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शनिवार, 30 मार्च 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 25

 


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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 22

 

    पिछले लेख में हमने पुनः अवलोकन किया और देखा था कि प्रभु यीशु की पृथ्वी की सेवकाई के समय में, यहूदियों ने यह समझा था कि सुसमाचार का अर्थ है रोमी शासन से छुड़ाया जाना, और इस्राएल देश पर राज्य करने का अधिकार वापस प्राप्त कर लेना – परमेश्वर के लोगों का राज्य, इसलिए परमेश्वर का राज्य। किन्तु प्रभु यीशु मसीह का तात्पर्य यह नहीं था; और प्रभु यीशु का तात्पर्य उन्हें उसके प्रचार और शिक्षाओं से प्रकट होना चाहिए था, और इस से भी कि प्रभु के द्वारा यहूदियों को दी गई पुकार रोमियों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए नहीं थी, वरन मन-फिराव या पश्चाताप करने के लिए थी; साथ ही प्रभु ने अपने सन्देश को केवल इस्राएल की सीमाओं तक ले जाने के लिए नहीं, पृथ्वी के छोर तक ले जाने के लिए कहा था (प्रेरितों 1:8)। इसके अतिरिक्त, मन-फिराव या पश्चाताप का किसी साँसारिक या शारीरिक युद्ध से कोई सम्बन्ध नहीं है; बल्कि वह व्यक्ति के आत्मिक जीवन से सम्बन्धित है। मसीही विश्वासी के पश्चाताप करने और परमेश्वर के राज्य के लिए तैयार होने में परमेश्वर पवित्र आत्मा के कार्यों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका और स्थान है। लोगों को बहकाने और गलत मार्ग पर डालने के लिए शैतान ने पवित्र आत्मा और मसीही विश्वासियों में उसकी सेवकाई के बारे में बहुत सारी झूठी शिक्षाओं और गलत सिद्धांतों को फैला रखा है (2 कुरिन्थियों 11:3, 13-15), ताकि वे व्यर्थ बातों में ही उलझे पड़े रहें। इसलिए, यह देखने के लिए कि बाइबल मसीही विश्वासियों के मध्य पवित्र आत्मा की सेवकाई, जिसे बहुधा गलत प्रस्तुत किया और सिखाया जाता है, के बारे में क्या कहती है, हमने पिछले लेख में उन सेवकाइयों से सम्बन्धित बाइबल के पदों को देखा था। आज हम बाइबल से देखेंगे कि सुसमाचार क्या है और उसका क्या अर्थ है।

    पवित्र आत्मा ने, पौलुस प्रेरित के द्वारा सुसमाचार को संक्षेप में 1 कुरिन्थियों 15:1-4 में लिखवाया है, “1. हे भाइयों, मैं तुम्हें वही सुसमाचार बताता हूं जो पहिले सुना चुका हूं, जिसे तुम ने अंगीकार भी किया था और जिस में तुम स्थिर भी हो। 2. उसी के द्वारा तुम्हारा उद्धार भी होता है, यदि उस सुसमाचार को जो मैं ने तुम्हें सुनाया था स्मरण रखते हो; नहीं तो तुम्हारा विश्वास करना व्यर्थ हुआ। 3. इसी कारण मैं ने सब से पहिले तुम्हें वही बात पहुंचा दी, जो मुझे पहुंची थी, कि पवित्र शास्त्र के वचन के अनुसार यीशु मसीह हमारे पापों के लिये मर गया। 4. ओर गाड़ा गया; और पवित्र शास्त्र के अनुसार तीसरे दिन जी भी उठा।” और यही सुसमाचार का सार है, उस अच्छे समाचार का जिसे प्रभु ने अपने शिष्यों को “पृथ्वी के छोर तक” (प्रेरितों 1:8) ले जाने के लिए कहा है। जो इस सुसमाचार को ग्रहण करते हैं, और उसके अनुसार प्रभु यीशु के शिष्य बन जाते हैं, प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों को दी गई महान आज्ञा (मत्ती 28:19-20) के अनुसार, केवल उन्हें ही बपतिस्मा देना है, और उन्हें प्रभु का वचन सिखाना है। हम कुछ बातों पर ध्यान करते हैं जो पौलुस ने, पवित्र आत्मा की अगुवाई में, यहाँ पर सुसमाचार के संदर्भ में लिखी हैं:

·        सुसमाचार को किसी के द्वारा बनाया नहीं जाना है, बल्कि प्रचारक द्वारा उसे सुनाया जाना है, उसका प्रचार किया जाना है; और विश्वासी के द्वारा उसे ग्रहण किया जाना है, इस निर्णय के साथ कि वह उस में दृढ़ता से खड़ा रहेगा; तब ही वह प्रभावी होगा।

·        सुसमाचार में उद्धार पाने का सन्देश है, जिसे यदि स्वीकार किया जाए और जिस पर यदि विश्वास किया जाए, और उसमें स्थिर रहा जाए, अर्थात दृढ़ता से थाम कर यत्न के साथ पालन किया जाए, तो व्यक्ति को अनन्तकाल के लिए, उसके सभी पापों के प्रभावों से बचा सकता है।

·        सुसमाचार मनुष्य की बुद्धि और समझ के अनुसार नहीं है; किसी को भी उसकी कल्पना करने या अपनी समझ तथा तात्कालिक स्थिति, और श्रोताओं के अनुसार उसे बनाने की आवश्यकता नहीं है। पद 3 में पौलुस कहता है कि सुसमाचार उस तक पहुँचा, और उसने उसी को, जैसा वह था, वैसा ही आगे उन लोगों तक पहुँचा दिया। सुसमाचार परमेश्वर के द्वारा पूर्व-निर्धारित है, और उसे केवल लोगों तक पहुँचाना है, उसी तरह से जैसा वह है, बिना उसमें अपने विचार, बुद्धि, व्याख्या आदि को मिलाए। जैसा कि यहाँ पर कहा गया है, परमेश्वर द्वारा दिया गया यह एक ही सुसमाचार, सारे समय, सारे स्थानों, सभी परिस्थितियों, समस्त लोगों के लिए है।

·        पद तीन के दूसरे अर्ध-भाग और पूर्ण पद 4 के अनुसार यह स्पष्ट है कि सुसमाचार मसीह यीशु के मानवजाति के पापों के लिए मारे जाने, गाड़े जाने, और तीसरे दिन मृतकों में से जी उठने के बारे में है। यही सुसमाचार का मर्म है, और इस मर्म में ज़रा सा भी परिवर्तन नहीं हो सकता है, लेशमात्र भी नहीं, किसी भी रूप में नहीं; न तो इसमें कुछ जोड़ा जा सकता है, और न ही इसमें से कुछ हटाया जा सकता है।

·        यहाँ पर ऐसा कुछ नहीं लिखा है कि जो व्यक्ति सुसमाचार को स्वीकार कर रहा है और उसमें विश्वास कर रहा है, उसे साथ ही कुछ भले कार्य और कुछ धार्मिक अनुष्ठानों का निर्वाह भी करना है ताकि सुसमाचार कार्यकारी एवं प्रभावी हो सके। व्यक्ति को केवल इतना ही करना है कि यह स्वीकार करे, इस पर विश्वास करे कि प्रभु यीशु उसके पापों के लिए मारा गया, गाड़ा गया, और तीसरे दिन जीवित हो उठा, और इस प्रकार से उसके पापों के पूरे दण्ड को चुका दिया है, और उसे मुक्त कर दिया है। भले काम करना, मसीही जीवन जीना, उसका आत्मिक परिवर्तन होना, आदि, यह सब सुसमाचार को स्वीकार करने के लिए आवश्यक शर्तें नहीं हैं; ये सभी बातें व्यक्ति के, जैसा भी वह है, उसी स्थिति में, सुसमाचार में विश्वास करने और उसे ग्रहण करने के बाद, उसके जीवन में आती हैं।

·        जैसा कि पद 3 और 4 में दो बार कहा गया है, सुसमाचार पवित्र शास्त्र के अनुसार है, अर्थात उसके अनुसार जिसे हम आज पुराना नियम कहते हैं। सुसमाचार कोई नई बात नहीं है जिसे नए नियम के समय में लाया गया और परमेश्वर वचन में जोड़ा गया हो। प्रभु यीशु का आना, मारा जाना, गाड़ा जाना, और तीसरे दिन जी उठना, सब कुछ पहले से निर्धारित और पवित्र शास्त्र, अर्थात पुराने नियम में भविष्यवाणी किया हुआ था।

·        सुसमाचार विश्वासी के परमेश्वर का अनाज्ञाकारी होने और गलतियाँ करने के कारण बुरी दशा में आ जाने से निकलने का मार्ग प्रदान करता है, जैसा कि पौलुस ने कुरिन्थुस के विश्वासियों को इस पत्री के अन्त की ओर आते हुए याद करवाया, क्योंकि उसने यह पत्री उन में घुस आई बहुत सी गलतियों के निवारण के लिए लिखी थी।

·        सुसमाचार में विश्वास करना, कोई धर्म-परिवर्तन की बात करना नहीं है। सुसमाचार के इस सारांश में कहीं किसी धर्म की, अथवा किसी धर्म-परिवर्तन की कोई बात ही नहीं है। किसी भी धर्म से इसका कोई तात्पर्य नहीं है।

    आने वाले लेखों में हम सुसमाचार के बारे में सीखना ज़ारी रखेंगे, और उपरोक्त विचारों को बाइबल से और उन्नत एवं विकसित करेंगे, तथा साथ ही यह भी देखेंगे कि किस प्रकार से शैतान प्रचारकों के द्वारा सुसमाचार में अपनी ही बुद्धि और समझ की बातों, अपने ही विचारों, अपनी ही व्याख्याओं को डाल कर, सुसमाचार को भ्रष्ट करने, बिगाड़ने, तथा उसे व्यर्थ और अप्रभावी करने में लगा हुआ है।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Teachings Related to the Gospel – 22

 

    We have reviewed in the last article that the Jews living at the time of the Lord Jesus’s earthly ministry, assumed the word gospel to mean deliverance from the Roman rule and being given back the charge of ruling over the land of Israel – the Kingdom of God’s people, therefore, the Kingdom of God. But that is not what the Lord Jesus had in mind; and the Lord’s intended meaning should have been apparent to them not only through His preaching and teaching to them, but also since His call to the Jews to prepare themselves was not a call to prepare for battle against the Romans, but to repent; and to carry His message to not just the borders of the land of Israel, but to the ends of the earth (Acts 1:8). Moreover, repentance has nothing to do with fighting a physical battle; rather, it is related to one’s spiritual life. In repentance and preparing for the Kingdom of God, there is a great significance of the work of God the Holy Spirit of God in a Christian Believer’s life. Satan, to deceive and misguide people into getting entangled in vain things (2 Corinthians 11:3, 13-15), has had many wrong doctrines and false teachings propagated about the Holy Spirit and His ministry amongst the Christian Believers. Therefore, to see what the Bible actually says about the commonly misinterpreted and misused aspects of the ministry of the Holy Spirit amongst the Believers, in the last article we had very briefly seen the relevant Bible verses, related to the ministries of the Holy Spirit, that are commonly misinterpreted and misused in Christianity. Today we will see, from the Bible, about what the gospel is, and what it means.

    The Holy Spirit, through the Apostle Paul has summarized the gospel in 1 Corinthians 15:1-4, “1. Moreover, brethren, I declare to you the gospel which I preached to you, which also you received and in which you stand, 2. by which also you are saved, if you hold fast that word which I preached to you--unless you believed in vain. 3. For I delivered to you first of all that which I also received: that Christ died for our sins according to the Scriptures, 4. and that He was buried, and that He rose again the third day according to the Scriptures,” and that is the gist of the gospel, the good news, that the Lord asked His disciples to carry ‘to the end of the earth’ (Acts 1:8). Those who accepted this gospel, and accordingly become the disciples of the Lord Jesus, only they are to be baptized, and are to be taught the Word of the Lord, as commanded in the Great Commission by the Lord Jesus to His disciples (Matthew 28:19-20). Let us take note of what Paul has stated here under the guidance of the Holy Spirit in context of the gospel:

·        The gospel is not to be created, but to be declared, to be preached by the preacher; and is to be received by the Believer, with the intention to stand firmly in it, for it to be effective.

·        The gospel contains the message of salvation, which if accepted and believed upon, and then held fast in life, i.e., firmly adhered to or resolutely obeyed, has the power to save the person for eternity from all the consequences of his sins.

·        The gospel is not according to man’s wisdom and understanding; no one has to imagine or create it according to his own understanding and the situation at hand, and as per his assessment of the audience. Paul says in verse 3 that he received the gospel, and he delivered what he had received. It is something predetermined by God, and only has to be passed on to others, just as it has been given by God, without anyone mixing their own thoughts or wisdom or interpretations into it. This one God given gospel is for all times, for all places, for all situations, for all persons, just as it is, just as it has been stated here.

·        The second half of verse 3 and the whole of verse 4 make it clear that the gospel is about Christ Jesus suffering death for the sins of mankind, being buried, and then rising from the dead on the third day. This is the crux of the gospel, and there can be no deviation whatsoever from this crux, in any form; there can be no additions of any kind to it, and nothing can be taken away from it.

·        There is nothing stated here that asks the person accepting and believing in the gospel to also do good works and/or fulfil some religious obligations along with believing in the gospel, to make the gospel operative and effective. All a person has to do is to believe and accept that the Lord Jesus died for his sins, was buried, and rose again on the third day, and thereby has paid the whole penalty of his sins, and set him free from them. The good works, the Christian living, the spiritual transformation of the person, etc. are not a pre-condition to the person’s accepting the gospel; they all follow his believing and accepting the gospel, just as he is.

·        As it says twice, in verses 3 and 4, the gospel is according to the Scriptures, i.e., what we know as the Old Testament now. The gospel is not something new, something brought up and added to God’s Word in the New Testament times. The coming of the Lord Jesus, His death, burial, and resurrection, had all been pre-ordained and prophesied in the Scriptures, i.e., the Old Testament.

·        The gospel provides the way to come out of one’s sorry state, having disobeyed God and committed mistakes, as Paul reminds the Corinthian Believers towards the end of this letter written to them to correct the many wrong things that had crept into them.

·        Believing in the gospel is not about converting from one religion to another. In this summary of the gospel, there is no mention of any religion, or of changing from one religion to another. It has nothing to do with any religion.

    We will continue to learn about the gospel in the coming articles, and further develop and understand from the Bible, not only the thoughts presented above, but also how Satan has been trying to subvert and render the gospel vain through getting the preachers to add their own versions, understanding, and interpretations to it.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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