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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 23
पिछले लेख में हमने 1 कुरिन्थियों 15:1-4 से देखा था कि सुसमाचार का मर्म या सार क्या है; और साथ ही इन पदों में निहित तथा लिखित, सुसमाचार के अर्थ, प्रचार, और उपयोग से सम्बन्धित कुछ बातों को भी देखा था। हमने देखा था कि सुसमाचार नए नियम में जोड़ी गई कोई नई बात नहीं है, बल्कि यह उस समय के उपलब्ध ‘पवित्र शास्त्र’ अर्थात जिसे हम पुराना नियम कहते हैं, उसी में से है। साथ ही, सुसमाचार का किसी भी धर्म, धार्मिक अनुष्ठानों के निर्वाह, धर्म-परिवर्तन, भले कामों, आदि बातों से कोई लेना-देना नहीं है। सुसमाचार पूर्णतः प्रभु यीशु, क्रूस पर उसके बलिदान, उसके मारे जाने, गाड़े जाने, और पुनरुत्थान से सम्बन्धित है। इस सुसमाचार में न तो कुछ जोड़ा जा सकता है और न ही इसमें से कुछ घटाया जा सकता है। आज हम देखेंगे कि सुसमाचार में विश्वास करने का क्या अर्थ है, आगे चलकर हम कुछ और सम्बन्धित बातों को देखेंगे, तथा यह भी कि शैतान कैसे बहुधा भक्ति और धार्मिकता के आवरण में सुसमाचार को बिगाड़ता और निष्क्रिय करता है।
सीधे, साफ़ शब्दों में, सुसमाचार पर विश्वास करने का अर्थ है फिलिप्पियों 2:5-11 में लिखे हुए पर विश्वास करना – कि ‘मनुष्य’ (अर्थात, कोई भी व्यक्ति, और यहाँ पर ‘मनुष्य’ के स्थान पर किसी का भी नाम लिखा जा सकता है) को उसके पापों से छुड़ाने और परमेश्वर के साथ उसका मेल-मिलाप करवाने के लिए प्रभु यीशु ने अपने आप को दीन किया, अपनी स्वर्गीय महिमा से स्वयं को शून्य या रिक्त कर लिया, एक दास का स्वरूप धारण करके निम्न कोटि के मनुष्य की समानता में पृथ्वी पर आ गया, और परमेश्वर की पूर्ण आज्ञाकारिता में जीवन जिया। यद्यपि वह निष्पाप और निष्कलंक था (इब्रानियों 4:15; 1 पतरस 1:19), फिर भी उसने ‘मनुष्य’ के सारे पापों को अपने ऊपर ले लिया और उसके स्थान पर उन पापों के दण्ड, मृत्यु (रोमियों 6:23) को सह लिया, एक अपराधी के समान क्रूस की क्रूर मृत्यु को सहा, और उन पापों की पूरी कीमत चुका दी। वह मारा गया, गाड़ा गया, और तीसरे दिन पाप तथा मृत्यु पर जयवंत होकर मृतकों में से जी उठा (इब्रानियों 2:14), और अब अनन्तकाल के लिए जीवित है, कि जो उस पर विश्वास करते हैं, उनका उद्धारकर्ता हो। अब, उसमें लाए गए विश्वास के द्वारा पापों से क्षमा प्राप्त करने के कारण, ‘मनुष्य’ परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी हो जाता है और परमेश्वर के साथ उसका मेल-मिलाप हो जाता है (रोमियों 5:1, 10-11); और उसका यह उद्धार अनन्तकालीन है (इब्रानियों 5:9)।
प्रभु यीशु में विश्वास के द्वारा परमेश्वर से मेल-मिलाप होने के साथ ही, ‘मनुष्य’ परमेश्वर की सन्तान (यूहन्ना 1:12-13), परमेश्वर के परिवार का एक अंग भी बन जाता है, और ‘मनुष्य’ के उद्धार पाते ही, उसी पल से पवित्र आत्मा उसमें आकर निवास करने लगता है (इफिसियों 1:13-14)। पवित्र आत्मा उस ‘मनुष्य’ को अंश-अंश कर के प्रभु की समानता में परिवर्तित करने लगता है (2 कुरिन्थियों 3:18); और ‘मनुष्य’ नया-जन्म पाकर, नए जन्मे हुए शिशु के समान जब परमेश्वर के वचन के शुद्ध दूध को भोजन के समान लेने लग जाता है, तो वह आत्मिक रीति से बढ़ता और परिपक्व भी होता चला जाता है (1 पतरस 2:1-3)। ध्यान कीजिए कि ‘मनुष्य’ के जीवन में सुसमाचार से सम्बन्धित हर बात में, उसे ग्रहण करने में, उसके परिणामों में, किसी भी प्रकार से पहले पूरी करने के लिए कोई शर्त नहीं है; और न ही किसी धर्म की कोई भूमिका, धार्मिक अनुष्ठानों के निर्वाह की कोई आवश्यकता, किसी प्रकार के कर्मों को करने की किसी अनिवार्यता का कोई उल्लेख है; और न ही किसी भी अन्य व्यक्ति के किसी भी प्रकार से प्रभु और उस पश्चातापी ‘मनुष्य’ के मध्य कोई कार्य करने की कोई आवश्यकता बताई गई है। हर बात पश्चातापी ‘मनुष्य’ और प्रभु के मध्य सीधे संपर्क के द्वारा है, ‘मनुष्य’ द्वारा स्वेच्छा से लिए गए निर्णय पर आधारित है। ‘मनुष्य’ का आत्मिक परिवर्तन और बढ़ोतरी उसके नया जन्म पा लेने के बाद आरम्भ होती है; और उसके द्वारा परमेश्वर के वचन को भोजन के समान लेते रहने तथा पवित्र आत्मा द्वारा ‘मनुष्य’ के जीवन में किये जाने वाले कार्य के द्वारा होती है।
अगले लेख में हम बाइबल से देखेंगे कि कैसे सुसमाचार में विश्वास करना और प्रभु यीशु में विश्वास करना एक ही बात हैं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Teachings Related to the Gospel – 23
In the previous article we have seen from 1 Corinthians 15:1-4, the gist of the gospel; and we also noted some matters stated and implied in these verses that relate to the meaning, preaching, and utilizing of the gospel. We have seen that the gospel is not a new addition in the New Testament, but is from the then available ‘Scriptures’ i.e., what we know as the Old Testament today. Also, the gospel has nothing to do with any religion, fulfilling religious observances, religious conversion, good works, etc. but is only about the Lord Jesus, His sacrifice on the cross, His death, burial, and resurrection. There is nothing that can be added to this gospel, and nothing that can be taken away from it. Today we shall see what believing in the gospel means, subsequently we will see some other related matters and how Satan tries to subvert the gospel, often in the garb of piety and religiosity.
In simple, straightforward words, to believe in the gospel means to believe what has been stated in Philippians 2:5-11 – that to redeem ‘man,’ (i.e., any individual, and a person’s name can very well be used here in place of ‘man’) from his sins and to reconcile him with God, the Lord Jesus, humbled Himself, emptied Himself of all His heavenly glory, and came down to earth as a lowly man, a bondservant, and lived a life of complete obedience to God. Though He was sinless and spotless (Hebrews 4:15; 1 Peter 1:19), He took upon Himself all the sins of ‘man’ and suffered their penalty (Romans 6:23) in his place, died the cruel death by crucifixion as a criminal, and thereby paid for the sins in full. He died, was buried, and rose again from the dead on the third day, victorious over sin and death (Hebrews 2:14), and now lives forever as the redeemer of all those who place their trust in Him. Now, because of receiving the forgiveness of sins through faith in Him, ‘man’ is made righteous in the eyes of God and is reconciled with God (Romans 5:1, 10-11); this salvation is eternal (Hebrews 5:9).
Being reconciled with God through faith in the Lord Jesus makes ‘man’ a child of God, a member of God’s family (John 1:12-13), and from the moment the ‘man’ is saved, the Holy Spirit comes to reside in him (Ephesians 1:13-14). The Holy Spirit starts transforming the ‘man’ into the likeness of the Lord Jesus, bit by bit (2 Corinthians 3:18); and ‘man,’ now having been Born-Again, as like a new-born infant, he feeds on the pure milk of God’s Word, he grows and matures spiritually (1 Peter 2:1-3). Take note that in everything related to the gospel, its acceptance, and its result in the life of ‘man’ there are no preconditions to be fulfilled, there is no mention or role of any religion, any religious observances, any kind of works, or any necessity of any other person to function in any manner between the Lord and the repentant ‘man;’ everything is through direct interaction between the Lord and ‘man’ and based on what the ‘man’ decides for himself. The spiritual transformation and spiritual growth of ‘man’ starts after his being Born-Again; it happens through his feeding on God’s Word, and by the work of the Holy Spirit in ‘man’s life.
In the next article we will see from the Bible how believing in the gospel and believing in the Lord Jesus are the same.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.