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कलीसिया का निर्माण – 14 – प्रभु यीशु मसीह पर – 7
क्योंकि प्रत्येक नया-जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी परमेश्वर की कलीसिया तथा उसकी अन्य सन्तानों के साथ सहभागिता रखने, जहाँ परमेश्वर ने उसे रखा है, का भण्डारी भी है, इसलिए, उसके लिए यह अनिवार्य है कि वह इनके बारे में सीखे ताकि अपने भण्डारी होने की ज़िम्मेदारी और उसका हिसाब देने का सही निर्वाह कर सके। हम कलीसिया तथा परमेश्वर की अन्य सन्तानों के साथ सहभागिता रखने के बारे में मत्ती 16:18 से सीख रहे हैं, जहाँ पर शब्द “कलीसिया” बाइबल में पहली बार उपयोग किया गया है।
पिछले लेखों में हम मत्ती 16:18 में प्रभु के कहे वाक्य - “...मैं इस पत्थर पर अपनी कलीसिया बनाऊंगा...”; की तीन बहुत महत्वपूर्ण को देखते आ रहे हैं। इनमें से पहली बात है, कि प्रभु ने कहा है कि वह स्वयं ही अपनी कलीसिया बनाएगा, यानि कि, प्रभु यीशु अपनी कलीसिया, अर्थात, उन लोगों को जो उसे जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता स्वीकार करते हैं, स्वयं ही एक समूह में एकत्रित कर रहा है। किसी की भी वास्तविक मनोदशा, और प्रभु के प्रति उसकी निष्ठा और समर्पण की वास्तविक स्थिति को कोई भी मनुष्य नहीं जान सकता है, किन्तु प्रभु की दृष्टि से कुछ छिपा नहीं है (यूहन्ना 2:24-25)। इसीलिए वह समय-समय पर मनुष्यों और शैतान द्वारा कलीसिया में घुसाए हुए लोगों को प्रकट और पृथक करता रहता है, तथा मत्ती 13:24-30 के अनुसार अंत के समय एक बड़ा पृथक करना होगा और कलीसिया में घुसाए गए दुष्ट के सारे लोग निकाल कर अनन्त विनाश में भेज दिए जाएंगे, प्रभु की कलीसिया में प्रभु के चुने हुए लोगों के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं बचेगा।
दूसरी बात जो हमने पिछले लेख में कुछ विस्तार से देखी, वह है कि प्रभु अपनी कलीसिया का स्वामी है और अपने स्वामित्व में कोई हस्तक्षेप नहीं होने देता है। वह अपने इस स्वामित्व को बहुत गंभीरता से लेता है, अपनी कलीसिया, यानि अपने लोगों का पूरा ध्यान रखता है। वह स्वयं ही कलीसिया की देखभाल के लिए उचित सेवकों को उनकी योग्यता के अनुसार नियुक्त करता है और फिर उन से उन्हें सौंपे गए दायित्व का पूरा हिसाब भी लेता है। प्रभु को अपनी कलीसिया, अपने लोगों की जरा सी भी हानि, उनके प्रति थोड़ी सी भी लापरवाही कतई स्वीकार नहीं है।
तीसरी, जिसे हम आज देखेंगे है कि प्रभु ने कहा कि वह स्वयं ही अपनी इस कलीसिया को ‘बनाएगा’; प्रभु के इस कथन में भी दो महत्वपूर्ण बातें हैं, जिन्हें कलीसिया के लिए प्रयोग किए गए रूपकों में से एक, “परमेश्वर के निवास के लिए एक मन्दिर” (इफिसियों 2:21-22) के संदर्भ में अधिक सरलता से समझा जा सकता है:
उन दोनों बातों में से एक बात तो यह कि जैसे हमने पिछले लेखों में देखा है, कलीसिया से संबंधित हर बात में प्रभु की सार्वभौमिक है। वही अपने लोगों को चुनता और बुलाता है, अनुचित लोगों को अपने लोगों में से पृथक करता है; और कलीसिया का संपूर्ण स्वामित्व प्रभु के ही हाथों में है। ठीक उसी प्रकार से यह बात भी है कि वह स्वयं ही अपनी कलीसिया को बनाता भी है। हर एक निर्माणाधीन निवास-स्थान या मंदिर के हर अंश का, हर पत्थर का, अपना निर्धारित स्थान होता है। जिस पत्थर का जो स्थान है उसे वहीं पर लगाया और उपयोग किया जाता है। उसी प्रकार से प्रभु ही अपने लोगों को, उसके द्वारा उनके निर्धारित कार्यों एवं कलीसिया या मण्डली में उपयोग के अनुसार व्यवस्थित करके उन्हें कलीसिया में उनके सही स्थान पर स्थापित भी करता है। यह निर्णय न तो किसी मसीही विश्वासी का अपना होता है, न किसी अन्य मनुष्य, अगुवे, अध्यक्ष, डिनॉमिनेशन, अथवा संस्था आदि का है; इसे केवल प्रभु ही निर्धारित और कार्यान्वित करता है।
और, दूसरी बात है कि ध्यान कीजिए कि यहाँ प्रयुक्त शब्द है ‘बनाएगा’ - भविष्य काल; जब प्रभु ने यह बात कही कलीसिया उस समय वर्तमान नहीं थी, बनाई जानी थी। प्रभु द्वारा कही गई यह बात प्रेरितों 2 अध्याय में पतरस के प्रचार और उस प्रचार द्वारा हुई प्रतिक्रिया के साथ कलीसिया के अस्तित्व में आने से आरंभ हुई थी। किसी वस्तु को ‘बनाने’ में समय और प्रयास लगता है, उसे उसके पूर्ण और अंतिम स्वरूप में लाने या ढालने के लिए एक प्रक्रिया से होकर निकलना पड़ता है। कलीसिया का आरंभ प्रेरितों 2 में पतरस के प्रचार, और उसके प्रति यरूशलेम में एकत्रित भक्त यहूदियों द्वारा दी गई प्रतिक्रिया से हुआ था। हम पहले देख चुके हैं कि उस समय से, प्रभु ही अपनी कलीसिया में लोगों को जोड़ता चला जा रहा है। आज भी प्रभु की कलीसिया प्रभु के द्वारा ‘बनाई’ जा रही है, वह उसमें अभी भी संसार भर से हर प्रकार के लोग जोड़ रहा है। साथ ही यह भी ध्यान कीजिए कि प्रभु की कलीसिया का प्रत्येक सदस्य, उसका प्रत्येक जन “नया जन्म” पाने के द्वारा प्रभु के साथ जुड़ता है। “नया जन्म” पाने के साथ ही वह एक आत्मिक शिशु के समान कलीसिया में, प्रभु की संगति में प्रवेश करता है। उसे शिशु अवस्था से उन्नत होकर परिपक्व स्थित में आने में समय और विभिन्न अनुभवों एवं शिक्षाओं से होकर निकलना पड़ता है। इसी लिए कलीसिया के सभी सदस्य अलग-अलग आत्मिक स्तर और परिपक्वता की स्थिति में देखे जाते हैं; प्रभु उन्हें उनके कलीसिया में सही स्थान के लिए अभी तैयार कर रहा है। इसी लिए कहा गया है कि अभी कलीसिया पूर्ण नहीं हुई है, निर्माणाधीन है; उसमें कार्य ज़ारी है। यही कारण है कि आज हमें प्रभु की कलीसिया में, अर्थात प्रभु के लोगों के समूह में कुछ कमियाँ, दोष, अपूर्णता, और सुधार के योग्य बातें दिखती हैं। प्रभु उसे बना भी रहा है और जितनी बन गई है, उसे प्रभु निष्कलंक, बेझुर्री भी बनाता जा रहा है, जिससे अन्ततः अपने पूर्ण स्वरूप में वह तेजस्वी, पवित्र और निर्दोष होकर उसके साथ खड़ी हो (इफिसियों 5:27)।
अगले लेख में हम इसके बारे में राजा सुलैमान द्वारा बनवाए गए मन्दिर से कुछ विवरण को देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Building the Church – 14 – On The Lord Jesus Christ – 7
Since every Born-Again Christian Believer is also a steward of God’s Church and the fellowship of God’s other children, where he has been placed by God, therefore, it is necessary for him to learn about them, to worthily fulfil his stewardship and accountability. We are learning about the Church and fellowshipping with other children of God from Matthew 16:18, where the word “Church” has been used in the Bible for the first time.
In the previous articles, we have been looking at three important things from the Lord’s statement, “...on this rock I will build My church…” said by the Lord Jesus in Matthew 16:18. The first among these three is that the Lord said that it is He who will build His Church, i.e., the Lord Jesus Himself is gathering together those people who accept Him as the one and only savior of the world into one body. No man can ever know the actual state of any person’s mind and heart, nor a person’s commitment and submission towards the Lord Jesus; but nothing is hidden from the eyes of the Lord God (John 2:24-25). So, from time-to-time He keeps exposing and separating the infiltrators brought into His Church by men and Satan, and as per Matthew 13:24-30, at the end there will be a great separation and segregation and those sneaked into the Church by the wicked one will all be cast out into eternal destruction, none other than the Lord’s chosen will remain in the Lord Jesus Christ’s Church.
The second thing that we saw in some detail in the previous article was that the Lord is the owner of His Church, and does not allow any interference in His ownership. He takes His ownership responsibilities very seriously, and takes full care of His people. He Himself appoints appropriate people, according to their abilities, for looking after the works of the Church, and eventually will take a proper accounting from them of this responsibility entrusted to them. The Lord does not accept any carelessness, any harm, of His people and Church.
The third thing, which we will see today is the Lord’s statement that He Himself will build His Church. There are two important points in this statement of the Lord, which can be more easily understood by one of the metaphors used for the Church, “A temple for the dwelling of God” (Ephesians 2:21-23).
Of those two, the first point is that, as we have seen in the preceding articles, the Lord Jesus is sovereign in everything related to the Church. It is He who chooses and calls His people, separates out the inappropriate ones from amongst His people, and the ownership of the Church is in the hands of the Lord. Another thing is that it is He who is building His Church. In every house or temple being built, every piece, every stone has its appointed place. Every stone is placed in its fixed place and used in its assigned role. Similarly, it is the Lord who properly places and establishes every person in His Church according to the person’s work, ministry, and assigned place in the Church. This decision is not taken by any Christian Believer, nor by any other person, or Elder, or Official, or by any Denomination, Organization, or Institution. It is only the Lord, and Lord alone who determines and implements this.
The second point is that in this statement, the Lord uses the future tense “will build;” when the Lord had said this, at that time the Church had not come into existence, it still had to be built. It takes time and effort to build anything, and a process has to be followed to bring it into the final shape, and its completion. The Church began with the preaching of Peter in Acts 2, and the response of the devout Jews gathered in Jerusalem, on hearing the sermon. We have already seen earlier that from that time onwards, the Lord Himself kept adding people to His Church. Even today, this process of adding to the Church is continuing, and the Lord is still building His Church. Also bear in mind, that every person that the Lord adds, gets added by the person’s being saved or being Born-Again. With being saved or Born-Again, a person enters into the fellowship of the Lord as a spiritual neonate, passes through various experiences and learns many things, gradually maturing and growing spiritually, being cut, trimmed, molded, and polished to take his assigned place in the Church. That is why, in the Church - local as well as universal, we still have Christian Believers in various stages of maturity and spiritual growth; the Lord is still at work in them, preparing them for their appointed place in the Church. That is why it is said that the Church has not been completed yet; it is still “under construction.” for this reason, in the Lord’s Church we still get to see some faults, shortcomings, things that need to be corrected, an incompleteness. The Lord is still building it, and whatever has been built, is making it without spot or wrinkle as well, so that in its completed form, the Church will stand by His side as His glorious, holy, blemish-less bride (Ephesians 5:27).
In the next article we will see some more about this from the building of the Temple of God by King Solomon.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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