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मंगलवार, 31 दिसंबर 2024

Some Related Questions and their Answers / कुछ संबंधित प्रश्न और उनके उत्तर (4a)

 

पाप और उद्धार को समझना – 39

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पाप का समाधान - उद्धार - 36

कुछ संबंधित प्रश्न और उनके उत्तर (4a)


पिछले लेख में हमने देखा था कि उद्धार कभी खोया या गँवाया नहीं जा सकता है, वह अनन्तकालीन ही है; किन्तु उद्धार पाया हुआ व्यक्ति यदि पाप में बना रहे, तो उसे न केवल पृथ्वी पर ताड़ना सहनी पड़ती है, वरन उसके स्वर्गीय प्रतिफलों पर भी उसके पापों का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। और इसीलिए, बहुतेरे ऐसे लोग भी होंगे जो अपनी इस लापरवाही के व्यवहार के कारण स्वर्ग में छूछे हाथ प्रवेश करेंगे - वे अपने उद्धार को तो नहीं गँवाएंगे, किन्तु अपनी आशीषों और प्रतिफलों को गँवा देंगे, और फिर अपना स्वर्गीय अनन्तकाल खाली हाथ ही बिताएंगे। पाप और उद्धार से संबंधित सामान्यतः पूछे जाने वाले प्रश्नों की शृंखला में आज हम इसी विषय से संबंधित एक और प्रश्न पर विचार करते हैं। 


प्रश्न: क्या उद्धार पाया हुआ व्यक्ति पाप कर सकता है? यदि वह करे तो उसका क्या परिणाम और समाधान है?


उत्तर: जैसा हमने उद्धार या नया जन्म पाने के विषय में देखा था, उद्धार या नया जन्म पाना उस व्यक्ति के जीवन में एक आजीवन ज़ारी रहने वाली प्रक्रिया का केवल आरंभ मात्र है। उद्धार पाते ही व्यक्ति सिद्ध नहीं हो जाता है, वरन प्रभु यीशु मसीह का, उसके वचन की आज्ञाकारिता में, अनुसरण करते जाने के द्वारा वह मसीही विश्वास और प्रभु की शिष्यता के जीवन में परिपक्व होता चला जाता है, प्रभु यीशु की समानता में अधिकाधिक ढलता चला जाता है। परमेश्वर का वचन हमें एक अद्भुत, अनपेक्षित, किन्तु बहुत सांत्वना देने वाले तथ्य से भी अवगत करवाता है - प्रभु यीशु के साथ रहने और चलने वाले शिष्य भी सिद्ध नहीं थे; उनसे भी पाप हो जाता था; उन्हें भी अपने पापों के लिए प्रभु से क्षमा और बहाली माँगनी पड़ती थी! बाइबल के कुछ पदों को देखिए:


* प्रेरित यूहन्ना ने लिखा: “यदि हम कहें, कि हम में कुछ भी पाप नहीं, तो अपने आप को धोखा देते हैं: और हम में सत्य नहीं” (1 यूहन्ना 1:8); “यदि कहें कि हम ने पाप नहीं किया, तो उसे झूठा ठहराते हैं, और उसका वचन हम में नहीं है” (1 यूहन्ना 1:10)। इन पदों में यूहन्ना द्वारा प्रयुक्त “हम” पर ध्यान करें - प्रेरित अपने आप को भी उन लोगों के साथ सम्मिलित कर लेता है, जिनके लिए वह यह पत्री लिख रहा है। साथ ही वह यह स्पष्ट कर देता है कि यदि कोई यह दावा करता है कि उसने पाप नहीं किया है, तो न केवल वह झूठा है, वरन परमेश्वर को भी झूठा ठहरा देता है। लेकिन साथ ही यूहन्ना समाधान भी लिखता है: “...और उसके पुत्र यीशु का लहू हमें सब पापों से शुद्ध करता है” (1 यूहन्ना 1:7); “यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने, और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है” (1 यूहन्ना 1:9)।


* प्रेरित पौलुस ने लिखा, “क्योंकि मैं जानता हूं, कि मुझ में अर्थात मेरे शरीर में कोई अच्छी वस्तु वास नहीं करती, इच्छा तो मुझ में है, परन्तु भले काम मुझ से बन नहीं पड़ते। क्योंकि जिस अच्छे काम की मैं इच्छा करता हूं, वह तो नहीं करता, परन्तु जिस बुराई की इच्छा नहीं करता वही किया करता हूं। परन्तु यदि मैं वही करता हूं, जिस की इच्छा नहीं करता, तो उसका करने वाला मैं न रहा, परन्तु पाप जो मुझ में बसा हुआ है” (रोमियों 7:18-20)। अपने शरीर के पाप करने की इस प्रवृत्ति से दुखी और कुंठित होकर, जिससे उसे निरंतर जूझते रहना पड़ता है, पौलुस प्रश्न उठाता है, “मैं कैसा अभागा मनुष्य हूं! मुझे इस मृत्यु की देह से कौन छुड़ाएगा?” (रोमियों 7:24); और फिर तुरंत ही पवित्र आत्मा की अगुवाई में स्वयं ही उत्तर भी दे देता है, “सो अब जो मसीह यीशु में हैं, उन पर दण्ड की आज्ञा नहीं: क्योंकि वे शरीर के अनुसार नहीं वरन आत्मा के अनुसार चलते हैं। क्योंकि जीवन की आत्मा की व्यवस्था ने मसीह यीशु में मुझे पाप की, और मृत्यु की व्यवस्था से स्वतंत्र कर दिया” (रोमियों 8:1-2)।


इसी प्रकार नए नियम की विभिन्न मसीही मंडलियों को परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में लिखी गई पत्रियों के सभी लेखक अपनी पत्रियों में मसीही विश्वासी के जीवन में पाप की वास्तविकता के विभिन्न आयामों के विषय लिखते हैं। अर्थात वे पवित्र आत्मा की प्रेरणा में स्वीकार कर रहे हैं कि कोई भी मसीही विश्वासी इस संसार में, पाप करने का स्वभाव रखने वाली अपनी इस नश्वर देह में रहते हुए, पाप करने की प्रवृत्ति और संभावना से मुक्त नहीं है; सिद्ध नहीं है। सभी को उद्धार के बाद भी पाप की समस्या से जूझना पड़ता है; सभी को इसका समाधान चाहिए होता है, क्योंकि मसीही विश्वासियों और परमेश्वर का बैरी, शैतान, निरंतर मसीही विश्वासियों को पाप में गिराने और फँसाने के प्रयासों में लगा रहता है। इसीलिए परमेश्वर हमें आश्वस्त करता है कि जब भी और जैसे ही हमें अपने पाप का बोध हो, हम उससे क्षमा माँग लें, और वह हमको क्षमा कर देगा और बहाल कर देगा; अब हमपर दण्ड की आज्ञा नहीं है, वरन प्रभु यीशु में होकर अनुग्रह और कृपा प्रदान की गई है।  


अगले लेख में हम इस विषय को ज़ारी रखते हुए देखेंगे कि यदि उद्धार पाए हुए और न पाए हुए, दोनों ही पाप कर सकते हैं, तो फिर उद्धार पाने का क्या लाभ? तो फिर उद्धार पाए हुए और न पाए हुए व्यक्ति में क्या अंतर? 


किन्तु अभी,  यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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 Understanding Sin and Salvation – 39

English Translation

The Solution For Sin - Salvation - 36

Some Related Questions and their Answers (4a)


In the previous article we had seen that salvation is eternal and can never be lost or revoked; but a saved or Born-Again person, if he continues in sin, then not only does he have to suffer chastening on earth, but his heavenly rewards are also adversely affected; and there will be many who will enter heaven empty handed because of their careless attitude - they have not lost their salvation, but have lost their heavenly rewards because of their careless and wayward life after being saved, and will spend their eternity empty-handed. Today, in this series on common questions related to salvation, being Born-Again and sin, we will look at another question that is often raised by people.


Question: Can a saved, a Born-Again person sin? If he does sin, then what are the consequences, and what is the remedy?


Answer: As we have already seen, salvation and being Born-Again is just the beginning of a lifelong process in the saved person’s life. No one becomes perfect at the moment of being saved or Born-Again; but by continuing in fellowship with the Lord, in obedience to God’s Word, by living as a disciple of the Lord Jesus, the person continues to grow in maturity and in the likeness of the Lord Jesus. God’s Word presents to us a wonderful, unexpected, but a very reassuring fact as well - even the Disciples who lived with and learned directly from the Lord, were not perfect; they too committed sins; they too had to confess their sins to the Lord and receive forgiveness for them from Him. Consider some verses from the Bible:


* The Apostle John wrote: “If we say that we have no sin, we deceive ourselves, and the truth is not in us” (1 John 1:8); “If we say that we have not sinned, we make Him a liar, and His word is not in us” (1 John 1:10). In these verses, please note the use of “we” by John - the Apostle is also including himself, along with those to whom he is writing this letter, for the contents of his letter. Along with this he also makes it clear that if anyone claims not to have sinned, then not only is he a deceiver, but is also making God a liar. But simultaneously, John also provides the solution: “...and the blood of Jesus Christ His Son cleanses us from all sin” (1 John 1:7); “If we confess our sins, He is faithful and just to forgive us our sins and to cleanse us from all unrighteousness” (1 John 1:9).


     * The Apostle Paul wrote about his own experiences, “For I know that in me (that is, in my flesh) nothing good dwells; for to will is present with me, but how to perform what is good I do not find. For the good that I will to do, I do not do; but the evil I will not to do, that I practice. Now if I do what I will not to do, it is no longer I who do it, but sin that dwells in me” (Romans 7:18-20). Frustrated and irritated at the tendency to sin present in his body, with which he has to constantly struggle, Paul raises the question “O wretched man that I am! Who will deliver me from this body of death?” (Romans 7:24); and then immediately, through the Holy Spirit, also provides the answer, “There is therefore now no condemnation to those who are in Christ Jesus, who do not walk according to the flesh, but according to the Spirit. For the law of the Spirit of life in Christ Jesus has made me free from the law of sin and death” (Romans 8:1-2).


Similarly, in all the letters written to the various New Testament Churches by various authors under the guidance of the Holy Spirit, all of them have written about the reality of sin in its various forms and dimensions, in the lives of Christian Believers. In other words, through the Holy Spirit of God, they are all acknowledging that no Christian Believer, living in this world and in this perishing body with the sin nature, is free from the tendency and possibility of committing sin; none is perfect. Everyone, even after salvation, has to struggle with their sin nature, the problem of sinning; and everybody needs a solution for this. This is because the enemy of God and Christian Believers, is constantly at work to entice the Believers to sin, make them fall in sin. Therefore, God assures us that whenever and as soon as we realize having fallen into sin, we should confess it to Him, seek His forgiveness, and He will forgive and restore us; now we are no longer under condemnation of sin, the grace of the Lord Jesus has delivered us from the condemnation. 


In the next article we will continue with this question and ponder over the argument "Then what is the benefit of being saved or Born-Again? If both can sin, then what difference, if any, is there between a saved and an unsaved person?"


But for now, if you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.


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सोमवार, 30 दिसंबर 2024

Some Related Questions and their Answers / कुछ संबंधित प्रश्न और उनके उत्तर (3c)

 

पाप और उद्धार को समझना – 38

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पाप का समाधान - उद्धार - 35

कुछ संबंधित प्रश्न और उनके उत्तर (3c) 


पिछले दो लेखों से हम प्रभु यीशु मसीह में लाए गए विश्वास द्वारा मिलने वाले पाप क्षमा तथा उद्धार से संबंधित प्रश्नों की शृंखला में, एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न “क्या कभी गँवाए न जा सकने वाले अनन्त उद्धार के सिद्धांत में, बिना किसी भय के पाप करते रहने की स्वतंत्रता निहित नहीं है?” को देखते आ रहे हैं। पिछले लेखों में हमने दो बातें देखी थीं कि क्यों यह विचार रखना परमेश्वर के इस उद्धार के कार्य और आश्वासन से असंगत है। पहली बात थी कि जिसने मसीह के बलिदान और पुनरुत्थान के महत्व को समझा है और उसे सच्चे मन से स्वीकार किया है, वह फिर प्रभु के बलिदान, पुनरुत्थान, और उसके परिणामस्वरूप मिले इस महान उद्धार का आदर करेगा; उसका दुरुपयोग नहीं करेगा, उसका अनुचित लाभ उठाने का प्रयास नहीं करेगा। उसके अन्दर रहने वाला परमेश्वर पवित्र आत्मा कभी उसे पाप के दशा में बने नहीं रहने देता है उसे कायल करता है कि वह अपने पाप का अंगीकार करे और परमेश्वर से उसके लिए क्षमा मांगे। दूसरी बात हमने देखी थी कि सर्वज्ञानी परमेश्वर अज्ञानी नहीं है जो बिना सोचे समझे गलती करने वाले मनुष्य को एक ऐसी संभावनाएँ प्रदान कर दे, जिन का दुरुपयोग किया जा सके, और साथ में आवश्यक नियंत्रण और संचालन बनाए न रखे। परमेश्वर का वचन बाइबल यह स्पष्ट बताती है कि चाहे मसीही विश्वासी का उद्धार न भी जाए, तो भी उसके पाप और दुर्वचन, उसे स्वर्ग में मिलने वाले उसके प्रतिफलों का नुकसान करते हैं, और यहाँ पर लापरवाही से बिताया गया जीवन, स्वर्ग में मिलने वाले प्रतिफलों का नाश करता है, जो स्थिति अनन्तकाल के लिए होगी, कभी सुधारी या पलटी नहीं जा सकेगी। आज इसी प्रश्न के उत्तर से जुड़ी एक तीसरी बहुत महत्वपूर्ण बात भी देखते हैं, जिसकी ओर सामान्यतः लोगों का ध्यान या तो जाता ही नहीं है, अथवा बहुत कम जाता है।


हमने पिछले लेख में यह भी देखा था कि पाप करने से मनुष्य पर तीन बातें आईं - पहली, मृत्यु - आत्मिक एवं शारीरिक; दूसरी, जीवनपर्यंत एक शारीरिक दण्ड की स्थिति में जीते रहना; और अन्ततः उसी स्थिति में मर भी जाना; और तीसरी परमेश्वर के साथ की धन्य संगति और सहभागिता रखने के स्थान से बाहर निकाल दिया जाना। प्रत्येक मनुष्य के पाप के लिए, उसके पाप की आत्मिक एवं शारीरिक मृत्यु प्रभु यीशु ने वहन कर ली, उसकी पूरी कीमत चुका दी, और मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली है। जिसने प्रभु के इस कार्य को स्वीकार कर लिया और अपने आप को उसका शिष्य होने के लिए समर्पित कर दिया, प्रभु यीशु ने परमेश्वर पिता के साथ उसकी संगति को बहाल कर दिया, उस पर से मृत्यु के दण्ड को हटा दिया, जैसा हम पहले देख चुके हैं। दूसरे शब्दों में, प्रभु की मृत्यु और पुनरुत्थान के द्वारा पाप के पहले और तीसरे प्रभाव का तो समाधान हो गया है; परन्तु दूसरा प्रभाव बना हुआ है। इसके विषय यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रभु यीशु मसीह के कार्य के द्वारा हमें मृत्यु से तो निकासी मिल गई, परमेश्वर के साथ हमारी संगति भी बहाल हो गई; किन्तु प्रभु यीशु मसीह ने हमारे पापों के साथ जुड़ी हुई मनुष्य की आजीवन शारीरिक दण्ड की स्थिति में रहने को वहन नहीं किया है। क्योंकि उद्धार पाने के बाद भी मानव शरीर में उसकी पहले की पाप करने की प्रवृत्ति, पाप का दोष बना ही रहता है, और मनुष्य पाप करता रहता है, इसलिए पाप के कारण आए इस शारीरिक दण्ड को हम में से प्रत्येक को मसीही विश्वासी को भुगतना ही पड़ेगा। बाइबल में इसके कई स्पष्ट उदाहरण हैं और संबंधित हवाले हैं कि लोगों के पाप क्षमा होने पर परमेश्वर के साथ उनकी संगति बहाल रही, किन्तु फिर भी उन्हें उन पापों के लिए शारीरिक दण्ड को सहते रहना पड़ा। हम यहाँ पर केवल तीन उदाहरणों को ही देखेंगे:


* गिनती की पुस्तक के 13 और 14 अध्यायों को देखिए। जब इस्राएली मिस्र के दासत्व से निकलकर, वाचा किए हुए कनान देश के किनारे पर पहुँचे, तो उनके मनों में कुछ संदेह उठे, और परमेश्वर ने मूसा से कहा कि वह इस्राएल के हर गोत्र में से एक-एक जन को लेकर कनान की टोह लेने को भेज दे, जिससे इस्राएल के लोगों का उस देश के उत्तम होने के बारे में संदेह का निवारण हो जाए। उन भेदियों ने जाकर कनान देश की टोह ली, और आकर इस्राएलियों को बताया कि देश तो बहुत अच्छा और उपजाऊ है, किन्तु वहाँ दैत्याकार लोग भी रहते हैं, और उन्हें उस देश में जाने के विषय घबरा दिया। उनके बारंबार परमेश्वर के प्रति प्रदर्शित किए जाने वाले अविश्वास और अनाज्ञाकारिता की प्रवृत्ति के कारण परमेश्वर ने उन्हें दण्ड देना और मार डालना चाहा, और मूसा से कहा कि अब वह उन इस्राएलियों के स्थान पर उससे एक नई जाति उत्पन्न करेगा (गिनती 14:11-12)। मूसा ने उन लोगों के लिए परमेश्वर से क्षमा माँगी, परमेश्वर के आगे उनके लिए गिड़गिड़ाया और विनती की। परमेश्वर ने मूसा की प्रार्थना के उत्तर में उनके मृत्यु दण्ड को तो हटा लिए, किन्तु यह दण्ड दिया कि अब उन्हें 40 वर्ष तक जंगल में यात्रा करते रहना होगा, जब तक कि वह अविश्वासी और अनाज्ञाकारी पीढ़ी के लोग मर कर समाप्त न हो जाएं (गिनती 14:22-34)। प्रभु यीशु मसीह के हमारे पापों के लिए मध्यस्थ और सहायक की भूमिका को मूसा ने निभाया - मृत्यु दण्ड हटा दिया गया, स्वाभाविक मृत्यु रह गई, किन्तु अविश्वास और अनाज्ञाकारिता के पाप के कारण जीवन भर सहने वाले एक दण्ड की आज्ञा बनी रह गई। 


* गिनती की पुस्तक के 20 अध्याय को देखिए। जंगल की यात्रा के दौरान, जब लोगों को पानी की कमी हुई, तो इस्राएली लोग हाहाकार करने लगे (पद 1-5); परमेश्वर ने मूसा से कहा कि वह वहाँ की एक चट्टान से जाकर कहे, और उसमें से पानी निकल पड़ेगा (पद 7-8)। मूसा ने परमेश्वर के कहे के अनुसार लोगों को एकत्रित किया; किन्तु उन इस्राएलियों के अविश्वास और परमेश्वर के विरुद्ध कुड़कुड़ाने के कारण उनसे क्रुद्ध होकर, मूसा ने क्रोध के आवेश में आकर अनुचित बोला, और चट्टान से केवल बोलने के स्थान पर उसपर अपनी लाठी दो बार मारी (पद 10-11)। चट्टान से पानी तो निकला, किन्तु परमेश्वर ने मूसा को दण्ड दिया कि वह अपनी इस अनाज्ञाकारिता के कारण कनान में प्रवेश नहीं करने पाएगा (पद 12), और मूसा को अपनी अनाज्ञाकारिता का दण्ड आजीवन भुगतना पड़ा। कनान के किनारे पहुँच कर मूसा ने फिर से परमेश्वर से उसे कनान में जाने देने की अनुमति देने की विनती की, किन्तु परमेश्वर ने उसे डाँट कर चुप करा दिया (व्यवस्थाविवरण 3:23-27)। मूसा को उसकी अनाज्ञाकारिता के लिए मृत्यु, या परमेश्वर से पृथक होने की सजा तो नहीं दी गई, किन्तु शारीरिक दण्ड की आज्ञा को उसे आजीवन भुगतना पड़ा। 


* 2 शमूएल 12 अध्याय देखिए। दाऊद द्वारा बतशेबा के साथ किए गए व्यभिचार और उसके पति ऊरिय्याह की हत्या के पाप के कारण परमेश्वर उससे अप्रसन्न हुआ। परमेश्वर ने दाऊद को लगभग एक वर्ष का समय दिया, कि वह पश्चाताप कर ले, किन्तु उसने नहीं किया। तब परमेश्वर ने नातान नबी को उसके पास भेजा, जिसने दाऊद के सामने उसके पाप को प्रकट कर दिया (पद 1-7), और दाऊद पर उसके प्रति परमेश्वर की अप्रसन्नता को व्यक्त कर दिया, तथा परमेश्वर द्वारा निर्धारित दण्ड उसको बता दिया (पद 8-12)। यह सुनकर दाऊद ने अपना पाप स्वीकार किया, पश्चाताप किया। दाऊद के इस पश्चाताप के कारण परमेश्वर ने जो नातान से कहलवाया, वह ध्यान देने योग्य है “तब दाऊद ने नातान से कहा, मैं ने यहोवा के विरुद्ध पाप किया है। नातान ने दाऊद से कहा, यहोवा ने तेरे पाप को दूर किया है; तू न मरेगा” (2 शमूएल 12:13)। दाऊद पर से मृत्यु तो हटा ली गई, किन्तु शेष दण्ड उसे भुगतना पड़ा, और आज तक परमेश्वर के वचन में उसके इस पाप का वर्णन है। दाऊद जितना अपने भजनों और ‘परमेश्वर के मन के अनुसार व्यक्ति’ होने के लिए जाना जाता है, उतना ही ऊरिय्याह के हत्यारे और बतशेबा के साथ व्यभिचार करने के लिए भी जाना जाता है, और परमेश्वर की दृष्टि में बतशेबा ऊरिय्याह ही की पत्नी रही, दाऊद की पत्नी नहीं बनी (मत्ती 1:6)। 


इस्राएल परमेश्वर की चुनी हुए प्रजा है, दाऊद और मूसा उसके प्रिय जन और भविष्यद्वक्ता हैं, किन्तु उनके द्वारा किए गए पापों के लिए यद्यपि वे नाश तो नहीं हुए, किन्तु उन्हें भी शारीरिक दण्ड उठाना ही पड़ा, वे उस दण्ड को सहने से बच नहीं सके। यदि अनुग्रह के युग से पहले भी परमेश्वर का चुना हुआ जन परमेश्वर से पृथक नहीं हो सकता था, तो फिर अब इस अनुग्रह के युग में यह अलग किया जाना क्योंकर संभव होगा? यदि व्यवस्था के युग में जीने वाले परमेश्वर के लोग, परमेश्वर की निन्दा, अनाज्ञाकारिता, उसके विरुद्ध कुड़कुड़ाने, उसका अपमान करने, हत्या और व्यभिचार करने जैसे जघन्य पापों के बाद भी परमेश्वर द्वारा तिरस्कार नहीं किए गए, तो फिर इस वर्तमान अनुग्रह के युग में परमेश्वर के लोग क्योंकर तिरस्कार किए जाएँगे? प्रभु यीशु मसीह ने परमेश्वर से हमें पृथक करने वाले पाप के प्रभाव, अर्थात आत्मिक और शारीरिक मृत्यु, को अपने ऊपर ले लिया, हम सभी के लिए सह लिया, और उसके प्रभाव को मिटा दिया। अब मृत्यु, अर्थात परमेश्वर से दूरी का स्थाई समाधान हो गया है, और कोई भी, कुछ भी उस समाधान को पलट नहीं सकता है। जो भी व्यक्ति उस समाधान को स्वीकार कर लेता है, उसके लिए वह सदा सक्रिय तथा अनन्त काल के लिए लागू है। किन्तु साथ ही परमेश्वर ने यह भी प्रकट कर दिया है कि पाप के शारीरिक दण्ड को, परमेश्वर द्वारा उन पापों के लिए इस पृथ्वी के जीवन के दौरान दी गई ताड़ना को, मनुष्य को इस पृथ्वी पर भुगतना होगा (इब्रानियों 12:5-11; 1 पतरस 4:1), और साथ ही उस पाप का दुष्प्रभाव उसके स्वर्गीय प्रतिफलों पर भी आएगा। अब यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्वयं परखने और निर्णय लेने की बात है कि क्या वह अपने उद्धार को लापरवाही से लेगा, और इस पृथ्वी पर ताड़ना सहने तथा स्वर्ग में अपने प्रतिफलों के हानि उठाने को तैयार रहेगा? इसलिए यह धारणा रखना कि उद्धार के अनन्तकालीन होने के कारण उद्धार पाया हुआ व्यक्ति चाहे जैसा भी जीवन जीए, उसे कोई हानि नहीं होगी, परमेश्वर के वचन से पूर्णतः असंगत है। और जो इस अनुचित धारणा के आधार पर यह शिक्षा देते हैं कि पाप करने के कारण उद्धार खोया जा सकता है उन्हें परमेश्वर के वचन को सही प्रकार से पढ़ने, समझने, और मानने की आवश्यकता है। 


इसलिए शैतान के द्वारा फैलाई जा रही इन व्यर्थ और मिथ्या बातों पर ध्यान मत दीजिए। प्रभु के आपके प्रति प्रमाणित किए गए प्रेम, कृपा, और अनुग्रह, तथा उसके द्वारा आपको प्रदान किए जा रहे पाप-क्षमा प्राप्त करने के अवसर के लिए प्रभु द्वारा चुकाए गए मूल्य पर ध्यान कीजिए और उस को समझिए, और अभी इस अवसर का लाभ उठा लीजिए।  प्रभु यीशु ने तो अपना काम कर के दे दिया है; किन्तु क्या आपने उसके इस आपकी ओर बढ़े हुए प्रेम और अनुग्रह के हाथ को थाम लिया है, उसकी भेंट को स्वीकार कर लिया है? या आप अभी भी अपने ही प्रयासों के द्वारा वह करना चाह रहे हैं जो मनुष्यों के लिए कर पाना असंभव है।


यदि आपने अभी तक नया-जन्म, उद्धार, नहीं पाया है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए सच्चे मन से क्षमा नहीं माँगी है, तो आपके पास अभी यह करने का अवसर है। आपके द्वारा स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ आपके द्वारा की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को आशीषित तथा स्वर्गीय जीवन बना देगा। परमेश्वर आपके के साथ संगति की लालसा रखता है, आपको आशीषित देखना चाहता है; किन्तु इसे सम्भव बनाना आपके निर्णय पर निर्भर है। अभी अवसर उपलब्ध है, अभी प्रभु का निमंत्रण आपके लिए खुला है - समय और अवसर रहते उसे स्वीकार कर लीजिए। 

 

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 Understanding Sin and Salvation – 38

English Translation

The Solution For Sin - Salvation - 35

Some Related Questions and their Answers (3c)


While continuing to consider the various commonly raised questions regarding forgiveness of sins and salvation through faith in the Lord Jesus Christ, in the last two articles, we had begun to look into a very important question “In the doctrine of eternal salvation, one that cannot ever be lost, isn’t the freedom to continue to sin with impunity implied?” In the previous article we had seen through two related things, why this notion is not only inconsistent with, rather, is contradictory to the work of salvation accomplished by the Lord. The first thing that we saw was that whoever has understood the value and importance of the sacrifice and resurrection of the Christ Jesus, and has accepted it with a sincere, humble heart, he cannot dishonor the great salvation he has received by the grace of God through the sacrifice and resurrection of the Lord Jesus. He will only respect and honor it, not misuse it, and would never try to take any undue selfish advantage of it. The Holy Spirit residing in the Born-Again person does not let him continue in sin, but gets him to confess it and ask for God’s forgiveness for it. The second thing we had seen was that the omniscient God is not ignorant, and would never give to fallible man something that man could misuse, without putting the required controls and management in place. Bible, the Word of God very clearly says to us that though a Christian Believer’s salvation will not be lost, yet, his sinful deeds and inappropriate words will adversely affect the rewards that he is to receive in heaven. A life of carelessness and waywardness here on earth, will irreversibly damage his heavenly rewards for eternity; the damage can never be undone or rectified in any manner. Today we will look at a third and very important thing about this question; something that people either usually do not think about, or do not give it a careful thought.


We had seen in the previous article that because of sin, three things came into the life of man: first was death - spiritual and physical; second was his having to continue life-long in a state of suffering the physical consequences of his sin, and eventually die in that state; and thirdly he was separated from being in the place of blessed fellowship and communion with God. Now, the Lord Jesus Christ has paid in full the penalty for sin, suffered death, spiritual and physical, for mankind, and has become victorious over death. Whosoever has believed upon and accepted the atoning work of the Lord Jesus, and has surrendered his life to Him to be His obedient disciple, has been restored into fellowship with God by the Lord Jesus, who has taken away the death-penalty that had come upon that person because of his sin. In other words, the first and the third effects of sin have been taken care of by the death and resurrection of the Lord Jesus; but the second effect still remains. The thing to note and ponder over regarding this is that the Lord has suffered death for us and freed us from its hold; and has also restored us back into fellowship with God; but the Lord Jesus has neither taken upon Himself nor suffered the state of physical punishment that came upon man because of sin, and he has to live with this state all through his life. Since even after salvation the human body still has the old sin nature, and because of his tendency to sin he still continues to sin, therefore, every Christian Believer, every saved or Born-Again person, will have to suffer the physical consequences of his sins as long as he lives. There are many very clear examples of this in the Bible, that with the forgiveness of sins, people have been restored into fellowship with God, but still had to suffer the painful physical consequences of their sin. We will be able to look at only three examples, to illustrate this:


* Look at chapters 13 and 14 in the Old Testament Book of Numbers. When the Israelites, having been delivered from the slavery in Egypt, reached the border of the promised land of Canaan, some doubts arose in their hearts, and God asked Moses to take a person from every tribe and send them to spy out the promised land, so that their doubts about the land being good and fruitful are settled. Those spies went and spied out the land, came back and told the Israelites that the land indeed was very good and fertile, but giants also lived in that land, and these spies upset the Israelites about entering into the promised land. Because of their repetitive attitude of distrusting the Lord and being disobedient to Him, God wanted to put an end to them, and raise up a new nation from Moses (Numbers 14:11-12). But Moses interceded for the Israelites, pleaded and begged forgiveness for them. Because of the interceding of Moses on their behalf, God took away the death penalty He was going to inflict upon them, but they had to suffer for 40 years in the wilderness, till every one of the disobedient and unbelieving Israelites died (Numbers 14:22-34). Moses played the role of the intercessor and helper, as Lord Jesus does for us today - the death penalty was revoked, but the physical consequences of unbelief and disobedience had to be suffered lifelong.


* Look at chapter 20 of the Book of Numbers. During their wilderness journey, when the Israelites faced a shortage of water, they started to complain and speak against Moses (verses 1-5). Then God said to Moses to speak to a rock and it will give water for the Israelites (verses 7-8). Moses did as the Lord had asked him to do, and gathered the people, but because of his irritation and frustration against the people for their repeated disbelief and disobedience against God, in his anger Moses not only spoke unadvisedly to the people but instead of speaking to the rock, struck it twice with his rod (verses 10-11). Water did come out of the rock, but the Lord punished Moses for his disobedience, and forbade him from entering the land of Canaan (verses 12), and Moses had to live with that punishment. On reaching the borders of Canaan after the forty years wilderness journey, he again pleaded with the Lord and sought permission to enter into Canaan, but the Lord rebuked him and told him not to bring up this topic ever again (Deuteronomy 3:23-27). Moses was not separated from fellowship with God, nor given the death penalty, but he had to suffer the physical consequences of his disobedience lifelong.


* Look at 2 Samuel chapter 12. God was angry against David for his sin of adultery with Bathsheba and plotting the murder of her husband Uriah. God gave David about a year, for him to acknowledge his sin and repent for it, but David did not do so. Then God sent His prophet Nathan to David, who exposed David’s sin to him (verses 1-7), and expressed God’s displeasure with him, told him about the punishment God is going to bring on him (verses 8-12). On hearing this, David accepted his sin, and repented for it. Because of David’s acceptance and repentance of his sin, what God asked Nathan to say to him is of great importance: “So David said to Nathan, "I have sinned against the Lord." And Nathan said to David, "The Lord also has put away your sin; you shall not die” (2 Samuel 12:13). Death was taken away from David, but he had to suffer the physical consequences, the punishment for his sins; and till date, in the Word of God, the record of his sin is retained. Just as David is known to be a man after God’s heart, he is as much also known for his adultery with Bathsheba and murder of Uriah, and in God’s eyes Bathsheba remained the wife of Uriah, not of David (Matthew 1:6).


Israel are the chosen people of God, David and Moses are His prophets and loved people, none of them were rejected and cast away by God for their sins, but none of them escaped suffering the physical consequences of their sins. If a person from the age of the Law, before the present time of age of grace, was not rejected or cast away by God for their heinous sins such as repeatedly speaking and complaining against God, dishonoring God, committing adultery and murder, etc. then why will a Believer committing a sin in this age of grace be rejected and cast away by God? The Lord Jesus Christ has taken upon Himself the effect of sin that separates us from God, i.e., death, and suffered it spiritually and physically for all of us, and has taken away its effect of alienating us from God. Now, death, i.e., the cause of separation from God has been conclusively dealt with, and no one can reverse or undo this provision from God. Any person who believes in and accepts this provision from God, for him the provision remains applicable and in-force for eternity. But God has also made it clear and evident that the physical consequences of sin, God’s chastening of His children for their sins, that will have to be suffered here on earth, that remains applicable (Hebrews 12:5-11; 1 Peter 4:1); and along with this, the spiritual consequences of sins will adversely affect his heavenly rewards. Now this is for each and every one to consider and decide whether they want to live a careless and wayward life after being saved, and suffer physical punishment and chastening for it while they live, and harm their heavenly rewards as well because of their sins. Therefore, this notion that because salvation is eternal, will never be lost or revoked, implies that a Born-Again person can sin with impunity and get away with it, is absolutely unBiblical - the Word of God does not teach anything like this. Similarly, the teaching that salvation can be lost or revoked because of sin is absolutely unBiblical as well; the Word of God does not teach anything like this either. Both of these teachings are satanic ploys to misguide people into righteousness by works, instead of having faith in the grace of God; and both of these teachings are based on an improper understanding and interpretation of God’s Word.


Therefore, pay no attention to these false teachings being spread by Satan and his people. Pay heed to and trust in the proven love, kindness, and grace of the Lord, think of the price paid by the Lord for securing the forgiveness of your sins, and make full use of the opportunity, while you have it. The Lord Jesus has done His part; He has made ready and available salvation with all the benefits freely to everyone; but have you accepted His offer? Have you taken His hand of love and grace extended towards you and the free gift He offers; or are you still determined to do that which no man can ever accomplish through his own efforts?


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.

 

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रविवार, 29 दिसंबर 2024

Some Related Questions and their Answers / कुछ संबंधित प्रश्न और उनके उत्तर (3b)

 

पाप और उद्धार को समझना – 37

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पाप का समाधान - उद्धार - 34

कुछ संबंधित प्रश्न और उनके उत्तर (3b)


पिछले लेख से हमने बहुत लोगों द्वारा बहुधा उठाए जाएं वाले प्रश्न, "क्या कभी गँवाए न जा सकने वाले अनन्त उद्धार के सिद्धांत में, बिना किसी भय के पाप करते रहने की स्वतंत्रता निहित नहीं है?" पर विचार करना आरंभ किया था। हमने देखा था कि परमेश्वर भी इस संभावना से अवगत है, और उसने अपने इस प्रावधान के दुरुपयोग किए जाने को रोकने के लिए उपयुक्त प्रावधान किए हैं। हर एक पाप के दुष्परिणाम हैं, इस  पृथ्वी पर भी और परलोक में भी। इस पृथ्वी पर पाप का दण्ड भुगतने से संबंधित चर्चा कुछ लंबी है, इसलिए उसे हम अगले लेख में देखेंगे; आज हम परलोक के जीवन से संबंधित पाप के प्रभाव को देख लेते हैं। 


पाप का प्रभाव प्रत्येक मनुष्य के परलोक के जीवन पर भी पड़ता है। पापों की क्षमा पाए हुए मसीही विश्वासी को, इस पृथ्वी पर प्रभु की आज्ञाकारिता में उसकी उपयोगिता के लिए बिताए गए जीवन के अनुसार, स्वर्ग में आदर और प्रतिफल भी मिलेंगे “भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है, जिसे प्रभु, जो धर्मी, और न्यायी है, मुझे उस दिन देगा और मुझे ही नहीं, वरन उन सब को भी, जो उसके प्रगट होने को प्रिय जानते हैं” (2 तीमुथियुस 4:8)। किन्तु इस आज्ञाकारिता के साथ ही, पृथ्वी पर उसके द्वारा की गई परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता तथा पाप उसके इन प्रतिफलों को बिगाड़ता भी रहता है। स्वर्ग में मनुष्य को मिलने वाले प्रतिफल इन दोनों - भले और बुरे के कुल योग के अनुसार दिए जाएंगे। किन्तु ये आदर और प्रतिफल मिलने से पहले प्रत्येक मसीही विश्वासी के जीवन के प्रत्येक कार्य की बहुत बारीकी से जाँच भी की जाएगी, “क्योंकि अवश्य है, कि हम सब का हाल मसीह के न्याय आसन के सामने खुल जाए, कि हर एक व्यक्ति अपने अपने भले बुरे कामों का बदला जो उसने देह के द्वारा किए हों पाए।” (2 कुरिन्थियों 5:10); “क्योंकि वह समय आ पहुंचा है, कि पहिले परमेश्वर के लोगों का न्याय किया जाए, और जब कि न्याय का आरम्भ हम ही से होगा तो उन का क्या अन्त होगा जो परमेश्वर के सुसमाचार को नहीं मानते? और यदि धर्मी व्यक्ति ही कठिनता से उद्धार पाएगा, तो भक्तिहीन और पापी का क्या ठिकाना?” (1 पतरस 4:17-18)। 


यहाँ पर अक्सर लोग परमेश्वर द्वारा अंगीकार किए गए पापों को पीठ के पीछे फेंक देने, काली घटा के समान मिटा देने (यशायाह 38:17; 43:25; 44:22), आदि प्रतिज्ञाओं का हवाला देकर यह प्रमाणित करना चाहते हैं कि जिन पापों को परमेश्वर ने क्षमा कर दिया है, उनका कोई हिसाब नहीं लिया जाएगा। किन्तु उनकी यह धारणा, वचन की सही व्याख्या और शिक्षा के अनुकूल नहीं है। यह स्वयं में एक विस्तृत विषय है, जिसे हमने हाल ही में सम्पन्न हुई व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित लेखों की शृंखला में, इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छः में से छठी बात, "अन्तिम न्याय" पर चर्चा के दौरा विस्तार से देखा और समझा था।   


मनुष्य के पाप से उसके परलोक के जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव विषय से संबंधित कुछ बाइबल के पदों को देखते हैं: 


* हर पाप, हर अनाज्ञाकारिता, मसीही विश्वासी के प्रतिफलों को खराब करता है; और जिसका जीवन ऐसा रहा होगा कि उसकी लापरवाही और पापों ने उसके प्रतिफलों को या तो अर्जित ही नहीं होने दिया, अथवा बिगाड़ कर समाप्त कर दिया, वह फिर अनन्तकाल के लिए स्वर्ग में खाली हाथ ही प्रवेश करेगा और रहेगा, “तो हर एक का काम प्रगट हो जाएगा; क्योंकि वह दिन उसे बताएगा; इसलिये कि आग के साथ प्रगट होगा: और वह आग हर एक का काम परखेगी कि कैसा है। जिस का काम उस पर बना हुआ स्थिर रहेगा, वह मजदूरी पाएगा। और यदि किसी का काम जल जाएगा, तो हानि उठाएगा; पर वह आप बच जाएगा परन्तु जलते जलते” (1 कुरिन्थियों 3:13-15)। 


* न केवल कार्यों का, वरन हर एक मनुष्य को अपनी हर व्यर्थ बात, हर शब्द का भी हिसाब देना होगा, “और मैं तुम से कहता हूं, कि जो जो निकम्मी बातें मनुष्य कहेंगे, न्याय के दिन हर एक बात का लेखा देंगे। क्योंकि तू अपनी बातों के कारण निर्दोष और अपनी बातों ही के कारण दोषी ठहराया जाएगा” (मत्ती 12:36-37)। 


     * परमेश्वर मसीही विश्वासियों की बातचीत को ध्यान से सुनता है और उसके सम्मुख उन बातों का लेखा रखा जाता है, “तब यहोवा का भय मानने वालों ने आपस में बातें की, और यहोवा ध्यान धर कर उनकी सुनता था; और जो यहोवा का भय मानते और उसके नाम का सम्मान करते थे, उनके स्मरण के निमित्त उसके सामने एक पुस्तक लिखी जाती थी” (मलाकी 3:16)। 


इसलिए कोई भी यह न समझे कि उद्धार पाने के बाद पाप करने से उसे अब कोई हानि नहीं होगी। परमेश्वर मूर्ख नहीं है, कि मनुष्य उद्दंड होकर उसकी उदारता, कृपा, और प्रेम का दुरुपयोग कर ले और परमेश्वर बस एक मूक दर्शक ही बनकर मनुष्य द्वारा उसकी भली मनसा का अनुचित लाभ उठाते हुए देखता रह जाए। इसलिए शैतान के द्वारा फैलाई जा रही इन व्यर्थ और मिथ्या बातों पर ध्यान मत दीजिए। प्रभु के आपके प्रति प्रमाणित किए गए प्रेम, कृपा, और अनुग्रह, तथा उसके द्वारा आपको प्रदान किए जा रहे पाप-क्षमा प्राप्त करने के अवसर के मूल्य को समझिए, और अभी इस अवसर का लाभ उठा लीजिए। प्रभु यीशु ने तो अपना काम कर के दे दिया है; किन्तु क्या आपने उसके इस आपकी ओर बढ़े हुए प्रेम और अनुग्रह के हाथ को थाम लिया है, उसकी भेंट को स्वीकार कर लिया है? या आप अभी भी अपने ही प्रयासों के द्वारा वह करना चाह रहे हैं जो मनुष्यों के लिए कर पाना असंभव है।


आपके द्वारा स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ आपके द्वारा की गई एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को आशीषित तथा स्वर्गीय जीवन बना देगा। अभी अवसर है, अभी प्रभु का निमंत्रण आपके लिए है - उसे स्वीकार कर लीजिए।   


कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

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 Understanding Sin and Salvation – 37

English Translation

The Solution For Sin - Salvation - 34

Some Related Questions and their Answers (3b)


Since the previous article we have started considering the often raised question, "In the doctrine of eternal salvation, one that cannot ever be lost, isn’t the freedom to continue to sin with impunity implied?" We had seen that God is well aware of this possibility, and has put in place appropriate measures to deal with the misuse of this provision of His. Every sin has a harmful effect, both, in this world, as well as the next. The discussion about suffering the consequences of sin in this earthly life is a long one, and we will look into it in the next article. Today we will look at the effects of sin on the afterlife, i.e., the eternal life after a person dies and leaves this earth.


The effects of sin also come upon man’s afterlife, i.e., his spirit’s life, after his physical body’s death on earth. For the Christian Believer who has received forgiveness of sins, according to the life of obedience he has lived towards the Lord while on earth, how useful he has been on earth for the Lord, he will get honor and rewards in heaven “Finally, there is laid up for me the crown of righteousness, which the Lord, the righteous Judge, will give to me on that Day, and not to me only but also to all who have loved His appearing” (2 Timothy 4:8). But along with his obedience, his disobedience towards the Lord and the sins committed here on earth, also keep adversely affecting those heavenly rewards. Eventually in heaven, he will get the rewards according to the net result of his good and bad deeds, his life of obedience and utility for the Lord and his life of disobedience and creating problems for the Lord. These rewards will be given after a very minute and thorough scrutiny of each Believer’s life, “For we must all appear before the judgment seat of Christ, that each one may receive the things done in the body, according to what he has done, whether good or bad” (2 Corinthians 5:10); and “For the time has come for judgment to begin at the house of God; and if it begins with us first, what will be the end of those who do not obey the gospel of God? Now "If the righteous one is scarcely saved, Where will the ungodly and the sinner appear?"” (1 Peter 4:17-18). 


At this point people usually quote the promises of God about casting the confessed sins behind His back, wiping them away like a dark cloud (Isaiah 38:17; 43:25; 44:22), and try to prove that there will not be any accountability for the sins that have once been forgiven. But their this concept and understanding is not in accordance with the correct interpretation and teachings of the Word. This in itself is a long topic, and we have considered it in detail in a recently concluded series of articles on Practical Christian Living, when we were considering "Eternal Judgment," the sixth of the six Elementary Principles given in Hebrews 6:1-2.    

 

Let us look at some more verses from the Bible about the effects of sin on man's afterlife:


* Every sin, every disobedience spoils the rewards of the Christian Believer; and the person whose life has been one of carelessness and waywardness, then his sins could either not have allowed any heavenly rewards to get accumulated, or may have even eaten away all his heavenly rewards, and then though he will enter into heaven, but will remain empty handed for eternity, “each one's work will become clear; for the Day will declare it, because it will be revealed by fire; and the fire will test each one's work, of what sort it is. If anyone's work which he has built on it endures, he will receive a reward. If anyone's work is burned, he will suffer loss; but he himself will be saved, yet so as through fire” (1 Corinthians 3:13-15).


* Every person will not only have to give an account of everything he has done, but also give an account of every vain talk and words spoken by him, “But I say to you that for every idle word men may speak, they will give account of it in the day of judgment. For by your words you will be justified, and by your words you will be condemned."” (Matthew 12:36-37).


* God very carefully listens to the conversations of the Christian Believers, and they are recorded before Him “Then those who feared the Lord spoke to one another, And the Lord listened and heard them; So a book of remembrance was written before Him For those who fear the Lord And who meditate on His name” (Malachi 3:16).


Therefore, let no one think that sinning after being saved has no consequences, there will be no harm. God is not a fool and cannot be mocked; no man can take for granted and misuse His grace, benevolence, kindness, and love, and get away with it lightly; God will not remain a helpless, silent spectator to man making a mockery of His grace. Therefore, do not be beguiled and carried away by these false notions and unBiblical teachings being spread by Satan. Understand the value and importance of the love and sacrifice of the Lord Jesus to redeem you of your sins. The Lord Jesus has done His part; He has made ready and available salvation with all the benefits freely to everyone; but have you accepted His offer? Have you taken His hand of love and grace extended towards you and the free gift He offers; or are you still determined to do that which no man can ever accomplish through his own efforts?


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.

 

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