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आत्मिक वरदानों का उपयोग
पिछले लेख में हम 1 कुरिन्थियों 12:7-11 से देख चुके हैं कि परमेश्वर पवित्र आत्मा के द्वारा दिए जाने वाले सभी वरदान किसी के निजी प्रयोग अथवा लाभ के लिए नहीं, वरन मसीही विश्वासियों की मण्डली की उन्नति और परमेश्वर के सुसमाचार के प्रचार तथा प्रसार के लिए हैं। इन वरदानों में आश्चर्यकर्म करने और अन्य भाषाएं बोलने तथा उन भाषाओं का अनुवाद करने के वरदान भी सम्मिलित हैं; और इनके संदर्भ में भी हमने देखा है कि ये भी, यदि उचित रीति से समझे तथा प्रयोग किए जाएं तो पद 7 के अनुसार और अन्य वरदानों के समान ही, सभी की भलाई के लिए दिए गए हैं। पद 11 में आत्मिक वरदानों के उपयोग के विषय दो बहुत महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं, जिन्हें आत्मिक वरदानों का उपयोग करने के लिए समझना और ध्यान में रखना अनिवार्य है। ये दो बातें हैं (1) आत्मिक वरदानों का सदुपयोग परमेश्वर पवित्र आत्मा ही करवाता है; (2) हर मसीही विश्वासी को सभी आत्मिक वरदान परमेश्वर पवित्र आत्मा अपनी ओर से प्रदान करता है।
यहाँ कही गई दूसरी बात के बारे में हम पहले भी देख चुके हैं कि परमेश्वर द्वारा हर एक मसीही विश्वासी के लिए निर्धारित सेवकाई (इफिसियों 2:10) के अनुसार, उसके सुचारु रीति से निर्वाह के लिए, पवित्र आत्मा व्यक्ति को उस सेवकाई के लिए आवश्यक एवं उपयुक्त वरदान देता है। क्योंकि ये सेवकाई परमेश्वर ने निर्धारित की है, और ‘पहले से’ ही निर्धारित कर रखी है, अर्थात यह परमेश्वर की सार्वभौमिक इच्छा एवं योजना के अनुसार है, इसलिए इसका ताल-मेल औरों की सेवकाइयों तथा व्यक्ति के लिए निर्धारित योजनाओं और कार्यों के साथ भी अवश्य होगा। इस कारण से किसी मनुष्य के द्वारा इसे बदलना संभव नहीं है। और हम पहले भी देख चुके हैं कि बाइबल में भी स्पष्ट उदाहरण हैं कि जिसके लिए परमेश्वर ने जो निर्धारित किया है, उसे ही वह कार्य, वह सेवकाई निभानी पड़ी; अपनी अनिच्छा या अयोग्यता आदि जताने के द्वारा कोई अपनी सेवकाई से हट नहीं सका, उसे बदलवा नहीं सका। साथ ही हम इस अध्याय के पद 31 (जिसका उपयोग पवित्र आत्मा से संबंधित गलत शिक्षाएं फैलाने वाले मन-चाहे वरदान मांगने और प्राप्त करने को सही ठहराने के लिए करते हैं), के बारे में भी देख चुके हैं कि यह पद केवल “धुन में रहने” के लिए कह रहा है, किन्तु इसका कोई आश्वासन नहीं दे रहा है कि उस व्यक्ति की वह ‘धुन” पूरी भी की जाएगी। साथ ही, इस पद को उसके संदर्भ में देखने और समझने से यह प्रकट है कि यह मण्डली में अधिक से अधिक उपयोगी होने के अभिप्राय से कहा गया है, आत्मिक वरदान बदलवाने के लिए नहीं।
इसी प्रकार से पद 11 में कही गई पहली बात, आत्मिक वरदानों का सदुपयोग परमेश्वर पवित्र आत्मा ही करवाता है, के भी कुछ बहुत महत्वपूर्ण निष्कर्ष हैं। हम परमेश्वर पवित्र आत्मा के बारे में यूहन्ना 16:12-13 से पहले देख चुके हैं कि वह “सत्य का आत्मा” है जो प्रभु के शिष्यों को केवल सत्य का मार्ग बताता है, और अपनी ओर से कुछ नहीं कहता है, केवल वही कहता और करता है जो वह प्रभु परमेश्वर से सुनता है। इसलिए यह संभव ही नहीं है कि मनुष्यों की इच्छा के अनुसार परमेश्वर पवित्र आत्मा उनकी सेवकाई या वरदानों में कोई परिवर्तन करे। मसीही विश्वासियों को पवित्र आत्मा दिए जाने का उद्देश्य उनकी सेवकाई और मसीही जीवन में उनकी सहायता करना, और उन्हें सही मार्ग पर चलाना है, न कि उनकी इच्छाओं के अनुसार फेर-बदल करते रहना। त्रिएक परमेश्वर का कोई भी स्वरूप मनुष्यों के हाथों की कठपुतली नहीं है कि व्यक्ति उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार नचाता रहे। जबकि पवित्र आत्मा के नाम से गलत शिक्षाएं देने वालों की बातों में अधिकांशतः परमेश्वर को अपनी इच्छा के अनुसार प्रयोग करने के प्रयास होते हैं। और अपनी इच्छा-पूर्ति को भक्ति के भेष में प्रस्तुत करने के लिए वे नाटकीय प्रार्थनाओं को भी इसके लिए सम्मिलित कर लेते हैं, किन्तु मूल बात परमेश्वर की निर्धारित इच्छा के स्थान पर अपनी पसंद-नापसंद को लागू करवाने के प्रयास रहते हैं। इसकी तुलना में, जब हम सुसमाचारों में प्रभु यीशु मसीह के, तथा पत्रियों में प्रेरितों और प्रभु के शिष्यों के प्रार्थना के जीवन को देखते हैं, तो न तो उन्होने कभी कोई नाटकीय प्रार्थनाएं कीं, न कोई नाटकीय प्रचार किए। प्रभु यीशु ने तो सदा ही एकांत में प्रार्थना के द्वारा हर बात के लिए पहले परमेश्वर पिता की इच्छा को पता किया, और फिर उस इच्छा को ही पूरा किया; अपनी इच्छा को परमेश्वर की इच्छा पर हावी कभी नहीं किया। यहाँ तक कि पकड़वाए जाने से पहले, गतसमनी के बाग में की गई प्रार्थना में भी प्रभु ने अपनी इच्छा व्यक्त अवश्य की, किन्तु किया वही जो परमेश्वर ने उनके लिए निर्धारित किया हुआ था।
यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए भी अपने मसीही जीवन और सेवकाई के सही निर्वाह के लिए इन बातों को समझना और पालन करना बहुत आवश्यक है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा न तो अपनी ओर से कुछ कहेगा, और न करेगा; वह केवल वही कहेगा और करेगा जो प्रभु परमेश्वर द्वारा निर्धारित किया हुआ है। पवित्र आत्मा “सत्य का आत्मा” है; इसलिए ऐसी प्रत्येक बात, ऐसा प्रत्येक व्यवहार, ऐसी प्रत्येक प्रार्थना या निवेदन जो परमेश्वर के वचन के अनुसार, उसके अनुरूप नहीं है, उससे “सत्य के आत्मा” अर्थात परमेश्वर पवित्र आत्मा का कोई संबंध, कोई लेना-देना नहीं है। जो कुछ भी वचन के बाहर का है, वह असत्य है, परमेश्वर की ओर से नहीं है, और पवित्र आत्मा उसमें किसी के भी साथ कदापि नहीं होगा, लेश-मात्र भी नहीं। इसलिए अपने मसीही जीवन और अपनी मसीही सेवकाई को वचन के अनुसार और अनुरूप बनाइए; परमेश्वर द्वारा आपके लिए निर्धारित सेवकाई को पूरा करने के प्रयास में रहिए, तब ही परमेश्वर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य और कार्य आपके जीवन को, तथा आप में होकर अन्य लोगों को, मण्डली को लाभान्वित करेंगे, उन्नत करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 132-134
1 कुरिन्थियों 11:17-34
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Utilizing the Gifts of the Holy Spirit
We have seen in the previous articles and from 1 Corinthians 12:7-11 that the gifts given by God the Holy Spirit are not meant for anyone’s personal use or benefit, but are for the growth and benefit of the Church, for the preaching and propagation of the gospel, and glorifying God through their use. Included in these gifts are the gifts of miracles, of speaking in tongues, i.e., other known earthly languages, and interpreting of ‘tongues’; and we saw that these too if understood and utilized properly, then as said in verse 7, like the other gifts these gifts too are similar to the other gifts, and for the benefit of all. In verse 11 two very important things have been stated about utilizing the gifts, and it is essential to understand them and always bear them in mind for the proper utilization of all the Spiritual gifts. These two things are, (1) It is God the Holy Spirit who helps properly utilize the gifts; (2) all the Spiritual gifts are decided and given only by the Holy Spirit to every Christian Believer.
We have already seen earlier about the second thing stated here, that according to the God ordained work and ministry of every Believer (Ephesians 2:10), to help fulfill it properly and worthily, the Holy Spirit gives appropriate gifts to every person. Since the work and ministry has been determined by God, and has been determined “beforehand”, i.e., it is according to the sovereign will of God, therefore those works and ministry must be in harmony with God’s overall plans and the related works and ministries of other Believers. Hence it is not possible to change the work, ministry, and its related gifts by, or for any person. We have seen earlier through Biblical examples that whatever God had decided for a person, he had to do it; no one could escape by pleading disinterest or inability for the work or ministry, nor could anyone ever get his God assigned work and ministry changed for another. We also saw from verse 31 of this chapter (a verse misinterpreted and misused as an assurance by those who preach and teach wrong doctrines and false teachings about the Holy Spirit, to ask for gifts according to one’s own desires), that not only all that this verse is saying is to “desire”, it is not assuring that God is bound to act according to the desire; but also that when seen in its context, this verse is exhorting to be desirous of being of the best possible use in the Church, and not to change one’s gifts to those that seem best to them.
Similarly, regarding the first thing stated in verse 11, i.e., it is God the Holy Spirit who helps utilize the gifts properly and worthily, there are some very important implications and conclusions too. We have seen in the earlier articles about the role of the Holy Spirit, from John 16:12-13, that He is “the Spirit of truth” and He teaches the way of truth to the Lord Jesus’s disciples. He never says anything from His own side, he only says and does what He hears form the Lord God. Therefore, it is just not possible that He will change anyone’s ministry and related Spiritual gifts according to any person’s desires. The purpose of the Holy Spirit being given to the Christian Believers is to help them in their Christian life and ministry, and lead them into the right way for them; He is not there to fulfill their whims and fancies. No person of the Holy Trinity, the Triune God, is a puppet in the hands of men, that people may make Him do according to their desires. In contrast, practically all of the doctrines and teachings of those who spread false teachings about the Holy Spirit, are centered on manipulating the Holy Spirit to fulfill their own desires and whims, in one form or the other. To present their desires as a godly activity these people also make use of dramatic gestures in prayers, of impressive language and behavior etc.; but the main thing remains to have their own desires replace and change God’s will. Whereas when we look at the life and prayers of the Lord Jesus and His disciples in the Gospel accounts and in the letters, we never see anything similar to what these people do. There is no example of any dramatic prayers, or pleadings, or preaching. The Lord Jesus usually went into a solitary place, prayed and communed with God alone, learnt of His will, and then came to fulfill that will; He never imposed His own will and desire over God’s will. So much so that in His prayer in the Garden of Gethsemane, He did express His will to the Father, but did only that which had already been ordained for Him to do by God the Father.
If you are a Christian Believer, then to properly and worthily live your Christian life and fulfill your ministry, it is very essential for you to understand and follow these Biblical truths, that God the Holy Spirit will never say or do anything on His own, or from His side; He will only say and do what has been decided and said by the Lord God. The Holy Spirit is the Spirit of Truth; therefore, every such prayer, statement, behavior, or anything which is not in accordance with God’s Word, is not from God’s Word, God the Holy Spirit will have nothing to do with it. Everything that is outside of God’s Word is not the truth, is not from God, and God the Holy Spirit will not have any part in it, none whatsoever. Therefore, make your Christian life and ministry conform to God’s Word and will, instead of the other way around; strive to fulfill your God given work and ministry, instead of trying to change or modify them. Only then will the power of the Holy Spirit be evident and working in your life, and will not only benefit you, but also others in your Church and congregation.
If you are still thinking of yourself as being a Christian, a child of God, entitled to a place in heaven, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start learning, understanding, and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 132-134
1 Corinthians 11:17-34