पवित्र आत्मा के
वरदानों की समझ
मसीही जीवन और सेवकाई में परमेश्वर
पवित्र आत्मा की भूमिका और उनके द्वारा दिए जाने वाले आत्मिक वरदानों के अध्ययन में हम यह देख चुके
हैं कि परमेश्वर प्रत्येक मसीही विश्वासी से कुछ न कुछ कार्य, जो हर एक के लिए
परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित हैं, चाहता है। परमेश्वर द्वारा
निर्धारित इन कार्यों को करने के लिए प्रत्येक मसीही विश्वासी को उसमें निवास करने वाले
परमेश्वर पवित्र आत्मा की सहायता उपलब्ध है, और साथ ही पवित्र आत्मा ने सभी को उनके कार्य और सेवकाई के
लिए उचित और उपयुक्त वरदान, या क्षमताएं और योग्यताएं भी दी
हैं, जिससे वह अपनी सेवकाई सुचारु रीति से और परमेश्वर की
इच्छा के अनुसार कर सके, कि उसकी सेवकाई परमेश्वर को
स्वीकार्य हो। इस संदर्भ में हम यह भी देख चुके हैं कि परमेश्वर को वही स्वीकार्य
होता है जो उसकी इच्छा के अनुसार और उसकी आज्ञाकारिता में होकर किया जाता है। कोई मनुष्य
अपनी मन-मर्ज़ी से परमेश्वर के नाम से कुछ भी करे, और अपेक्षा
रखे कि परमेश्वर उसे स्वीकार करेगा, उसके लिए आशीष देगा,
तो यह उस मनुष्य की अपनी सोच और समझ है। परमेश्वर उसकी इस सोच और
समझ के साथ सहमत नहीं है, और उसे तथा उसके ऐसे सभी कार्यों
को अस्वीकार कर देता है। इसलिए अति-आवश्यक है कि जब मसीही विश्वासी अपनी निर्धारित
सेवकाई के कार्य करे, अपने वरदानों का उपयोग करे तो इस
अनिवार्य बात का ध्यान रखते हुए करे।
इसके लिए स्वाभाविक है कि प्रत्येक मसीही
विश्वासी को आत्मिक वरदानों के प्रति सही समझ-बूझ और ज्ञान रखना चाहिए। परमेश्वर
ने भी अपने लोगों को इस विषय में अनभिज्ञ एवं निःसहाय नहीं छोड़ा है। पवित्र आत्मा
ने बाइबल की पुस्तकों में इन वरदानों, और उनके उपयोग के बारे में उपयुक्त विवरण लिखवाया है। अन्य
स्थानों के अतिरिक्त, रोम के, और कुरिन्थुस
के मसीही विश्वासियों को पौलुस प्रेरित के द्वारा लिखी पत्रियों में इसके विषय
इसके बारे में प्रमुख शिक्षाएं मिलती हैं। कुरिन्थुस की मसीही मण्डली को लिखी अपने
पहली पत्री में, पौलुस ने लिखा “हे
भाइयों, मैं नहीं चाहता कि तुम आत्मिक वरदानों के विषय में
अज्ञात रहो” (1 कुरिन्थियों 12:1); और यहाँ से आरंभ कर के 14 अध्याय के अंत तक की चर्चा
पवित्र आत्मा के वरदानों के बारे में है। इसी प्रकार से रोमियों को लिखी पत्री का 12
अध्याय भी पवित्र आत्मा के वरदानों के बारे में है। मसीही सेवकाई
में लगे प्रत्येक मसीही विश्वासी को प्रार्थना के साथ, इन
अध्यायों में दी गई शिक्षाओं के लिए पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन मांगते हुए,
इन अध्यायों को बहुत गंभीरता से और बारंबार पढ़ना चाहिए, और इनमें लिखी बातों को अपने जीवन और सेवकाई में लागू करना चाहिए। आज से
हम 1 कुरिन्थियों 12 में आत्मिक
वरदानों के बारे में लिखी बातों को देखना आरंभ करेंगे।
जैसा उपरोक्त पहले पद के हवाले से स्पष्ट
है, पौलुस प्रेरित में होकर
परमेश्वर पवित्र आत्मा की यह हार्दिक इच्छा है कि मसीही विश्वासी इन आत्मिक
वरदानों के विषय ज्ञान और समझ रखें। फिर 4 से 6 पद में पौलुस लिखता है कि वरदान, सेवा, और प्रभावशाली कार्य कई प्रकार के हैं, किन्तु इनके
पीछे, इनमें होकर कार्य करने वाला आत्मा, प्रभु, और परमेश्वर एक ही है। अभिप्राय यह, कि न तो
किसी का कार्य, न उसकी सेवा, और न उस
सेवकाई का प्रकट प्रभाव, परमेश्वर की दृष्टि में छोटा अथवा
बड़ा, या महत्वपूर्ण अथवा गौण है। जिसके लिए परमेश्वर ने जो
और जैसा निर्धारित किया है, वही उसके लिए सही, सबसे उपयुक्त, और सबसे महत्वपूर्ण है; चाहे मनुष्यों की दृष्टि एवं आँकलन में वह कैसा भी हो - परमेश्वर उसे अपने
मापदंड और आँकलन के अनुसार देखेगा और प्रतिफल देगा; मनुष्यों की बातों के अनुसार नहीं। इसे समझने के लिए बाइबल
से कुछ उदाहरणों को देखते हैं: मत्ती 25:14-30 में प्रभु
यीशु मसीह द्वारा कहा गया परदेश जाते समय एक मनुष्य द्वारा अपने दासों को दिए गए
तोड़ों का दृष्टांत है। उस मनुष्य ने एक दास को पाँच, एक को
दो और एक को एक ही तोड़ा दिया; और वापस लौटने पर तीनों से
समान ही हिसाब लिया। इस पूरे दृष्टांत में कहीं यह संकेत अथवा बात नहीं दी गई है
कि उस स्वामी की दृष्टि में उन दासों या उसके द्वारा उनका आँकलन करने या उन्हें
परखने में कोई भिन्नता थी। यद्यपि उनकी व्यक्तिगत क्षमता के अनुसार स्वामी ने हर
एक को दिया (पद 15), किन्तु
वे तीनों और उनका आँकलन स्वामी की दृष्टि में समान था। एक तोड़ा पाने वाला अपने
निकम्मेपन के कारण दण्ड का भागी हुआ, न कि स्वामी की उसके
प्रति किसी पूर्व-धारणा के कारण। प्रभु ने मत्ती 20:1-16 में
दाख की बारी के स्वामी का दृष्टांत बताया, जो दिन के अलग-अलग
पहरों में जाकर अपनी बारी में काम करने के लिए मज़दूरों को लाता रहा, यहाँ तक कि अंतिम घंटे में भी और मज़दूर काम के लिए बुलाए। फिर उसने सभी को
समान मेहनताना दिया। सारे दिन कार्य करने वालों और एक घंटा काम करने वालों में कोई
भिन्नता नहीं की। जिन मज़दूरों ने भिन्नता करवानी भी चाही, उन्हें
भी चुप कर दिया। निष्कर्ष स्पष्ट है, प्रभु द्वारा निर्धारित
और सौंपा गया कोई भी सेवकाई या कार्य छोटा या बड़ा नहीं है; इसलिए
उस सेवकाई या कार्य को करने से संबंधित कोई भी आत्मिक वरदान छोटा या बड़ा, अथवा कम या अधिक महत्व का नहीं है। जिसने भी प्रभु द्वारा निर्धारित कार्य
को वफादारी से किया, प्रभु द्वारा उसे उपलब्ध करवाए गए
संसाधनों का सही और उचित उपयोग किया, वह प्रभु द्वारा कभी भी
किसी से भी छोटा या कम महत्व वाला नहीं समझा गया। उसे भी वही आदर और सम्मान तथा
प्रतिफल और आशीषें मिलीं जो किसी अन्य को, चाहे मनुष्यों की
दृष्टि में उसकी सेवकाई का महत्व एवं आँकलन कुछ भी हो।
यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो मनुष्यों की बातों और
धारणाओं के बहकावे में आए बिना, प्रभु द्वारा आपको सौंपी गई
सेवकाई का पूरे लगन से और वफादारी से निर्वाह कीजिए। प्रभु की दृष्टि में आप भी
उतने ही महत्वपूर्ण और उपयोगी हैं, जितना कोई भी अन्य
व्यक्ति। साथ ही यह भी ध्यान रखिए, ऐसे अनेकों हैं जो अपनी
ही इच्छा के अनुसार प्रभु के नाम से बहुत कुछ करने में लगे हुए हैं, उनकी संसार में बहुत प्रशंसा और प्रतिष्ठा है, वे
स्वयं अपने आप को तथा लोग भी उन्हें बहुत ऊंचे दर्जे का या महान समझते हैं। किन्तु
अंतिम न्याय के समय उन्हें प्रभु से सुनने को मिलेगा, “मैं
ने तुम को कभी नहीं जाना, हे कुकर्म करने वालों, मेरे पास से चले जाओ” (मत्ती 7:23); और तब उनकी क्या दशा होगी? इसलिए मनुष्यों के आँकलन
और राय या विचार पर मत जाइए। जो प्रभु ने आप को सौंपा है, जो
करने को कहा है, उसे वफादारी और ईमानदारी से पूरा कीजिए और
प्रभु आपको कभी किसी से छोटा नहीं होने देगा।
यदि आपने प्रभु
की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त
जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में
अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके
वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और
सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए
- उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से
प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ
ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस
प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद
करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया,
उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी
उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को
क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और
मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।”
सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा
भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- दानिय्येल
11-12
- यहूदा 1
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