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सोमवार, 16 अक्टूबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 51 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 37

परमेश्वर के वचन से उचित व्यवहार – 5

 

    परमेश्वर के वचन के साथ उचित व्यवहार करना सीखने के लिए, पिछले कुछ लेखों से हम पौलुस के जीवन और सेवकाई से, उसके द्वारा परमेश्वर के वचन के प्रति व्यवहार से सीखते आ रहे हैं। इस में हमने 1 कुरिन्थियों 1:17 के साथ आरम्भ किया था, और देखा था कि पौलुस वहाँ पर अपनी सेवकाई के बारे में तीन बातें कहता है, और इन बातों का तब उसके द्वारा, और आज हमारे द्वारा भी, परमेश्वर के वचन के प्रति व्यवहार पर प्रभाव आता है। ये तीन बातें हैं: पहली, उसे बपतिस्मा देने के लिए नहीं भेजा गया था; दूसरी, उसे सुसमाचार प्रचार करने के लिए भेजा गया था; और तीसरी उसका प्रचार “शब्दों के ज्ञान के अनुसार नहीं” था, और यह करने का कारण भी वह बताता है, “ऐसा न हो कि मसीह का क्रूस व्यर्थ ठहरे।” पिछले दो लेखों में हमने पहली दो बातों में परमेश्वर के वचन से व्यवहार और निहितार्थों को देखा है। आज हम इस पद में पौलुस के तीसरे कथन के बारे में देखेंगे।


    पौलुस ने परमेश्वर के वचन से व्यवहार के सम्बन्ध में जो तीसरी बात कही, वह है, कि पौलुस परमेश्वर के वचन का प्रचार “शब्दों के ज्ञान के अनुसार नहीं” करता था, और यह करने का कारण था कि कहीं “ऐसा न हो कि मसीह का क्रूस व्यर्थ ठहरे।” हम यहाँ पर जिस तात्पर्य को देखते हैं, वह है कि सुसमाचार सन्देश का केन्द्र-बिन्दु, “मसीह का क्रूस” है, और क्रूस के सन्देश के उसमें होने के कारण ही सुसमाचार सन्देश प्रभावी होता है (इस पर और अधिक के लिए पद 18 तथा अध्याय 2 को भी देखिए)। साथ ही सुसमाचार प्रचारक को न तो मानवीय समझ-बूझ और तर्क का सहारा लेना चाहिए, और न ही सुसमाचार को ‘समझाने के लिए’ या उसे लोगों के स्वीकार करने के लिए बहुत ‘आकर्षक और तर्क पूर्ण’ बनाने के लिए, उसे शब्दाडम्बरपूर्ण, तथा वाक्पटुता वाला होना चाहिए। हम जब भी सुसमाचार को, अर्थात, समस्त मानवजाति के पापों के प्रायश्चित तथा उन्हें पापों से छुड़ाने के लिए अपना बलिदान देने के सन्देश को प्रस्तुत करें, तो वह सीधे और साधारण शब्दों में हो। परमेश्वर का आत्मा उस सीधे और साधारण शब्दों के सन्देश को लेकर लोगों को उनके पापों के लिए कायल करेगा और उन्हें मसीह यीशु में विश्वास करने तक लेकर आएगा।


    इसके विपरीत, परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस बहुत स्पष्ट यह बात कहता है कि सुसमाचार को मानवीय बुद्धि के द्वारा और अधिक प्रभावी करने, उसे और भी आकर्षक और तर्कपूर्ण बनाने के प्रयास, उसे अप्रभावी बना देते हैं। यह नए नियम के द्वारा पुराने नियम की एक बात – निर्गमन 20:24-25 की, जिसे हम पहले देख चुके हैं, की पुष्टि है –अपने भेंट और बलिदान परमेश्वर को चढ़ाने के लिए जो वेदी बनाई जाए, वह केवल उसी सामग्री से बनी हो जो परमेश्वर ने दी है और उसे उसके प्राकृतिक रूप में ही उपयोग किया जाए। परमेश्वर द्वारा उपलब्ध करवाई गई सामग्री को मनुष्यों द्वारा और अधिक सुन्दर और आकर्षक बनाने के प्रयास, केवल उसे अशुद्ध ही करेंगे, और परमेश्वर को कुछ भी अर्पित करने के अयोग्य बना देंगे। जैसे, उस समय के इस्राएलियों के लिए मिट्टी और पत्थर ही वह सामग्री थे जिनके द्वारा उन्हें वेदी बनानी थी, उसी प्रकार से आज मसीही विश्वासियों के लिए, परमेश्वर का वचन ही वह आधार है जिसके द्वारा वे परमेश्वर के पास आ सकते हैं और परमेश्वर को अपनी भेंट – सुसमाचार बाँटने की हमारी सेवकाई का कार्य और उद्धार पाई हुई आत्माओं की भेंटें भी, अर्पित कर सकते हैं। जैसे तब उन प्राकृतिक वस्तुओं में किसी प्रकार की कोई फेर-बदल नहीं की जानी थी, उसी प्रकार से, आज परमेश्वर के वचन में भी कोई फेर-बदल नहीं होनी है। पौलुस इस बात को स्पष्ट कर देता है कि सुसमाचार में मानवीय बुद्धि जोड़ने से वह अप्रभावी हो जाता है। हो सकता है कि वह सन्देश सुनने में बहुत आकर्षक और प्रभावी लगे, हो सकता है कि लोगों के द्वारा उस की बहुत प्रशंसा और सराहना भी हो, लेकिन उस से वह कभी नहीं होगा जो सुसमाचार करता है – आत्माओं को बचाना।


    उद्धार त्रिएक परमेश्वर का कार्य है – परमेश्वर पुत्र ने अपने आप को समस्त मानव-जाति के सभी पापों के लिए बलिदान कर दिया; परमेश्वर पवित्र आत्मा इसे लेकर लोगों को उनके पापों के लिए कायल करता है और उन्हें पश्चाताप करने तक लेकर आता है; परमेश्वर पिता उस कायल हुए और क्षमा-प्रार्थी पापी के पश्चाताप को स्वीकार करता है और प्रभु यीशु के छुटकारा देने वाले क्रूस के कार्य पर उसके विश्वास के आधार पर उसे पापों की क्षमा प्रदान करता है, और उसे अपनी पापों से छुड़ाई हुई तथा मेल-मिलाप हुई संतान (यूहन्ना 1:12-13) बनाकर अपने राज्य में स्वीकार कर लेता है। अब, इस में कहाँ पर और किस प्रकार से कोई भी मानवीय बुद्धि, समझ-बूझ, या तर्क बीच में आ सकते हैं, कि इस आधारभूत तथ्य को और बेहतर बनाएँ? किसी भी मानवीय बुद्धि, समझ-बूझ, या तर्क की किसी बात का यहाँ पर बीच में आना केवल त्रिएक परमेश्वर में से किसी एक के स्थान पर ही हो सकता है। दूसरे शब्दों में सृजे गए मनुष्य की मानवीय बुद्धि की उपज, सृजनहार परमेश्वर के तुल्य हो कर उसका स्थान ले! यह होना असंभव है। और अब इससे यह देखा तथा समझा जा सकता है कि शैतान ने किस तरह से इस साधारण और अहानिकारक प्रतीत होने वाली बात के द्वारा परमेश्वर को उसके स्थान से हटाने और परमेश्वर का स्थान हथियाने की यह दुष्ट योजना कार्यान्वित की है। और इसे करते हुए मनुष्य यही समझता रहता है कि वह सुसमाचार सन्देश को और अधिक आकर्षक, तथा प्रभावी बना रहा है, परमेश्वर के प्रति भक्तिपूर्ण, आदर और श्रद्धा का व्यवहार कर रहा है, जबकि वास्तव में शैतान ने उसे बहका कर परमेश्वर के विरुद्ध चलने के मार्ग पर डाल दिया है।


    इसीलिए, परमेश्वर के वचन के साथ व्यवहार करते हुए, हमें इस बात के लिए बहुत सावधान एवं सचेत रहना चाहिए कि हम उसमें किसी भी प्रकार की कोई भी फेर-बदल नहीं करें, न तो उसमें कुछ जोड़ें, और न ही उसमें से कुछ निकालें। पौलुस के जीवन और सेवकाई के द्वारा परमेश्वर के वचन के प्रति व्यवहार को सीखने को आगे बढ़ाते हुए, अगले लेख में हम 1 कुरिन्थियों 2:4-5 से देखना आरंभ करेंगे।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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Appropriately Handling God’s Word – 5

 

    In learning to handle God’s Word appropriately, for the past few articles, we have been learning from Paul’s life and ministry, from his handling of God’s Word. In this, we started off with 1 Corinthians 1:17, and saw that there Paul says three things about his ministry, and these things have a bearing on how he, and we handle God’s Word. These three things in this verse are: Firstly, he was not sent to baptize; secondly, he was sent to preach the gospel; and, thirdly, he preached ‘not with wisdom of words’, and the reason for doing so was, ‘lest the cross of Christ should be made of no effect.’ In the previous two articles, we have considered the implications of the first two statements on handling the Word of God. Today, we will consider this for the third statement of Paul in this verse.


    The third statement Paul makes in this verse about his handling God’s Word was that Paul preached ‘not with wisdom of words’, and the reason for doing so was, ‘lest the cross of Christ should be made of no effect.’ What we see implied here is that the “the Cross of Christ” is central to the gospel message, and the gospel is made effective through incorporating the message of the Cross (see verse 18, and chapter 2 for more on this). Moreover, the preacher of the gospel should neither resort to human logic and reasoning, nor have to be very verbose, either to explain the gospel, or to make it sound appealing and logical, for others to accept it. When we present the gospel, i.e., the message of the sacrifice of the Lord Jesus to atone for the sins of entire mankind and redeem all mankind from their sins, in a simple straightforward manner. The Spirit of God uses the simple straightforward message to convict people of their sins and bring them to faith in Christ Jesus.


    On the other hand, through God the Holy Spirit, Paul clearly says here that by trying to enhance the gospel, make it sound more appealing and logical by adding human wisdom to it, only takes away its efficacy. This is a New Testament attestation of what we had considered earlier from the Old Testament – Exodus 20:24-25 – in building altars to offer sacrifices and offerings to God, only use what He has provided, and only use it in its natural form. Any human attempts at trying to make the God provided material more beautiful or attractive, will only render it profane, and unfit to be used as an altar for offering anything to God. Like the earth and stones were materials meant for constructing the altars for the Israelites at that time, today, for the Christian Believers, God’s Word is the basis of approaching God and offering our gifts to God – even the gifts of serving Him through sharing the gospel and bringing the saved souls to Him. Like those natural materials were not to be altered in any manner, similarly, God’s Word is not to be altered in any manner today. Paul makes it clear, adding human wisdom to the gospel, makes it ineffective. It may sound like a very appealing and attractive preaching, may even be appreciated and applauded, but will never do what the gospel is meant to do – save souls.


    Salvation is the work of the Triune God – God the Son sacrificed Himself for the sins of entire mankind; God the Holy Spirit takes this and convicts people of their sins and brings them to repentance; God the Father, accepts the repentance of the convicted and penitent, those seeking forgiveness of their sins on the basis of their faith in the redeeming work of the Lord Jesus on the Cross of Calvary, and forgives their sins, accepts them into His Kingdom as His redeemed and reconciled children (John 1:12-13). So, how and where can any human wisdom, logic, understanding enter into this in any way and improve upon this basic fact? Any attempts to bring in anything of human wisdom, logic, understanding, will have to be at the cost of the role or function at least one member of the Triune God. In other words, a product of human ingenuity will replace God; i.e., a creation of the created man, will be equivalent to the Creator God! An impossibility. And now, one can see and realize the subtle, devious satanic scheme of getting man to dethrone God, usurp God’s position, while deceiving him into believing that by doing this enhancing of the gospel message, he is being pious, reverent, and useful for God; while actually, he has been misled into going contrary to God.


    Therefore, in handling God’s Word, we have to be very careful to not alter it in any manner, neither add to it, nor take away from it in any manner. From the next article we will start with 1 Corinthians 2:4-5 in our study through Paul’s life and ministry on appropriately handling God’s Word.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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बुधवार, 11 अक्टूबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 46 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 32

परमेश्वर के वचन में फेर-बदल – 17

 

     पिछले लेख में, यह देखते हुए कि शैतान परमेश्वर के वचन में फेर-बदल और बिगाड़ करने के इतने प्रयास क्यों करता रहता है, हमने बाइबल की कुछ शिक्षाओं और तथ्यों को देखा था और समझा था कि परमेश्वर के वचन का, एक मसीही विश्वासी के जीवन में क्या महत्व और भूमिका है, और उसे क्यों उसके परिशुद्ध, अपरिवर्तित, और किसी के भी द्वारा ‘बेहतर’ न किए गए स्वरूप में ही उपयोग करना है। हमने यह भी देखा था कि बाइबल की यह शिक्षा भी है कि वचन की शुद्धता और पवित्रता के स्वरूप को बनाए रखना है। आज हम इसी विषय पर कुछ और बातें देखेंगे।


    शैतान यह अच्छे से जानता है कि परमेश्वर के वचन के विरुद्ध उसकी कोई सामर्थ्य नहीं है; परमेश्वर का वचन हमेशा ही उस पर और उसकी युक्तियों पर प्रबल रहेगा, उन्हें विफल और व्यर्थ करेगा। इसीलिए, जो परमेश्वर के वचन का पालन करेंगे, वे सुरक्षित, सामर्थी, समृद्ध, और सकुशल बने रहेंगे (व्यवस्थाविवरण 5:29; यहोशू 1:7-8; भजन 119:165; नीतिवचन 3:1-2), क्योंकि उनके विरुद्ध शैतान की सभी युक्तियाँ विफल रहेंगी। किन्तु ये बातें परमेश्वर के वास्तविक वचन के लिए ही लागू हैं, वचन के उस स्वरूप की आज्ञाकारिता के लिए जो कि वैसा ही है जैसा दिया गया है, उसकी शुद्धता और पवित्रता बनी हुई है। किसी के द्वारा दी गयी वचन की व्याख्या, या किसी के द्वारा वचन में की गई छेड़-छाड़, फेर-बदल, या बिगाड़ वाला स्वरूप अब परमेश्वर के वचन का शुद्ध स्वरूप नहीं है, इसलिए उस भ्रष्ट हो चुके स्वरूप के मानने वालों के लिए परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं को लागू नहीं माना जा सकता है।


    निर्गमन 20:24-25 में, परमेश्वर ने अपने लोगों, इस्राएलियों  से कहा था, कि अपनी भेंट और बलिदान चढ़ाने के लिए वे जो वेदी बनाएँ वह मिट्टी की ही हो, या फिर स्वाभाविक प्राकृतिक पत्थरों की हो। परमेश्वर ने उन्हें उन पत्थरों पर अपने औज़ार उपयोग करने के लिए, अर्थात उन्हें तराशने और आकर्षक बनाने के लिए विशेष रीति से मना किया था “और यदि तुम मेरे लिये पत्थरों की वेदी बनाओ, तो तराशे हुए पत्थरों से न बनाना; क्योंकि जहां तुम ने उस पर अपना हथियार लगाया वहां तू उसे अशुद्ध कर देगा” (निर्गमन 20:25)। दूसरे शब्दों में, यदि उन्होंने वेदी के पत्थरों को तराशने और आकर्षक बनाने, का प्रयास किया, तो उसका परिणाम उसे अशुद्ध कर देना होगा; और परमेश्वर किसी अशुद्ध वास्तु को ग्रहण नहीं करता है। इस बात के बारे में परमेश्वर के वचन में निहित सिद्धान्त हमारे वर्तमान विषय के लिए बहुत प्रासंगिक है। यदि परमेश्वर वेदी के लिए इतना निश्चित था कि केवल स्वाभाविक प्राकृतिक स्वरूप की मिट्टी अथवा पत्थर ही उपयोग किए जाएं, उन्हें किसी भी तरह से, जिस स्वरूप में उन्हें परमेश्वर ने बनाया है, उससे भिन्न सुन्दर या आकर्षक बनाने का प्रयास न किया जाए, तो क्या वह अपने वचन के विषय उतना ही निश्चित नहीं होगा, जिस वचन को आधार बनाकर आज हम अपनी प्रार्थना और आराधना चढ़ाने की ‘वेदियाँ’ बनाते हैं? यदि मनुष्यों द्वारा मिट्टी या पत्थरों की वेदी को सुन्दर या आकर्षक किए जाने के प्रयास परमेश्वर को इतने नापसंद हैं कि वह उन्हें अशुद्ध करना कहता है, तो क्या वह अपने वचन के साथ, उसे अधिक आकर्षक, सुन्दर, और मनोहर बनाने के लिए की गई छेड़-छाड़, फेर-बदल, या बिगाड़ के बारे कुछ भिन्न सोच रखेगा?


    मनुष्यों में एक बहुत आम प्रवृत्ति पाई जाती है, ऐसी जिसका हम मसीही बहुधा ध्यान नहीं करते हैं, किन्तु शैतान उसे बहुत अच्छे से जानता है, तथा हमारे तथा परमेश्वर के वचन के विरुद्ध बहुत प्रभावी ढंग से उपयोग भी करता है। जैसे पत्थरों को सुन्दर बनाने के लिए औजारों का उपयोग होता है, उसी प्रकार से मनुष्यों, मसीही विश्वासियों द्वारा भी, अपनी बुद्धि, समझ, और योग्यताओं का उपयोग परमेश्वर के वचन को और अधिक रोचक बनाए, उसे अधिक आकर्षक और मनोहर बनाने के लिए किया जाता है। ‘सुन्दर’ दिखाने के लिए किए गए इन बदलावों के कारण, अकसर, वचन में अनचाहे, अवांछनीय अर्थ और व्याख्या भी या तो जुड़ जाते हैं अथवा निहित हो जाते हैं, तथा फिर औरों के द्वारा उस वचन के गलत अर्थ लगाए जाने, दुरुपयोग किए जाने की संभावना बहुत बढ़ जाती है। अब वह परमेश्वर का वचन नहीं रहता है, बल्कि परमेश्वर के वचन के भेस में मनुष्य का वचन हो जाता है। इस अशुद्ध और भ्रष्ट स्वरूप में फिर वह शैतान और उसकी युक्तियों के विरुद्ध कारगर नहीं रहता है।


    हम देखते हैं कि इस तरह से परमेश्वर के वचन में परिवर्तन करने की प्रवृत्ति हव्वा में विद्यमान थी, उस स्थिति में भी जब वह अभी निष्पाप थी। परमेश्वर के वचन को ‘आकर्षक’ या प्रभावी बनाने की यह प्रवृत्ति अदन की वाटिका से चली आ रही है, जहाँ पर हव्वा ने, वर्जित फल के बारे में परमेश्वर की आज्ञा को और अधिक प्रभावी और प्रबल दिखाने के लिए, शैतान को वह आज्ञा बताते समय, अपनी ही ओर से उसमें कुछ जोड़ दिया, कुछ ऐसा जो परमेश्वर ने नहीं बोला था। उत्पत्ति 2:17 और उत्पत्ति 3:3 की परस्पर तुलना कीजिए, हव्वा ने परमेश्वर के नाम में ये शब्द “और न उसको छूना” जोड़ दिए, यद्यपि परमेश्वर ने यह बात नहीं कही थी। उसके द्वारा इस तरह से परमेश्वर की बात में जोड़े जाने ने, उसके अन्दर की एक कमज़ोरी को प्रकट कर दिया, कि परमेश्वर के वचन का पालन करने में वह अपनी बुद्धि और मन का उपयोग करती है, बजाए उस वचन को उसकी शुद्धता में, जैसा परमेश्वर ने दिया है वैसा ही, पालन करे। इसके बाद शैतान ने उसकी इस कमजोरी का भरपूरी से लाभ उठाया, उसे अपने मन और बुद्धि के अनुसार चलने के लिए उकसा कर, परमेश्वर की सीधे और सरल आज्ञा के ऊपर अपने मन और बुद्धि की बात को रखवाया, और परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करवा दी। इसकी तुलना में, शैतान द्वारा प्रभु यीशु की परीक्षा के बारे में विचार कीजिए, जो हमारे लिए मत्ती 4:1-11 तथा लूका 4:1-13 में दर्ज हैं। प्रभु से पाप करवाने के प्रयासों में शैतान ने परमेश्वर के वचन का दुरुपयोग, वचन का गलत तात्पर्य से हवाला देने के द्वारा किया। प्रभु ने भी उसे वचन से ही उत्तर दिया, किन्तु सही तात्पर्य के साथ हवाला देने के द्वारा। लेकिन यहाँ पर हमारे लिए जो बात महत्वपूर्ण और ध्यान देने के योग्य है, वह है कि प्रभु यीशु ने, यद्यपि वे स्वयं ही जीवित वचन थे, स्वयं परमेश्वर थे, उन्हें ऐसा करने का पूरा अधिकार था, फिर भी उन्होंने लिखित दे दिए गए वचन में कोई भी फेर-बदल नहीं की – न उसके लिखित स्वरूप में और न ही उसके अर्थ और तात्पर्यों में।


    चाहे परमेश्वर को आदर देने के प्रयासों में, चाहे परमेश्वर और उसके वचन के अनादर के लिए, चाहे वह जान-बूझकर किया जाए, या अनजाने में, वचन में फेर-बदल का परिणाम एक ही होता है। मनुष्य अपने ‘औज़ारों’ से, अपनी बुद्धि, समझ, और योग्यताओं का उपयोग परमेश्वर के वचन पर करता है, और उसे ‘अशुद्ध’ कर देता है। अब इस ‘सुन्दर’ बनाए गए किन्तु अशुद्ध हो चुके वचन के आधार पर जो भी ‘वेदी’ बनाई जाएगी, वह अशुद्ध वेदी होगी। परमेश्वर का वचन भ्रष्ट कर दिया गया है, अब वह मनुष्य का वचन बन गया है, और इसलिए अब वह शैतान के विरुद्ध अप्रभावी है। आज भी, बहुत आम रीति से यही होता है, यदि प्रत्येक प्रचारक और शिक्षक के द्वारा नहीं तो अधिकांश के द्वारा तो होता ही है। ये धर्मी लोग परमेश्वर की कही बातों को, परमेश्वर और उसके वचन के बारे में शिक्षाओं को, जोर देकर, प्रभावी रीति से बताने के लिए, उन्हें आकर्षक बनाकर बताने के लिए, परमेश्वर के वचन में किसी प्रकार से कुछ फेर-बदल करने से हिचकिचाते नहीं हैं, और इस तरह उसे बिगाड़ देते हैं, भ्रष्ट कर देते हैं। उन्होंने वचन को और अधिक प्रभावी बनाने के स्थान पर अनजाने में ही, अप्रभावी कर दिया है। हो सकता है कि ऐसे व्यक्ति के प्रचार और शिक्षाओं को सामान्यतः बहुत प्रशंसा और सराहना मिले, लेकिन उस से वह फल नहीं आता है जिसकी अपेक्षा की जाती है; लोगों की वाह-वाही और तालियाँ तो बहुत आती हैं, किन्तु लोगों के जीवनों में परिवर्तन या तो नहीं होते हैं, या फिर बहुत ही कम होते हैं। शैतान ने उसे परमेश्वर के लिए अप्रभावी और व्यर्थ बना दिया है।


    परमेश्वर के वचन को इस तरह से ‘सुन्दर’ और ‘आकर्षक’ बनाने का एक और बहुत हानिकारक प्रभाव होता है। यद्यपि लोग, और मसीही विश्वासी भी, यही सोचते हैं कि वे परमेश्वर के वचन को ही सीख रहे हैं और उसी का पालन कर रहे हैं, लेकिन वे इस तथ्य से अनजान रहते हैं कि इस बिगाड़े हुए और भ्रष्ट किए हुए वचन का पालन करने; और बहुधा साथ ही उस व्यक्ति का अनुसरण करने के द्वारा भी जिसने अनजाने में ही परमेश्वर के वचन को भ्रष्ट कर दिया है, वे लोग अनपेक्षित और अनायास ही, बहुत सी गलत बातों में डाले जा रहे हैं; और अन्ततः उन्हें व्यक्तिगत रीति से इसके लिए जवाबदेह होना होगा, परिणाम भुगतने पड़ेंगे। क्योंकि उन्होंने जिस बात का पालन करना आरम्भ किया है, उसे पहले वचन के आधार पर जाँचा और परखा नहीं, उसकी पुष्टि नहीं की, इसीलिए शैतान ने उन्हें बहका कर गलत मार्ग पर डाल दिया और एक मनुष्य तथा उसकी गढ़ी हुई बातों का अनुसरण करने वाला बना दिया। साथ ही, इससे मसीही विश्वासी परमेश्वर के लिए व्यर्थ और अप्रभावी हो जाते हैं, जबकि वे अपने आप को उपयोगी और प्रभावी समझते रहते हैं।


    इसीलिए शैतान किसी न किसी तरह से परमेश्वर के वचन में कोई फेर-बदल करने के प्रयास करता रहता है, किसी रीति से मनुष्यों को भरमाने के प्रयास करता रहता है। क्योंकि वह यह जानता है कि ऐसा करने के द्वारा वह परमेश्वर के वचन को अप्रभावी कर सकता है तथा लोगों के, भक्त और धर्मी लोगों के विरुद्ध भी, उन पर हावी हो सकता है। और फिर वह इन दुर्बल हो चुके मनुष्यों को, परमेश्वर द्वारा मनुष्यों की भलाई के लिए बनाई गई योजनाओं और उद्देश्यों को बाधित करने के लिए उपयोग कर सकता है। अगले लेख में हम इस से संबंधित पौलुस के जीवन से कुछ बातों को देखेंगे, परमेश्वर के वचन में उसके द्वारा लिखी गई उसकी सेवकाई से संबंधित कुछ शिक्षाओं को देखेंगे।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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Altering God’s Word – 17

 

    In the last article, while considering why Satan keeps striving to alter and distort God’s Word, we had seen some Biblical facts and teachings and had understood about the importance and function of God’s Word in it’s pure, unmodified and ‘improved’ form, in a Christian Believer’s life. We had also seen that it is the teaching of the Bible that the form, purity, and sanctity of God’s Word be preserved and maintained. Today we will continue with the same topic and see some more about this.


    Satan knows that he has no power against the Word of God; God’s Word will always prevail over him and his devious ploys and render them vain. Therefore, those who obey God’s Word, will remain safe, strong, prosperous, and secure (Deuteronomy 5:29; Joshua 1:7-8; Psalm 119:165; Proverbs 3:1-2), since Satan’s ploys will fail against them.  But this holds true only for obedience to the actual Word of God, the Word as it has been given, with its purity and sanctity maintained. Someone’s interpretation of the Word, or someone’s tampered, altered and distorted version, is no longer the pure Word of God, therefore, one should not expect God’s promises to hold true for that corrupted version.


    In Exodus 20:24-25, God had asked His people the Israelites, to use the natural earth, or at the most the natural stones to build altars for Him to offer their sacrifices and offerings. God had expressly forbidden them from using their tools on the stones, i.e., shaping and carving the stones to make them appear beautiful “And if you make Me an altar of stone, you shall not build it of hewn stone; for if you use your tool on it, you have profaned it” (Exodus 20:25). In other words, if they did try to modify and beautify the stones of the altar, they would actually end up profaning it; and God does not accept anything profane. The inherent principle and lesson of God’s Word about doing this is very pertinent for our current topic. If God was so particular that for the altar only the natural earth or stones be used, without in any way trying to make them appear more beautiful or attractive than the form they were made in by God, would He not be equally particular about His Word we use as the basis for the “altars” of offering prayers and worship for Him today? If God so disliked and disapproved of human ‘beautification’ of earth and stones, then, considering it “profane”, then will He think differently, if His Word is tampered, altered and distorted, in attempts to make it more attractive, appealing, and pleasing?


    There is a tendency very common in humans, one that we Christians very often don’t realize, but Satan knows it very well, and also uses it very effectively against us and against God’s Word. Like using tools on stone to make them look better, man's, even the Christian Believer's tendency is to use his wisdom, understanding, and abilities to try to make God's Word appear more interesting, attractive, and appealing. In this process of modification for ‘beautification’, often unintended misinterpretations get added or become implied, and that word also becomes prone to being misunderstood and being misused by others. It no longer remains God's Word, but becomes man's word being presented in the garb of God’s Word. In this impure and corrupted form this word is ineffective against Satan and his ploys.


    We see that this tendency to modify God’s Word was present in Eve, even in her sinless state. The ‘beautification’ of God’s Word started off in the Garden of Eden, where Eve, in trying to make God’s command about the forbidden fruit, appear more emphatic and impressive, while stating it to Satan, added something from her own side, something that had not been said by God. Compare Genesis 2:17 with Genesis 3:3; in Genesis 3:3; Eve, in God’s name, adds the words “nor shall you touch it”, though God had not said that. This addition to what God has said exposed to Satan a weakness in her, her tendency to use her own heart and mind to implement God’s Word, rather than use and obey it in its purity, as given by God. Then Satan exploited this weakness, appealed to this tendency in her, and enticed her to disobey God through using her heart and mind over and above God’s simple straightforward command. In contrast, consider Satan’s temptations of the Lord Jesus just before His beginning His ministry, recorded in Matthew 4:1-11 and Luke 4:1-13. Satan in trying to make the Lord sin, was misusing God’s Word against the Lord by misquoting it. The Lord also answered him back by quoting God’s Word, but in the correct manner. But the important thing to be noted here is that the Lord Jesus, though He was the Living Word, He was God, He had the full authority to do it, yet He never altered the already given written Word in any manner – neither in its text, nor in its meaning or implications.


    Whether done deliberately and knowingly, or inadvertently and unknowingly, seemingly as an attempt at honoring God, whichever way it is done, the result is the same. Man through his ‘tools’, through using his own wisdom, understanding, and abilities, on God’s Word, ‘profanes’ it. Now whatever ‘altar’ is built with this ‘beautified’ word but made profane word, it is a profane altar. God’s Word has been corrupted, it has become man’s word, and therefore has become ineffective against Satan. Even today, the same happens very commonly by most if not all preachers and teachers of God’s Word. In trying to be emphatic, impressive, and appealing about what God has said, about God and His Word, godly people don’t hesitate in altering God’s Word in some way or the other, and thereby end up distorting and corrupting it. Instead of making it more effective, inadvertently, they have rendered it ineffective. While this person’s preaching and teaching might generally be well appreciated and applauded, but it does not bear the kind of fruit it was meant to; many people praise and applaud, but very few, if any people have their lives changed. Satan has rendered him vain and ineffective for the Lord.


    There is another very harmful effect of this ‘beautification’ of God’s Word. Though the people and even the Christian Believers think that they are learning and following God’s Word, but quite unknowingly, by obeying and following this corrupted Word; and often by also following the person who inadvertently, unintentionally corrupted God’s Word, actually they are being misled into erroneous things; and eventually they will be accountable for this individually, as well as bear the consequences. Because they failed to first verify and confirm what they started to follow from the Word of God, therefore, Satan could put them onto the wrong path of following a man and man’s contrived ways. This renders the Christian Believers vain and ineffective for the Lord, while they assume themselves to be useful and effective.


    This why Satan keeps striving to somehow alter God’s Word, in some manner, by beguiling humans. Because by doing so he knows that he can render God’s Word ineffective and gain an upper hand against men, even godly men. And then he can use these weakened men, against God’s plans and purposes for the good of mankind. In the next article, we will see somethings from Paul’s life, some teachings he has stated in God’s Word about his ministry.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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मंगलवार, 28 जून 2016

आकर्षक


   पुराने दिनों की कहानी है, एक युवक जीविका कमाने के लिए ट्रेन में सेब बेचने का प्रयास कर रहा था। वह युवक सेबों से भरा हुआ थैला लिए हुए, ट्रेन के डब्बे के एक छोर से दुसरे तक कहता हुआ निकला, "सेब! क्या आप सेब खरिदना चाहेंगे?" डब्बे के दूसरे छोर तक पहुँचने पर उसका थैला सेबों से भरा हुआ था और जेब पैसों से खाली थी। एक व्यक्ति ने उसकी निराश हालत देखकर, उसे एक तरफ बुलाया और उससे एक सेब माँगा; उस सेब को लेकर वह डब्बे के अगले छोर पर गया, सेब को रुमाल से अच्छी तरह पोंछकर चमकता हुआ साफ किया और फिर उसे खाता हुआ डब्बे की दूसरे छोर की ओर चल निकला, साथ ही बोलता गया कि वह सेब कितना ताज़ा और अच्छे स्वाद का था। अब उसने उस युवक से कहा कि अब वह उन सेबों को बेचने का दोबारा प्रयास करे; इस बार उस युवक के सारे सेब बिक गए। अन्तर? एक व्यक्ति के व्यावाहरिक उदाहरण ने सेबों को खरीददारों के लिए आकर्षक कर दिया था।

   यह कहानी प्रभु यीशु मसीह में लाए गए विश्वास से मिलने वाली पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार को लोगों तक पहुँचाने का एक मार्ग सिखाती है - इस अद्भुत सुसमाचार को लोगों के लिए आकर्षक बनाएं; लोगों को दिखाएं कि इस सुसमाचार पर लाए गए विश्वास ने कैसे आपके जीवन में परिवर्तन किया है। परमेश्वर के वचन बाइबल की भी यही शिक्षा है; प्रेरित पौलुस ने कुलुस्से के मसीही विश्वासियों को लिखा: "अवसर को बहुमूल्य समझ कर बाहर वालों के साथ बुद्धिमानी से बर्ताव करो" (कुलुस्सियों 4:5)। जब हम अपने जीवनों में हमारे मसीही विश्वास में आने से आए परिवर्तन और सदगुणों जैसे, दया, प्रेम और अनुकंपा को दूसरों को प्रदर्शित करते हैं, तो हमारा जीवन औरों के लिए आकर्षक हो जाता है, उन्हें सोचने पर बाध्य करता है कि ऐसा परिवर्तन कैसे आया; और यही हमें उनसे समस्त संसार के सभी लोगों के लिए प्रभु यीशु के प्रेम, क्षमा, बलिदान और अनुग्रह का बयान करने का अवसर प्रदान करता है।

   व्यावाहरिक जीवन में प्रभु यीशु मसीह के सुसमाचार को जी कर दिखाएं; इससे ना केवल आपका जीवन भला तथा आकर्षक बनेगा, वरन सुसमाचार के प्रसार का कारण भी बनेगा। - डेव ब्रैनन


बदले हुए जीवन की सुन्दरता, लोगों को अन्दर से बदलने वाले की ओर आकर्षित करती है।

और तुम बड़े क्‍लेश में पवित्र आत्मा के आनन्द के साथ वचन को मान कर हमारी और प्रभु की सी चाल चलने लगे। यहां तक कि मकिदुनिया और अखया के सब विश्वासियों के लिये तुम आदर्श बने। क्योंकि तुम्हारे यहां से न केवल मकिदुनिया और अखया में प्रभु का वचन सुनाया गया, पर तुम्हारे विश्वास की, जो परमेश्वर पर है, हर जगह ऐसी चर्चा फैल गई है, कि हमें कहने की आवश्यकता ही नहीं। - 1 थिस्सुलुनीकियों 1:6-8

बाइबल पाठ: कुलुस्सियों 4:2-6
Colossians 4:2 प्रार्थना में लगे रहो, और धन्यवाद के साथ उस में जागृत रहो। 
Colossians 4:3 और इस के साथ ही साथ हमारे लिये भी प्रार्थना करते रहो, कि परमेश्वर हमारे लिये वचन सुनाने का ऐसा द्वार खोल दे, कि हम मसीह के उस भेद का वर्णन कर सकें जिस के कारण मैं कैद में हूं। 
Colossians 4:4 और उसे ऐसा प्रगट करूं, जैसा मुझे करना उचित है। 
Colossians 4:5 अवसर को बहुमूल्य समझ कर बाहर वालों के साथ बुद्धिमानी से बर्ताव करो। 
Colossians 4:6 तुम्हारा वचन सदा अनुग्रह सहित और सलोना हो, कि तुम्हें हर मनुष्य को उचित रीति से उत्तर देना आ जाए।

एक साल में बाइबल: 
  • अय्यूब 11-13
  • प्रेरितों 9:1-21


बुधवार, 8 अप्रैल 2015

छवि


   पहनने को तैयार कपड़े बेचने वाला एक लोकप्रीय उत्पादक का नियम है कि उसकी दुकान में काम करने वाले वे कर्मचारी जो कपड़ों को बेचने के कार्य से संबंधित हैं, वैसे ही कपड़े पहने जैसे उसकी दुकान में नमूने के तौर पर दुकान में रखे पुतलों को पहनाए जाते हैं। उसका यह करने के पीछे जो तर्क है वह है कि दुकान में आने वाले लोग उन्हीं कपड़ों को खरीदने के अधिक इच्छुक होंगे जिन्हें देख कर वे अन्दर आने को आकर्षित होंगे और फिर अन्दर औरों को पहने देखेंगे।

   आज की इस उपभोगता संसकृति में यह विचार रखना सरल प्रतीत हो सकता है कि हम लोगों को वह खरिदने के लिए आकर्षित कर सकते हैं जो अच्छा दिखने वाले अन्य लोग पहनते हैं। बेचने वाले तो हमें यह भी विश्वास दिलाना चाहते हैं कि बाहर से अच्छा दिखने के कारण हम लोगों को आकर्षक लगते हैं।

   कुछ ऐसी ही विचारधारा अनेक मसीही विश्वासियों में भी पाई जाती है - हम अपने आप को संसार के लिए आकर्षक बनाने के द्वारा लोगों को परमेश्वर की ओर आकर्षित कर सकते हैं। लेकिन परमेश्वर का वचन बाइबल हमें बताती है कि परमेश्वर की नज़रों में क्या आवश्यक है। परमेश्वर हम से यही चाहता है कि अपने चरित्र में हम मसीह यीशु के समान बनते जाएं, संसार के लोगों को प्रभु यीशु के समान दिखाई दें (रोमियों 8:29); यही हमारी छाप है। जब हम अपने जीवनों में प्रभु यीशु के गुणों को, जिनमें करुणा, भलाई, दीनता, सहनशीलता और प्रेम सम्मिलित हैं दिखाते हैं (कुलुस्सियों 3:12) तब ही हमारे जीवन लोगों को परमेश्वर की ओर आकर्षित करने वाले होते हैं।

   बजाए इसके कि हम अपनी ही छवि को चमकाते तथा लोगों के सामने प्रस्तुत करते रहें, हमें चाहिए कि हम प्रभु यीशु की छवि को अपने जीवनों में दिखाएं और सुरक्षित बनाए रखें, क्योंकि हम उसी के स्वरूप में ढाले जा रहे हैं। - जूली ऐकैरमैन लिंक


परमेश्वर के पवित्र आत्मा का एक कार्य है मसीही विश्वासियों को मसीह यीशु की समानता में ढालता जाए।

क्योंकि जिन्हें उसने पहिले से जान लिया है उन्हें पहिले से ठहराया भी है कि उसके पुत्र के स्वरूप में हों ताकि वह बहुत भाइयों में पहिलौठा ठहरे। - रोमियों 8:29

बाइबल पाठ: कुलुस्सियों 3:1-14
Colossians 3:1 सो जब तुम मसीह के साथ जिलाए गए, तो स्‍वर्गीय वस्‍तुओं की खोज में रहो, जहां मसीह वर्तमान है और परमेश्वर के दाहिनी ओर बैठा है। 
Colossians 3:2 पृथ्वी पर की नहीं परन्तु स्‍वर्गीय वस्‍तुओं पर ध्यान लगाओ। 
Colossians 3:3 क्योंकि तुम तो मर गए, और तुम्हारा जीवन मसीह के साथ परमेश्वर में छिपा हुआ है। 
Colossians 3:4 जब मसीह जो हमारा जीवन है, प्रगट होगा, तब तुम भी उसके साथ महिमा सहित प्रगट किए जाओगे। 
Colossians 3:5 इसलिये अपने उन अंगो को मार डालो, जो पृथ्वी पर हैं, अर्थात व्यभिचार, अशुद्धता, दुष्‍कामना, बुरी लालसा और लोभ को जो मूर्ति पूजा के बराबर है। 
Colossians 3:6 इन ही के कारण परमेश्वर का प्रकोप आज्ञा न मानने वालों पर पड़ता है। 
Colossians 3:7 और तुम भी, जब इन बुराइयों में जीवन बिताते थे, तो इन्‍हीं के अनुसार चलते थे। 
Colossians 3:8 पर अब तुम भी इन सब को अर्थात क्रोध, रोष, बैरभाव, निन्‍दा, और मुंह से गालियां बकना ये सब बातें छोड़ दो। 
Colossians 3:9 एक दूसरे से झूठ मत बोलो क्योंकि तुम ने पुराने मनुष्यत्‍व को उसके कामों समेत उतार डाला है। 
Colossians 3:10 और नए मनुष्यत्‍व को पहिन लिया है जो अपने सृजनहार के स्‍वरूप के अनुसार ज्ञान प्राप्त करने के लिये नया बनता जाता है। 
Colossians 3:11 उस में न तो यूनानी रहा, न यहूदी, न खतना, न खतनारिहत, न जंगली, न स्‍कूती, न दास और न स्‍वतंत्र: केवल मसीह सब कुछ और सब में है।
Colossians 3:12 इसलिये परमेश्वर के चुने हुओं की नाईं जो पवित्र और प्रिय हैं, बड़ी करूणा, और भलाई, और दीनता, और नम्रता, और सहनशीलता धारण करो। 
Colossians 3:13 और यदि किसी को किसी पर दोष देने को कोई कारण हो, तो एक दूसरे की सह लो, और एक दूसरे के अपराध क्षमा करो: जैसे प्रभु ने तुम्हारे अपराध क्षमा किए, वैसे ही तुम भी करो। 
Colossians 3:14 और इन सब के ऊपर प्रेम को जो सिद्धता का कटिबन्‍ध है बान्‍ध लो।

एक साल में बाइबल: 
  • 1 शमूएल 10-12
  • लूका 9:37-62