ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

गुरुवार, 11 जनवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 137 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 13


Click Here for the English Translation


कलीसिया का निर्माण – 4 – पतरस पर? – 4

 

    प्रत्येक मसीही विश्वासी को परमेश्वर द्वारा उपलब्ध करवाए गए प्रावधानों में से एक है उसे परमेश्वर की कलीसिया का एक अंग बनाया जाना तथा परमेश्वर की अन्य सन्तानों की सहभागिता में लाया जाना। जैसा कि परमेश्वर के प्रत्येक प्रावधान के लिए है, इसके लिए भी प्रत्येक मसीही विश्वासी परमेश्वर का भण्डारी है और उसे योग्य रीति से इसका निर्वाह करना है। इसलिए प्रत्येक मसीही विश्वासी को परमेश्वर की कलीसिया के, तथा उसकी सन्तानों के साथ सहभागिता के बारे में सीखना है। इन बातों को सीखते हुए, हमने मत्ती 16:18 से देखा है कि प्रभु यीशु ने कहा है कि अपनी कलीसिया वह ही बनाएगा, कोई मनुष्य अथवा संस्था नहीं। इसी पद से एक गलत धारणा भी बहुत प्रचलित कर दी गई है कि प्रभु ने अपनी कलीसिया पतरस पर बनाई है। हमने इस पद के संदर्भ, शब्दों के अर्थ, और उनके उपयोग के द्वारा देखा है कि प्रभु यीशु ने कभी यह बात नहीं कही है; कलीसिया का पतरस पर बनाया जाना एक गलतफहमी है, बाइबल का तथ्य नहीं। पिछले लेख से हम ने बाइबल के उन अन्य खण्डों को भी देखना आरम्भ किया है जो जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि न तो कलीसिया कभी पतरस पर बनाई गई, और न ही कभी उसे पतरस पर बनाया जाना था। आज हम इसी को और आगे देखेंगे, तथा बाइबल के कुछ और खण्डों को देखेंगे जो हमारी बात को प्रमाणित करते हैं।

    जैसा हमने पिछले लेख में कहा था, दो महत्वपूर्ण पद हैं जो कलीसिया के पतरस पर बनाए जाने के दावे का खण्डन करते हैं। इनमें से एक पद को हमने पिछले लेख में देखा था। इस पद से संबंधित जिस दूसरे पद की अनदेखी और अवहेलना की जाती है, वह है “और प्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओं की नेव पर जिसके कोने का पत्थर मसीह यीशु आप ही है, बनाए गए हो। जिस में सारी रचना एक साथ मिलकर प्रभु में एक पवित्र मन्दिर बनती जाती है” (इफिसियों 2:20-21)। पद 20 भी यही बताता है कि कलीसिया की नींव, उसका आधार प्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओं द्वारा जो बातें और शिक्षाएं प्रभु ने प्रदान की हैं, अर्थात परमेश्वर का वचन है - जो आदि से था, परमेश्वर का स्वरूप है, और जिसने प्रभु यीशु के रूप में देहधारी होकर हमारे साथ निवास किया (यूहन्ना 1:1, 2, 14)। साथ ही, इस 20 पद में “प्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओं” के बहुवचन में प्रयोग पर ध्यान कीजिए। तात्पर्य यह है कि यह नींव, यह आधार, कोई एक व्यक्ति कदापि नहीं था; वरन प्रभु के वे अनेक प्रेरित और भविष्यद्वक्ता थे जिनमें होकर प्रभु का वचन लोगों तक पहुँचा; और पतरस निःसंदेह उनमें से एक था, किन्तु वही एकमात्र कदापि नहीं था। एक बार फिर यह पतरस के एकमात्र आधार होने की धारणा को गलत ठहराता है। साथ ही 20 पद यह भी दिखाता है कि इन सभी प्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओं की शिक्षाओं को साथ और संगत रखने वाला वह “कोने का पत्थर”, जिससे सारी नींव एवं भवन-निर्माण की सिधाई और दिशा जाँची जाती है, स्थापित की जाती है, स्वयं प्रभु यीशु मसीह है। फिर 21 पद में लिखा है कि कलीसिया की यह सारी रचना साथ मिलकर “प्रभु में एक पवित्र मन्दिर बनती जाती है” - पतरस में नहीं, प्रभु में!

    स्वयं पतरस भी उसके द्वारा लिखी गई पत्रियों में उसके कलीसिया का आधार होने की बात की पुष्टि करना तो दूर, ऐसा कोई संकेत भी नहीं देता है कि प्रभु ने उसे कलीसिया का आधार नियुक्त किया है, जिसके अनुसार वह इस दायित्व का निर्वाह कर रहा है। दोनों पत्रियों के आरंभ में उसने अपने आप को केवल प्रभु का प्रेरित कहा है, और दूसरी पत्री के आरंभ में प्रभु का दास भी कहा है, किन्तु कलीसिया का आधार होने को न तो कहीं कहा है और न ही इसका कोई संकेत दिया है।

    प्रेरितों के काम के 15 अध्याय में भी जब यरूशलेम में मण्डलियों में फैलाई जा रही कुछ गलत शिक्षाओं के विषय चर्चा एवं निर्णय करने के लिए उस प्रारंभिक मण्डली के अगुवे एकत्रित हुए (प्रेरितों 15:6), वहाँ पर उठी चर्चा में पतरस का नाम, अर्थात उसका अवसर, आरंभ में नहीं “बहुत वाद-विवाद के बाद” आया (प्रेरितों 15:7), और उसने किसी अधिकार अथवा वर्चस्व के साथ नहीं वरन अन्य लोगों के समान एक सदस्य के रूप में अपना तर्क रखा। तथा फिर 12 पद से आगे लिखा है कि अन्य लोग भी अपने विचार रखने लगे, फिर अन्ततः 22 पद में जाकर “प्रेरितों और प्राचीनों” के द्वारा सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया। कहीं पर भी पतरस के किसी विशेष स्तर अथवा स्थान, या सभा को संचालित करने, अंतिम निर्णय लेने, आदि जैसी बातों का कोई उल्लेख नहीं है; जबकि यह व्यवहार कलीसिया का “आधार” या “मुख्य संचालक” समझे जाने वाले से अपेक्षित है; तात्पर्य यह कि उस सभा में पतरस को कलीसिया के “आधार” अथवा “संचालक” नहीं देखा या माना जाता था। 

    अर्थात परमेश्वर के वचन में कहीं पर भी इस बात का समर्थन नहीं है कि प्रभु ने कलीसिया को पतरस पर आधारित कर के बनाने की बात कही, जिसे फिर आरंभिक कलीसिया के द्वारा निभाया गया। अगले लेख में हम देखेंगे और विश्लेषण करेंगे कि क्या प्रभु “कलीसिया को पतरस पर बनाने” के योग्य समझ कर उसे यह दायित्व दे सकता था।

    यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो परमेश्वर पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता एवं अधीनता में वचन की सच्चाइयों को उससे समझें; किसी के भी द्वारा कही गई कोई भी बात को तुरंत ही पूर्ण सत्य के रूप में स्वीकार न करें, विशेषकर तब, जब वह बात बाइबल की अन्य बातों के साथ ठीक मेल नहीं रखती हो।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

***********************************************************************

English Translation


Building the Church – 4 – On Peter? – 4

 

Amongst the various provisions made available to every Born-Again Christian Believer, one is being made a member of the Lord’s Church and brought into the fellowship of God’s other children. As for every other of God’s provisions, for this also every Christian Believer must worthily function as God’s steward. Therefore, every believer needs to learn about God’s Church, and about fellowshipping with God’s children. While learning about this, we have seen from Matthew 16:18 that the Lord has said that not any man or organization, but it is He who builds His Church. From this verse a commonly seen misconception has also been popularized, that the Lord built His Church on Peter. We have seen through the context, the meanings, and the usage of the words in this verse that the Lord Jesus never said this; the Church being built on Peter is a misunderstanding, not a Biblical fact. In the last article we have started to consider other Biblical passages that affirm that the Church was never built, nor meant to be built on Peter. Today, we will continue with this, and look at some other Biblical passages that corroborate our stand.

As we had said in the last article, there are two important verses that refute the claim of those people who say that the Lord has built His Church on Peter. The first of these two verses we have seen in the last article. The second related verse, and that too is similarly ignored and overlooked by these people is, “having been built on the foundation of the apostles and prophets, Jesus Christ Himself being the chief corner stone, in whom the whole building, being joined together, grows into a holy temple in the Lord” (Ephesians 2:20-21). Here it says that foundation are the “apostles and prophets” implying the teachings and Word received by them from God, i.e., the Word of God - which was eternally present, is a form of God, and which came to dwell on earth in bodily form as the Lord Jesus Christ (John 1:1, 2, 14). Also, take note that in verse 20 here, “apostles and prophets” has been stated in plural. This clearly shows that the foundation of the Church is not any single person, but the many apostles and prophets of God through whom the Word of God came to the people. Undoubtedly, Peter was one of those through whom God’s Word came to the people, but he was not the only one, nor only the teachings given by him were made the foundation. This once again negates the notion that Peter was the only foundation on which the Church was built. Another important thing mentioned in these verses is that along with the “apostles and prophets,” there is Jesus Christ Himself as the corner-stone, to maintain the correct direction and provide a reference point for the entire foundation as well as the super-structure - the building. Then verse 21 concludes that the whole building, the temple being joined together, grows “in the Lord”, and not in Peter!

Peter himself, in his letters, never affirms or even indicates that he has been appointed by the Lord to be foundation of the Church, or that the Church will be built on him. At the beginning of both his letters he only called himself an apostle, and in the second letter even called himself a servant of the Lord, but never stated or indicated that he is the foundation of the Church or that the Church will be built on him.

In Acts15, when the elders and apostles gathered together (Acts 15:6) to discuss and decide upon the wrong doctrines and false teachings that were being preached amongst the Believers, we see that it was not Peter who was leading or directing the discussions; his name and turn came much later, after a lot of arguments had been done (Acts 15:7), and he presented his opinion not with any special authority or superiority, but as another ordinary member of that council. It is written in verse 12 that after him, others too expressed their opinions; Peter’s opinions were not immediately accepted as the final word. Then eventually after James had summarized the whole discussion (Acts 15:13-21), the final decision was taken collectively by the apostles and elders (Acts 15:22). At no place do we see any special status or position being given to Peter, nor did he conduct the proceedings, or take the final decision, as would have been expected from the “foundation” or the “governing authority” of the Church; implying that Peter was not seen or accepted as the “foundation” or the “governing authority” of the Church in that council.

In other words, nowhere in the Word of God is there any support of any kind, whatsoever, about Peter being made the “foundation” of the Church, or of the Church ever being built on him by the Lord; nor did the elders and people of the first Church give any special place or position to Peter. In the next article we will see and analyze whether Peter was at all worthy of being considered of building the Church on him.

    If you are a Christian Believer, then you should learn to discern and understand the truths of God’s Word under the guidance and teaching of the Holy Spirit. Do not accept anything and everything as the truth unless and until you have cross-checked and verified it from the Bible with the help of the Holy Spirit; more so when that thing does not seem to be consistent with the other related things of the Bible.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें