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आरम्भिक बातें – 60
हाथ रखना – 8
इब्रानियों 6:1-2 में दी गई आरंभिक शिक्षाओं में से चौथी, “हाथ रखना” पर विचार करते हुए, हम ने पिछले लेख में बाइबल के लेख और उदाहरणों से, तथा प्रति दिन के हमारे जीवनों के व्यवहार से देखा था, कि किसी पर हाथ रखना, या हाथ रखने के द्वारा किसी को छूना, उस के साथ एकता और मेल-मिलाप का सूचक भी होता है, उस व्यक्ति को आश्वस्त करता है कि हम उस के साथ खड़े हैं, और जो लोग भय या आशंकाओं का सामना कर रहे हैं उन्हें शान्ति प्रदान करता है। हाथ रखने के इस पक्ष का एहसास करना और इसे समझना बहुत आवश्यक है, क्योंकि हम इस के उपयोग के द्वारा प्रेरितों के काम पुस्तक के तीन पदों, प्रेरितों 8:17; 9:17: 19:6 के वास्तविक अर्थ को समझेंगे। हाथ रखने से सम्बन्धित इस बात को ध्यान में रखे बिना की गई व्याख्याओं के कारण ही इन पदों की गलत समझ, प्रचार की और सिखाई जाती है, और उन पदों का दुरुपयोग कर के यह झूठी शिक्षा दी जाती है कि पवित्र आत्मा हाथ रखने के द्वारा दिया जाता है। पिछले लेख में यह निवेदन भी किया गया था कि पवित्र आत्मा प्राप्त करने से सम्बन्धित एक पहले की ब्लॉग-पोस्ट, दिए गए लिंक की सहायता से पढ़ लें; और साथ ही कलीसिया के इतिहास से सम्बन्धित एक अन्य महत्वपूर्ण विचार-योग्य बात का भी उल्लेख किया गया था जिसे, इन तीन पदों को समझने और उन की सही व्याख्या करने के लिए ध्यान में रखना आवश्यक है, ताकि बाइबल के लेख में कोई विरोधाभास और दुविधा उत्पन्न न हों, और कोई भी झूठी शिक्षा और गलत सिद्धान्त न तो प्रचार किया जाए और न सिखाया जाए।
बाइबल यह स्पष्ट सिखाती है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी में उस के उद्धार यानि नया जन्म पाते ही, उसी पल से आकर रहने लगता है (प्रेरितों 19:2; रोमियों 8:9; 1 कुरिन्थियों 12:3; गलतियों 3:2; इफिसियों 1:13-14); और पवित्र आत्मा परमेश्वर के द्वारा दिया जाता है, विश्वासी द्वारा किए गए किसी भी प्रकार के कोई काम के कारण नहीं, वरन विश्वासी के मसीही विश्वास में होने के कारण (2 कुरिन्थियों 1:22; 5:5; गलतियों 3:14)। इसलिए यह कहना कि पवित्र आत्मा हाथ रखने से दिया जाता है, बाइबल के उपरोक्त पदों के साथ विरोधाभास उत्पन्न करना है, और ऐसा हो पाना असंभव है। किन्तु दूसरी ओर, यह भी एक अकाट्य सत्य है कि प्रेरितों के काम पुस्तक के तीन पदों में यह लिखा गया है कि लोगों ने प्रेरितों के या कलीसिया के अगुवे के द्वारा हाथ रखे जाने पर पवित्र आत्मा पाया। तो क्या यहाँ पर परमेश्वर के वचन बाइबल में कोई विरोधाभास है? इस परिस्थिति को समझने के लिए, और उस की सही व्याख्या करने, और फिर एक ऐसी समझ पर पहुँचने के लिए जो बाइबल के पदों के परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली बातों में सामंजस्य बैठा सके, हमें कलीसिया के इतिहास से सम्बन्धित कुछ बातों को ध्यान में रखना होगा, वे यहाँ पर बहुत महत्वपूर्ण हैं।
सबसे पहले हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि प्रेरितों के काम पुस्तक के उन तीन पदों के अतिरिक्त, बाइबल में हाथ रखने के द्वारा पवित्र आत्मा दिए जाने का और कोई उदाहरण नहीं है। साथ ही, बाइबल में कहीं कोई ऐसा निर्देश अथवा ऐसी शिक्षा नहीं है, जहाँ प्रभु यीशु ने, अथवा नए नियम की पुस्तकों के किसी भी लेखक ने कभी भी यह सिखाया हो कि प्रेरितों या कलीसिया के अगुवों के द्वारा हाथ रखे जाने से पवित्र आत्मा दिया जाएगा। वास्तव में, मरकुस 16:18 में, प्रभु यीशु ने कहा है कि शिष्यों के हाथ रखने के द्वारा रोगी चंगे हो जाएँगे; किन्तु प्रभु ने उस के साथ यह नहीं जोड़ा कि हाथ रखने के द्वारा शिष्य औरों को पवित्र आत्मा भी प्राप्त करवा सकेंगे। इसी प्रकार से याकूब 5:14-15 में, निर्देश दिया गया है कि बीमारों को चँगा करने के लिए कलीसिया के प्राचीन तेल मल कर प्रार्थना करें, और बीमार चंगे हो जाएँगे। सामान्यतः तेल मलना, माथे पर या सिर पर किया जाता है, जैसा कि हाथ रखना भी होता है। लेकिन यहाँ यह नहीं लिखा गया है कि इसी प्रकार से पवित्र आत्मा को भी दिया जा सकता है। इस तरह, प्रेरितों के काम के उपरोक्त तीन उदाहरणों के अतिरिक्त, यद्यपि यह अवसर था कि यह सिखाया जाए कि पवित्र आत्मा भी हाथ रखने के द्वारा दिया जा सकता है, किन्तु ऐसा कहीं नहीं किया गया है। इस तथ्य पर भी ध्यान कीजिए कि प्रेरितों के काम के इन तीनों उदाहरणों में केवल घटित हुई घटना का उल्लेख है, किन्तु ऐसी कोई शिक्षा या व्याख्या नहीं दी गई है कि इसी प्रकार से अन्य विश्वासियों को भी पवित्र आत्मा दिया जाना चाहिए। किन्तु बाइबल के कुछ व्याख्याकर्ता इन तीनों उदाहरणों को लेकर अपनी ही धारणा के अनुसार उन्हें समझते हैं, उसी के अनुसार व्याख्या करते और समझाते हैं, और फिर इसे सिद्धान्त के रूप में सिखाते हैं कि पवित्र आत्मा कलीसिया के अगुवों के द्वारा हाथ रखने से दिया जाता है। यह करते हुए उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं होती है कि उनकी यह व्याख्या परमेश्वर के वचन में एक गम्भीर विरोधाभास उत्पन्न कर रही है, और इस के कारण मसीही विश्वासियों में बड़ी दुविधा उत्पन्न होगी।
जिस दूसरी बात को हमें ध्यान में रखना है वह कलीसिया के इतिहास से सम्बन्धित है, और उस सन्दर्भ से इन तीनों पदों को समझने में सहायता करती है। प्रभु यीशु ने, अपने मृतकों में से पुनरुत्थान के बाद, अपने स्वर्गारोहण से पहले दी गई अपनी महान आज्ञा में, शिष्यों से कहा कि वे सारे सँसार के सभी लोगों, सभी जातियों में उद्धार के सुसमाचार को ले कर जाएँ (मत्ती 28:19; मरकुस 16:15; लूका 24:47; प्रेरितों 1:8)। यद्यपि प्रभु यीशु मसीह ने यहूदी मसीही विश्वासियों को कोई विशेष स्थान नहीं दिया था, फिर भी हम नए नियम में देखते हैं कि वे अपने आप को औरों से बढ़कर समझते थे (प्रेरितों 10:28; गलतियों 2:12)। उस समय के यहूदियों के लिए, सँसार में दो प्रकार के लोग थे – पहले थे यहूदी, जो परमेश्वर के लोग थे, तथा औरों से उच्च श्रेणी के थे; और दूसरे थे अन्यजाति, सँसार भर के शेष लोग, और जिन्हें यहूदी अपने से निम्न श्रेणी का समझते थे। अन्यजातियों में भी, एक ऐसी श्रेणी थी – सामरी, जिन से यहूदी विशेष रीति से अपने आप को दूर रखते थे, और उन्हें अन्यजातियों से भी निम्न श्रेणी का मानते थे। यहाँ तक कि वे सामरियों के गांवों में से होकर यात्रा भी नहीं करते थे; चाहे उन्हें लंबे रास्ते से होकर, सामरियों के गांवों से बाहर के इलाके से घूमकर ही क्यों न जाना पड़े। इसीलिए, यूहन्ना 4:4 में प्रभु के लिए लिखा है “और उसको सामरिया से हो कर जाना अवश्य था” क्योंकि प्रभु को वहाँ पर उस सामरी स्त्री से मिलना था। तो इस प्रकार से उस समय के यहूदी दृष्टिकोण के अनुसार, हमारे पास अब तीन श्रेणियों के लोग हैं: यहूदी, अन्यजाति, और सामरी। प्रथम शताब्दी के मसीही विश्वासियों में, आरम्भ में, दो प्रकार के विश्वासी थे – आरंभिक विश्वासी, जिन्होंने यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले का अनुसरण किया था, और बाद में भी उसी के ही शिष्य बने रहे (मत्ती 9:14; मरकुस 2:18; लूका 5:33; 7:18-19; यूहन्ना 1:35; 3:25); और दूसरे, बाद में बनें प्रभु यीशु मसीह का अनुसरण करने वाले मसीही विश्वासी, जिन में यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के कुछ शिष्य भी सम्मिलित हो गए थे (यूहन्ना 1:37)।
तो इस प्रकार से, प्रथम कलीसिया के समय में हमारे पास, उस समय के लोगों के दृष्टिकोण के अनुसार, चार श्रेणियों के लोग विद्यमान थे – यहूदी, और यहूदियों में से मसीही विश्वासी बनने वाले; अन्यजाति, और अन्य जातियों में से मसीही विश्वासी बनाने वाले; सामरी, और सामरियों में से मसीही विश्वासी बनाने वाले; और यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के शिष्य। किन्तु कलीसिया में, अर्थात प्रभु यीशु मसीह की देह में, इस प्रकार के किसी भी विभाजन की कोई अनुमति नहीं है, इस प्रकार की श्रेणियों का अस्तित्व हो ही नहीं सकता है; प्रभु के समक्ष, सभी मसीही विश्वासी समान और एक ही श्रेणी के हैं (1 कुरिन्थियों 12:13; गलतियों 3:28; इफिसियों 2:11-18; कुलुस्सियों 3:11)। अगले लेख में, प्रेरितों के काम के इन तीन पदों के द्वारा हम देखेंगे और समझेंगे कि प्रथम कलीसिया के मसीही विश्वासियों तक यह संदेश किस प्रकार से समझाया और पहुँचाया गया कि प्रभु यीशु के लिए सभी एक समान, एक ही स्तर के हैं, और फिर इसे हमारी शिक्षा के लिए भी लिखा गया।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 60
Laying on of Hands - 8
In the previous article on “laying on of hands,” the fourth of the six elementary principles given in Hebrews 6:1-2, we had seen through Biblical examples and texts, and also through the example of our day-to-day behavior, that the physical act of touching, of placing hands on someone conveys a sense of unity and solidarity with the person, of assuring him of our standing with him, and helps to comfort people facing fearful or apprehensive situations. It is very important to realize and understand this aspect of laying on of hands, since we will be using it to understand what the three verses from the book of Acts, i.e., Acts 8:17; 9:17; 19:6 actually mean. It is because of not taking into consideration this understanding about laying on of hands that these verses are misinterpreted and misused to preach and teach the false doctrine that laying of hands is required to receive the Holy Spirit. A request had also been made in the previous article about reading an earlier blog-post on the receiving of the Holy Spirit through the provided link; and a mention had been made of another important consideration related to Church history, which also should be kept in mind, when understanding and interpreting these verses. Today we will try to bring these together and learn how these verses are to be understood and interpreted to avoid bringing contradictions and confusion in Bible text and not preach or teach any wrong doctrine, based on misinterpretations.
The Bible clearly teaches that God the Holy Spirit comes to reside in every Born-Again Christian Believer, the moment he is saved, is Born-Again (Acts 19:2; Romans 8:9; 1 Corinthians 12:3; Galatians 3:2; Ephesians 1:13-14); and that the Holy Spirit is a given by God, not in response to any works of any kind done by any Believer, but as response to the faith of the Believer (2 Corinthians 1:22; 5:5; Galatians 3:14). Therefore, to say that the Holy Spirit is given by the laying on of hands, is to bring in a contradiction to the Bible verses mentioned above; and this is an impossibility. On the other hand, there is the undeniable fact that in the three verses from the book of Acts, mentioned above, people did receive the Holy Spirit after the laying on of hands on them by the Apostles or Church Elder. Is there a contradiction in God’s Word the Bible, here? To understand the situation, to interpret it correctly, and then come to a proper understanding, to an interpretation that takes care of the two seemingly contradictory aspects of the verses from the Bible, we need to consider some things related to the Church history, that are of great importance here.
Firstly, we should note that other than the three instances from the book of Acts, nowhere else do we have any example of the Holy Spirit being given by laying on of hands. Also, there is no teaching or instruction in the Bible, where the Lord Jesus, or any of the writers of New Testament books have ever said that the Holy Spirit will be given by the laying on of hands by the Apostles or the Church elders. In fact, in Mark 16:18, the Lord Jesus has said that by the laying on of hands by the disciples, people will be healed; but He never added that they will receive the Holy Spirit as well. Similarly, in James 5:14-15, for the healing of sick persons, instruction is given to call the Church elders, and they shall anoint the sick with oil and pray, and they will be healed. Anointing is by application of oil to the head or forehead, something like laying on of hands. But it is not stated that this can also be used to give the Holy Spirit to them. So, other than these three instances from Acts, mentioned above, although there was an opportunity to give and affirm the teaching that the Holy Spirit can be given by laying on of hands, it was never done. Consider the fact that in the Biblical text related to these three instances also, there is no teaching that this process should be followed to give the Holy Spirit to others. Rather, some Bible interpreters have taken these instances, understood and interpreted them in a particular way, then have stated the doctrine that the Holy Spirit is given by the laying on of hands by the Church Elders, without giving it a thought that this interpretation of theirs is bringing in a serious contradiction in God’s Word, and has the potential to create a lot of confusion amongst the Christian Believers.
Secondly, let us look at an aspect of Church history, that has a bearing on interpreting and understanding these three verses. The Lod Jesus, after His resurrection, in His Great Commission given before His ascension, commanded His disciples to go to all nations, all over the world with the gospel of salvation (Matthew 28:19; Mark 16:15; Luke 24:47; Acts 1:8). Though the Lord Jesus had not given any special status to the Jewish Believers, yet we see in the New Testament that they considered themselves to be superior (Acts 10:28; Galatians 2:12). To the then Jews, the world was made up of two kinds of people – The Jews, who were the people of God, and superior to others; and the Gentiles, who were all the rest of the world, and were considered inferior by the Jews. Amongst the Gentiles, the Jews particularly kept away from another category of people – the Samaritans, whom they considered to be of an even lower category than the rest of the Gentiles. So much so, that they even avoided travelling through any shorter route that went through Samaritan villages, preferring to take a longer round-about route that avoided any Samaritan villages. That is why it is written in John 4:4 “But He needed to go through Samaria” since the Lord had to meet the Samaritan woman there. So, according to the then Jewish way of thinking, now we have three categories of people: the Jews, the Gentiles, and the Samaritans. Amongst the Christian Believers of the first century, in the initial stages there were two kinds of Believers – the early Believers, who had followed John the Baptist, and continued as his disciples (Matthew 9:14; Mark 2:18; Luke 5:33; 7:18-19; John 1:35; 3:25), and the later disciples, who followed the Lord Jesus, and some of John’s disciples had come to follow the Lord Jesus (John 1:37).
So, according to then way of looking at it, now we have four kinds of people, at the time of the first Church – the Jews and the Jewish converts to Christianity; the Gentiles and the Gentile Believers, i.e., those coming to follow the Lord from the Gentiles; the Samaritans, and the Samaritan followers of the Lord Jesus; and the disciples of John the Baptist. But in the Church, i.e., the Body of Christ, no such segregations are permitted, they cannot be allowed to exist; all Christian Believers are of one and the same category before the Lord (1 Corinthians 12:13; Galatians 3:28; Ephesians 2:11-18; Colossians 3:11). In the next article, through these three verses from Acts, we will see how this message that all Christian Believers are one and are at the same level in the Lord Jesus, was conveyed to the Believers of the first Church, and recorded for our benefit.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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