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सोमवार, 14 फ़रवरी 2022

कलीसिया में अपरिपक्वता के दुष्प्रभाव (2)

   

शैतान की भ्रम की युक्तियों से प्रभावित परमेश्वर के जन   

पिछले लेखों में हमने देखा है कि जब मसीही विश्वासी परमेश्वर पर भरोसा रखने के स्थान पर अपने ही परिश्रम और प्रयासों पर भरोसा रखता है, और फिर परमेश्वर के मार्गदर्शन के अनुसार नहीं वरन अपनी ही बुद्धि और समझ के अनुसार कार्य करने लगता है, तो फिर वह प्रेरितों 2:42 में दिए गए मसीही जीवन के चार स्तंभों में लौलीन रहने के स्थान पर अपने इस परिश्रम और प्रयास में लौलीन रहने लग जाता है। परिणामस्वरूप उसका मसीही जीवन कमज़ोर पड़ने लगता है, और वह मसीही जीवन में परिपक्वता की ओर अग्रसर नहीं रहने पाता है, अपरिपक्व हो जाता है। अपरिपक्व मसीही विश्वासियों से बनी कलीसिया भी अपरिपक्व ही होती है। मसीही विश्वासियों और प्रभु की कलीसिया में इस अपरिपक्वता के लक्षण हम देख चुके हैं। और हमने इफिसियों 4:14 से इस अपरिपक्वता से आने वाले पहले दुष्प्रभाव को पिछले लेख में देखा है, कि अपरिपक्व विश्वासी मनुष्यों की ठग विद्या और चतुराई में या तो बारंबार फँसते रहते हैं, अथवा फंसे ही रह जाते हैं। साथ ही हमने यह भी देखा था कि इससे बचने का उपाय भी वचन में बढ़ना, स्थापित और दृढ़ होना, तथा वचन के द्वारा जाँच-परख करने के बाद ही किसी शिक्षा अथवा बात को स्वीकार करना है। 

आज हम इफिसियों 4:14 में दिए गए दूसरे दुष्प्रभाव को देखेंगे - मनुष्यों की भ्रम की युक्तियों से प्रभावित रहना। भ्रम शब्द का अर्थ होता है वह जो सही या सत्य प्रतीत तो हो, किन्तु वास्तविकता में सही या सत्य न हो। इसी प्रकार से युक्ति का अर्थ है किसी बात को करने या करवाने के लिए प्रयोग की गई चतुराई या बुद्धिमत्ता की कोई बात। अर्थात, भ्रम की युक्तियों से प्रभावित रहने का, हमारी इस चर्चा के संदर्भ में, तात्पर्य हुआ किसी मिथ्या बात को सही या ठीक बना और बता कर, चतुराई से गढ़ी गई बातों के द्वारा, मसीही विश्वासी को परमेश्वर के सही मार्ग से भटका कर शैतान के भ्रष्ट और गलत मार्ग पर डाल देना। शैतान यह कार्य इतनी चतुराई और बारीकी से करता है कि बहुधा उस प्रभु के जन को पता भी नहीं चलने पाता है कि वह किसी गलत मार्ग पर चल निकला है। जब तक भटक जाने का एहसास होता है, तब तक बहुत हानि हो चुकी होती है। 

इसका एक उत्तम उदाहरण है अय्यूब की पुस्तक में अय्यूब और उसके मित्रों के मध्य हुआ तर्क-वितर्क, और अंततः परमेश्वर द्वारा अय्यूब को सही तथा उसके मित्रों को गलत बताना। संक्षेप में, अय्यूब के साथ हुई भयानक त्रासदी और हानि के समाचार को सुनकर उसके मित्र उससे मिलने और उसे सांत्वना देने आए (अय्यूब 2:11-13)। उन्होंने बारंबार, अपने तर्कों और विचारों के द्वारा अय्यूब को यह जताने का प्रयास किया कि उसने कुछ ऐसा पाप किया होगा जिसके कारण परमेश्वर उससे क्रुद्ध हुआ और उस पर यह ताड़ना भेजी (अय्यूब 4:7-9)। अपनी बातों से वे परमेश्वर को सही, न्यायी, और खरा, तथा अय्यूब को बुरा और परमेश्वर की ताड़ना के लिए दोषी प्रमाणित करना चाह रहे थे। अय्यूब उनके हर तर्क का उत्तर देता रहा और उनसे यही कहता रहा कि उसने ऐसा कुछ नहीं किया है जिसके कारण परमेश्वर को उसे यह भयानक ताड़ना देनी पड़े। अन्ततः, वे मित्र चुप हो जाते हैं, और अय्यूब परमेश्वर के सामने अपने निर्दोष होने की दुहाई देता है, परमेश्वर से न्याय माँगता है। जब परमेश्वर अय्यूब से बात करता है तो अय्यूब को अपनी वास्तविक पापमय स्थिति का एहसास होता है, और वह पश्चाताप करता है, परमेश्वर से क्षमा माँगता है (अय्यूब 40:2-5;42:1-6)। परमेश्वर उसे क्षमा कर देता है, उसे दोगुना लौटा कर दे देता है।  

हमारी इस चर्चा की बात के लिए अय्यूब को क्षमा करने के बाद परमेश्वर जो कहता है, वह महत्वपूर्ण और रोचक है; “और ऐसा हुआ कि जब यहोवा ये बातें अय्यूब से कह चुका, तब उसने तेमानी एलीपज से कहा, मेरा क्रोध तेरे और तेरे दोनों मित्रों पर भड़का है, क्योंकि जैसी ठीक बात मेरे दास अय्यूब ने मेरे विषय कही है, वैसी तुम लोगों ने नहीं कही। इसलिये अब तुम सात बैल और सात मेढ़े छांट कर मेरे दास अय्यूब के पास जा कर अपने निमित्त होमबलि चढ़ाओ, तब मेरा दास अय्यूब तुम्हारे लिये प्रार्थना करेगा, क्योंकि उसी की मैं ग्रहण करूंगा; और नहीं, तो मैं तुम से तुम्हारी मूढ़ता के योग्य बर्ताव करूंगा, क्योंकि तुम लोगों ने मेरे विषय मेरे दास अय्यूब की सी ठीक बात नहीं कही। यह सुन तेमानी एलीपज, शूही बिल्दद और नामाती सोपर ने जा कर यहोवा की आज्ञा के अनुसार किया, और यहोवा ने अय्यूब की प्रार्थना ग्रहण की। जब अय्यूब ने अपने मित्रों के लिये प्रार्थना की, तब यहोवा ने उसका सारा दु:ख दूर किया, और जितना अय्यूब का पहिले था, उसका दुगना यहोवा ने उसे दे दियाअय्यूब 42:7-10)। अय्यूब की पुस्तक के अधिकांश भाग में ये मित्र परमेश्वर को सही और अय्यूब को दोषी ठहराने का प्रयास करते रहे, परमेश्वर के पक्ष की बात करते रहे, किन्तु इन्हें पता ही नहीं चला, कब और कैसे शैतान ने उन्हें अपनी ओर से बोलने वाला बना दिया। 

वे अपनी समझ से परमेश्वर के पक्ष में बोल रहे थे, किन्तु यह उनका भ्रम था; शैतान ने उन्हें अपनी युक्ति के द्वारा परमेश्वर के बारे में ठीक बातें कहने से भटका दिया था। उन्होंने इतना कुछ परमेश्वर के लिए गलत कहा कि परमेश्वर उनकी घोर ताड़ना करने के लिए तैयार हो गया। परमेश्वर ने अब यह अय्यूब पर छोड़ दिया कि वह अपने मित्रों के लिए बिचवई का कार्य करेगा, उनके लिए क्षमा याचना करेगा, या उन्हें उनके किए का दंड भुगतने देगा। अय्यूब ने अपने मित्रों के लिए परमेश्वर से क्षमा याचना की और उन्हें परमेश्वर की ताड़ना से बचा लिया।  साथ ही अय्यूब भी अपनी धार्मिकता और निर्दोष होने के विषय भ्रम में पड़ा रहा और शैतान ने उसे भी अपनी युक्ति से स्व-धार्मिकता के पाप में उलझाए रखा, और उसे इस बात का एहसास तब हुआ जब उसका सामना परमेश्वर और उसकी बातों - परमेश्वर के वचन से हुआ। तब वह अपने भ्रम, शैतान की युक्ति को पहचानने पाया, और पश्चाताप तथा क्षमा याचना के द्वारा परमेश्वर से अपने संबंध सही किए, अपनी आशीषों को बहाल किया।  

यह घटना न केवल हमें शैतान द्वारा भ्रम और युक्तियों में फँसाने का उदाहरण देती है, वरन साथ ही एक बहुत महत्वपूर्ण तथ्य भी हमारे सामने रखती है - हम परमेश्वर और उसके वचन को हल्के में नहीं ले सकते हैं, अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार चाहे जैसे प्रयोग नहीं कर सकते हैं। ऐसा करने वालों के लिए जवाबदेही और भयानक ताड़ना सामने रखी है। परमेश्वर पवित्र आत्मा ने यहेजकेल नबी के द्वारा परमेश्वर की प्रजा इस्राएल के अगुवों को चिताया कि जो भी अपनी पूर्व-धारणाओं और अपने मन में कुछ बातें बैठाए हुए परमेश्वर के नाम का औपचारिकता के लिए प्रयोग करना चाहेगा, किन्तु सच्चे मन से परमेश्वर के प्रति समर्पित और आज्ञाकारी नहीं होगा, उसे परमेश्वर से दण्ड का सामना करना पड़ेगा, और कोई भी उन्हें परमेश्वर के हाथों से बचाने न पाएगा (यहेजकेल 14:1-14)। इसीलिए प्रेरित पौलुस में होकर पवित्र आत्मा ने मसीही विश्वासियों के लिए लिखवाया है, “कि शैतान का हम पर दांव न चले, क्योंकि हम उस की युक्तियों से अनजान नहीं” (2 कुरिन्थियों 2:11); अर्थात, हम शैतान की युक्तियों से तब ही बच कर रह सकते हैं जब हम उसकी कार्यविधि और विभिन्न युक्तियों और भ्रम की बातों से अवगत होंगे। और यह तब ही होने पाएगा, जब हम परमेश्वर के वचन में दृढ़ और स्थापित तथा उसके आज्ञाकारी होंगे। 

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि आप सचेत होकर, अपने मसीही विश्वास और मसीही गवाही के जीवन को बारीकी से जाँच कर देख लें कि कहीं आप भी अय्यूब के मित्रों के समान, अनजाने में ही शैतान के भ्रम और युक्ति का शिकार तो नहीं हो गए हैं? कहीं आप अपने आप को सही और ठीक मानते, समझते रहें; किन्तु परमेश्वर के वचन के स्थान पर अपनी या अन्य किसी मनुष्य, मत, समुदाय, डिनॉमिनेशन, अथवा संस्था की मानवीय बुद्धि के अनुसार बातों को ही मानते रह जाएं, और अंत में अपने आप को भयानक तथा अपरिवर्तनीय हानि में पड़े हुए पाएं। अभी समय रहते प्रभु यीशु मसीह के सहारे, अपनी गलती और दशा को सुधार लें; हानि से निकलकर प्रभु द्वारा आशीष में आ जाएं। 

 यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • लैव्यव्यवस्था 15-16        
  • मत्ती 27:1-26

रविवार, 13 फ़रवरी 2022

कलीसिया में अपरिपक्वता के दुष्प्रभाव


मनुष्यों की ठग विद्या और चतुराई से प्रभावित   

प्रत्येक मसीही विश्वासी, केवल नया जन्म लेने - शारीरिक से आत्मिक जीवन में जन्म लेने के द्वारा ही प्रभु यीशु का विश्वासी जन, उसका शिष्य बन सकता है। मसीही विश्वास में आने से पूर्व वह चाहे किसी भी पृष्ठभूमि, परिवार, धर्म, मान्यता, आदि में से मसीह में आया हो, चाहे वह और उसका परिवार ईसाई धर्म का ही पालन क्यों न करते रहे हों, सभी के लिए, ईसाई धर्म के मानने वालों के लिए भी, नया जन्म लेना वैकल्पिक नहीं, अनिवार्य है। बिना यह नया जन्म प्राप्त किए, कोई भी न तो परमेश्वर के राज्य को देख सकता है, और न उस में प्रवेश कर सकता है; क्योंकि शरीर से जन्मा मनुष्य नश्वर शरीर ही है, और आत्मा से जन्मा मनुष्य ही आत्मा के समान अविनाशी बन सकता है (यूहन्ना 3:1-7)। यह नया जन्म पाना, व्यक्ति के द्वारा किसी भी धर्म के धार्मिक रीति-रिवाज़ों, अनुष्ठानों, परंपराओं, विधि-विधानों, और प्रथाओं की पूर्ति के द्वारा नहीं होता है। नया जन्म पाने के लिए हर व्यक्ति को स्वेच्छा से अपने स्वयं के पापों के लिए पश्चाताप करना, और प्रभु यीशु मसीह में विश्वास लाकर, उससे अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, अपना जीवन उसे समर्पित करना होता है, और प्रभु यीशु की आज्ञाकारिता में बने रहने का निर्णय लेना होता है (प्रेरितों 17:30-31; यूहन्ना 1:12-13; रोमियों 10:9-10) 

यह नया जन्म पाते ही वह व्यक्ति आत्मिक शिशु-अवस्था में आत्मिक जन्म ले लेता है, जिसमें उसके पोषण और बढ़ोतरी के लिए उसे अपने पुराने स्वभाव और बातों को छोड़कर, निर्मल आत्मिक दूध, अर्थात परमेश्वर के वचन को आत्मिक आहार के समान निरंतर लेते, यानि कि पढ़ते और पालन करते रहना (1 पतरस 2:1-2), तथा मसीही जीवन के स्तंभ - प्रेरितों 2:42 की चारों बातों में लौलीन रहना होता है। इस आत्मिक भरण-पोषण के द्वारा व्यक्ति आत्मिक शिशु अवस्था से निकल कर आत्मिक बालक-अवस्था में आ जाता है, जहाँ से आगे बढ़ने के लिए उसे परमेश्वर के साथ अपने संबंधों और प्रभु परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास को व्यावहारिक जीवन में जी कर दिखाने के विषय स्वेच्छा से कुछ निर्णय लेने होते हैं। यह व्यक्ति के आत्मिक जीवन में आगे बढ़ पाने, या फिर उसी स्तर पर रुके रह जाने के निर्णय के लिए परीक्षा की घड़ी होती है, और अधिकांश मसीही विश्वासी यहाँ आकर फेल हो जाते हैं, अटक जाते हैं, क्योंकि वे मसीह यीशु और परमेश्वर में विश्वास के अपने सभी दावों के बावजूद, मत्ती 6:25-34 में प्रभु यीशु द्वारा दिए गए परमेश्वर की देखभाल और पूर्ति की वायदों पर पूरा भरोसा नहीं रखने पाते हैं। वे अपने ही परिश्रम और प्रयासों पर अधिक भरोसा रखते हैं, और इस परिश्रम तथा प्रयासों के जीवन को जीते हुए, धीरे-धीरे समय के अभाव के कारण मसीही संगति, वचन के अध्ययन, प्रार्थना में समय बिताने, और प्रभु भोज में भाग लेते रहने में पिछड़ जाते हैं, आत्मिक जीवन में कमजोर हो जाते हैं। समझ और विश्वास में इस प्रकार बालक बने रहना परमेश्वर के वचन के विरुद्ध है, “हे भाइयो, तुम समझ में बालक न बनो: तौभी बुराई में तो बालक रहो, परन्तु समझ में सयाने बनो” (1 कुरिन्थियों 14:20)। उनकी इस अपरिपक्वता तथा मसीही बालक-अवस्था में अटके रह जाने के कारणों को और उनके जीवनों में दिखने वाले इस अपरिपक्वता के लक्षण हम पिछले दो लेखों में इफिसियों 4:14 से देख चुके हैं।

मसीही विश्वास और जीवन में अपरिपक्वता के कारण बालक-अवस्था में अटके रह जाने के अतिरिक्त, इफिसियों 4:14 अपरिपक्वता के अन्य दुष्प्रभाव भी बताता है। अपरिपक्व मसीही विश्वासियों में देखे जाने वाले ये दुष्प्रभाव हैं कि ये लोग, मनुष्यों की ठग-विद्या और चतुराई में बारंबार फँसते या फिर फंसे हुए ही रहते हैं; लोगों की भ्रम की युक्तियों का शिकार होते रहते हैं, उनसे धोखा खाते रहते हैं; और मनुष्यों के भ्रामक उपदेश से बड़ी सरलता से उछाले, और इधर-उधर घुमाए जाते हैं, अर्थात वचन और विश्वास की बातों में स्थिर और दृढ़ बने रहने की बजाए, इन्हें सरलता से कभी एक बात मानने और कभी कोई अन्य बात मानने के लिए इधर से उधर बहकाया भटकाया जा सकता है। 

ध्यान कीजिए, अदन की वाटिका में आदम और हव्वा से पहला पाप करवाने के लिए सर्प रूपी शैतान ने इसी ठग-विद्या और चतुराई का प्रयोग किया था। उसने हव्वा के मन में उनके प्रति परमेश्वर के प्रेम, और उनके लिए परमेश्वर की योजनाओं के भले होने के विषय संदेह उत्पन्न किया, हव्वा को परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता के लिए उकसाया, और हव्वा ने शैतान की ठग-विद्या और चतुराई में फंस कर परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता कर दी, पाप में गिर और फंस गई। इसीलिए पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस द्वारा लिखवाया हैपरन्तु मैं डरता हूं कि जैसे सांप ने अपनी चतुराई से हव्वा को बहकाया, वैसे ही तुम्हारे मन उस सिधाई और पवित्रता से जो मसीह के साथ होनी चाहिए कहीं भ्रष्‍ट न किए जाएंजैसा कि झूठी प्रेरित करते हैं (2 कुरिन्थियों 11:3, 13-15)। प्रभु यीशु ने भी अंत के दिनों के चिह्नों में से एक यही बताया था कि बहुत से भरमाने वाले आएंगे (मत्ती 24:5, 11)। पौलुस ने अपनी सेवकाई के विषय में, उसके द्वारा प्रचार किए जाने वाले वचन में उसके खराई से बने रहने का स्मरण दिलाया (2 कुरिन्थियों 2:17; 4:2; 1 थिस्सलुनीकियों 2:3-5)। साथ ही पौलुस ने यह भी चिताया कि ये भरमाने और भटकाने वाले लोग मण्डलियों के अंदर से, वर्तमान सदस्यों में से भी निकलकर आ सकते हैं, और आएंगे (प्रेरितों 20:30) 

वचन में ऐसे लोगों को ताड़ लेने और उन से दूर रहने के लिए कहा गया है, “अब हे भाइयो, मैं तुम से बिनती करता हूं, कि जो लोग उस शिक्षा के विपरीत जो तुम ने पाई है, फूट पड़ने, और ठोकर खाने के कारण होते हैं, उन्हें ताड़ लिया करो; और उन से दूर रहो। क्योंकि ऐसे लोग हमारे प्रभु मसीह की नहीं, परन्तु अपने पेट की सेवा करते है; और चिकनी चुपड़ी बातों से सीधे सादे मन के लोगों को बहका देते हैं” (रोमियों 16:17-18)। प्रेरित यूहन्ना ने भी अपने पाठकों को सचेत किया किहे प्रियो, हर एक आत्मा की प्रतीति न करो: वरन आत्माओं को परखो, कि वे परमेश्वर की ओर से हैं कि नहीं; क्योंकि बहुत से झूठे भविष्यद्वक्ता जगत में निकल खड़े हुए हैं” (1 यूहन्ना 4:1), और इससे आगे के पदों में वह बताता है कि सही और गलत आत्माओं को कैसे पहचाना जा सकता है। यह पहचान करना इसलिए अनिवार्य है क्योंकि ये लोग अपनी ठग विद्या और चतुराई की बातों से प्रभु यीशु मसीह के सुसमाचार को बिगाड़ कर प्रस्तुत करते हैं, उसमें मिलावट करके उसे भ्रष्ट और अप्रभावी कर देते हैं, इसलिए पौलुस प्रेरित में होकर परमेश्वर पवित्र आत्मा ऐसा करने वालों कोश्रापितकहता है, “मुझे आश्चर्य होता है, कि जिसने तुम्हें मसीह के अनुग्रह से बुलाया उस से तुम इतनी जल्दी फिर कर और ही प्रकार के सुसमाचार की ओर झुकने लगे। परन्तु वह दूसरा सुसमाचार है ही नहीं: पर बात यह है, कि कितने ऐसे हैं, जो तुम्हें घबरा देते, और मसीह के सुसमाचार को बिगाड़ना चाहते हैं। परन्तु यदि हम या स्वर्ग से कोई दूत भी उस सुसमाचार को छोड़ जो हम ने तुम को सुनाया है, कोई और सुसमाचार तुम्हें सुनाए, तो श्रापित हो” (गलतियों 1:6-8)। वचन के इन हवालों से ध्यान कीजिए कि इन मनुष्यों की ठग विद्या और चतुराई, परमेश्वर के वचन की खराई और सच्चाई को बिगाड़ने, उसमें मानवीय बुद्धि और ज्ञान की बातों की मिलावट करने, के द्वारा कारगर होती है। यदि मसीही विश्वासी परमेश्वर के वचन में स्थापित, तथा स्थिर और दृढ़ बना रहे, तो फिर न केवल वह परिपक्वता में बढ़ता जाएगा, वरन उसे बहकाना और फंसना सहज नहीं होगा।

इसीलिए अपरिपक्वता के इस दुष्प्रभाव से बचने तथा बाहर निकालने का उपाय भी वचन को सीखने और समझने हर एक पवित्र शास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है और उपदेश, और समझाने, और सुधारने, और धर्म की शिक्षा के लिये लाभदायक है। ताकि परमेश्वर का जन सिद्ध बने, और हर एक भले काम के लिये तत्पर हो जाए” (2 तीमुथियुस 3:16-17); तथा सांसारिक बुद्धि और तत्व-ज्ञान के अनुसार नहीं अपितु वचन के अनुसार ही जीवन जीना है, “यह मैं इसलिये कहता हूं, कि कोई मनुष्य तुम्हें लुभाने वाली बातों से धोखा न दे। सो जैसे तुम ने मसीह यीशु को प्रभु कर के ग्रहण कर लिया है, वैसे ही उसी में चलते रहो। और उसी में जड़ पकड़ते और बढ़ते जाओ; और जैसे तुम सिखाए गए वैसे ही विश्वास में दृढ़ होते जाओ, और अत्यन्त धन्यवाद करते रहो। चौकस रहो कि कोई तुम्हें उस तत्‍व-ज्ञान और व्यर्थ धोखे के द्वारा अहेर न करे ले, जो मनुष्यों के परम्पराई मत और संसार की आदि शिक्षा के अनुसार हैं, पर मसीह के अनुसार नहीं” (कुलुस्सियों 2:4, 6-8)

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा निरंतर परिपक्वता में बढ़ते जाएं। साथ ही सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • लैव्यव्यवस्था 14        
  • मत्ती 26:51-75

शनिवार, 12 फ़रवरी 2022

अपरिपक्व कलीसिया के लक्षण


बालकों के समान व्यवहार और मानसिकता

 पीछे के लेखों में हमने देखा है कि प्रभु के लोगों में परमेश्वर के वचन से संबंधित पाँच प्रकार की ठीक से और निरंतर की जाने वाली सेवकाइयों के द्वारा ही मसीही विश्वासियों के मसीही जीवनों में और साथ ही प्रभु की कलीसिया की उन्नति होती है; वे परिपक्वता में अग्रसर होते रहते हैं, और प्रभु परमेश्वर की महिमा का कारण ठहरते हैं। किन्तु यदि किसी कारणवश व्यक्ति प्रेरितों 2:42 में दिए गए मसीही और कलीसिया के जीवन के चार स्तंभों, वचन की शिक्षा, मसीही विश्वासियों की संगति, सामूहिक एवं व्यक्तिगत प्रार्थना का जीवन, और प्रभु की मेज़ में नियमित सम्मिलित होने में शिथिल अथवा लापरवाह हो जाए, या कमज़ोर पड़ जाए तो उसका आत्मिक विकास बाधित हो जाता है, वह आत्मिक परिपक्वता में नहीं बढ़ने पाता है, उसका आत्मिक जीवन प्रभु के लिए अप्रभावी हो जाता है, और उसके जीवन से प्रभु को महिमा नहीं मिलती है। पिछले लेख में हमने यह भी देखा था कि मसीही विश्वास में आने के बाद लोग आत्मिक शिशु-अवस्था से निकलकर आत्मिक बालक-अवस्था में आकर क्यों अटक जाते हैं - परमेश्वर पिता और उनकी अपने बच्चों के लिए देखभाल पर उनके अधूरे विश्वास, और उसके अंतर्गत पिता परमेश्वर की बजाए अपने ऊपर तथा स्वयं के प्रयासों पर भरोसा रखने के कारण! 

जैसा हमने पिछले लेख में देखा है, इफिसियों 4:14 “ताकि हम आगे को बालक न रहें, जो मनुष्यों की ठग-विद्या और चतुराई से उन के भ्रम की युक्तियों की, और उपदेश की, हर एक बयार से उछाले, और इधर-उधर घुमाए जाते होंमें चार प्रकार की (प्रमुख की गई) बातें दी गई हैं जो मसीही विश्वासियों और कलीसिया के मध्य, नियुक्त सेवकों द्वारा, वचन की अप्रभावी सेवकाई के कारण आए आत्मिक कुपोषण से ग्रसित व्यक्तियों या कलीसिया में घर कर जाती हैं। इनमें से पहली बात है बालक के समान व्यवहार, विचार, और दृष्टिकोण रखना; अर्थात अपरिपक्व होना। शेष तीन बातें इन बालक समान, या अपरिपक्व लोगों में देखने को मिलती हैं। ये अपरिपक्व मसीही बालक, विभिन्न प्रकार के विचारों कीबयार से उछाले, और इधर-उधर घुमाए जातेहैं; अर्थात सूखे पत्तों या हल्की सी किसी ऐसी वस्तु के समान हो जाते हैं जो हल्की सी भी हवा चलने से एक से दूसरे स्थान पर उड़ा दिए जाएं। उनमें कोई आत्मिक स्थिरता एवं दृढ़ता, वचन की सही शिक्षाओं की समझ, मसीही विश्वास की आधारभूत बातों की जानकारी नहीं होती है। बेरिया के विश्वासियों (प्रेरितों 17:11) के विपरीत, यदि कोई भी प्रचारक आकर मसीह या परमेश्वर के नाम में कुछ भी उलटा-सीधा किन्तु आकर्षक और मनोहर रीति से कह देता है, उसे ये बालक समान अपरिपक्व लोग बिना जाँचे-परखे स्वीकार कर लेते हैं, गलत शिक्षाओं में तुरंत ही बहक और भटक जाते हैं, एक से दूसरे प्रचारक, मत, समुदाय, डिनॉमिनेशन आदि मेंउछाले, और इधर-उधर घुमाए जातेहैं। 

परमेश्वर के वचन बाइबल में दो स्थानों पर परमेश्वर पवित्र आत्मा ने इस आत्मिक बालक अवस्था के लक्षण बताए हैं, जिससे मसीही विश्वासी अपने जीवनों में झांक कर अपनी आत्मिक परिपक्वता की दशा को देख लें। बाइबल के ये स्थान, और वहाँ लिखे लक्षण हैं: 

1. हे भाइयों, मैं तुम से इस रीति से बातें न कर सका, जैसे आत्मिक लोगों से; परन्तु जैसे शारीरिक लोगों से, और उन से जो मसीह में बालक हैं। मैं ने तुम्हें दूध पिलाया, अन्न न खिलाया; क्योंकि तुम उसको न खा सकते थे; वरन अब तक भी नहीं खा सकते हो। क्योंकि अब तक शारीरिक हो, इसलिये, कि जब तुम में डाह और झगड़ा है, तो क्या तुम शारीरिक नहीं? और मनुष्य की रीति पर नहीं चलते? इसलिये कि जब एक कहता है, कि मैं पौलुस का हूं, और दूसरा कि मैं अपुल्लोस का हूं, तो क्या तुम मनुष्य नहीं? (1 कुरिन्थियों 3:1-4)

यहाँ पर दिए गए इस बालक अवस्था के, अपरिपक्वता के लक्षण हैं:

  • उनसे परिपक्व आत्मिक लोगों के समान आत्मिक बात-चीत नहीं की जा सकती है; वे उसे समझ नहीं पाते हैं, ग्रहण नहीं करने पाते हैं।
  • वे शारीरिक या सांसारिक लोगों के समान की गई बात-चीत को ही समझने और ग्रहण करने पाते हैं। 
  • वे बाइबल की ठोस शिक्षाओं, मसीही विश्वास और जीवन की उन्नत तथा गूढ़ बातों को समझ नहीं पाते हैं, न उनका पालन, और न ही उन्हें अपने जीवन में लागू करने पाते हैं। 
  • उनमें डाह और झगड़ा, अर्थात अहंकार, दूसरों के साथ तुलना करते रहना, अपने आप को ऊंचा और दूसरों को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति, क्षमा न करना, सहनशीलता, नम्रता और दीनता का व्यवहार न रखना, आदि बातें बनी रहती हैं।
  • वे बाइबल की सही शिक्षाओं पर परमेश्वर पवित्र आत्मा के चलाए नहीं चलते; वरन मनुष्यों, संस्थाओं, मानवीय मतों, समुदायों, और डिनॉमिनेशंस के नियमों के अनुसार, जहाँ से भी उन्हें लाभ मिले, उनके अनुसार चलते और जीवन जीते हैं।
  • उनमें मनुष्यों को महत्व देने, उन्हें अपना आदर्श बनाकर मनुष्यों के अनुसार चलने, और इस बात को लेकर औरों के साथ मतभेद और टकराव रखने की प्रवृत्ति देखने को मिलती है। 

2. “इस के विषय में हमें बहुत सी बातें कहनी हैं, जिन का समझना भी कठिन है; इसलिये कि तुम ऊंचा सुनने लगे हो। समय के विचार से तो तुम्हें गुरु हो जाना चाहिए था, तौभी क्या यह आवश्यक है, कि कोई तुम्हें परमेश्वर के वचनों की आदि शिक्षा फिर से सिखाए ओर ऐसे हो गए हो, कि तुम्हें अन्न के बदले अब तक दूध ही चाहिए। क्योंकि दूध पीने वाले बच्चे को तो धर्म के वचन की पहचान नहीं होती, क्योंकि वह बालक है। पर अन्न सयानों के लिये है, जिन के ज्ञानेन्‍द्रिय अभ्यास करते करते, भले बुरे में भेद करने के लिये पक्के हो गए हैं” (इब्रानियों 5:11-14)

यहाँ पर दिए गए इस बालक अवस्था के, अपरिपक्वता के लक्षण हैं:

  • उनमें वचन की बातों और शिक्षाओं को सुनने और सीखने में रुचि नहीं होती है; वे उन बातों कोऊँचा सुनतेहैं।
  • उनकी आत्मिक दशा, आत्मिक परिपक्वता, बाइबल की शिक्षाओं और बातों की समझ, आदि, उनके मसीही विश्वास में आने की अवधि के अनुपात में नहीं देखी जाती है।
  • उन्हें परमेश्वर के वचन की आदि शिक्षाओं, मसीही विश्वास की आधारभूत बातों का ही बोध नहीं रहता है। वे उन बातों को भूल गए हैं, उन्हें उन बातों को फिर से सिखाने की आवश्यकता होती है। 
  • वे केवल बिलकुल आरंभिक शिक्षाएं ही समझ और ग्रहण करने पाते हैं; ठोस या गूढ़ शिक्षाओं को समझ पाना या उनका पालन करना उनके लिए संभव नहीं होता है। 
  • उन्हेंधर्म के वचनकी पहचान नहीं होती है; एक प्रकार से यह इफिसियों 4:14 में लिखेहर एक बयार से उछाले, और इधर-उधर घुमाए जाते होंका दोहराया जाना है। वचन की सही पहचान न होने के कारण, वे जाँचे और समझे बिना ही हर प्रकार की शिक्षाओं को स्वीकार कर लेते हैं।
  • वे आत्मिक बातों में भले और बुरे में अंतर पहचानने में अक्षम होते हैं।

आत्मिक बालक-अवस्था के उपरोक्त लक्षण प्रकट करते हैं कि मसीही विश्वासियों में भी अधिकांश लोग अभी इस बालक-अवस्था से ऊपर नहीं बढ़ने पाए हैं। इसका कारण इब्रानियों 5:14 के मध्य भाग में दिया गया है: “... जिन के ज्ञानेन्‍द्रिय अभ्यास करते करते...”; ये लोग अपरिपक्व या बालक इसलिए हैं क्योंकि ये मसीही जीवन और उसमें बढ़ोतरी से संबंधित विभिन्न परिस्थितियों से होकर नहीं निकलते हैं। ये प्रभु के लिए उपयोगी होने, उसके लिए कुछ करने में रुचि नहीं रखते हैं; बस शिथिल और निष्क्रिय होकर प्रभु और उसकी आशीषों को अपने लिए प्रयोग करते रहते हैं। यदि ये उन आरंभिक मसीही विश्वासियों के समान प्रेरितों 2:42 की चारों बातों में लौलीन रहते, तो उन्हीं आरंभिक विश्वासियों के समान प्रभु के लिए उपयोगी भी होते, और मसीही जीवन के विभिन्न अनुभवों में से होकर निकलते हुए आत्मिक परिपक्वता में भी बढ़ते चले जाते। 

इस आत्मिक अपरिपक्वता के कारण ये लोग जिन बातों में शैतान द्वारा फँसा लिए जाते हैं, उन्हें हम अगले लेख में देखेंगे। किन्तु यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो उपरोक्त 1 कुरिन्थियों 3:1-4 और इब्रानियों 5:11-14 के आधार पर अपनी आत्मिक परिपक्वता की स्थिति को पहचान लीजिए, और उसके अनुसार जो भी आवश्यक निर्णय हों, उन्हें लेकर अपने जीवन में कार्यान्वित कर लीजिए। आप जितना प्रभु के वचन और शिक्षाओं में बढ़ेंगे, जितना वचन और प्रभु के आज्ञाकारी रहेंगे, आप उतने अधिक परिपक्व और प्रभु के लिए उपयोगी और अपने लिए आशीषित होते चले जाएंगे।   

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • लैव्यव्यवस्था 13        
  • मत्ती 26:26-50

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022

कलीसिया में निरंतर वचन की सेवकाई की आवश्यकता


मसीही जीवन में अपरिपक्वता के कारण

     प्रभु यीशु मसीह द्वारा अपनी कलीसिया में विभिन्न कार्यों और जिम्मेदारियों को निभाने के लिए पाँच प्रकार के कार्यकर्ता या सेवक नियुक्त किए गए हैं (इफिसियों 4:11), जिनके कार्यों और सेवकाइयों के विषय, जो मुख्यतः वचन की विभिन्न प्रकार की सेवकाई से संबंधित हैं, हम पिछले लेखों में देख चुके हैं। साथ ही हमने यह भी देखा था कि पाँच प्रकार के भिन्न सेवक नियुक्त होना अनिवार्य नहीं है, किन्तु प्रत्येक स्थानीय मण्डली में उन पाँच प्रकार की वचन की सेवकाइयों का होना अनिवार्य है; वही कलीसिया और उसके सदस्यों की उन्नति का आधार है। इसके बाद हमने इफिसियों 4:12, 13 से देखा है कि उन पाँच प्रकार की वचन की सेवकाइयों का एक क्रमिक प्रभाव होता है, जो मसीही विश्वासियों, उनके मसीही जीवनों, और कलीसिया की भी उन्नति तथा सिद्धता का कारण ठहरता है। किसी भी स्थानीय कलीसिया में वचन से संबंधित इन पाँच सेवकाइयों की, तथा उनके कारण होने वाले उन प्रभावों की उपस्थिति उस कलीसिया और उसके मसीही विश्वासी सदस्यों के आत्मिक स्तर, परिपक्वता, और आत्मिक सिद्धता की पहचान है। आज हम उन पाँच सेवकाइयों से मसीही विश्वासियों के जीवनों और कलीसियाओं में होने वाले प्रभावों से संबंधित अगले पद, इफिसियों 4:14 को देखेंगे।

यह पद पिछले लेख में कही गई आरंभिक बात की पुष्टि करता है। पिछले लेख में हमने देखा था कि मसीही विश्वास और प्रभु यीशु की पहचान में सभी ईसाई या मसीही लोगों में एक-मनता के न होने, ईसाई या मसीही समाज में अनेकों गुटों, समुदायों, डिनॉमिनेशंस के होने, और उनमें परस्पर विरोध तथा टकराव की स्थिति होने का आधार-भूत कारण है मसीही विश्वासियों का मनुष्यों और संस्थाओं या डिनॉमिनेशंस के द्वारा दी जानी वाली शिक्षाओं और बातों पालन करना, किन्तु परमेश्वर पवित्र आत्मा से सीख कर, उनकी आज्ञाकारिता में बने नहीं रहना। यदि सभी परमेश्वर पवित्र आत्मा से सीखने वाले हो जाएंगे, तो सभी के पास एक ही शिक्षा, एक ही बात, एक ही सिद्धांत होंगे; परस्पर भिन्नता और मतभेद का आधार ही समाप्त हो जाएगा, समस्त विश्वव्यापी कलीसिया एक समान हो जाएगी, अति-प्रभावी हो जाएगी। इफिसियों 4:14 “ताकि हम आगे को बालक न रहें, जो मनुष्यों की ठग-विद्या और चतुराई से उन के भ्रम की युक्तियों की, और उपदेश की, हर एक बयार से उछाले, और इधर-उधर घुमाए जाते होंमसीही विश्वासियों और कलीसिया में यह अपरिपक्वता, विभाजन, और मतभेद उत्पन्न करने वाली चार प्रकार की बातों को हमारे सामने रखता है:

  1. बालक, अर्थात अपरिपक्व होना
  2. मनुष्यों की ठग-विद्या और चतुराई
  3. भ्रम की युक्तियों
  4. (भ्रामक) उपदेश 

यहाँ दी गई पहली बात है बालक या अपरिपक्व होना। मसीही विश्वास में आने, पापों से पश्चाताप करके, प्रभु यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण करने और अपना जीवन उसे समर्पित करने को परमेश्वर की संतान हो जाना (यूहन्ना 1:12-13), “नया जन्मप्राप्त करना, अर्थात, शारीरिक जीवन से आत्मिक जीवन में जन्म लेना कहा गया है, जिसके बिना कोई भी न तो परमेश्वर के राज्य को देख सकता है, और न ही उसमें प्रवेश कर सकता है (यूहन्ना 3:1-7)। प्रेरित पतरस में होकर परमेश्वर पवित्र आत्मा ने इन नए जन्मे हुए शिशुओं को पुराने शारीरिक स्वभाव को त्याग कर, निर्मल आत्मिक दूध, अर्थात परमेश्वर के वचन की लालसा रखने को कहा, जिससे वे आत्मिक या मसीही जीवन में बढ़ते जाएं (1 पतरस 2:1-2 - इन पदों को अंग्रेज़ी अनुवादों में भी देखें) 

किन्तु बहुधा यह भी देखा जाता है कि मसीह में आने के कुछ समय के पश्चात, उन नए विश्वासियों का मसीही जीवन के प्रति जोश और लगाव ठण्डा पड़ने लगता है, और धीरे-धीरे वे मसीही विश्वासियों की संगति से, वचन की शिक्षा प्राप्त करने से दूर हटने लगते हैं। सांसारिक तथा पारिवारिक कार्य और ज़िम्मेदारियाँ बहुतेरों की आत्मिक बढ़ोतरी में रुकावटें उत्पन्न कर देती हैं। यह एक परीक्षा का, एक चुनौती का समय होता है, जब उस मसीही विश्वासी को यह तय करना होता है कि वह अपनी देखभाल स्वयं करेगा और अपने प्रयासों से अपने लिए सांसारिक लाभ की बातों को अर्जित करेगा, या वह इसकी ज़िम्मेदारी परमेश्वर के हाथों में ही रहने देगा, और परमेश्वर को ही अपने वायदे के अनुसार उस मसीही बालक की उचित और उपयुक्त देखभाल, उन्नति और बढ़ोतरी करवाने देगा (मत्ती 6:25-34)। अधिकांश लोग इस परीक्षा में फेल हो जाते हैं, परमेश्वर पर भरोसा बनाए रखने के स्थान पर, वे अपने ही प्रयासों और परिश्रम तथा युक्तियों से अपनी देखभाल, उन्नति और बढ़ोतरी के कार्यों में लग जाते हैं, तथा परमेश्वर, उसके वचन, उसके लोगों की संगति से दूर हो जाते हैं। इससे क्योंकि उन्हें अब आवश्यक वचन की शिक्षा, उचित और उपयुक्त मात्रा में आत्मिक भोजन नहीं मिलता है, जितना उनकी आत्मिक बढ़ोतरी के लिए उन्हें चाहिए इसलिए उनका आत्मिक जीवन दुर्बल तथा अप्रभावी रहता है।

इस आत्मिक कुपोषण की स्थिति को कैसे पहचाना तथा समझा जा सकता है? परमेश्वर पवित्र आत्मा ने इसके लिए उनबालकया अपरिपक्व रहने वाले मसीहियों में पाए जाने वाले लक्षण दो स्थानों पर लिखवाए हैं। इन लक्षणों का विश्लेषण और व्याख्या हम अगले लेख से आरंभ करेंगे। यदि आप मसीही विश्वासी हैं तो अपने पापों से पश्चाताप करने और मसीह यीशु को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता ग्रहण करने, उसे अपना जीवन समर्पित करने और उसकी आज्ञाकारिता में चलने का निर्णय लेने के समय से लेकर, अभी तक के अपने मसीही जीवन की उन्नति और बढ़ोतरी के बारे में आप अपने लिए क्या कहेंगे? क्या आपकी मसीही जीवन की उन्नति और बढ़ोतरी उस समय-अवधि के अनुसार संतोषजनक है, या कहीं आप पिछड़ गए हैं? कहीं, जैसा सामान्यतः होता है, सांसारिक तथा पारिवारिक कार्यों और ज़िम्मेदारियों के निर्वाह ने आपके मसीही विश्वास और जीवन की बढ़ोतरी को बाधित तो नहीं कर दिया है? आप अपनी हर प्रकार की आवश्यकताओं के लिए किस पर भरोसा रखते हैं और आश्रित रहते हैं - अपने आप पर, अपने प्रयासों, परिश्रम तथा मानवीय सहयोगियों एवं सहायकों पर, या फिर परमेश्वर पर? संसार और संसार की सभी बातें यहीं छूट जाएंगी, परलोक में इनमें से कुछ भी साथ नहीं जाएगा; जाएगा तो केवल वह जो परमेश्वर देगा, अन्य सभी यही छूट जाएगा, नाश हो जाएगा (1 यूहन्ना 2:15-17)। इसलिए यदि आपको अपने मसीही जीवन में कुछ सुधार करने हैं, तो अभी समय और अवसर रहते कर लीजिए; बाद में यदि देर हो गई, तो बहुत भारी हानि में पड़ जाएंगे।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • लैव्यव्यवस्था 11-12        
  • मत्ती 26:1-25

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2022

कलीसिया में वचन की सेवकाई कब तक?


मसीही जीवन में परिपक्वता के चिह्न

पिछले लेखों में हमने इफिसियों 4:11 में दिए गए सेवकों के विवरण से देखा है कि प्रभु यीशु द्वारा उसकी कलीसिया में नियुक्त किए गए सेवकों की सेवकाई से, इफिसियों 4:12 के अनुसार, प्रभु यीशु के विश्वासी, उसकी कलीसिया के लोगसिद्ध”, अर्थात सेवकाई के लिए (i) तत्पर और तैयार होते हैं, (ii) कलीसिया में सेवा का काम होता है, और (iii) कलीसिया उन्नति पाती है। इसका उदाहरण हमने थिस्सलुनीकिया की कलीसिया के स्थापित होने तथा उन्नति करने से देखा था। मसीह यीशु की कलीसिया में इन तीन बातों के होने से कुछ और प्रभाव भी आते हैं, जिन्हें इफिसियों 4:13-16 में बताया गया है। आज हम इनमें से 13 पद में दिए गए प्रभावों को देखेंगे। 

परमेश्वर पवित्र आत्मा ने पौलुस प्रेरित के द्वारा इफिसियों 4:13 में लिखवाया है, “जब तक कि हम सब के सब विश्वास, और परमेश्वर के पुत्र की पहचान में एक न हो जाएं, और एक सिद्ध मनुष्य न बन जाएं और मसीह के पूरे डील डौल तक न बढ़ जाएंइस वाक्य और पद के आरंभिक शब्दजब तकप्रभु द्वारा उसके विश्वासियों, उसकेपवित्र लोगोंके लिए कलीसिया के रूप में, तथा व्यक्तिगत रीति से मसीही विश्वास एवं जीवन में उन्नति के चरम स्तर की ओर संकेत करते हैं। अर्थात, मसीही विश्वासियों की कलीसिया को, और व्यक्तिगत रीति से प्रभु केपवित्र लोगोंको कब तक उन्नत होते चले जाने के प्रयास में कार्यरत रहना है? इस पद में उत्तर दिया गया है - जब तक कि:

  1. हम सब के सब विश्वास, और परमेश्वर के पुत्र की पहचान में एक न हो जाएं
  2. एक सिद्ध मनुष्य न बन जाएं 
  3. मसीह के पूरे डील डौल तक न बढ़ जाएं

एक बार फिर, इससे पहले वाले 12 पद के समान ही यहाँ भी एक क्रम, उन्नति की एक के बाद एक सीढ़ी दी गई है। सबसे पहला लक्ष्य है प्रभु की कलीसिया केसब के सबलोगों का विश्वास में और प्रभु यीशु की पहचान में एक हो जाना; उनके बारे में एक ही समझ, विचार, और दृष्टिकोण रखना (इफिसियों 4:1-6)। और यह होना अति-आवश्यक भी है, क्योंकि जब तक मसीही विश्वास तथा प्रभु यीशु मसीह से संबंधित बातों में, शिक्षाओं में, दृष्टिकोण में भिन्नता रहेगी, तब तक न तो कलीसिया के लोग साथ मिलकर रह सकेंगे, और न ही एक ही उद्देश्य के साथ सेवकाई कर सकेंगे। प्रभु की विश्वव्यापी कलीसिया के सभी लोगों को मसीही विश्वास और प्रभु यीशु मसीह के विषय समान समझ, विचार, और दृष्टिकोण रखना बहुत आवश्यक, वरन, अनिवार्य है। जब मसीह यीशु एक ही है, प्रभु यीशु का वचन एक ही है, उस वचन को सिखाने वाला परमेश्वर पवित्र आत्मा एक ही है, सारे संसार के सभी लोगों के लिए परमेश्वर से मेल-मिलाप और उद्धार का मार्ग एक ही है, तो फिर कलीसिया को भी एक ही होना है; कलीसिया में अलग-अलग विचारधाराओं और मान्यताओं के होने के लिए कोई स्थान ही नहीं है। किन्तु फिर भी आज का ईसाई या मसीही समाज, यहाँ तक कि मसीही विश्वासी भी आज अनेकों समुदायों, गुटों, और डिनॉमिनेशंस में विभाजित हैं, जो परस्पर टकराव और असहिष्णुता की स्थिति में भी रहते हैं। इस विभाजन का एक ही कारण, एक ही आधार है - प्रभु परमेश्वर और उसके वचन के अनुसार नहीं, वरन व्यक्तियों और उनकी, यानि कि मनुष्यों की शिक्षाओं के अनुसार चलना और गुट-बंदी करना; जो परिस्थिति शैतान ने आरंभिक कलीसिया के समय से ही कलीसियाओं में डाल दी थी (1 कुरिन्थियों 1:10-13; 3:1-7)

मसीही विश्वास और प्रभु यीशु की पहचान में एक हो जाने के बाद इफिसियों 4:13 में दिए गए क्रम में दूसरा है, जब तक कि, “एक सिद्ध मनुष्य न बन जाएं। ध्यान कीजिए कि 4:12 में भीसिद्धहोने -जिस से पवित्र लोग सिद्ध हों जाएंकी बात की गई है; किन्तु मूल यूनानी भाषा मेंसिद्धहोने के लिए 4:12 और 4:13 में प्रयोग किए गए शब्द भिन्न हैं। मूल यूनानी भाषा में जो शब्द 4:12 में प्रयोग किया गया है उसका अर्थ होता हैपूर्णतः सुसज्जितहोना, अर्थात किसी भी कार्य या ज़िम्मेदारी के निर्वाह के लिए पूरी तरह से तैयार और आवश्यक संसाधनों एवं उपकरणों तथा समझ-बूझ से लैस होना, जैसा हमने पिछले लेख में देखा है; किन्तु 4:13 में प्रयोग किए गए जिस शब्द का अनुवादसिद्धकिया गया है, उसका शब्दार्थ होता हैसंपूर्णयाहर रीति से ठीक और सही” - अर्थात वास्तव मेंसिद्ध” - जो परिपूर्ण, या दोषरहित हो। 4:13 में दिए गए इस क्रम से अभिप्राय स्पष्ट है - जब कलीसिया और मसीही विश्वासी, सब के सब विश्वास, और परमेश्वर के पुत्र की पहचान में एक हो जाएंगे, तो इससे फिर वे अपने मसीही जीवन और विश्वास में भी सभी त्रुटियों और गलत शिक्षाओं, गलत व्यवहार, आचरण, और परंपराओं आदि से मुक्त हो जाएंगे; और परिपूर्ण, या दोषरहित हो जाएंगे - सिद्ध हो जाएंगे। और प्रभु परमेश्वर के सिद्ध लोगों का समूह, प्रभु की कलीसिया भी, तब सिद्ध हो जाएगी। इसलिए कलीसिया और व्यक्तिगत मसीही जीवन में इससिद्धताका होना, इस बात का प्रमाण होगा कि वह मसीही विश्वासी, वह कलीसिया वास्तव में परिपक्व है, परमेश्वर की इच्छा के अनुसार है।

इस सिद्धता के बाद, 4:13 में दिया गया अगला क्रम हैमसीह के पूरे डील डौल तक न बढ़ जाएं। बाइबल हमें सिखाती है कि प्रभु परमेश्वर हम सभी मसीही विश्वासियों को अंश-अंश करके मसीह यीशु की समानता में, उसके रूप में ढालता, या परिवर्तित करता जा रहा है (2 कुरिन्थियों 3:18), ताकि उसके विश्वासी मसीह के स्वरूप में हों, और मसीहबहुत भाइयों में पहलौठा ठहरे” (रोमियों 8:29)। इस बात की गंभीरता और महत्व का एहसास करते हुए पौलुस अपनी जीवन शैली मसीह यीशु के समान रखने में प्रयासरत रहता था, तथा उसने सभी मसीही विश्वासियों को भी उसके समान यही करने के लिए कहा (1 कुरिन्थियों 1:11; 1 थिस्सलुनीकियों 4:1)। परमेश्वर पवित्र आत्मा ने परस्पर प्रेम, दीनता, नम्रता, और एक-मनता के संदर्भ में लिखवाया, “जैसा मसीह यीशु का स्वभाव था वैसा ही तुम्हारा भी स्वभाव हो” (फिलिप्पियों 2:5)। प्रभु यीशु मसीह के जीवन का उद्देश्य था हर बात में पिता परमेश्वर को आदर और महिमा देना; और प्रत्येक मसीही विश्वासी द्वारा भी हर बात में, दिनचर्या की छोटी से छोटी और किसी गंभीर विचार के योग्य न समझी जाने वाली बात से भी परमेश्वर को महिमा मिलनी चाहिए, “सो तुम चाहे खाओ, चाहे पीओ, चाहे जो कुछ करो, सब कुछ परमेश्वर की महिमा के लिये करो” (1 कुरिन्थियों 10:31)। जब मसीही विश्वासियों, और उनसे बनी हुई कलीसिया में यह परिपक्वता, मसीह यीशु के समान जीवन शैली दिखाई देगी, तो वे मसीह यीशु के डील-डौल तक भी बढ़े हुए कहलाएंगे। 

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो इस वचन के समक्ष अपने मसीही विश्वास, जीवन, और सेवकाई का आँकलन करके देख लीजिए कि आप किसी मत या डिनॉमिनेशन की मनुष्यों की शिक्षाओं के पालन में लगे हुए हैं, या परमेश्वर पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता में परमेश्वर के वचन को सीखने और उसका पालन करने में लगे हैं। जब तक आपके मसीही विश्वास और प्रभु यीशु के बारे में समझ परमेश्वर के वचन के अनुरूप नहीं होंगे, न आप सिद्ध हो सकेंगे, और न ही मसीह यीशु के डील-डौल तक पहुँच सकेंगे, वरन मनुष्यों और उनकी संस्थाओं की बातों के व्यर्थ निर्वाह में ही समय और अवसर गँवाते रहेंगे। कही ऐसा न हो कि जब तक आप सही बात को समझें और उसका पालन करने की इच्छा रखें तब तक बहुत देर हो चुकी हो, और बातों को ठीक करने का समय तथा अवसर निकल चुका हो।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • लैव्यव्यवस्था 8-10       
  • मत्ती 25:31-46 

बुधवार, 9 फ़रवरी 2022

वचन की सही सेवकाई के प्रभाव


कलीसिया सेवा के लिए तत्पर और तैयार, कलीसिया की उन्नति     

पिछले कुछ लेखों में हम प्रभु यीशु द्वारा अपनी कलीसिया के कार्यों के लिए नियुक्त किए गए कार्यकर्ताओं के बारे में इफिसियों 4:11 से देखते आ रहे हैं। हमने पाँच प्रकार के कलीसिया के सेवकों और उनकी सेवकाइयों के बारे में देखा, और यह भी देखा कि समय और आवश्यकता के अनुसार, एक ही व्यक्ति एक से अधिक प्रकार की सेवकाइयों को भी कर सकता है, और आरंभिक कलीसियाओं में यह होता रहा है। इससे हमने यह तात्पर्य लिया था कि कलीसिया में महत्व इन पाँच प्रकार की सेवकाइयों के निरंतर ज़ारी रहने का है, न कि सेवकाइयों के लिए नियुक्त किए गए व्यक्तियों का। जिस कलीसिया में ये पाँच प्रकार के कार्य ज़ारी रहेंगे, वह कलीसिया उन्नति करती रहेगी, बढ़ती रहेगी, और प्रभु के लिए उपयोगी, तथा प्रभु की महिमा का कारण होगी। इफिसियों 4:12-16 में हम इन सेवकाइयों को किए जाने के प्रभावों को मसीही विश्वासियों के जीवनों में क्रमवार, और उनके उन्नत होने की एक से अगली सीढ़ी पर बढ़ते हुए देखते हैं। इफिसियों 4:11 की सेवकाइयों के प्रभावों के क्रम का आरंभ इफिसियों 4:12, “जिस से पवित्र लोग सिद्ध हों जाएं, और सेवा का काम किया जाए, और मसीह की देह उन्नति पाएसे होता है। यहाँ पर इन सेवकाइयों के द्वारा कलीसिया में होने वाले पहले तीन प्रभाव दिए गए हैं:

  1. पवित्र लोग सिद्ध हों जाएं
  2. सेवा का काम किया जाए
  3. मसीह की देह उन्नति पाए

       यहीं पर उन्नत होते जाने के क्रम को भी देखा जा सकता है - पवित्र लोग सिद्ध होंगे, वे सिद्ध हुए लोग सेवा के कार्य को योग्य रीति से करेंगे, जिससे मसीह की देह अर्थात कलीसिया उन्नति पाएगी। इस पद में, मूल भाषा के जिस शब्द का अनुवादसिद्धकिया गया है, उसका शब्दार्थ होता हैपूर्णतः सुसज्जितहोना, अर्थात किसी भी कार्य या ज़िम्मेदारी के निर्वाह के लिए पूरी तरह से तैयार और आवश्यक संसाधनों एवं उपकरणों तथा समझ-बूझ से लैस होना। यहाँसिद्धशब्द का अर्थ आत्मिक और नैतिक रीति से निर्दोष, निष्पाप, निष्कलंक होना नहीं है, वरन कलीसिया के कार्यों के लिए तत्पर और तैयार हो जाना है।  साथ ही ध्यान कीजिए कि 4:12 की ये तीनों बातें कलीसिया के सभीपवित्र लोगोंके लिए हैं, किसी विशेष नियुक्ति अथवा चुने गए कुछ विशिष्ट लोगों के लिए नहीं। अर्थात, 4:11 की सेवकाइयों के कलीसिया में भली-भांति निर्वाह के द्वारा समस्त कलीसिया, प्रभु के सभी सच्चे और समर्पित विश्वासी प्रभु के कार्य के लिए तत्पर और तैयार हो जाएंगे, अपनी-अपनी सेवकाई के लिए आवश्यक गुणों और वरदानों से लैस हो जाएंगे। 

इसका एक उदाहरण है थिस्सलुनीकिया की कलीसिया, जिसकी स्थापना का वर्णन हम प्रेरितों 17:1-9 में पाते हैं। प्रेरितों 17:2-4 में लिखा है कि थिस्सलुनीकिया में पौलुस की सेवकाई केवलतीन सबत के दिनही की थी, जो दो या अधिक से अधिक तीन सप्ताह का समय बनता है, और इस दौरान पौलुस ने उन्हें सुसमाचार भी दिया, वचन की शिक्षाएं भी दीं, जिसके परिणामस्वरूप बहुत से लोगों ने प्रभु को उद्धारकर्ता ग्रहण किया। पौलुस द्वारा इस मण्डली को लिखी पहली पत्री के आरंभिक अध्याय में ही हम इफिसियों 4:12 में लिखी बात के प्रमाण को देखते हैं। दो या तीन सप्ताह की वचन की सेवकाई से स्थापित हुए थिस्सलुनीकिया की कलीसिया के विषय स्वयं पौलुस की गवाही थी कि उन्होंने बड़े क्लेश में भी पवित्र आत्मा के आनन्द के साथ वचन को ग्रहण किया, मकिदुनिया और आख्या के सभी विश्वासियों के लिए आदर्श बने, उन इलाकों में परमेश्वर के वचन का प्रचार किया, और उनके मूरतों से परिवर्तन, मसीही विश्वास में आने, और प्रभु के दूसरे आगमन के लिए तैयार होने की चर्चा हर जगह फैल गई (1 थिस्सलुनीकियों 1:6-10)। जैसे ही इफिसियों 4:11 की सेवकाइयों के द्वारा परमेश्वर पवित्र आत्मा को कार्य करने का अवसर और स्वतंत्रता प्राप्त हुई, थिस्सलुनीकिया के उन लोगों के जीवनों में इफिसियों 4:12 की तीनों बातें, तथा उससे और आगे के पदों की बातें भी प्रत्यक्ष दिखने लग गईं। 

यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो आपके पास अभी अपने आप को जाँचने और परखने का अवसर है कि इफिसियों 4:12 के अनुसार आपसिद्धअर्थात प्रभु के कार्य के लिए तत्पर और तैयार हैं कि नहीं, थिस्सलुनीकिया के विश्वासियों के समान अपने पुराने जीवन से पूर्णतः परिवर्तित होकर प्रभु की सेवा, उसके सुसमाचार के प्रचार में कार्यरत हैं कि नहीं - क्योंकि यह सभीपवित्र लोगोंका दायित्व है। और इसके लिए आपको किसी विशेष प्रशिक्षण अथवा लंबे समय तक सिखाए जाने और अनुभव पाने की आवश्यकता नहीं है, वरन प्रभु को पूर्णतः समर्पित और उसके आज्ञाकारी होने की आवश्यकता है, जैसा हम थिस्सलुनीकिया की कलीसिया के उदाहरण से देखते हैं। उपरोक्त बातों का और प्रभु यीशु के वचनों की शिक्षा पाने और पालन करने का ध्यान रखिए। यह आपके लिए भी तथा औरों के लिए भी उन्नति का कारण ठहरेगा।  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • लैव्यव्यवस्था 6-7       
  • मत्ती 25:1-30