ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

शनिवार, 20 जनवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 146 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 22

Click Here for the English Translation


कलीसिया का निर्माण – 13 – प्रभु यीशु मसीह पर – 6

 

    परमेश्वर ने अपनी सन्तानों, अर्थात, नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों को, उनके द्वारा मसीही जीवनों को जीने तथा योग्य रीति से उन्हें परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कार्य को करने के लिए, विभिन्न बातें प्रदान की हैं। प्रत्येक मसीही विश्वासी, जो कुछ भी परमेश्वर ने उसे सौंपा है, उसका भण्डारी भी है, और अन्ततः उसे उस सभी का हिसाब परमेश्वर को देना होगा। परमेश्वर द्वारा विश्वासियों को दिए गए विशेषाधिकारों में से एक है उन का परमेश्वर की कलीसिया का अंग होना और परमेश्वर की अन्य सन्तानों के साथ सहभागिता रखना। इस ज़िम्मेदारी के भले भण्डारी होने के लिए, हम इसके बारे में परमेश्वर के वचन बाइबल से, मत्ती 16:18 से सीख रहे हैं, जहाँ पर शब्द “कलीसिया” पहली बार बाइबल में उपयोग किया गया है।

    पिछले लेख में हमने देखा था कि मत्ती 16:18 में लिखे प्रभु द्वारा कहे वाक्य - “...मैं इस पत्थर पर अपनी कलीसिया बनाऊंगा...”; में तीन बहुत महत्वपूर्ण बातें हैं। इनमें से पहली, कि प्रभु स्वयं ही अपनी कलीसिया बनाएगा पर हमने पिछले लेख में विचार किया था, और देखा था कि प्रभु यीशु अपनी कलीसिया को, अर्थात, उसे जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता स्वीकार करने वाले लोगों को, वह स्वयं ही एक समूह में एकत्रित कर रहा है। उसने यह दायित्व अन्य किसी पर नहीं छोड़ा है, स्‍वर्गदूतों पर भी नहीं। मनुष्य और शैतान प्रभु की आँखों में धूल झोंक कर किसी को भी प्रभु की कलीसिया में हमेशा बने रहने के लिए सम्मिलित नहीं कर सकते हैं। प्रभु की कलीसिया या मण्डली में केवल प्रभु ही के वास्तविक और समर्पित लोग रह सकते हैं। 

    मत्ती 16:18 में प्रभु द्वारा कहे इस वाक्य में दूसरी बात थी कि प्रभु ही अपनी कलीसिया का स्वामी है, वह उसे “अपनी कलीसिया” कह कर संबोधित करता है। न केवल उस वास्तविक, सच्ची कलीसिया का बनाने वाला केवल प्रभु ही है, वरन उसका एकमात्र स्वामी भी प्रभु ही है, न कि कोई व्यक्ति अथवा डिनॉमिनेशन; प्रभु ने कलीसिया को किसी अन्य के स्वामित्व में नहीं छोड़ दिया है। नए नियम में हम देखते हैं कि लगभग सभी स्थानों पर विभिन्न स्थानों की कलीसियाओं को “परमेश्वर की कलीसिया” या इसके समान वाक्यांश के द्वारा संबोधित किया गया है (प्रेरितों 20:28; 1 कुरिन्थियों 1:2; 2 कुरिन्थियों 1:1; गलातीयों 1:13; 1 तिमुथियुस 3:5, 15; इत्यादि); कुछ स्थानों पर उस स्थान के नाम से, जहाँ पर प्रभु के लोग निवास करते थे, भी संबोधित किया गया है (कुलुस्सियों 4:16; 1 थिस्सलुनीकियों 1:1; 2 थिस्सलुनीकियों 1:1; प्रकाशितवाक्य 2:1; आदि)। किन्तु कहीं पर भी उस स्थान की उस मण्डली के किसी अगुवे के नाम से, अथवा किसी प्रेरित या प्रचारक के नाम से, जिसके परिश्रम के द्वारा वहाँ लोगों ने प्रभु यीशु को उद्धारकर्ता ग्रहण किया, संबोधित नहीं किया गया है। संपूर्ण बाइबल में कलीसिया कभी प्रभु को छोड़, किसी अन्य व्यक्ति अथवा संस्था की बताई या दिखाई ही नहीं गई है। जब लोगों ने अपने मध्य प्रचारकों, प्रेरितों, और अगुवों के नाम से गुट बनाने का प्रयास किया, तो तुरंत ही परमेश्वर पवित्र आत्मा ने इसकी तीव्र भर्त्सना की, और इस प्रवृत्ति को अंत करवाया (1 कुरिन्थियों 1:12-13); यहाँ इस बात का भी ध्यान कीजिए, कि यह नहीं लिखा है कि कुरिन्थुस की मण्डली के लोग उन अगुवों के नाम से अलग मण्डलियां बनाने के प्रयास कर रहे थे। मण्डली तो वही एक ही थी, उसी में अलग-अलग गुट बनाने के प्रयास हो रहे थे, और बन भी गए थे (1 कुरिन्थियों 11:18-19); किन्तु प्रभु की कलीसिया में यह भी अस्वीकार्य था। प्रभु को छोड़ किसी अन्य के नाम से मसीही विश्वासियों को पहचाने जाने की प्रवृत्ति को तुरंत ही समाप्त करवा दिया गया। 

    मत्ती 25 अध्याय में प्रभु ने अपने दूसरे आगमन से संबंधित दृष्टान्तों में, पद 14-30 में स्वामी द्वारा परदेश जाते समय, उनकी सामर्थ्य के अनुसार, अपनी संपत्ति अपने दासों को सौंपने का दृष्टांत दिया गया है, जिसके अंत में उन दासों से उन्हें सौंपी गई ज़िम्मेदारी का हिसाब लेने और उनके द्वारा उनकी ज़िम्मेदारी को निभाने या नहीं निभाने के अनुसार प्रतिफल देने का वर्णन है। ध्यान कीजिए, दास भी स्वामी ने ही चुने, और किसे क्या देना है यह निर्णय भी स्वामी ने ही किया, और स्वामी ने एक निर्धारित समय के लिए ही अपने निर्धारित दासों को उनकी योग्यता के अनुसार संपत्ति की ज़िम्मेदारी सौंपी। उसने अपनी संपत्ति के स्वामित्व को छोड़ या त्याग नहीं दिया, और फिर आ कर उन से उसका हिसाब भी लिया। इसी के अनुरूप, इफिसियों 4:11-12 में प्रभु यीशु द्वारा कलीसिया के लिए लिखा गया है, “और उसने कितनों को भविष्यद्वक्ता नियुक्त कर के, और कितनों को सुसमाचार सुनाने वाले नियुक्त कर के, और कितनों को रखवाले और उपदेशक नियुक्त कर के दे दिया। जिस से पवित्र लोग सिद्ध हों जाएं, और सेवा का काम किया जाए, और मसीह की देह उन्नति पाए।” स्पष्ट है कि ये ज़िम्मेदारियाँ, प्रभु द्वारा की गई ‘नियुक्तियाँ’ हैं, अर्थात एक निर्धारित समय के लिए सौंपे गए दायित्व; उन्हें दी गई विरासत या स्वामित्व के अधिकार नहीं हैं। साथ ही इन नियुक्तियों का उद्देश्य भी दिया गया है - कलीसिया की उन्नति, सिद्धता, और मसीही सेवकाई। 

    इसीलिए प्रेरितों 20:28 में प्रेरित पौलुस, और 1 पतरस 5:1-4 में प्रेरित पतरस कलीसिया के अगुवों से उन्हें सौंपे गए कलीसिया की देखभाल के इस दायित्व के बहुत ध्यान और लगन से निर्वाह करने के लिए आग्रह करता है; और इब्रानियों का लेखक अगुवों तथा मण्डली के लोगों को स्मरण करवाता है कि हिसाब लिया जाएगा (इब्रानियों 13:17)। प्रभु के लोगों के साथ दुर्व्यवहार करने वाले, उन्हें अपने स्वार्थ और भौतिक लाभ के लिए प्रयोग करने वाले, सौंपी गई जिम्मेदारियों के प्रति लापरवाह रहने वाले दास का क्या परिणाम होगा, यह हम प्रभु के दूसरे आगमन से संबंधित एक अन्य दृष्टांत में, मत्ती 24:45-51 में पढ़ सकते हैं। पुराने नियम में भी परमेश्वर के लोगों के प्रति ऐसा ही दुर्व्यवहार करने वाले इस्राएल के चरवाहों के लिए भी परमेश्वर द्वारा ऐसी ही तीव्र प्रतिक्रिया और दण्ड की आज्ञा दी गई है - यहेजकेल 34 अध्याय इसका एक उत्तम उदाहरण है। तात्पर्य यह कि प्रभु अपनी कलीसिया का स्वामी है और अपने स्वामित्व में कोई हस्तक्षेप सहन नहीं करता है। वह अपने इस स्वामित्व को बहुत गंभीरता से लेता है, उसका पूरा ध्यान और हिसाब रखता है, कलीसिया की देखभाल के लिए स्वयं ही दासों को उनकी योग्यता के अनुसार नियुक्त करता है, और वह अपने लोगों की जरा सी भी हानि, उनके प्रति थोड़ी सी भी लापरवाही कतई सहन नहीं कर सकता है। उसके लोगों के प्रति लापरवाही या दुर्व्यवहार करने वाले को बहुत भारी और बहुत दुखद परिणाम भोगना पड़ेगा, ऐसा सेवक किसी भी रीति से अपने इस अनुचित व्यवहार के लिए बचेगा नहीं। 

    यदि आप मसीही विश्वासी हैं; विशेषकर यदि प्रभु की मण्डली में आपको इफिसियों 4:11 तथा 1 कुरिन्थियों 12:28 में उल्लेखित जिम्मेदारियों के समान, या अन्य किसी भी ज़िम्मेदारी का कोई पद दिया गया है, तो आप से विनम्र निवेदन है कि यहेजकेल 34 अध्याय तथा मत्ती 24:45-51 को बहुधा पढ़ा करें। एक मसीही विश्वासी होने के नाते अपने आप को जाँच कर भी देख लें कि आप प्रभु यीशु के स्वामित्व की अधीनता में होकर कार्य कर रहे हैं, या किसी मनुष्य, अगुवे, अध्यक्ष, डिनॉमिनेशन, या संस्था की अधीनता में होकर, या उसे प्रसन्न रखने के लिए और उसके कारण प्रभु के स्वामित्व को नजरंदाज करते हुए कार्य कर रहे हैं। पवित्र आत्मा ने पौलुस से लिखवाया, “यदि मैं अब तक मनुष्यों को ही प्रसन्न करता रहता, तो मसीह का दास न होता” (गलातियों 1:10); आप परमेश्वर के वचन की इस चेतावनी के अनुसार कहाँ खड़े हैं?

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

******************************************************************

English Translation


Building the Church – 13 – On The Lord Jesus Christ – 6


God has given various things given by to His children, i.e., the Born-Again Christian Believers, for living their Christian lives and worthily fulfilling the work He has assigned to them. Every Christian Believer is also a steward of whatever has been given to him by God, and eventually will have to give an account of it all, to God. One of the privileges given by God to the Believers is to be members of His Church and to fellowship with His other children. To be worthy stewards of this responsibility, we are studying about it from the Word of God, the Bible, through Matthew 16:18, where the word “Church” has been used for the first time in the Bible.

    We saw in the previous article that in the statement, “...on this rock I will build My church…” said by the Lord Jesus in Matthew 16:18; there are three very important things. Of the three, the first, that the Lord Himself will build His Church, we considered in the previous article, and had seen that the Lord Himself is gathering together as one body all those who accept Him as the one and only savior of the world. He has not given this responsibility to anyone else, not even to the angels. Neither man nor Satan can bluff the Lord and bring in their people into the Lord’s Church to stay permanently. Only the truly committed and fully surrendered people of the Lord can remain in His Church.

    In this sentence of Matthew 16:18, the second thing is that it is the Lord who is the owner of His Church, He addresses it as ‘My Church.’ Not only is the true Church being built solely by the Lord, but also not any person or denomination but only He is the sole owner of the Church; the Lord has not left the ownership of His Church in anyone else’s hands. We see in the New Testament texts, that the various Churches located in different places, have all been addressed as “The Church of God” or by some similar phrase (Acts 20:28; 1 Corinthians 1:2; 2 Corinthians 1:1; Galatians 1:13; 1 Timothy 3:5, 15; etc.); in some texts the Church has also been addressed by the name of the place where the people of the Lord were located (Colossians 4:16; 1 Thessalonians 1:1; 2 Thessalonians 1:1; Revelation 2:1; etc.). But never, at any place, any Church at any location, has ever been addressed by the name of the Elder of that Church, nor has the name of the apostle or preacher who labored in that place to bring people to the Lord, been given to the Church. When people in the Church tried to make groups or factions amongst themselves based on the name of a preacher, or apostle, or an elder, immediately the Holy Spirit severely rebuked them for doing this, and had the attempts terminated (1 Corinthians 1:12-13); in this example of the Church in Corinth, also take note of the fact that the Corinthian Believers were not trying to establish separate Churches after their Elders or leaders. The Church or the Assembly remained the same, only different groups were being formed within that one Church, and apparently had formed as well (1 Corinthians 11:18-19); but even this was not accepted and tolerated in the Church of the Lord. The attempt at calling and recognizing the Christian Believers by any other person’s name was immediately curbed and put away.

    In Matthew 25, the Lord Jesus has given some parables about His second coming; one of these is in verses 14-30, where a man going to a distant country called his servants and gave them all parts of his wealth, according to their abilities, and on returning he asked for an account from each one, how the servant had used the wealth entrusted to him, and gave them rewards according to their utilizing what had been entrusted to them. Now, take note, the servants were chosen by the owner, and which servant was to be given what was also decided by the owner। Moreover, he gave his wealth only for a limited period of time, he did not disown or give away the ownership of his wealth, and then on returning he took an account from everyone. In accordance with this, it is written regarding the Church of the Lord Jesus in Ephesians 4:11-12 “And He Himself gave some to be apostles, some prophets, some evangelists, and some pastors and teachers, for the equipping of the saints for the work of ministry, for the edifying of the body of Christ.” It is very clear that these responsibilities are “appointments” given by the Lord, a work assigned to be done for a certain period of time; they are not inheritances or ownership rights given out by the Lord. Also mentioned here is the purpose for these appointments - for the edification and growth of the Church, and for Christian Ministry.

    That is why the Apostles, Paul in Acts 20:28, and Peter in 1 Peter 5:1-4, exhort the Elders of the Church to diligently and very carefully carry out and fulfil their responsibilities; and the author of Hebrews reminds the Elders as well as the congregation that an accounting will be done (Hebrews 13:17). We can read and learn from another parable of the Lord, from Matthew 24:45-51, related to the second coming of the Lord, what will be the consequences and end of the servant who was careless and negligent about his assigned responsibilities; assuming them to be a kind of ownership instead of a responsibility. Similarly, even in the Old Testament, severe chastisement and punishment has been spoken against the careless and negligent shepherds of God’s people - Israel; Ezekiel 34 is a good example of this. The implication is that the Lord God is the owner of His Church and does not tolerate any interference in His ownership or negligence in fulfilling assigned responsibilities. He takes His ownership very seriously, takes full care and keeps a complete account of it. The Lord appoints His people according to their abilities for the taking care of the functions of His Church, and does not accept or overlook the slightest carelessness. Anyone who is careless towards, and mistreats His people, His Church, will have to pay a heavy price and face serious consequences; such a servant will never escape lightly for his carelessness.

    If you are a Christian Believer; especially, if you have been given any Church related responsibilities mentioned in Ephesians 4:11 and 1 Corinthian 12:28, or like them, then it is humble request that you please read and always keep in mind Ezekiel 34 and Matthew 24:45-51; for the Church Elders it would be good to read these two passages very frequently. Being a Christian Believer, examine yourself, see, and ensure that you are fulfilling your responsibilities diligently to please the Lord, instead of working to please and satisfy some person, Elder, or official; and that you are functioning under the lordship of the Lord Jesus, and not the lordship of a denomination or organization or person. God the Holy Spirit had Paul write about his ministry, “For do I now persuade men, or God? Or do I seek to please men? For if I still pleased men, I would not be a bondservant of Christ” (Galatians 1:10). Where do you stand according to this admonition from the Lord?

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें