श्रीमन दीपक जी,
रोज़ की रोटी ब्लॉग पर करी गई आपकी टिप्पणी और प्रस्तुत विचारों के लिये धन्यवाद। दो पंक्तियों में आपने कुछ बहुत महत्वपुर्ण बातें अंकित करीं हैं। इनके और आपकी टिप्पणी बारे में, बहुत संक्षेप में और तीन शीर्षकों (- भाषा, क्षेत्र एवं संस्कृति, धर्म एवं धन) के अन्तर्गत अपनी बात कहना चाहुंगा।
१. - भाषा:
सृष्टि के सर्जनहार-पालनहार-तारणहार सृष्टिकर्ता को संसार की प्रत्येक भाषा में किसी न किसी शब्द से संबोधित और प्रकट किया जाता है। हमारी मातृभाषा हिंदी में यह शब्द है "परमेश्वर"। क्योंकि मसीही विश्वास प्रभु यीशु मसीह को इस समस्त सृष्टि का सर्जनहार-पालनहार-तारणहार सृष्टिकर्ता मानता है, इसीलिये उसके वचन को परमेश्वर का वचन कहते हैं। यह किसी भाषा अथवा संस्कृति की अवमानना या "आत्मसात करके उसके साथ खिलवाड़" नहीं है, केवल अपने विचार को जिस भाषा में व्यक्त करना है, उस भाषा में उपलब्ध उचित शब्द का प्रयोग है। यदि आप अंग्रेज़ी भाषा में परमेश्वर के बारे में कुछ कहना चाहेंगे तो "god" शब्द का प्रयोग तो करेंगे ही, तो क्या आपके ऐसा करने से पश्चिमी संस्कृति और विचारधारा की अवमानना होगी?
२. - क्षेत्र एवं संस्कृति:
न तो प्रभु यीशु मसीह और न मसीही विश्वास किसी संस्कृति या भूभाग तक सीमित हैं। बाइबल स्पष्ट बताती है कि प्रभु यीशु मसीह सारे संसार के लिये आये और सारे संसार के पापों के लिये उन्होंने अपना बलिदान दिया। इसमें किसी देश, धर्म, भाषा, जाति, रंग, शिक्षा, संपन्न्ता, पद-प्रतिष्ठा आदि का कोई स्थान या महत्व नहीं है। सारे संसार में जो कोई स्वेच्छा से उन पर विश्वास करके अपने निज पापों से पश्चाताप करता है, वह पापों की क्षमा, उद्धार एवं परमेश्वर कि सन्तान होने का अधिकार प्राप्त करता है। इस संदर्भ में अनुरोध करूंगा कि आप http://samparkyeshu.blogspot.com/2009/12/blog-post_20.html तथा संपर्कयीशु ब्लॉग पर उपलब्ध अन्य लेखों का अवलोकन एवं अधयन करें।
एक और गलतफहमी जो बहुत से लोगों में है, और आपने भी जिसका प्रयोग किया है - प्रभु यीशु मसीह पश्चिमी सभ्यता के हैं। जी नहीं; वैसे तो वे सारे संसार के हैं, किंतु यदि मात्र उनके जन्मस्थान, जीवन और कार्य स्थल के परिपेक्श की अति सीमित दृष्टि से भी देखें तो वे उस भूभाग से हैं जिसे संसार इस्त्राएल के नाम से जानता है और जो विश्व के एशिया महाद्वीप के मध्य-पूर्व का एक भाग है न कि पश्चिम का; हमारा देश भारत भी इसी महाद्वीप के दक्षिण का ही भाग है। इस दृष्टिकोण से भी प्रभु यीशु पश्चिम कि अपेक्षा हमारे अधिक निकट ठहरे।
इसी से संबंधित कुछ और बातों को कहना चाहुंगा: आम और प्रचलित धारणा के विपरीत, मसीही विश्वास अंग्रेज़ हमारे देश में लेकर नहीं आये, अंग्रेज़ों के भारत आने से लगभग १७००-१८०० तथा अब से लगभग २००० वर्ष पूर्व, प्रभु यीशु मसीह के मृत्कों में से पुनुर्त्थान और स्वर्गारोहण के कुछ ही वर्ष पश्चात उनके चेले, उन की आज्ञा के अनुसार, संसार के विभिन्न इलाकों में, उद्धार और पापों की क्षमा का उनका संदेश लेकर निकल पड़े और उन्हीं में से एक चेला - थोमा, भारतवर्ष आया और दक्षिण भारत में बस गया। उसके जीवन भर उसके पास सिवाय अपने प्रभु और गुरू की शिक्षाओं और उनकी आज्ञाकारिता के, और कुछ भी नहीं था; न कोई विदेशी मिशन, न कोई देशी अथवा विदेशी धन, न किसी पश्चिमी देश की संस्कृति या सभ्यता, न ही ऐसी किसी बात को दूसरों पर थोपने का इरादा, न अन्य कोई भी ऐसा उद्देश्य, जिसका आज अक्सर लोग मसीहीयों पर निराधार आरोप लगाते हैं। दुखः की बात है कि हमारे देश के जो ज्ञानी और समाज पर प्रभाव रखने वाले लोग इस एतिहासिक सत्य को जानते हैं, वे इसे प्रकट नहीं करते, वरन कुछ निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिये, प्रचलित गलत धारणा को ही जानबूझकर लोगों के सामने बढ़ा-चढ़ाकर रखते रहते हैं, तथ्यों से अन्जान लोगों को बरगलाते रहते हैं और उन्हें असत्य के आधार पर मसीहियों के विरुध भड़काते रहते हैं।
३. - धर्म और धन:
यह एक और बहुत बड़ी गलतफहमी है कि प्रभु यीशु संसार में अपना कोई धर्म स्थापित करने आये थे। वे कोई धर्म देने के लिये नहीं वरन संसार को पापों से मुक्ति का मार्ग देने आये थे। न तो उन्होंने स्वयं किसी धर्म की स्थापना करी और न ही कभी अपने अनुयायियों से ऐसा करने को कहा। इसाई धर्म और मसीही विश्वास में ज़मीन-आसमान का अंतर है। मसीही विश्वास प्रभु यीशु मसीह पर व्यक्तिगत रूप से और स्वेच्छा से किया जाता है, यह विश्वास है - कोई धर्म नहीं है। हमारी अपनी भारतीय संस्कृति के संदर्भ में इसे समझना और भी सरल है - यह प्रभु यीशु को गुरू धारण करके पूर्ण रूप से उसे समर्पित होना, अपने गुरू का अनुसरण करना और आज्ञाकारी रहना ही है। यदि मेरे पास सर्वोत्तम गुरू और उसकी सर्वोत्तम शिक्षाएं हैं, तो उसके बारे में दुसरों को बताने में क्या बुराई है? क्या प्रभु यीशु में या उसकी शिक्षाओं में आपने कुछ ऐसा पाया जो गलत है? हो सकता है कि इसाई धर्म या उस धर्म का पालन करने वालों में आपने कोई आपत्तिजनक बातें पाईं हों, पर प्रभु यीशु में? प्रभु यीशु धर्म, देश, संस्कृति, जाति आदि की सीमाओं में बंधा नहीं है, न ही वह इन और ऐसी बातों के आधार पर संसार और संसार के लोगों को विभाजित करता है, और न ही वह किसी को इन बातों के आधार पर ऊंचा-नीचा, छोटा-बड़ा, भला-बुरा आदि करके बताता है। वह तो अपने प्रेम और अनुग्रह में सब को, चाहे वे जो भी और जैसे भी हों, अपने आप में एक करके, बराबरी का एक ही दर्जा देता है - परमेश्वर की संन्तान होने का।
प्रत्येक धर्म में, इसाई धर्म में भी, उस धर्म को मानने वाले परिवार में जन्म लेने से, स्वाभाविक रीति से, जन्म लेने वाला बच्चा उसी धर्म का हो जाता है और उस धर्म के संसकारों में ही उसका पालन-पोषण होता है, और उसका उस धर्म की लीक से हटना बहुत बुरा माना जाता है। किंतु मसीही विश्वास में ऐसा नहीं है। मसीही विश्वास में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी स्वेच्छा से अपने पापों का अंगीकार और पश्चाताप करके प्रभु यीशु को समर्पण करना होता है। मेरे मसीही विश्वासी होने से मेरे परिवार का कोई भी सदस्य मसीही नहीं हो जाता, और ना ही मुझे पापों की क्षमा मिलने के कारण मेरे परिवार के किसी भी सदस्य को पापों की क्षमा स्वाभाविक रूप से या विरासत में मिल जाती है। मेरा उद्धार किसी दूसरे पर कदापि लागू नहीं होता। मैं उन्हें इसके बारे में बता सकता हूँ, समझा सकता हूँ, किंतु मसीही विश्वास में आना उनका अपना ही निर्णय होगा। यदि उन्होंने इस को नहीं माना और यह निर्णय नहीं लिया तो इस जीवन के बाद जब वे परमेश्वर के सामने अपने न्याय के लिये खड़े होंगे, तो मेरे मसीही विश्वास के सहारे अपने पापों की सज़ा से नहीं बच सकते। इसाई परिवार में जन्म लेने से, या इसाई धर्म अपना लेने से कोई मसीही विश्वासी नहीं हो जाता।
प्रभु यीशु ने कभी नहीं कहा कि धन या अन्य किसी संसारिक वस्तु के लालच का उपयोग करके उसके नाम में कोई समूह खड़ा करो, वरन उसने अपने चेलों को धरती पर नहीं परन्तु स्वर्ग में अपना धन एकत्रित करने को कहा, और धरती की नहीं वरन स्वर्गीय वस्तुओं के खोजी होने की शिक्षा दी। प्रभु यीशु का राज्य पृथ्वी का नहीं स्वर्ग का है, वह नाशमान नहीं वरन अविनाशी की ओर अपने चेलों का ध्यान करवाता है। ऐसे में प्रभु यीशु का कोई भी वास्तविक अनुयायी कैसे धन या सांसारिक वस्तुओं के लालच का उपयोग उसके नाम से कर सकता है? प्रभु यीशु ने न तो कोई धर्म दिया और न कभी किसी के धर्म परिवर्तन कराने की शिक्षा दी। उसने कहा "हे सब [पाप के] बोझ से दबे और थके लोगों मेरे पास आओ, मैं तुम्हें विश्राम दूंगा।" प्रभु यीशु के नाम से धन या सांसारिक वस्तुओं के लालच का प्रयोग करना पाप है और उस लालच को स्वीकार करके उसका चेला बनने का दावा करना भी पाप है; दोनो ही बातें प्रभु यीशु की शिक्षाओं के विपरीत हैं। किंतु यदि प्रभु यीशु को ग्रहण करने से परिवार, समाज और संसार से तिरिस्कार मिले, तो ऐसे तिरिस्कृत लोगों की सहायता, प्रभु यीशु मसीह का सन्देश उन तक लाने वालों के द्वारा करी जाना, क्या अनुचित है? यदि ऐसे अनुचित और निराधार तिरिस्कार और कटुता नहीं होगी, अस्त्य के आधार पर लोगों को विभाजित करना नहीं होगा तो फिर लालच के आरोप का स्थान भी नहीं होगा।
मैं आपका आभारी हूँ कि आपकी टिप्पणी ने ये कुछ अति महत्वपूर्ण बातें उजागर करने का मुझे यह सुअवसर दिया। आशा करता हूँ कि आपकी गलतफहमी दूर हुई होगी और निवेदन है कि यथासंभव इन सत्यों को उजागर करें क्योंकि अन्ततः जीत तो सत्य की ही होती है, तथा प्रभु यीशु को परख कर देखें कि वह कैसा भला है।
धन्यवाद सहित - रोज़ की रोटी
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