पाप का समाधान - उद्धार - 16
हम देखते आ रहे हैं कि मनुष्य के पाप में पड़ने के कारण उत्पन्न हुई बातों
के समाधान के लिए जिस मनुष्य की आवश्यकता थी, उस
में निम्नलिखित बातों का होना अनिवार्य था:
- वह
एक पाप के दोष और पाप करने के प्रवृत्ति से रहित मनुष्य हो;
- वह
अपना जीवन और सभी कार्य परमेश्वर की इच्छा और आज्ञाकारिता में होकर, उसे समर्पित रहकर करे। वह सदा
ही परमेश्वर पर अपना पूरा भरोसा बनाए रखे, उस की किसी
भी बात पर कोई संदेह न करे, उसकी आज्ञाकारिता के लिए
कोई आनाकानी न करे;
- वह
पृथ्वी के किसी भी अन्य साधारण और सामान्य मनुष्य के समान सभी परिस्थितियों
और बातों के अनुभव में से होकर निकले, किन्तु फिर भी वह अपने जीवन भर, अपने
मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में पूर्णतः निष्पाप, निष्कलंक, और पवित्र रहा हो;
- वह
स्वेच्छा से सभी मनुष्यों के पापों को अपने ऊपर लेने और उनके दण्ड - मृत्यु
को सहने के लिए तैयार हो
- वह
मृत्यु से वापस लौटने की सामर्थ्य रखता हो; मृत्यु उस पर जयवंत नहीं होने पाए
- वह अपने इस महान बलिदान के प्रतिफलों को सभी
मनुष्यों को सेंत-मेंत देने के लिए तैयार हो
हमने देखा कि
प्रभु यीशु मसीह के जीवन में इस सूची की पहली तीन बातें सटीक पूरी होती हैं। आज हम
चौथी बात, उसके स्वेच्छा से अपना बलिदान देने के बारे में
देखते हैं।
उत्पत्ति 3 अध्याय
में दिए गए प्रथम पाप के संसार में प्रवेश और कार्यान्वित होने के समय के विवरण में
हम आदम द्वारा परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करके, उस वर्जित फल
को खा लेने और पाप करने के बारे में लिखा पाता हैं: “सो
जब स्त्री ने देखा कि उस वृक्ष का फल खाने में अच्छा, और
देखने में मनभाऊ, और बुद्धि देने के लिये चाहने योग्य भी है,
तब उसने उस में से तोड़कर खाया; और अपने
पति को भी दिया, और उसने भी खाया” (उत्पत्ति 3:6)। दिए गए क्रम के अनुसार, शैतान की बातों के प्रभाव में आकर, उस फल से आकर्षित
होकर, पहले स्त्री ने अनाज्ञाकारिता की - फल को तोड़कर खाया,
और फिर अपने पति, आदम, को
भी दिया। उत्पत्ति 3:6 के इस वर्णन में निहित है कि शैतान ने
आदम को प्रभावित नहीं किया था; केवल स्त्री को ही किया था।
अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार, पाप करने का निर्णय स्त्री ने
लिया था, और फिर अपने उस निर्णय को कार्यान्वित भी किया।
पहले स्वयं पाप कर लेने के बाद, उसने आदम को भी यही करने के
लिए कहा। पौलुस इस बात का हवाला तिमुथियुस और कुरिन्थियों को लिखी अपनी पत्रियों
में देता है (1 तिमुथियुस 2:14; 2 कुरिन्थियों
11:3)।
आदम के पास यह अवसर था कि वह परमेश्वर की
आज्ञाकारिता में बना रहता, स्त्री के समान फल को न खाता, उसके
निर्णय से अपने आप को अलग रखता। किन्तु उसने ऐसा नहीं किया। आदम बहकाया नहीं गया
था; किन्तु उसने भी अपनी स्वेच्छा के अंतर्गत, स्त्री के समान परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करने, और
पाप करने का निर्णय लिया, और उसे कार्यान्वित कर लिया। अब
पाप के परिणामों के समाधान को उपलब्ध करवाने वाले के लिए भी यही बात आवश्यक थी -
वह पाप के निवारण से संबंधित सभी बातों, इस प्रक्रिया में
निहित परेशानियों, अपमान, तिरस्कार,
कष्टों और यातनाओं, और अन्ततः एक भयानक मृत्यु
को भली-भांति जानते-बूझते हुए भी, स्वेच्छा से उन सभी को
सहने के लिए, उनमें होकर निकालने में भी अपने पवित्र,
सिद्ध, निष्पाप, निष्कलंक
अस्तित्व को बनाए रखने वाला हो।
हम पिछले लेख में देख चुके हैं कि इब्रानियों
10:7 और फिलिप्पियों 2:6
में प्रभु यीशु के संसार में आते समय किए गए निर्णय के बारे में
लिखा है, कि वह स्वेच्छा से परमेश्वर द्वारा पहले से लिख दी
गई बातों की पूर्ति के लिए इस संसार में मानव-देहधारी होकर आ गया। आते समय उसने
अपने ईश्वरत्व को छोड़ कर मानव रूप में अपने आप को ईश्वरत्व की सभी महिमा और आदर से
शून्य कर लिया। वह एक पूर्णतः आज्ञाकारी दीन और नम्र दास का स्वरूप धरण कर के
पृथ्वी पर आया, और प्रभु पृथ्वी पर इसी स्वरूप में रहा और
कार्य किया।
जब उसने अपने शिष्यों से अपने आने वाले
बलिदान और कष्ट के बारे में बात की, तो उसके शिष्य पतरस ने, प्रभु के
प्रति अपने प्रेम के अंतर्गत, प्रभु को ऐसा करने से रोकना
चाहा, किन्तु प्रभु ने उसे तुरंत ही झिड़क दिया: “उस समय से यीशु अपने चेलों को बताने लगा, कि मुझे
अवश्य है, कि यरूशलेम को जाऊं, और
पुरनियों और महायाजकों और शास्त्रियों के हाथ से बहुत दुख उठाऊं; और मार डाला जाऊं; और तीसरे दिन जी उठूं। इस पर पतरस
उसे अलग ले जा कर झिड़कने लगा कि हे प्रभु, परमेश्वर न करे;
तुझ पर ऐसा कभी न होगा। उसने फिरकर पतरस से कहा, हे शैतान, मेरे सामने से दूर हो: तू मेरे लिये ठोकर
का कारण है; क्योंकि तू परमेश्वर की बातें नहीं, पर मनुष्यों की बातों पर मन लगाता है” (मत्ती 16:21-23)। यहाँ 21 पद में प्रभु
की कही बात पर ध्यान कीजिए “मुझे अवश्य है,
कि यरूशलेम को जाऊं, और पुरनियों और महायाजकों
और शास्त्रियों के हाथ से बहुत दुख उठाऊं; और मार डाला जाऊं;
और तीसरे दिन जी उठूं।” उसका यह सब बातों को सहने के लिए यरूशलेम को जाना, उसका
अपना निर्णय था; वह स्वयं, या पतरस के
कहने पर, इस निर्णय से हट सकता था, किन्तु
उसने ऐसा नहीं किया। वरन, उसे इस निर्णय से हटाने का प्रयास
करने वाले पतरस को ही “शैतान” कहकर
झिड़क दिया, और उसे परमेश्वर की आज्ञाकारिता में बाधा होने की
उलाहना दी।
यही एकमात्र समय नहीं था, जब प्रभु यीशु ने अपने यरूशलेम
जाने, और वहाँ पर यातनाएं देने तथा मारे जाने के लिए पकड़वाए
जाने की बात अपने शिष्यों से कही। उसने अन्य अनेकों अवसरों पर भी उनके सामने इसी
बात को रखा (मत्ती 17:21-22; 20:17-19; मरकुस 9:30-32;
लूका 9:22, 44; 18:31-33; आदि)। अर्थात प्रभु
के लिए यरूशलेम जाकर अपने आप को मारे जाने के लिए पकड़वाया जाना, कोई अनपेक्षित या अनायास घटने वाली बात नहीं थी। वह इससे भली-भांति परिचित
था, फिर भी उन्होंने यह किया, स्वेच्छा
से किया, परमेश्वर की इच्छानुसार ऐसा किया।
जब समय आया, और यहूदा इस्करियोती
प्रभु को पकड़वाने के लिए जाने के लिए फसह के भोज से जाने को तैयार हो रहा था,
तब भी प्रभु ने उसे रोका नहीं, वरन उसे जा
लेने दिया “और टुकड़ा लेते ही शैतान उस में समा गया: तब
यीशु ने उस से कहा, जो तू करता है, तुरन्त कर” (यूहन्ना 13:27)।
जब उसे पकड़ने और यातनाएं देने के बाद, क्रूस पर चढ़ाए जाने के
लिए ले जाया जा रहा था, तब उसके हाल देखकर कुछ स्त्रियाँ
विलाप करने लगीं, तो प्रभु ने उन्हें उसके लिए विलाप करने से
मना किया “और लोगों की बड़ी भीड़ उसके पीछे हो ली: और
बहुत सी स्त्रियां भी, जो उसके लिये छाती-पीटती और विलाप
करती थीं। यीशु ने उन की ओर फिरकर कहा; हे यरूशलेम की
पुत्रियों, मेरे लिये मत रोओ; परन्तु
अपने और अपने बालकों के लिये रोओ” (लूका 23:27-28)। प्रभु को अपने नहीं, उन पर शीघ्र ही आने वाले दुख
की चिंता थी।
कुल मिलाकर, परमेश्वर का वचन बाइबल
यह स्पष्ट दिखाती है कि प्रभु यीशु ने स्वेच्छा से अपने आप को मारे जाने के लिए दे
दिया। वह पापी मनुष्यों के बदले में उनके मृत्यु दण्ड को सहने के लिए तैयार था।
उसने यह इसलिए स्वीकार किया ताकि मुझे और आपको अनन्त जीवन की आशीष दे सके - यदि
मैं और आप उसके इस बलिदान पर विश्वास लाएं, उसे अपना प्रभु
स्वीकार करें, और स्वेच्छा तथा सच्चे मन से अपना जीवन उसे
समर्पित कर के, उसके शिष्य बन जाएं।
यदि
आप ने अभी भी उद्धार नहीं पाया है, अपने पापों के लिए प्रभु
यीशु से क्षमा नहीं मांगी है, तो अभी आपके पास अवसर है।
स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के
द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों
को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।”
आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन
तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा।
बाइबल पाठ: यूहन्ना 5:39-47
यूहन्ना 5:39 तुम पवित्र शास्त्र
में ढूंढ़ते हो, क्योंकि समझते हो कि उस में अनन्त जीवन
तुम्हें मिलता है, और यह वही है, जो
मेरी गवाही देता है।
यूहन्ना 5:40 फिर भी तुम जीवन पाने
के लिये मेरे पास आना नहीं चाहते।
यूहन्ना 5:41 मैं मनुष्यों से आदर
नहीं चाहता।
यूहन्ना 5:42 परन्तु मैं तुम्हें
जानता हूं, कि तुम में परमेश्वर का प्रेम नहीं।
यूहन्ना 5:43 मैं अपने पिता के नाम
से आया हूं, और तुम मुझे ग्रहण नहीं करते; यदि कोई और अपने ही नाम से आए, तो उसे ग्रहण कर
लोगे।
यूहन्ना 5:44 तुम जो एक दूसरे से
आदर चाहते हो और वह आदर जो अद्वैत परमेश्वर की ओर से है, नहीं
चाहते, किस प्रकार विश्वास कर सकते हो?
यूहन्ना 5:45 यह न समझो, कि मैं पिता के सामने तुम पर दोष लगाऊंगा: तुम पर दोष लगाने वाला तो है,
अर्थात मूसा जिस पर तुम ने भरोसा रखा है।
यूहन्ना 5:46 क्योंकि यदि तुम मूसा
की प्रतीति करते, तो मेरी भी प्रतीति करते, इसलिये कि उसने मेरे विषय में लिखा है।
यूहन्ना 5:47 परन्तु यदि तुम उस की
लिखी हुई बातों की प्रतीति नहीं करते, तो मेरी बातों की
क्योंकर प्रतीति करोगे।
एक साल में बाइबल:
· नीतिवचन 19-21
· 2 कुरिन्थियों 7
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