्मेदार बनाता है। हम अपने अगले लेख में इस अध्ययन को ज़ारी रखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
***********************************************************************
Holy Spirit – Always With Us – 1
In our study of a Christian Believer being a steward of the God given provisions for his Christian life, including the Holy Spirit, we have been looking at John 14:16. This verse speaks of God the Holy Spirit being given to every disciple of Christ as their Helper or Companion. In context of the Holy Spirit being our Helper, we have seen why He has been given. We have also seen how and why a popular notion that we can ask for God to take over from us and do certain things for us, things which we are finding difficult to do, or repeatedly failing about, is wrong and unBiblical, since God has already provided every resource that we will need to handle any situation that will come our way. We have also seen that our inability to properly utilize God’s resources to win over situations is usually due to our compromising with the world for certain things, while wanting to have God’s power working in and for us – which does not happen. Therefore, all our prayers for God to step-in and do something instead of us, will remain unanswered since they are based on a misunderstanding, a misinterpretation of God’s Word.
In John 14:16, the Lord Jesus also said that God the Holy Spirit will abide with His disciples for ever. God has promised that He will never leave or forsake us (Hebrews 13:5). God’s Word has called the Christian Believers the temple of the Holy Spirit, and He dwells in them (1 Corinthians 3:16; 6:19-20). This places great responsibilities upon the Believers. It says in 1 Corinthians 3:17 that “If anyone defiles the temple of God, God will destroy him. For the temple of God is holy, which temple you are.” Interestingly, in this verse, in the original Greek language the same word ‘phtheiro’, which means to spoil, ruin, or corrupt, has been used twice, and in English it has been translated as ‘defile’ as well as ‘destroy.’ Therefore, if we re-write this sentence, using the original word ‘phtheiro’ instead of its translation, the sentence will be “If anyone phtheiros the temple of God, God will phtheiro him.” Now we can understand that the implication is, whatever a person does to corrupt or defile God’s temple, will happen back to him and will similarly corrupt or defile that Believer.
Then, 1 Corinthians 6:19-20 says, “Or do you not know that your body is the temple of the Holy Spirit who is in you, whom you have from God, and you are not your own? For you were bought at a price; therefore, glorify God in your body and in your spirit, which are God's.” Here, in these verses, one very important fact, and two consequences related to the Holy Spirit being in the Believer are stated, and then the responsibility associated with these facts and consequences has been stated.
The fact given in these verses is that it is God who has given the Holy Spirt to the Believers; no one has acquired Him in any different manner or by any personal effort. Through the Holy Spirit, the Apostle Paul has written this letter to the Church in Corinth, i.e., to each and every member of that Church. Paul wrote it to point out their errors and short-comings, their immature spiritual lives, and how to rectify these problems. Note that in these verses, Paul does not single out certain people or category of people to call them the recipients and temple of the Holy Spirt; nor does he mention that there are any criteria to show who has and who does not have the Holy Spirit. Paul says to everyone, that God has given them the Holy Spirit. Therefore, it is evident that every Believer, whatever be their spiritual status, irrespective of their physical or spiritual age and maturity, whatever be the ministry God has given to them, to each and every one God has granted the Holy Spirit to be with them, live in them, be their Helper and Companion in their lives as Christian Believers.
For every Believer, the consequences are that the Believer is now God’s Temple, and he is no longer his own, having been bought with a price – the blood and life of Lord Jesus. This makes every Believer responsible to glorify God in their body and spirit, which are God’s. We will continue to study this in our next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें