आत्मिक वरदान - समान
महत्व के, सब के लाभ के लिए, पवित्र आत्मा के
द्वारा
पिछले लेख में हमने देखा था कि परमेश्वर
पवित्र आत्मा चाहता है कि सभी मसीही विश्वासी आत्मिक वरदानों के बारे में सही समझ
सीखें और रखें। साथ ही हमने यह भी देखा था कि परमेश्वर द्वारा उसके लिए निर्धारित
सेवकाई के अनुसार प्रत्येक मसीही विश्वासी को उपयुक्त आत्मिक वरदान दिए जाते हैं। परमेश्वर
की दृष्टि में न तो कोई सेवकाई छोटी अथवा बड़ी है, और न ही कोई आत्मिक वरदान बड़ा या
प्रमुख, अथवा, छोटा या गौण है। इस
प्रकार की भिन्नता या भेदभाव करना मनुष्य की प्रवृत्ति एवं भावना है, परमेश्वर की नहीं। यहाँ पर 1 कुरिन्थियों 12:31
के आधार पर वरदानों को बड़ा या छोटा कहने से पहले, इस पद को उसके संदर्भ में सही समझना आवश्यक है। इससे पहले के 12-27
पद में पौलुस ने शरीर को रूपक के समान प्रयोग करते हुए यह निष्कर्ष
दिया कि जिस प्रकार देह के सभी अंग देह के लिए समान महत्व के और उसकी कार्य-क्षमता
तथा कुशलता के लिए अपने-अपने स्थान पर आवश्यक हैं, कोई अंग
कम अथवा अधिक महत्वपूर्ण, या बड़ा अथवा छोटा नहीं है, उसी प्रकार मण्डली में भी सभी मसीही विश्वासी, अपने
भिन्न-भिन्न वरदानों और कार्यों के साथ, प्रभु की मण्डली
रूपी देह के लिए समान महत्व रखते हैं, न तो कोई मसीही
विश्वासी, न उसकी सेवकाई, न उसके वरदान,
औरों की तुलना में बड़े अथवा छोटे, या कम अथवा
अधिक महत्वपूर्ण है, सभी समान हैं। फिर इसके बाद पद 28
में पौलुस उस मण्डली रूपी एक देह में विभिन्न जिम्मेदारियों और
कार्यों का उल्लेख करता है, और उन्हें क्रमवार बताते हुए उनकी
क्रम-संख्या भी बताता है। फिर पद 29-30 में पौलुस पूछे गए
प्रश्नों के द्वारा यह दिखाता है कि हर किसी को एक ही, या
सारी ज़िम्मेदारियाँ नहीं दी गई हैं; सभी को अपनी-अपनी
ज़िम्मेदारी निभानी है। और तब पद 31 में उसके द्वारा “बड़े से बड़े वरदान” वाक्यांश का प्रयोग किया गया
है। इस पद को अन्य पदों के साथ, उसके संदर्भ में देखने से यह
प्रकट हो जाता है कि “बड़े से बड़े” से अभिप्राय अधिक से अधिक ज़िम्मेदारी वाले वरदान के लिए है। अर्थात पौलुस
में होकर परमेश्वर पवित्र आत्मा मसीही विश्वासियों को यह बता रहा है कि मसीही मण्डली
में अधिक से अधिक ज़िम्मेदारी उठाने वाले, यानि कि प्रभु के
लिए अधिक से अधिक उपयोग में आने वाले व्यक्ति होने की धुन में रहो या लालसा रखो।
यदि इसे वरदानों और सेवकाइयों में बड़े-छोटे के लिए समझा जाए तो फिर पद 12-27
में दी गई चर्चा व्यर्थ है; फिर तो प्रभु की
मण्डली रूपी देह में सभी समान महत्व के नहीं हैं, और पवित्र
आत्मा ने बड़े या छोटे आत्मिक वरदान देने के द्वारा भेद-भाव किया है। और यह बात
परमेश्वर के स्वरूप और वचन की शिक्षाओं के साथ बिल्कुल मेल नहीं खाती है, इसलिए स्वीकार्य
भी नहीं है।
दूसरी बहुत महत्वपूर्ण बात जो इस अध्याय
के 7 पद में, आत्मिक वरदानों के उल्लेख से भी पहले कही गई है, किन्तु
जिस पर अधिकांशतः लोग ध्यान नहीं देते हैं, वह है, “किन्तु सब के लाभ पहुंचाने के लिये हर एक को आत्मा का प्रकाश दिया जाता है”
(1 कुरिन्थियों 12:7)। हम इससे पहले परमेश्वर
की कार्यविधि को समझते हुए, 8 दिसंबर के लेख में यह देख चुके
हैं कि हमारा परमेश्वर पिता हमेशा सभी की भलाई के लिए ही कार्य करता है, और जो आशीषें वह देता है, वह किसी व्यक्ति के अपने
निज लाभ और प्रयोग के लिए ही नहीं होती हैं, वरन, उस व्यक्ति में होकर सभी के लाभ और उन्नति के लिए होती हैं। यही बात यहाँ
इस 7 पद में कही गई है। पवित्र आत्मा स्वयं इस बात को पहले
ही लिखवा दे रहा है कि हर एक को जो भी आत्मिक वरदान पवित्र आत्मा की ओर से दिया
गया है, वह सभी के लाभ के लिए है। इसकी पुष्टि एक बार फिर से
1 कुरिन्थियों 14:12 “इसलिये तुम भी
जब आत्मिक वरदानों की धुन में हो, तो ऐसा प्रयत्न करो,
कि तुम्हारे वरदानों की उन्नति से कलीसिया की उन्नति हो”
में हो जाती है। यद्यपि यह बात अन्य-भाषा बोलने के संदर्भ में कही
गई है, किन्तु फिर भी यहाँ पर यह बलपूर्वक दोहराया गया है कि
सभी के आत्मिक वरदानों के द्वारा कलीसिया ही की उन्नति होनी चाहिए; और 1 कुरिन्थियों 14:2-5 पद
तथा इस अध्याय के अन्य पद भी यह स्पष्ट कर देते हैं कि अन्य भाषा बोलना भी कलीसिया
की उन्नति के लिए ही है, किसी भी व्यक्ति के अपने निज प्रयोग
अथवा लाभ के लिए नहीं। यद्यपि यह हमारे वर्तमान विषय से बाहर की चर्चा है, किन्तु इस संदर्भ में यह कहना बहुत आवश्यक है कि बाइबल में जिसे “अन्य भाषा” कहा गया है वह पृथ्वी की ही, और जानी पहचानी भाषाएं हैं, जिनके नाम हैं, जो विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में मनुष्यों द्वारा बोली जाती हैं, और जिनके अनुवाद किसी अन्य क्षेत्र की भाषा में किए जा सकते हैं। पवित्र
आत्मा के नाम से गलत शिक्षाएं फैलाने वालों की इस गलत शिक्षा का कि अन्य भाषाएं अलौकिक, पृथ्वी के बाहर की भाषा
है, बाइबल में कोई समर्थन नहीं है। 1 कुरिन्थियों
14 अध्याय ही ध्यान से और प्रार्थना पूर्वक पढ़ लीजिए,
वास्तविकता स्वतः ही प्रकट हो जाएगी।
आत्मिक वरदानों से संबंधित तीसरी
महत्वपूर्ण बात हम 1 कुरिन्थियों
12:, 11 पद में देखते हैं - हर एक आत्मिक वरदान, परमेश्वर पवित्र आत्मा प्रदान करता है, और अपनी
इच्छा यानि उस व्यक्ति की निर्धारित सेवकाई के अनुसार प्रदान करता है। किसे कौन सा
आत्मिक वरदान दिया जाना है, यह व्यक्ति की लालसा या उसके कहे
अथवा मांगे जाने के अनुसार नहीं है। सभी को उसे उचित एवं उपयुक्त रीति से प्रयोग करना
है, जो परमेश्वर ने उसे दिया
है, उसके लिए रखा है। हम ऊपर देख चुके हैं कि “बड़े से बड़े वरदानों की धुन में रहो” (पद 31)
का अर्थ मण्डली में अधिक से अधिक ज़िम्मेदारी निभाने के लिए है,
अपने वरदान के स्थान पर कोई अन्य वरदान प्राप्त करने के लिए नहीं
है। हम पहले भी, दिसंबर 5 और 6 के लेखों में देख चुके हैं कि परमेश्वर ने जिसके लिए जो ज़िम्मेदारी
निर्धारित की है, उसे वो व्यक्ति ही निभा सकता है, कोई अन्य नहीं। परमेश्वर अपने निर्णय और बातें किसी के कहे के अनुसार
बदलता नहीं है। उसके निर्णय अनन्तकाल के परिप्रेक्ष्य में लिए गए निर्णय हैं,
अल्प-कालीन या मनुष्य की सोच और इच्छा के अनुसार लिए गए नहीं। मसीही
विश्वासी की आशीष उसके द्वारा परमेश्वर की आज्ञाकारिता में है, न कि परमेश्वर को अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य करने के
प्रयासों में।
यदि आप मसीही विश्वासी हैं तो आपको अपने
मसीही जीवन और सेवकाई में पवित्र आत्मा से संबंधित गलत शिक्षाओं से बच कर रहने के
लिए इन उपरोक्त बातों का ध्यान रखना बहुत आवश्यक है। न तो कोई सेवकाई और न कोई
आत्मिक वरदान परमेश्वर की दृष्टि में बड़ा अथवा छोटा है। हर वरदान परमेश्वर की ओर
से, सभी की भलाई के लिए दिया
गया है, किसी के व्यक्तिगत उपयोग के लिए नहीं। इस संदर्भ में
अन्य भाषा बोलना भी कलीसिया की भलाई और उपयोग के लिए ही है, जैसा 1 कुरिन्थियों 14 अध्याय के अध्ययन से स्पष्ट है, न कि किसी व्यक्ति
के द्वारा मुँह से विचित्र ध्वनियाँ निकालकर और विचित्र हाव-भाव दिखाने के द्वारा
लोगों पर यह प्रभाव जमाने के लिए कि उन्हें पवित्र आत्मा का कोई विशेष अनुग्रह या
सामर्थ्य मिली हुई है। और किसे क्या देना है, हर आत्मिक
वरदान परमेश्वर ही निर्धारित करता है, यह मनुष्य की इच्छा के
अनुसार निर्धारित नहीं होता है। किसी को भी 1 कुरिन्थियों 12:31
की गलत व्याख्या के आधार पर वचन की इन सच्चाइयों को बदलने का प्रयास
नहीं करना चाहिए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक
स्वीकार नहीं किया है, तो
अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के
पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की
आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए
- उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से
प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ
ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस
प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद
करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया,
उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी
उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को
क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और
मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।”
सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य
को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल
के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- होशे
1-4
- प्रकाशितवाक्य 1
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें