पाप और उद्धार को समझना – 33
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पाप का समाधान - उद्धार - 30
उद्धार के परिणाम, आशीषें, और सुरक्षा
पिछले लेख में हमने देखा था कि प्रभु यीशु मसीह को स्वेच्छा और सच्चे मन से अपना उद्धारकर्ता ग्रहण करने और उसका शिष्य होकर उसकी आज्ञाकारिता में उसे समर्पित जीवन जीने का निर्णय लेने को ही उद्धार या नया जन्म पाना कहते हैं। नया जन्म पाने पर व्यक्ति नश्वर सांसारिक जीवन से अविनाशी आत्मिक जीवन में एक आत्मिक शिशु के समान जन्म लेता है। उद्धार या नया जन्म पल भर में, किए गए निर्णय के साथ मिल जाता है, किन्तु उसे निभाना, उसके अनुसार जीवन जीना सीखना, उसे व्यावहारिक रीति से अपने जीवन में प्रदर्शित करना, उसमें परिपक्व होते जाना, सक्षम होते जाना - यह सब जीवन भर चलते रहने वाला अभ्यास और परिश्रम है। उद्धार या नया जन्म पाना एक आरंभ है, अपने आप में अंत नहीं है। इसके लिए किसी भी धर्म, जाति, स्तर, कार्य, संपत्ति, शिक्षा, स्थान, समय, आयु आदि बातों की कोई बंदिश, कोई महत्व नहीं है। यह हर किसी मनुष्य के द्वारा अपने लिए व्यक्तिगत रीति से लिया जाने वाला निर्णय है - उनके लिए भी जो ईसाई धर्म मानने वाले, या मसीही विश्वासी परिवारों में जन्म लेते हैं, और अपने धर्म या विश्वास से संबंधित सभी रीतियों, कार्यों, अनुष्ठानों को पूरा करते हैं - इनमें से कोई भी बात उन्हें व्यक्तिगत रीति से अपने पापों से पश्चाताप करके, प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण कर लेने और उसका शिष्य बन जाने के द्वारा उद्धार या नया जन्म पाने से बचे रहने का अधिकार नहीं देती है (प्रेरितों 17:30), क्योंकि उद्धार या नया जन्म वंशागत नहीं है, और न ही किसी भी धर्म के निर्वाह से संबंधित है।
पापों की क्षमा और उद्धार पाने के अतिरिक्त क्या मसीही विश्वास को स्वीकार करने के और भी कोई लाभ हैं? जब एक शिशु जन्म लेता है, तो उसका ध्यान रखने और उसे उचित पालन-पोषण देने के लिए माता-पिता तथा परिवार जन हर एक आवश्यक बात उपलब्ध करवाते हैं। उसी प्रकार आत्मिक परिवार में जन्म लेने पर, परमेश्वर भी अपने नवजात आत्मिक शिशु की परवरिश के लिए सभी उचित बातें, सुरक्षा, और आवश्यक सहायता उपलब्ध करवाता है। उद्धार के साथ जो बातें प्रत्येक मसीही विश्वासी को परमेश्वर की ओर से मसीही जीवन जीने के लिए उपलब्ध कर दी जाती हैं, वे हैं:
* वह उद्धार पाते ही परमेश्वर के परिवार का सदस्य (इफिसियों 2:19), परमेश्वर की संतान बन जाता है (यूहन्ना 1:12-13)।
* वह परमेश्वर पिता और परमेश्वर पुत्र - प्रभु यीशु के हाथों में सुरक्षित रहता है (यूहन्ना 10:28-29)।
* उसकी सहायता करने, उसे सिखाने और संभालने के लिए परमेश्वर पवित्र आत्मा उसके हृदय में आकर बस जाता है (यूहन्ना 14:26; 16:13-15; इफिसियों 1:13-14; गलातीयों 3:2), और उसकी देह पवित्र आत्मा का मन्दिर बन जाती है (1 कुरिन्थियों 3:16; 6:19)।
* उसका पोषण परमेश्वर के वचन के द्वारा किया जाता है (1 पतरस 2:2)। यह वचन ही उसका मार्गदर्शक (भजन 119:105), उसे पाप करने से बचाए रखने वाला (भजन 119:9, 11), और उसे बुद्धिमान बनाता है (भजन 119:98-110, 104)।
* उसे परमेश्वर की ओर से प्रतिज्ञा है कि उस पर कोई भी ऐसी परीक्षा नहीं आएगी, जो उसके सहने की क्षमता से बाहर है, वरन उस सीमा के अंदर भी उसे परीक्षा से बच कर सुरक्षित निकलने का मार्ग दिया जाएगा (1 कुरिन्थियों 10:13)। शैतान भी उसे परमेश्वर द्वारा निर्धारित सीमा से अधिक नहीं छू सकता है (अय्यूब 1:10-12)।
* यदि उससे कोई पाप हो जाए, और वह अपने पाप को स्वीकार करके परमेश्वर से उसके लिए क्षमा माँग ले, तो परमेश्वर उसे क्षमा भी कर देगा (1 यूहन्ना 1:9)।
* परमेश्वर ने अपने स्वर्गदूतों को उसकी सेवा करने वाले बना दिया है (इब्रानियों 1:14)।
परमेश्वर की ओर से यह सारी सहायता और सुरक्षा पापों से पश्चाताप करने और प्रभु यीशु को उद्धारकर्ता स्वीकार कर लेने वाले प्रत्येक जन तुरंत ही, उसके नया जन्म पाने के साथ ही उपलब्ध हो जाती है। इसके बाद, उसके मसीही जीवन में प्रगति और उन्नति करने के लिए, परमेश्वर के लिए उपयोगी होने के लिए, मसीही जीवन को जी कर दिखाने के लिए, परमेश्वर अन्य अनेकों प्रकार से उसकी सहायता करता रहता है, उसे समय और परिस्थिति के अनुसार आवश्यक बल, बुद्धि, ज्ञान, और मार्गदर्शन आदि प्रदान करता रहता है। कोई भी वास्तविक मसीही विश्वासी, आजीवन कभी भी, परमेश्वर से दूर अकेला, या उसकी दृष्टि से ओझल, और उसकी देखभाल से बाहर नहीं रहता है। परमेश्वर की उपस्थिति सदा उसके साथ बनी रहती है, उसे संभाले रहती है।
प्रभु यीशु ने तो अपना काम कर के दे दिया है; किन्तु क्या आपने उसके इस आपकी ओर बढ़े हुए प्रेम और अनुग्रह के हाथ को थाम लिया है, उसकी भेंट को स्वीकार कर लिया है? या आप अभी भी अपने ही प्रयासों के द्वारा वह करना चाह रहे हैं जो मनुष्यों के लिए कर पाना असंभव है।
क्या ऐसी अद्भुत परवरिश, सहायता, देखभाल और आशीषें मसीही विश्वास के अतिरिक्त और कहीं पर उपलब्ध हैं - और वो भी सेंत-मेंत तथा सीधे परमेश्वर से? तो फिर क्यों इन अनुपम, अद्भुत, सर्वोत्तम आशीषों से दूर रहना? हमारा कृपालु और अनुग्रहकारी प्रभु परमेश्वर तो हर प्रकार से हमारी भलाई ही चाहता है, तो फिर उसके प्रस्ताव को स्वीकार करने में क्या एतराज है? यीशु मसीह को अपना प्रभु और उद्धारकर्ता स्वीकार करने में आपको किस बात का संकोच है? स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा।
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Understanding Sin and Salvation – 33
The Solution For Sin - Salvation - 30
Results, Blessings, and Security of Salvation
In the previous article we have seen that voluntarily and sincerely accepting the Lord Jesus Christ as savior, and deciding to live a life of obedience and submission to Him is known as being saved or being Born-Again. On being Born-Again, the person is born out of the perishing temporal worldly life, into imperishable eternal spiritual life, as a spiritual infant. Salvation, or New Birth is received in a moment, on making the decision, but to fulfil it, to learn to live one’s life according to it, to practically demonstrate it in one’s life, to grow and mature in it, to live out its capabilities - all of this is an exercise and efforts of a life-time. Being saved, or being Born-Again is only the beginning, and not an end in itself. There is no role or importance of any religion, caste, status, occupation, possessions, education, place, time, age, etc. of the person. This is through every person’s own decision for himself - it is mandatory even for those who follow the Christian religion, or belong to families of Christian Believers, and fulfill all the rites and rituals, works, and traditions of their religion or denomination or group. None of these things gives them any right to escape the necessity of personally repenting of their sins, accepting the Lord Jesus Christ as their savior, and by being saved or Born-Again becoming His disciple (Acts 17:30); since salvation, or being Born-Again is not inherited, and neither is it related in any way to following a particular religion.
Other than receiving forgiveness of sins and salvation are there any other benefits of accepting the Christian Faith? When an infant is born in a family, to safeguard and nurture the infant, the parents and members of the family provide everything required for maintaining the security, nourishment, and growth of the infant. Similarly, on being born into His spiritual family, God too provides the necessary things, the security, and required help for the spiritual infant to be nourished and grow properly. The things made available by God to every Christian Believer to live a Christian life are:
* From the moment of being saved he becomes a member of God’s family (Ephesians 2:19), a child of God (John 1:12-13).
* He is kept secure in the hands of God the Father and God the Son - the Lord Jesus (John 10:28-29).
* To help him, to teach and keep him safe, God the Holy Spirit comes to reside in Him and stays with him forever (John 14:26; 16:13-15; Ephesians 1:13-14; Galatians 3:2); his body becomes the temple of the Holy Spirit (1 Corinthians 3:16; 6:19).
* He is nourished and built up by the Word of God (1 Peter 2:2). God’s Word becomes his guide (Psalm 119:105), and helps him to stay safe from sinning (Psalm 119:9, 11), and makes him wise (Psalm 119:98-110, 104).
* He has God’s promise that he will never pass through any temptation or testing that is beyond his limits of endurance; and even within that limit, he will be provided the way to safely escape from that temptation or testing (1 Corinthians 10:13). Even Satan cannot touch and test him beyond the limits and parameters determined by God (Job 1:10-12).
* If he commits any sin, then he has God’s assurance that if he confesses his sin and asks God’s forgiveness for it, he will be forgiven (1 John 1:9).
* God has made His angels his serving spirits (Hebrews 1:14).
All of this help and security, these provisions from God immediately become effective in the life of every person who repents of his sins and accepts the Lord Jesus as his savior, everyone who is Born-Again. From here onwards, to help him grow and mature in his Christian life, to become useful and effective for the Lord God, to be able to live and practically demonstrate the life of Christian Faith, God continues to help and provide for him in many different ways; continues to give him the required strength, wisdom, knowledge, and guidance as per the need of the hour and the circumstances. No Christian Believer is ever alone or out of sight of the Lord God, ever throughout his lifetime, and God’s care and provisions are always kept available to him. God’s presence remains with him always and safeguards him.
Is such an amazing nurturing, help, care, and blessings available anywhere outside of the Christian Faith, and that too absolutely freely, and directly from God? Then why should we remain away from such absolutely unique, extra-ordinary, and superlative blessings? Our kind and gracious God only desires that which is best for us in every possible way, then why should we be reluctant or unwilling to accept His proposal for us? Why shouldn’t you accept the Lord Jesus as your Lord and Savior?
The Lord Jesus has done His part; He has made ready and available salvation with all the benefits freely to everyone; but have you accepted His offer? Have you taken His hand of love and grace extended towards you and the free gift He offers; or are you still determined to do that which no man can ever accomplish through his own efforts?
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
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