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सोमवार, 5 सितंबर 2011

पश्चाताप सब के लिए है

पादरी लूई पौल लेहमैन ने अपने एक भूतपूर्व चर्च में कार्य करते समय हुआ अपना एक नम्र कर देना वाला अनुभव बताया। एक मिशनरी प्रचारक उनसे मिलने आया और अपने कार्य के बारे में बताया, लेकिन लेहमैन उससे प्रभावित नहीं हुआ। प्रचारक के वेशभूषा, व्यक्तित्व, बातचीत के ढंग को देखकर लेहमैन को लगा कि वह व्यक्ति इस कार्य के लिए सर्वथा अयोग्य है। कुछ महीने पश्चात उस प्रचारक द्वारा भेजे गए अपने कार्य की समीक्षा से लेहमैन को ज्ञात हुआ कि वह कितने प्रभावी रूप से अपने क्षेत्र में कार्य कर रहा था और प्रभु का सुसमाचार उसके द्वारा कितने लोगों के जीवन बदल रहा था। पादरी लेहमैन को एहसास हुआ कि उन्होंने उस प्रचार्क को पहचानने में गलती करी थी। उन्होंने कहा, कि जब मैंने उसकी रिपोर्ट पढ़ी तो मैं अपने दफतर में गया और अपनी गलती के लिए मैंने रो रो कर पशचाताप किया।

अपनी पुस्तक A CAll to Repentance में बौब स्टोक्स ने लिखा, "पश्चाताप केवल एक कार्य नहीं है, यह एक प्रवृत्ति भी है। दूसरे शब्दों में सच्चा पश्चाताप करने वाला पापी व्यक्ति अपने जीवन भर पशचाताप की भावना साथ लेकर अपने मसीही अनुभव में चलता रहता है।"

चाहे अपने आप को दीन और नम्र करना हमारे लिए कठिन हो, लेकिन एक पश्चातापी प्रवृत्ति मसीह में सजीव विश्वास, दीन मन और स्थिर संबंध की निशानी है; हम इसके बिना मसीही जीवन में आगे नहीं बढ़ सकते।

प्रकाशितवाक्य ३ अध्याय के अनुसार परमेश्वर अपनी सन्तान से बहुत प्रेम करता है इसलिए आवश्यक्ता पड़ने पर वह उनकी ताड़ना भी करता है, उन्हें डांटता भी है जिससे वे अपने उद्धार के संपूर्ण आनन्द में सदा बने रहें। पश्चाताप केवल कठोर पापियों ही के लिए नहीं है, पश्चाताप उन विनम्र संतों के लिए भी है जो कभी किसी बात को अपने और अपने प्रभु के बीच आने नहीं देना चाहते।

पश्चाताप सब के लिए है। - डेनिस डी हॉन


पश्चाताप में टूटा मन परमेश्वर का कार्य है। - बनियन

मैं जिन जिन से प्रीति रखता हूं, उन सब को उलाहना और ताड़ना देता हूं, इसलिये सरगर्म हो, और मन फिरा। - प्रकाशितवाक्य ३:१९


बाइबल पाठ: प्रकाशितवाक्य ३:१४-२२

Rev 3:14 और लौदीकिया की कलीसिया के दूत को यह लिख, कि, जो आमीन, और विश्वासयोग्य, और सच्‍चा गवाह है, और परमेश्वर की सृष्‍टि का मूल कारण है, वह यह कहता है।
Rev 3:15 कि मैं तेरे कामों को जानता हूं कि तू न तो ठंडा है और न गर्म: भला होता कि तू ठंडा या गर्म होता।
Rev 3:16 सो इसलिये कि तू गुनगुना है, और न ठंडा है और न गर्म, मैं तुझे अपने मुंह से उगलने पर हूं।
Rev 3:17 तू जो कहता है, कि मैं धनी हूं, और धनवान हो गया हूं, और मुझे किसी वस्‍तु की घटी नहीं, और यह नहीं जानता, कि तू अभागा और तुच्‍छ और कंगाल और अन्‍धा, और नंगा है।
Rev 3:18 इसी लिये मैं तुझे सम्मति देता हूं, कि आग में ताया हुआ सोना मुझ से मोल ले, कि धनी हो जाए; और श्वेत वस्‍त्र ले ले कि पहिनकर तुझे अपने नंगेपन की लज्ज़ा न हो; और अपनी आंखों में लगाने के लिये सुर्मा ले, कि तू देखने लगे।
Rev 3:19 मैं जिन जिन से प्रीति रखता हूं, उन सब को उलाहना और ताड़ना देता हूं, इसलिये सरगर्म हो, और मन फिरा।
Rev 3:20 देख, मैं द्वार पर खड़ा हुआ खटखटाता हूं, यदि कोई मेरा शब्‍द सुनकर द्वार खोलेगा, तो मैं उसके पास भीतर आकर उसके साथ भोजन करूंगा, और वह मेरे साथ।
Rev 3:21 जो जय पाए, मैं उसे अपने साथ अपने सिंहासन पर बैठाऊंगा, जैसा मैं भी जय पाकर अपने पिता के साथ उसके सिंहासन पर बैठ गया।
Rev 3:22 जिस के कान हों वह सुन ले कि आत्मा कलीसियाओं से क्‍या कहता है।

एक साल में बाइबल:
  • भजन १४६-१४७
  • १ कुरिन्थियों १५:१-२८

2 टिप्‍पणियां:

  1. माना के पश्यताप सब के लिए है, मगर किस अपराध के लिए कोन सा पश्यताप होना चाहिए इस का निर्णय कोन करेगा या कोन करता है। हर एक इंसान को जब अपने द्वारा किए हुए पापा का आभास हो जात है। जिस के उपरांत उसे ग्लानि होती है। वो स्वयं ही अपने आप में इतना दुखी और बोझिल महसूस करने लगता है की मुझे नहीं लगता इसके पाश्चात्य भी उसके लिए को पश्यताप बचता है.... दिन रात उस किए हुए पापा के बोझ तले खुद में अंदर ही अंदर जलते रेहना ही शायद सब से बड़ा पश्यताप है।

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  2. पल्लवी जी, आपकी टिप्पणी के लिए धन्यवाद। अपनी कुछ व्यस्तता के कारण पहले उत्तर नहीं दे सका, विलंब के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ।
    परमेश्वर के वचन पवित्र बाइबल के अनुसार, पाप तथा पश्चाताप से संबंधित कुछ मूल सैद्धांतिक बातें अवगत करना चाहूँगा:
    - बाइबल के अनुसार पाप पाप है, उसके स्तर या प्रकार नहीं हैं।
    - पाप - चाहे वह जैसा भी हो, मनुष्य को परमेश्वर से दूर करता है, मनुष्य तथा परमेश्वर की संगति में दीवार बनता है और मनुष्य के जीवन में परेशानियां लाता है।
    - मनुष्य कभी अपने प्रयासों से या अपनी धार्मिकता से पाप से निकल नहीं सकता, क्योंकि पापी स्वभाव से कभी सिद्ध धार्मिकता उत्पन्न हो ही नहीं सकती।
    - प्रत्येक पाप, प्रत्यक्षतः चाहे किसी के भी विरुद्ध किया गया हो, अन्ततः परमेश्वर तथा उसकी व्यवस्था के विरोध में ही है, इसलिए परमेश्वर को ही उसके अन्तिम निवारण का अधिकार है।
    - परमेश्वर ने पाप के निवारण का उपाय किया है, वह मनुष्य के पाप क्षमा करना चाहता है, लेकिन मनुष्य को उसकी क्षमा ग्रहण करने को तैयार भी होना चाहिए। उसने समस्त मानव जाति के पापों के दोष और दण्ड के लिए प्रभु यीशु को बलिदान होने के लिए भेजा और बलिदान होने दिया। अब जो कोई अपने पाप की क्षमा प्रभु यीशु से मांगकर उसे अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करता है, वह पाप के दण्ड को भोगने से बच जाता है, और प्रभु की धर्मिकता द्वारा परमेश्वर की सन्तान बन जाता है। जो परमेश्वर के उपाय को स्वीकार नहीं करता, वह दण्ड भोगने के लिए अपनी इच्छा प्रगट करता है, और भोगेगा भी। यह किसी धर्म परिवर्तन की बात नहीं है, पश्चाताप द्वारा मन परिवर्तन की बात है। क्योंकि परमेश्वर का ना तो कोई धर्म है, और ना ही उसने कोई धर्म बनाया या दिया, इसलिए इसे किसी धर्म विशेष से जोड़ना और धर्म परिवर्तन की संज्ञा देकर बात का बतंगड़ बनाना सर्वथा अनुचित और गलत है।
    - प्रत्येक मनुष्य स्वभाव एवं जन्म से ही पापी है। क्योंकि मनुष्य के स्वभाव में पाप है, इसलिए वह पाप करता है; ना कि क्योंकि वह पाप करता है, इसलिए पापी हो जाता है। अपने साधारण प्रतिदिन के अनुभव से देख लीजिए, उदाहरण के रूप में: बच्चा बोलने से पहले ही क्रोध करना और दिखाना जानता है; अपनी पसन्द की चीज़ को अपने लिए हत्याने और अपने पास बनाए रखने का प्रयास करता है; गलती करने पर उसे छुपाने या उसके लिए बहाना बनाने या झूठ बोलने का प्रयास करता है। किसी को भी बच्चे को यह सब सिखाना नहीं पड़ता, स्वतः ही उसके अन्दर से प्रगट होता है। जिन बातों को बचपन में हम बाल-चरित्र कहकर हंस कर टाल देते हैं, वही बातें व्यसकों में क्रोध, स्वार्थ, चोरी, झूठ आदि के नाम से जानी जाती हैं, दुषचरित्र मानी जाती हैं और पाप कही जाती हैं।
    - पाप का बोध होना और उसके लिए ग्लानि होना पाप का निवारण नहीं है; यह वैसे ही है जैसे मनुष्य अपनी किसी शारीरिक रोग के बारे में जान जाए, तथा यह भी जान जाए कि उसका रोग किस कारण से हुआ, और उसके लिए बहुत दुखी भी हो। लेकिन जब तक सही इलाज न ले, रोग और उसके कारण के बारे में केवल जान लेने एवं उसके लिए दुखी होने मात्र से वह स्वस्थ नहीं हो जाता। इसी प्रकार पाप के लिए कितनी भी ग्लानि क्यों न हो, वह ग्लानि पाप के दुषप्रभाव को दूर नहीं कर सकती।
    - प्रायश्चित कभी पाप के दुषप्रभाव का निवारण नहीं होता, क्योंकि यह मात्र पाप की बुराई को किसी उसी के बराबर अथवा अधिक भलाई से तौलने का प्रयास है। तराज़ू के एक पलड़े में पाप है, और वह पापी के विरुद्ध झुक गया है, तो पापी उसे किसी बराबर अथवा अधिक भलाई से अपने पक्ष में झुकाने या कम से कम सीधा करने का प्रयास करता है। लेकिन तराज़ू के पलड़े बराबर कर लेने से या अपनी तरफ झुका लेने से, एक पलड़े में पड़ा पाप चला तो नहीं जाता, वह वहीं उसी पलड़े में बना रहता है। इसी प्रकार जीवन से भी पाप प्रायश्चित द्वारा हटता नहीं है, जीवन में बना ही रहता है। जहां गन्दगी होगी वहां उसकी बदबू और दुषप्रभाव भी होंगे, जहां पाप होगा वहां उसके दुषप्रभाव भी रहेंगे।

    धन्यवाद,
    रोज़ की रोटी

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