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शुक्रवार, 2 सितंबर 2022

मसीही सेवकाई और पवित्र आत्मा के वरदान / Gifts of The Holy Spirit in Christian Ministry – 13


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आत्मिक वरदानों के प्रयोगकर्ता (2)


पिछले लेख में हमने परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा मसीही सेवकाई के लिए मसीही विश्वासियों को दिए जाने वाले वरदानों के प्रयोगकर्ताओं के बारे में देखा था। हम यह भी देख चुके हैं कि न तो कोई मसीही सेवकाई, और न ही कोई आत्मिक वरदान, औरों की तुलना में छोटा या बड़ा, अथवा अधिक या कम महत्वपूर्ण है। परमेश्वर की दृष्टि में सभी का समान स्तर है, सभी समान रीति से महत्वपूर्ण हैं, और जिसे जो सेवकाई और वरदान परमेश्वर ने दिया है, वही उसके लिए आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है; उसके प्रतिफल और आशीषें उसी सेवकाई को उचित रीति से पूरा करने से हैं। किसी अन्य की सेवकाई अथवा वरदानों की लालसा करना, उन्हें माँगने की प्रार्थनाएं करना, और अपनी सेवकाई और वरदानों को गौण समझना वचन के अनुसार सही नहीं है।

 

मण्डली में विभिन्न वरदानों की उपयोगिता के आधार पर 1 कुरिन्थियों 12:28 में संख्या के साथ एक क्रम दिया गया है; यह क्रम मण्डली में उपयोगिता की वरीयता को दर्शाने के लिए है, वरदानों अथवा सेवकाइयों को बड़ा या छोटा दिखाने के लिए नहीं। इस क्रम के अनुसार, सबसे अधिक उपयोगी हैं वचन की सेवकाई से संबंधित, प्रेरित, भविष्यद्वक्ता, और शिक्षक होने के वरदान। इसके बाद सामर्थ्य के काम करने, चंगा करने वाले, और उपकार करने वाले वरदान हैं, और मण्डली में उपयोगिता के आधार पर अंत में विभिन्न प्रकार की भाषाएं बोलने और उनके अनुवाद करने के वरदान हैं - क्योंकि इन भाषाओं से संबंधित वरदानों की उपयोगिता तब ही पड़ेगी जब कोई परदेशी या विदेशी प्रचारक अथवा सेवक, जो स्थानीय भाषा नहीं जानता है, वचन की सेवकाई के लिए उस मण्डली में आए; अन्यथा मण्डली के प्रतिदिन के कार्यों में उन भाषाओं संबंधी वरदानों की कोई आवश्यकता नहीं है। किन्तु आज, पवित्र आत्मा के नामा पर गलत प्रचार और शिक्षाओं को देने वालों के कारण, लोगों में पहले तीन, अर्थात परमेश्वर के वचन की सेवकाई से संबंधित सबसे उपयोगी वरदानों की अपेक्षा अंतिम वरदानों की लालसा बहुत अधिक है, और “अन्य भाषा बोलने” के वरदान को लेकर तो बहुत सी गलत शिक्षाएं और धारणाएं बताई और सिखाई जाती हैं, वचन के दुरुपयोग द्वारा लोगों को बहकाया जाता है।

 

इसी प्रकार यदि हम इफिसियों 4:11-13 को देखें, “और उसने कितनों को भविष्यद्वक्ता नियुक्त कर के, और कितनों को सुसमाचार सुनाने वाले नियुक्त कर के, और कितनों को रखवाले और उपदेशक नियुक्त कर के दे दिया। जिस से पवित्र लोग सिद्ध हों जाएं, और सेवा का काम किया जाए, और मसीह की देह उन्नति पाए। जब तक कि हम सब के सब विश्वास, और परमेश्वर के पुत्र की पहचान में एक न हो जाएं, और एक सिद्ध मनुष्य न बन जाएं और मसीह के पूरे डील डौल तक न बढ़ जाएं” तो भी इसी बात की पुष्टि हो जाती है कि मण्डली की, प्रभु की देह - उसकी कलीसिया की, प्राथमिक आवश्यकता वचन की सेवकाई और वचन की शिक्षा देने वाले हैं। यदि वचन की सेवकाई ठीक से होगी, तो जैसा इफिसियों में लिखा है, पवित्र लोग, अर्थात मण्डली के लोग, सिद्ध होंगे, सेवा का काम किया जाएगा, मसीह की देह उन्नति पाएगी। यही कारण है कि मण्डली में उपयोगिता के आधार पर 1 कुरिन्थियों 12:28 में वरदानों की उपयोगिता के पहले तीन स्थान वचन की सेवकाई से संबंधित वरदानों को दिए गए हैं।

 

किन्तु इन पहले तीन वरदानों को लेकर भी आज असमंजस और तरह-तरह की शिक्षाओं का बोल-बाला हो गया है। बहुत से लोग अपने आप को “प्रेरित (Apostle)”, या “भविष्यद्वक्ता (Prophet)” कहने लग गए हैं; किन्तु अपने आप को शिक्षक शायद ही कोई कहता है। इन लोगों के नाम के साथ “प्रेरित (Apostle)”, या “भविष्यद्वक्ता (Prophet)” उपाधि लगाकर इंटरनेट पर वीडियो एवं प्रचार संदेशों की भरमार है। इसी प्रकार से “सामर्थ्य के काम करने वाले (Miracle Workers)” या “चंगा करने वालों (healers)” का भी बहुत नाम और प्रचार होता है। किन्तु वचन की खरी सेवकाई और सही शिक्षाएं देने वालों की संख्या बहुत कम है; जो वचन की सही सेवकाई करते भी हैं, लोग उन्हें अधिक पसंद नहीं करते हैं; जो पवित्र आत्मा द्वारा 2 तिमुथियुस 4:3-4 की भविष्यवाणी, “क्योंकि ऐसा समय आएगा, कि लोग खरा उपदेश न सह सकेंगे पर कानों की खुजली के कारण अपनी अभिलाषाओं के अनुसार अपने लिये बहुतेरे उपदेशक बटोर लेंगे। और अपने कान सत्य से फेरकर कथा-कहानियों पर लगाएंगे” की पूर्ति है। परमेश्वर पवित्र आत्मा ने जब पौलुस प्रेरित के द्वारा ये पत्रियाँ लिखवाई थीं, उस समय के पत्रियों के उन प्राथमिक पाठकों के लिए जो “प्रेरित”, “भविष्यद्वक्ता”, आदि उपाधियों का अर्थ था, वही आज भी इन शब्दों का प्राथमिक अर्थ है, जिसे, क्योंकि परमेश्वर का वचन और बात कभी बदलती नहीं है, इसलिए बदला या नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है; उस मूल अर्थ के स्थान पर आज अन्य अर्थ लागू नहीं किए जा सकते हैं, अन्यथा यह वचन को बदलने और उसे अटल के स्थान पर परिवर्तनीय बनाना होगा। हम अगले लेख में परमेश्वर के वचन बाइबल में दिए गए “प्रेरित”, “भविष्यद्वक्ता”, आदि शब्दों के अर्थ और अभिप्रायों को देखेंगे।

 

यदि आप मसीही विश्वासी हैं तो आपको यह ध्यान रखना अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सच्चाई का प्रचार और प्रसार खराई के साथ करें। लोगों द्वारा अपने आप को दी जाने वाली उपाधियों से प्रभावित होकर उनके बारे कोई अनुचित धारणाएं न बना लें, उनकी बातों को वचन की बातों से बढ़कर न समझें, और बेरिया के विश्वासियों के समान (प्रेरितों 17:11) हर बात को वचन से जाँच-परख कर ही स्वीकार करें।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।  


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • भजन 137-139 

  • 1 कुरिन्थियों 13


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English Translation

Users of the Gifts of the Holy Spirit - 2


In the previous article we had seen about users of the gifts of the Holy Spirit given to the Christian Believers for their work and ministry. Earlier, we had also seen that no Christian Ministry, and no Spiritual gift is lesser or smaller than any other, none is of lesser importance than another. In God’s eyes all are equal, all are equally important, and for every person the work and ministry God has assigned to them, it’s proper fulfilment is essential, necessary, blessed and beneficial for the person. There is no need to desire anyone else’s gifts and ministry and pray for this, no one ought to consider their gifts and ministry to be of any lesser importance.


According to the utility in the Church, in 1 Corinthians 12:28, a serial order and listing has been given; this is only to indicate how often a particular gift might be used in the Church; it is not meant to say or place the gifts and ministries in any order of being greater or smaller. According to this order, the most useful gifts are those related to ministry of the Word, i.e., Apostles, Prophets, and Teachers. The next in order of utility are gifts related to works - the doing of miracles, healings, and helps. Last in order of utility are the gifts of administrations and of speaking in ‘tongues’, i.e., speaking in other known and named earthly languages. This is because the gift of ‘tongues’ will only be required if some preacher who does not know the local language comes and has to minister the Word of God; otherwise, in the day-to-day working of the Church, this gift is not of any use. But nowadays amongst the people, thanks to the preachers and teachers of the wrong doctrines and false teachings related to the Holy Spirit, people have hardly any desire for the first three gifts of the most utility, i.e., the gifts related to ministering the Word of God, and everybody is crazy after the gift of the least utility in the Church - the gift of ‘tongues’ - all because of the misinterpretation and misuse of God’s Word to beguile people.


Similarly, when we look at Ephesians 4:11-13 “And He Himself gave some to be apostles, some prophets, some evangelists, and some pastors and teachers, for the equipping of the saints for the work of ministry, for the edifying of the body of Christ, till we all come to the unity of the faith and of the knowledge of the Son of God, to a perfect man, to the measure of the stature of the fullness of Christ;” it is another affirmation of the same fact - that in the body of Christ, in His Church, the primary need and necessity is of the Word Ministry, of giving the right teachings. If the Word Ministry is done properly, then as has been written in this reference from Ephesians, the Lord’s people will grow towards perfection, the Body of Christ will grow, and the other ministries will serve well as well. It is for this reason that from the point-of-view of utility in the Church, the primary or first three the gifts are related to ministering the Word of God.


But today, a lot of confusion and preaching of wrong teachings and behavior related to the first three gifts has also become common-place. Today many people have started to call themselves “Apostles” or “Prophets” or “Miracle Workers” or “Healers” and the internet is full of preachers with these titles and descriptions of their works and their messages promoting themselves; but hardly anyone calls himself a “Teacher” and strives to bring the right teachings before the people. Though there are some who serve the Word faithfully, but they are not much appreciated or acknowledged by the people; who generally prefer the preachers with a dramatic presentation and content. This is in accordance with what the Holy Spirit had got written in 2 Timothy 4:3-4, “For the time will come when they will not endure sound doctrine, but according to their own desires, because they have itching ears, they will heap up for themselves teachers; and they will turn their ears away from the truth, and be turned aside to fables.” When the Holy Spirit Got written these letters by the Holy Spirit, then what the terms “Apostles”, “Prophets”, etc. meant to those primary readers to whom these letters had been addressed, the same meaning holds true even today for us, since God and His Word never change. Therefore, that primary meaning can never be replaced or changed with another, else God’s Word will become fallible and alterable. In the next article we will see the meaning of the terms “Apostles”, “Prophets”, etc. from God’s Word.


If you are a Christian Believer then it is essential that you take due care to preach and teach God’s Word honestly, diligently, and factually. Do not get carried away into accepting, believing, and propagating wrong concepts and teachings by those impressing others through self-assigned positions and labels of authority. First test everything against God’s Word (Acts 17:11), and only accept, believe, and preach that which stands up to this critical evaluation.


If you are still thinking of yourself as being a Christian, a child of God, entitled to a place in heaven, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start learning, understanding, and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Psalms 137-139 

  • 1 Corinthians 13



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