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मंगलवार, 21 जून 2022

मसीही विश्वास एवं शिष्यता / Christian Faith and Discipleship – 3


Click Here for the English Translation 

मसीही में विश्वास से अभिप्राय

    मसीही विश्वास एवं शिष्यता से संबंधित बातों को देखते हुए, हम पिछले दो लेखों से जान चुके हैं कि न तो मसीही विश्वास कोई धर्म है, और न ही किसी धर्म परिवर्तन की बात है, वरन आरंभिक मसीही विश्वासी स्वेच्छा से प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता को स्वीकार करने वाले लोग थे। पिछले लेख में हमने आरंभिक मसीही विश्वास और विश्वासियों के इतिहास के बारे में बाइबल में की पुस्तक प्रेरितों के काम से देखा था कि आरंभिक मसीही विश्वासी “पंथ के लोग”, अर्थात सामान्य लोगों और संसार की जीवन शैली से पृथक एक विशिष्ट जीवन शैली जीने वाले लोग जाने जाते थे (प्रेरितों 9:2)। और कुछ समय के बाद वे जो प्रभु यीशु मसीह के शिष्य थे, उन्हें संसार के लोगों ने मसीही कहना आरंभ कर दिया (प्रेरितों 11:26)। निष्कर्ष यह कि परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार मसीही वह है जो प्रभु यीशु मसीह का शिष्य है, और जो संसार से पृथक प्रभु यीशु द्वारा दिखाए मार्ग के अनुसार जीवन जीता है। मसीही विश्वास से संबंधित इन आधारभूत तथ्यों में एक और आधारभूत बात निहित है कि मसीही विश्वासी होना किसी भी व्यक्ति के अपने लिए समझ-बूझकर निर्णय लेने की आयु का होने से पहले हो पाना संभव नहीं है। अर्थात मसीही होना किसी परिवार विशेष में जन्म लेने के द्वारा या किसी धर्म के पालन के द्वारा नहीं है, वरन स्वेच्छा और सच्चे समर्पण के द्वारा प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता को ग्रहण करने, उसे अपना उद्धारकर्ता स्वीकार के उसका अनुयायी हो जाने के द्वारा है। बाइबल के अनुसार तो इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग है ही नहीं। 

    बहुत से लोग, विशेषकर ईसाई धर्म का पालन करने वाले, यह कहते हैं कि वे प्रभु यीशु मसीह में विश्वास करते हैं; तो क्या अपने इस दावे या धारणा के कारण वे उद्धार पाए हुए मसीही विश्वासी कहलाए जा सकते हैं? प्रभु यीशु मसीह में विश्वास करने का, बाइबल के आधार पर, क्या अर्थ है? क्या हर कोई व्यक्ति जो अपने ही किसी भी आधार पर प्रभु यीशु पर विश्वास करने का दावा करता है, वह उद्धार पाया हुआ मसीही विश्वासी है? इस बात को समझने के लिए हमें बाइबल के दो पदों का अध्ययन करना आवश्यक है। इनमें से पहला पद हमें स्पष्ट करेगा कि कैसे प्रभु यीशु पर विश्वास के द्वारा उद्धार या नया जन्म मिलता है; और दूसरा पद समझाएगा कि बाइबल के अनुसार मसीह यीशु में विश्वास करने का अर्थ क्या है। इन पदों में व्यक्त बातें परमेश्वर के वचन का वह आधार है जिसके अनुसार उद्धार, मसीही जीवन, और सुसमाचार प्रचार की सेवकाई प्रतिपादित की गई। ये दोनों पद हैं:

1. “वह पुत्र जनेगी और तू उसका नाम यीशु रखना; क्योंकि वह अपने लोगों का उन के पापों से उद्धार करेगा” (मत्ती 1:21)। 

2. “परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं” (यूहन्ना 1:12-13)।


    आज हम इनमें से पहले पद को देखेंगे, और संबंधित दूसरे पद पर कल विचार करेंगे। आज के विचार के लिए, उसके संदर्भ सहित, प्रथम पद है “जब वह इन बातों के सोच ही में था तो प्रभु का स्वर्गदूत उसे स्‍वप्‍न में दिखाई देकर कहने लगा; हे यूसुफ दाऊद की सन्तान, तू अपनी पत्‍नी मरियम को अपने यहां ले आने से मत डर; क्योंकि जो उसके गर्भ में है, वह पवित्र आत्मा की ओर से है। वह पुत्र जनेगी और तू उसका नाम यीशु रखना; क्योंकि वह अपने लोगों का उन के पापों से उद्धार करेगा” (मत्ती 1:20-21)। प्रभु यीशु मसीह का सांसारिक पिता, यूसुफ, अपनी पत्नी मरियम को अपने घर लाने से घबरा रहा था, क्योंकि वह विवाह से पहले ही गर्भवती पाई गई थी। यूसुफ मरियम को छोड़ देने के बारे में विचार कर रहा था, ऐसे में उसे परमेश्वर की ओर से स्वप्न में स्वर्गदूत ने उसे आश्वस्त किया कि मरियम ने कुछ गलत नहीं किया है, वह अभी भी कुँवारी ही है, और यूसुफ बिना उस पर कोई संदेह किए उसे निःसंकोच अपने घर ला सकता है। फिर स्वर्गदूत यूसुफ को मरियम के गर्भ में जो पल रहा है, उसके बारे में बताता है, “वह पुत्र जनेगी और तू उसका नाम यीशु रखना; क्योंकि वह अपने लोगों का उन के पापों से उद्धार करेगा” (मत्ती 1:21), अर्थात, मरियम से एक पुत्र उत्पन्न होगा, और यूसुफ को उसका नाम यीशु रखना होगा, क्योंकि वह अपने लोगों का उनके पापों से उद्धार करेगा। इस पद के पहले अर्ध-भाग - पुत्र जनने और उसका नाम यीशु रखे जाने को हम कल इससे संबंधित दूसरे पद के साथ देखेंगे। आज हम इस पद के दूसरे अर्ध-भाग “क्योंकि वह अपने लोगों का उन के पापों से उद्धार करेगा” पर विचार करेंगे।


यह पद प्रभु यीशु मसीह के जन्म लेने के उद्देश्य को व्यक्त कर रहा है - लोगों को उनके पापों से उद्धार प्रदान करना। मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद “उद्धार” किया गया है, उसका शब्दार्थ होता है ‘छुड़ा लेना या सुरक्षित कर लेना’। अर्थात, मरियम से जन्म लेना वह पुत्र जिसका नाम यीशु रखा जाएगा, वह लोगों को उनके पापों से छुड़ा लेगा या सुरक्षित कर देगा। यह अपने आप में एक अति-विलक्षण और अभूत-पूर्व आश्वासन था; क्योंकि यह मनुष्यों का व्यावहारिक अनुभव था कि सभी धर्म-कर्म करने, सारे पर्व मनाने, विधि-विधानों को पूरा करने के बाद भी उनके जीवनों से पाप की उपस्थिति समाप्त नहीं होती थी; उन्हें फिर भी पाप के साथ संघर्ष करना पड़ता था, अपने पापों के दुष्परिणामों को झेलना होता था। अब प्रभु यीशु मसीह में संसार के लोगों को परमेश्वर की ओर से यह प्रावधान उपलब्ध करवाया जा रहा था, जो उन्हें उनके पापों की समस्या से छुड़ा कर सुरक्षित करेगा। 


किन्तु साथ ही इस पद में परमेश्वर की ओर से यह भी बताया गया था कि किन लोगों को उनके पापों से छुड़ाया और सुरक्षित किया जाएगा; जैसा यूसुफ से, उसे मिले दर्शन में, कहा गया और बाइबल में लिखा गया है, प्रभु यीशु “अपने लोगों को” उनके पापों से छुड़ाएगा और सुरक्षित करेगा। अर्थात जिसे पाप से छुटकारा और सुरक्षा चाहिए, उसे प्रभु यीशु का जन बनना होगा; और जो प्रभु यीशु का जन बन जाएगा, उसे प्रभु यीशु ही उसके पापों से छुड़ाएगा और सुरक्षित करेगा। उपरोक्त दूसरे पद यूहन्ना 1:12-13 से हम देखते हैं कि प्रभु यीशु का जन बनना उसे ग्रहण करने, उसके नाम पर विश्वास करने के द्वारा होता है, जिसकी व्याख्या हम कल देखेंगे। इस पद, मत्ती 1:21 में, यह भी निहित है कि लोगों के पापों से छुड़ाया जाना प्रभु यीशु ही उन्हें करके देगा; उन लोगों का इसमें कोई योगदान नहीं होगा, वे केवल प्रभु के किए हुए को स्वीकार करने और उसे अपने जीवन में कार्यान्वित करने वाले होंगे। उद्धार केवल प्रभु यीशु मसीह के द्वारा है, मनुष्य केवल उसे एक भेंट, एक उपहार के समान स्वीकार ही कर सकता है।


अर्थात, पापों की क्षमा और उद्धार या नया जन्म पाने के लिए व्यक्ति को सर्व-प्रथम स्वेच्छा तथा सत्य-निष्ठा से प्रभु यीशु का जन बनना अनिवार्य है। यह “बनना” किसी धर्म विशेष की बातों के निर्वाह अथवा किसी परिवार विशेष में जन्म ले लेने से स्वतः हो जाने वाली प्रक्रिया नहीं है। उपरोक्त यूहन्ना 1:12 के अनुसार, यह केवल प्रभु यीशु मसीह को ग्रहण करने, और उसके नाम पर विश्वास करने के द्वारा ही संभव है। 


यदि आपने अभी तक अपने आप को प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में समर्पित नहीं किया है, और आप अभी भी अपने जन्म अथवा संबंधित धर्म तथा उसकी रीतियों के पालन के आधार पर अपने आप को प्रभु का जन समझ रहे हैं, तो आपको अपनी इस गलतफहमी से बाहर निकलकर सच्चाई को स्वीकार करने और उसका पालन करने की आवश्यकता है। आज और अभी आपके पास अपनी अनन्तकाल की स्थिति को सुधारने का अवसर है; प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

एक साल में बाइबल पढ़ें:


  • एस्तेर 3-5 

  • प्रेरितों 5:22-42

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English Translation 

 The Meaning of Faith in Christ

    In considering the various aspects of Christian Faith and Discipleship, in the last two articles, we have learnt that Christian Faith is not a religion, nor is it a matter of converting from one religion to another; rather as it was with the initial Christian Believers, it is voluntarily and willingly accepting being a disciple of the Lord Jesus Christ. In the previous article we had seen the history of the initial Christian Believers from the Book of Acts, that these initial Believers were “people of the way”, i.e., people who were separate from the world and the ways of the world and having a lifestyle that was quite distinct and different from the world (Acts 9:2). After some time, the people of the world started calling the disciples of Christ Christians (Acts 11:26). The conclusion is that the disciples of Christ are those, who live separate from the world according to the way shown by the Lord Jesus, only they actually are Christians. Implied in the fundamental facts related to the Christian Faith is another fundamental fact, that it is not possible for anyone to actually become a Christian Believer before attaining the age of being able to think over, evaluate, and take considered decisions. Therefore, it is not possible to be a Christian by birth, i.e., by virtue of being born in a particular family or by fulfilling the requirements of a particular religion; it can only be by voluntarily, willingly, sincerely submitting oneself to the Lord Jesus, to be His disciple, accepting Him as Lord and Savior. Biblically speaking, there is no other way to it. 

    Many people, particularly those who follow the Christian Religion, claim to believe in the Lord Jesus; therefore, because of this notion or claim, can they be called Christian Believers? Biblically speaking, what does it mean to believe in the Lord Jesus Christ? Can any person, who according to his own understanding and beliefs, claims to believe in the Lord Jesus, be considered a saved or Born-Again Christian Believer? To understand this, we need to study two verses from the Bible. The first verse will show us how one receives salvation or new birth by believing on the Lord Jesus; and the second verse will help us to understand what it means to believe on the Lord Jesus, Biblically. What has been expressed in these verses is the basis of the Biblical teachings about salvation, Christian life, and preaching of the gospel. These verses are:

  1. “And she will bring forth a Son, and you shall call His name Jesus, for He will save His people from their sins” (Matthew 1:21).

  2. But as many, as received Him, to them He gave the right to become children of God, to those who believe in His name: who were born, not of blood, nor of the will of the flesh, nor of the will of man, but of God” (John 1:12-13).

    Today, we will examine some aspects of the first of these two verses, and in the next article will take up the second one. For today’s consideration, let us look at the first verse along with its preceding verse, to see it in its context, is “But while he thought about these things, behold, an angel of the Lord appeared to him in a dream, saying, "Joseph, son of David, do not be afraid to take to you Mary your wife, for that which is conceived in her is of the Holy Spirit. And she will bring forth a Son, and you shall call His name Jesus, for He will save His people from their sins."” (Matthew 1:20-21). The earthly father of the Lord Jesus, Joseph was in a quandary about bringing his wife Mary home since she had been found to be pregnant before their marriage. Joseph was thinking about leaving Mary, but God’s Angel assured him that Mary had not done anything wrong, she was still a virgin, and Joseph can safely bring her home without doubting her. Then the Angel tells Joseph about the baby growing in her womb, “... she will bring forth a Son, and you shall call His name Jesus, for He will save His people from their sins” (Matthew 1:21); i.e., Mary will give birth to a son and Joseph has to name him Jesus because he will save his people from their sins. We will look at the first half of this verse, about giving birth to a son and naming him Jesus in the next article along with the related second verse. Today we will consider the second half of this verse “... for He will save His people from their sins.

    This verse is stating the purpose of the Lord Jesus Christ’s birth - to save ‘His people’ from their sins. The word translated “save”, in the original Greek language, its literal meaning is “to release or to make safe.” That is to say that the son born to Mary, who was to be named Jesus, He will release or make safe those who become His people, from their sin. This is itself was an astounding and unprecedented assurance; since it was the practical experience of mankind that despite fulfilling all the religious rituals and deeds, celebrating all the feasts and festivals, and carrying out all the prescribed ceremonies, people’s lives were never made free from sin; they still had to struggle against sin and had to suffer the deleterious effects of sins in their lives. But now, through the Lord Jesus Christ, God was providing the remedy to deliver them from sin and make them safe.


    But along with this provision from God, this verse also states who will be the recipients of being delivered and made safe; as the Angel said to Joseph, and as it is written in the Bible, the Lord Jesus will deliver and make safe those who are “His people.” Therefore, those who want to be delivered from sin and made safe will first have to become “His people” i.e., a follower of Christ Jesus; and whosoever will become a disciple or follower of the Lord Jesus, he will be delivered and made safe, not by any of his own efforts, but by the Lord. We see from the afore-mentioned second verse, John 1:12-13 that this becoming “His people” i.e., a disciple or follower of the Lord is only by coming to faith in Him, by believing in His name; and we will see a detailed consideration of this in the next article. In this verse, Matthew 1:21, another thing that is implied is that it is the Lord who will accomplish and make available to “His people” this deliverance from sins and be made safe and secure. The “His people” themselves will have no role or contribution in their deliverance; they will only have to accept what the Lord has done and apply it in their life. Salvation is only through the Lord Jesus Christ; man can only receive it as a gift.


    The conclusion is that to attain salvation, i.e., receive the forgiveness of sins and be saved, the first and foremost requirement is that the person should voluntarily, willingly, and sincerely become “His people” i.e., a disciple or follower of the Lord Jesus. This becoming  “His people” i.e., a disciple of the Lord Jesus is not by fulfilling the requirements of any particular religion, nor is it automatically bestowed because of being born in a particular family. As it says in John1:12-13, this is only through accepting the Lord Jesus and believing in His name. If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches.


    If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Esther 3-5 

  • Acts 5:22-42



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