Click Here for the English Translation
आरंभिक मसीही विश्वासी
मसीही विश्वास और शिष्यता पर इस नई शृंखला के पहले लेख में हमने कल परमेश्वर के वचन बाइबल में दिए गए इस विषय से संबंधित कुछ मूल तथ्यों को देखा था। हमने देखा था कि प्रभु यीशु मसीह ने न तो कोई धर्म बनाया, न अपने शिष्यों से बनवाया, न किसी धर्म के प्रचार के लिए कहा, और न ही किसी का कोई धर्म-परिवर्तन करने के निर्देश दिए। उन्होंने अपने शिष्यों से संसार भर में जाकर सभी लोगों को सुसमाचार सुनाने, उन्हें प्रभु का चेला बनाने, और जो स्वेच्छा से चेला बनना स्वीकार करता है, उसे प्रभु की बातें सिखाने और केवल उसे ही बपतिस्मा देने के लिए कहा (मत्ती 28:18-20)। नए नियम की पाँचवीं पुस्तक, ‘प्रेरितों के काम’ प्रभु यीशु के मसीह के आरंभिक शिष्यों और उनके समूह - मसीही मण्डलियों का इतिहास है; अर्थात, कैसे सुसमाचार प्रचार आरंभ हुआ, कैसे लोगों में फैला, उसके क्या प्रभाव तथा प्रतिक्रियाएं हुईं - अनुकूल भी और प्रतिकूल भी, आदि। आरंभिक मसीही मण्डलियों के स्थापित होने, बढ़ने और फैलने का यह विवरण कई रोचक तथ्यों को प्रकट करता है; इनमें से कुछ तथ्य हैं:
सुसमाचार प्रचार और मण्डलियों की स्थापना परमेश्वर पवित्र आत्मा के शिष्यों पर उतर आने और उन्हें सामर्थ्य प्रदान करने के बाद ही होना था (प्रेरितों 1:8)। अर्थात, यह किसी मनुष्य द्वारा, या मनुष्यों के ज्ञान, बुद्धि और सामर्थ्य द्वारा किए जाने वाला कार्य नहीं था; यह केवल परमेश्वर की सामर्थ्य से और उसकी अगुवाई में होकर हो सकने वाला कार्य था; और किसी से भी नहीं।
सबसे पहला प्रचार ‘भक्त यहूदियों’ (प्रेरितों 2:5) के मध्य किया गया जो धार्मिक अनुष्ठानों का निर्वाह करने के लिए संसार भर से यरूशलेम में एकत्रित हुए थे। उन भक्त यहूदियों ने जब प्रभु यीशु मसीह द्वारा पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार को सुना, तो उन भक्त यहूदियों के ‘हृदय छिद गए’ और वे प्रभु के शिष्यों से अपनी स्थिति के समाधान का मार्ग पूछने लगे। तब पतरस ने उन्हें पश्चाताप करने और प्रभु यीशु की शिष्यता में आने, और बपतिस्मे के द्वारा अपने इस निर्णय की गवाही देने के लिए कहा (प्रेरितों 2:37-38)। अर्थात, उद्धार और परमेश्वर को स्वीकार्य होना मनुष्यों के भले या धार्मिक कार्यों से नहीं है, वरन प्रभु यीशु मसीह को उद्धारकर्ता स्वीकार करने के द्वारा है। जब सुसमाचार ने उनके मन की वास्तविक स्थिति उन पर प्रकट कर दी, तो सुनने वालों को अपनी रीति-रिवाजों को मानने और मनाने की भक्ति की व्यर्थता, तथा पापों की क्षमा और उद्धार के लिए किसी अन्य वास्तव में कारगर उपाय की आवश्यकता का एहसास हो गया।
आरंभ से ही मसीही विश्वासियों में चार गुण पाए जाते थे, जो आज भी व्यक्तिगत रीति से प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी के विश्वास के जीवन के अभिन्न अंग हैं “और वे प्रेरितों से शिक्षा पाने, और संगति रखने में और रोटी तोड़ने में और प्रार्थना करने में लौलीन रहे” (प्रेरितों 2:42)। आज भी मसीही विश्वासियों की मण्डली की स्थिरता और उन्नति का आधार यही चार बातें हैं - मण्डली के लोगों द्वारा परमेश्वर के वचन का अध्ययन और शिक्षा, परस्पर संगति रखना, प्रभु-भोज में नियमित सम्मिलित होते रहना, और प्रार्थना करते रहना।
प्रभु ही अपनी मण्डली में उद्धार पाए हुए लोगों को जोड़ता जाता था, और लोग उन मसीही विश्वासियों से प्रसन्न रहते थे “और परमेश्वर की स्तुति करते थे, और सब लोग उन से प्रसन्न थे: और जो उद्धार पाते थे, उन को प्रभु प्रति दिन उन में मिला देता था” (प्रेरितों 2:47)।
मसीही विश्वासियों के कार्यों और सुसमाचार प्रचार से धर्म के अगुवे और सरदार बहुत अप्रसन्न हुए, जिससे प्रभु की मण्डलियों की स्थापना के साथ ही उन मण्डलियों और मण्डलियों के लोगों का विरोध एवं उन पर सताव भी आरंभ हो गया (प्रेरितों 8:1-3), किन्तु इससे मसीही विश्वासियों की संख्या में बढ़ोतरी ही हुई।
मसीही विश्वासियों के समूहों, मसीही मण्डलियों के आरंभ के समय से ही हम कहीं पर भी किसी ‘ईसाई धर्म’ या ‘मसीही धर्म’ या ‘धर्म के प्रचार’ का कहीं कोई उल्लेख नहीं पाते हैं। प्रेरितों 2:42 की उपरोक्त चार आधारभूत शिक्षाओं के पालन के अतिरिक्त, मसीही विश्वासियों में और कोई प्रथा, अनुष्ठान, या रीति-रिवाज़ के पालन, अथवा किसी भी त्यौहार या दिन को मनाने का कोई उल्लेख नहीं है।
गैर-मसीही लोगों ने मसीही विश्वासियों को एक नाम दिया था “पंथ के लोग” (प्रेरितों 9:2), और यही संज्ञा उनके साथ इस सारी पुस्तक में जुड़ी हुई है। अर्थात, लोगे देखते, जानते और मानते थे कि मसीही विश्वासी एक विशिष्ट लोगों का समुदाय है, जो सामान्य सांसारिकता और धार्मिक मार्गों से बिलकुल पृथक, एक अन्य ही विशिष्ट मार्ग पर चलते हैं; किन्तु इस ‘मार्ग’ या ‘पंथ’ का कोई अलग से नामकरण नहीं किया गया है, और न ही उस ‘पंथ’ या मार्ग को कोई ‘धर्म’ कहा गया है – न मसीहियों और न ही गैर-मसीहियों के द्वारा।
कुछ समय के बाद में मसीह यीशु के इन्हीं विश्वासियों, इन्हीं शिष्यों को एक अन्य स्थान पर समाज के अन्य लोगों द्वारा “मसीही” कहा गया “...और ऐसा हुआ कि वे एक वर्ष तक कलीसिया के साथ मिलते और बहुत लोगों को उपदेश देते रहे, और चेले सब से पहिले अन्ताकिया ही में मसीही कहलाए” (प्रेरितों 11:26)। ध्यान कीजिए, एक बार फिर यह प्रकट है कि मसीही विश्वासियों को किसी धर्म को मानने वाले नहीं कहा गया, और न ही किसी धर्म के साथ उन्हें जोड़ा गया; साथ ही जो मसीह यीशु के शिष्य थे, वे ही मसीही कहलाए।
तो इस आरंभिक इतिहास से मसीही मण्डलियों और मसीही विश्वासियों के विषय में हम क्या शिक्षा लेते हैं?
सर्वप्रथम, जो सच्चा मसीही विश्वासी होगा, उसमें प्रेरितों 2:42 की चारों आधारभूत बातें विद्यमान होंगी; वह उनके महत्व को समझेगा और मानेगा।
दूसरे, मसीह यीशु का शिष्य होना, जीवनपर्यंत और हर परिस्थिति में एक ऐसी गवाही का जीवन जीना है कि समाज के लोग स्वतः ही पहचान जाएं कि प्रभु यीशु के ये अनुयायी अन्य सभी इसे भिन्न हैं, एक विशिष्ट ‘मार्ग’ या जीवन शैली के अनुसार रहते और चलते हैं।
तीसरे, बाइबल में दी गई परिभाषा के अनुसार मसीही वही है जो प्रभु यीशु मसीह का समर्पित शिष्य है, न कि किसी धर्म का पालन करने वाला या किन्हीं धार्मिक विधि-विधानों का निर्वाह करने वाला तथा कुछ विशेष दिन और त्यौहारों का मानने वाला है।
चौथी, यह सामान्य समझ एवं जानकारी की बात है कि कोई भी व्यक्ति किसी का शिष्य बनकर जन्म नहीं लेता है, वरन वयस्क होकर, स्वेच्छा से, जाँच-परख कर, किसी की शिष्यता को ग्रहण करता है, उसकी आज्ञाकारिता में अपने आप को समर्पित करता है। यही बात मसीही विश्वासी होने पर भी ऐसे ही लागू होती है।
जैसा हम पहले के लेखों में विस्तार से देख चुके हैं, बाइबल के अनुसार, कोई भी व्यक्ति, कभी भी किसी परिवार विशेष में जन्म लेने से, या किसी धर्म विशेष के पालन करने से प्रभु यीशु का शिष्य नहीं हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, प्रभु यीशु को अपना व्यक्तिगत उद्धारकर्ता स्वीकार करके, और उसकी शिष्यता में अपने आप को स्वेच्छा तथा सच्चे मन से समर्पित करने के द्वारा ही व्यक्ति के जीवन में यह संभव होने पाता है; और इसी को ‘नया जन्म’ पाना, अर्थात नश्वर सांसारिक स्थिति से निकलकर अविनाशी आत्मिक जीवन में परमेश्वर की संतान बनकर जन्म लेना और प्रवेश करना कहते हैं।
कल हम मसीह यीशु में विश्वास करने के अर्थ को समझेंगे, उसका विश्लेषण करेंगे; और फिर उसके पश्चात बाइबल में दिए गए मसीही विश्वासी, या प्रभु यीशु मसीह के शिष्य के गुणों को कुछ विस्तार से देखना आरंभ करेंगे। यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने जन्म अथवा संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो उन ‘भक्त यहूदियों’ के समान आपको भी अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर सच्चाई को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
एस्तेर 1-2
प्रेरितों 5:1-21
******************************************************************
The Initial Christian Believers
In this new series on Christian Faith and Discipleship, in yesterday’s article we saw about some basic principles related to this topic, from the Word of God. We saw that the Lord Jesus Christ neither started any religion, nor did He ask His disciples to start one in His name; He neither instructed His disciples to preach any religion, nor did He ask them to convert any body’s religion to another. He had only asked His disciples to go into the world and preach the gospel to everyone, make disciples, and those who voluntarily become and decide to live as His disciples, to teach them about Him and baptize them (Matthew 28:18-20). The fifth book of the New Testament, “The Acts of the Apostles” is the historical record of the life and activities of the initial disciples of the Lord Jesus, and of their congregation - the Assemblies of the Christian Believers. It tells us about how the preaching of the gospel began, how it spread amongst the people, what effects did it have, and what were the reactions of the people and communities - favorable as well as unfavorable, to it, etc. This record of the establishing, growing and spreading of the initial Believer’s Assemblies shows us many interesting facts about the Christian Faith and Discipleship; some of these are:
The preaching of the gospel and establishing of the Assemblies could only happen only after the Holy Spirit’s descending upon and filling the disciples (Acts 1:8). Meaning, this was not a work done by any man, or through the knowledge, wisdom, and strength or power of any person; it could only be done through the power of God and His guidance; nothing else.
The very first preaching was done amongst “devout Jews” (Acts 2:5), who had come to Jerusalem from all over the world, to fulfill religious obligations and rituals. Those devout Jews heard about the gospel of forgiveness of sins and salvation by the Lord Jesus Christ, then they were “cut to the heart” and they wanted to know from the disciples of the Lord, the remedy for their condition. Then Peter asked them to repent of their sins, and become disciples of the Lord Jesus Christ, and witness about this decision of theirs through baptism (Acts 2:37-38). Implying that salvation and being acceptable to God is not through being ‘devout’, i.e., any good or religious deeds of men, but only by accepting the Lord Jesus Christ as their savior. When the gospel exposed their actual inner condition to them, then those people who heard the gospel realized the vanity of their being devout through fulfilling religious rituals and ceremonies, and came to understand their need of a really effective remedy to provide forgiveness of sins and salvation to them.
From the very beginning, the Christian Believers had four characteristics, and these are still an inseparable part of a Christian Believer’s life of faith even today, “And they continued steadfastly in the apostles' doctrine and fellowship, in the breaking of bread, and in prayers” (Acts 2:42). Even today, the basis of the steadfastness and growth of any Christian Assembly is the sincere and diligent observance of these four things - teaching and learning the Word of God, desire for mutual fellowship, regularly participating in the Lord’s Table, and praying together, by the members of the Assembly.
It is the Lord who used to join those who were saved into the Assembly, and the disciples of the Lord had the favor of the people “praising God and having favor with all the people. And the Lord added to the church daily those who were being saved” (Acts 2:47).
The then religious leaders and elders were very displeased with the preaching of the gospel and works of the Christian Believers, because of which along with the establishing of the Believer’s Assemblies, their opposition and persecution also started (Acts 8:1-3); but this only resulted in the spread and growth of the Christian Believers.
Since the very beginning of the Christian Believer’s Assemblies, we never find any mention of any ‘Christian Religion’ or preaching of any religion. There is no mention anywhere of any observances of any traditions, rituals, ceremonies, celebration of any days of festivals, etc., other than the four fundamental characteristics of Acts 2:42 stated above.
The non-Christians gave the Christian Believers a name, ‘people of the way’ (Acts 9:2), and this name remained with them throughout this book. Meaning, that the people saw, knew, and believed that the Christian Believers are a group of special people, who live and walk very differently than the usual worldly and religious people; they live and walk according to a distinctly different walk of life. But take note, this ‘way’ was never given any proper name, and neither was it ever called a ‘religion’ throughout this book - nor by the Christian Believers, and neither by the non-believers.
After some time, at another place, these Christian Believers or, ‘the people of the way’ were called ‘Christians’ by the people “... So it was that for a whole year they assembled with the church and taught a great many people. And the disciples were first called Christians in Antioch” (Acts 11:26). Take particular note here that it is once again evident that the Christian Believers were never called or known as followers of any religion, nor were they associated with any religion; rather, it only the disciples of Christ Jesus who were called ‘Christians’, not anyone else.
So, from this initial historical account of the Christian Believers and Christian Believer’s Assemblies, what lessons do we learn about them?
Firstly, whosoever is truly a Christian Believer, in his life the sincere and diligent observance of the four fundamental characteristics of Acts 2:42 will be seen; he will understand their significance and necessity in his life.
Secondly, to be disciple of the Lord implies living a life that witnesses for the Lord and His teachings, so that the people of the community automatically realize that he is different from the others; he lives and walks according to a special ‘way’ as a follower of Christ Jesus.
Thirdly, as per the definition given in the Bible, only he is a Christian who is a committed disciple of the Lord Jesus; not the follower of a religion or one who fulfills certain religious rites-rituals-ceremonies and observes certain days and festivals.
Fourthly, this is a matter of general knowledge and understanding that no one is ever born as someone’s disciple; rather, the person accepts being someone’s disciple – as an adult, voluntarily, after careful evaluation and examination of the life and teachings of the one whose discipleship is under consideration. Only then does a person accept to become another’s disciple; the same thing is applicable, in just the same manner, in becoming a Christian Believer - a disciple of the Lord Jesus Christ.
As we have already seen in detail in the previous articles, according to the Bible, no one ever becomes a disciple of the Lord Jesus by being born in a particular family or by fulfilling the requirements of a particular religion. Every person has to individually repent of his sins, has to personally accept the Lord Jesus as His savior and Lord, and has to voluntarily submit himself with a sincere and committed heart into discipleship of the Lord Jesus; only then does this become possible in a person’s life. This is what is known as being ‘Born-Again’ or saved, i.e., being born out of the perishing worldly condition, into an imperishable eternal spiritual life as a child of God.
In the next article we will look into and understand the meaning of being a disciple of the Lord Jesus Christ; subsequently, we will start looking in some detail into the characteristics of the disciples of Christ from the Bible. If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family, and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then like those ‘devout Jews’ you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts, and start living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Esther 1-2
Acts 5:1-21
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें