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निर्गमन 12:5 - प्रभु की मेज़ - योग्य रीति से भाग लें
अपने पिछले लेखों में हमने देखा है कि प्रभु भोज के प्ररूप पुराने नियम में दिए गए हैं, जो मूसा द्वारा दी गई व्यवस्था से भी पहले, फसह के भोज के रूप में इस्राएल के मिस्र के दासत्व से छुड़ाए जाने के समय दिए गए, और फिर व्यवस्था में फसह के पर्व के रूप में दिए गए। प्रभु यीशु ने फसह के भोज के समय में उस भोज की सामग्री में से लेकर यह प्रभु भोज या प्रभु की मेज़ स्थापित की। इस भोज या मेज़ को स्थापित करते समय, प्रभु यीशु ने पुराने नियम में फसह से संबंधित परमेश्वर द्वारा दिए गए किसी भी निर्देश को हटाया अथवा बदला नहीं, और न ही उसमें कुछ और जोड़ा। बाद में नए नियम में प्रेरितों द्वारा पवित्र आत्मा के अगुवाई और मार्गदर्शन में लिखी गई पत्रियों में प्रभु भोज में भाग लेने से संबंधित गलतियों को दिखाया और सुधारा तो गया, उसके अर्थ, महत्व, तथा आवश्यकता को समझाया गया, लेकिन फिर भी पुराने नियम के किसी भी प्ररूप को न तो बदला गया और न ही उसमें कुछ जोड़ा अथवा घटाया गया; प्रभु यीशु द्वारा प्रभु भोज स्थापित करने से हजारों वर्ष पहले दिए गए वे निर्देश वैसे ही बने रहे। यह इस बात को दिखाता है कि फसह के अभिप्राय प्रभु की मेज़ के लिए भी लागू हैं। जिस प्रकार से फसह का भोज केवल परमेश्वर के चुने हुए लोगों, इस्राएल ही के लिये था; उसी प्रकार से प्रभु भोज भी प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों, अर्थात, नया जन्म पाए हुए परमेश्वर की संतान (यूहन्ना 1:12-13) ही के लिये है। इसका उद्देश्य उनकी आशीषों का स्त्रोत होना है जिससे वे शैतान की युक्तियों पर एक विजयी और जयवंत जीवन व्यतीत कर सकें।
किन्तु कलीसिया में गुट-बाजी और विभाजनों के कारण, लोगों की अपने अगुवों और उनके मध्य वचन की सेवकाई करने वालों का अनुयायी हो जाने की प्रवृत्ति के कारण, शैतान चुपके से और धीरे से लोगों को परमेश्वर के वचन का स्वयं अध्ययन करके उसका पालन करने से बहका और बरगला कर वचन से दूर ले गया। अब ये लोग उन्हें उनके अगुवों के द्वारा जो भी बताया या सुनाया जाता है, बिना वचन से उसकी पुष्टि करे, उसे स्वीकार करने और उसका पालन करने वाले बन गए। अब वो परमेश्वर को नहीं वरन मनुष्यों को प्रसन्न करने वाले, अर्थात उसका पालन करने वाले जो उनके अगुवे उन से कहते हैं बन गए; न कि परमेश्वर की निर्देशों तथा इच्छा के खोजी, और परमेश्वर की बात के पालन करने वाले। परिणाम स्वरूप शैतान को छूट मिल गई और उसने परमेश्वर की हर बात के लिए दिए गए निर्देशों के स्थान पर गलत शिक्षाएं और गलत जानकारी कलीसियाओं में भर दी, प्रभु भोज के विषय भी। आज ये गलत शिक्षाएं और गलत जानकारी “ईसाइयों” या “मसीहियों” के मनों में इतनी गहराई से बैठ गई है कि वे बड़ी श्रद्धा के साथ उन व्यर्थ और निष्फल बातों को मानते और मनाते रहते हैं। इसी गलतफहमी में जीते और चलते रहते हैं कि अपनी परंपरा और समझ के अनुसार, अपनी किसी भी रीति से प्रभु भोज में भाग लेने के द्वारा, वे परमेश्वर को ग्रहण योग्य तथा स्वर्ग में प्रवेश पाने के योग्य तो हो ही जाएंगे।
प्रभु भोज से संबंधित इस शृंखला में हम परमेश्वर के वचन से प्रभु की मेज़ और उसके प्ररूप, फसह के बारे में सीख रहे हैं, और देख रहे हैं कि इसमें भाग लेने वालों पर तथा भाग लेने में ये बातें किस प्रकार से लागू होती हैं। हमने आरंभ पहले प्ररूप, निर्गमन 12 में दिए गए फसह के अध्ययन से किया है, और अभी तक पहली 4 आयतों से देखा है कि फसह को परमेश्वर ने अपने लोगों के लिये स्थापित किया था, जिनके लिये यह एक नया आरंभ था, और इसमें भाग लेने के द्वारा उनमें एकता को बढ़ावा मिलता; और एक घराने के लिये एक ही मेमना पर्याप्त से भी अधिक था। इसे नए नियम के प्रभु भोज पर लागू करने पर हम सीखते हैं कि प्रभु भोज हर किसी के लिये नहीं है, किन्तु केवल प्रभु के प्रतिबद्ध शिष्यों के लिये है, जिनका नया जन्म पाया हुआ होना उनके आत्मिक जीवन के नए आरंभ का सूचक है। उन्हें मण्डली में एकता लाने और बनाए रखने में प्रयासरत रहना चाहिए; तथा परमेश्वर का ‘बलिदान का मेमना’ परमेश्वर के घराने, अर्थात यहूदियों और गैर-यहूदियों के साथ लाए जाकर और मिलकर बने एक परिवार के लोगों के छुटकारे और उद्धार के लिये पर्याप्त से भी अधिक है। आज हम फसह के बलिदान के मेमने के गुणों को देखेंगे और समझेंगे कि ये गुण किस प्रकार से परमेश्वर के मेमने, प्रभु यीशु की ओर संकेत करते हैं।
निर्गमन 12:5 - पद 5 में हम परमेश्वर की ओर से निर्देशित पाते हैं कि बलिदान के लिए उन्हें कोई भी मेमना या पशु जिसे वे उचित समझें या उन्हें बलिदान के लिए सही लगे, उपयोग नहीं करना था। उन्हें एक मेमना लेकर आना था, जिसके परमेश्वर द्वारा दिये गए कुछ विशेष गुण भी होने थे, ताकि वह मिस्र के दासत्व से उनके छुटकारे के लिये काम आए। जैसा कि हम आगे के पदों में देखेंगे, न केवल मेमना, परन्तु उसे कब और कैसे बलिदान करना है, और मिस्र की बंधुवाई से छुटकारे के लिये किस प्रकार से उपयोग करना है, सब कुछ परमेश्वर ने ठहराया और बताया था; कुछ भी किसी भी मनुष्य की कल्पना, समझ, अथवा पसंद-नापसंद पर नहीं छोड़ा था। जिन्होंने परमेश्वर द्वारा दिये गए निर्देशों का पालन किया, वे परमेश्वर के इंतजाम से लाभान्वित भी हुए।
इस पद में दिए गए फसह के लिये बलिदान किए जाने वाले मेमने के गुणों को देखते हैं और उनका प्रभु यीशु मसीह के साथ मिलान करते हैं:
उसे एक मेमना होना था। मसीह यीशु को परमेश्वर का मेमना कहा गया है (यूहन्ना 1:29, 36)। पवित्र शस्त्र में मेमना विनम्रता और अधीनता का प्रतीक है; प्रभु यीशु भी तब भी विनम्र और अधीन बने रहे जब उन्हें क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिये ले जाया जा रहा था (यशायाह 53:7)।
उसमें कोई भी किसी भी प्रकार का दोष नहीं होना था। प्रभु यीशु सब बातों में हमारे समान परखे तो गए किन्तु फिर भी पूर्णतः निर्दोष निकले (इब्रानियों 4:15)।
उसे एक नर पशु होना था। प्रभु यीशु नर (मत्ती 1:21-25), परमेश्वर के पुत्र (यूहन्ना 3:16) थे।
उसे एक वर्ष तक का होना था। बाइबल के व्याख्याकर्ताओं की आम सहमति है कि यह जीवन के उत्तम समय में होने का सूचक है। प्रभु यीशु ने अपनी सेवकाई लगभग तीस वर्ष की आयु में आरंभ की (लूका 3:23), जो लगभग साढ़े-तीन वर्ष तक रही।
वह चाहे भेड़ों अथवा बकरियों में से हो सकता था। पुराने नियम में भेद और बकरी, दोनों ही व्यवस्था के अनुसार शुद्ध पशु थे और बलि के पशु होने के लिये प्रयोग किये जाते थे, होमबली चढ़ाए जाने के लिये स्वीकार्य थे। व्यवस्था के अनुसार, बकरे को पाप-बलि और सांकेतिक रीति से पाप को ले कर चले जाने वाले प्रायश्चित के समान भी प्रयोग किया गया है (लैव्यव्यवस्था 3:12-14; 16:5-10)।
उस समय इस्राएलियों की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा होगा कि परमेश्वर बलि होने वाले एक पशु के विषय इतना विशिष्ट क्यों है; यह उनकी कल्पना से भी परे होगा; क्योंकि सामान्य, साधारण विचार के अनुसार तो बलि के लिये किसी भी पशु का होना उचित और पर्याप्त होना चाहिए था। किन्तु परमेश्वर ने अपने पूर्व ज्ञान तथा मानव-जाति के पापों से छुटकारे की अपनी योजना के अनुसार, फसह के बलिदान के पशु के लिये ये विशिष्ट निर्देश दिये, क्योंकि यह समस्त संसार के उद्धारकर्ता, उसके पुत्र के बलिदान का प्रतीक था। यह सब इस बात की पुष्टि करता तथा इस पर बल देता है कि परमेश्वर और उसकी उपासना तथा आराधना के लिये हम किसी भी बात के लिये, किसी भी तरीके से, मनमानी नहीं कर सकते हैं। परमेश्वर ने अपने वचन में प्रभु यीशु मसीह के ज्ञान में होकर जीवन और भक्ति से संबंधित सभी बातें हमें दे दी हैं (2 पतरस 1:3), और केवल परमेश्वर द्वारा दिये गए निर्देशों के अनुसार की गई आराधना और उपासना ही उसे ग्रहण है। जो भी उसके निर्देशों के अनुसार और उसकी आज्ञाकारिता में नहीं है, वह चाहे परमेश्वर के नाम से किया गया हो, लोगों के लिये बहुत प्रभावी और बहुत सराहनीय हो, किन्तु प्रभु द्वारा उसे पूर्णतः तिरस्कार कर दिया जाएगा, और ऐसा करने वालों को “भक्त” और “धर्मी” नहीं, वरन “कुकर्म करने वाले” कहा जाएगा (मत्ती 7:21-23)।
साथ ही, जैसा कि पहले के लेखों में भी बल दिया गया है, फसह परमेश्वर के लोगों के लिये था; यह नहीं कि फसह मनाने के द्वारा वे परमेश्वर के लोग बन जाते थे, किन्तु जो परमेश्वर के लोग थे, उन्हें ही फसह मनाने के निर्देश दिये गए थे। इसी प्रकार से, प्रभु भोज या प्रभु की मेज़ भी प्रभु के प्रतिबद्ध शिष्यों के लिये स्थापित की गई थी; मेज़ में भाग लेने से वे प्रभु के शिष्य या उद्धार पाए हुए नहीं बन जाते थे। मेज़ को स्थापित करते समय प्रभु ने विशेष रीति से कहा था “मेरे स्मरण के लिये यही किया करो” (लूका 22:19 ); यह नहीं कहा कि “मुझे स्वीकार्य हो जाने के लिये यह किया करो”, अथवा, “स्वर्ग में प्रवेश पाने के योग्य हो जाने के लिये यह किया करो”, जैसा कि अधिकांश, प्रभु भोज में अपनी परंपरा के अनुसार भाग लेते हुए सोचते और मानते हैं।
फसह को एक निर्धारित रीति से मनाया जाना था, जैसा कि परमेश्वर ने निर्देश दिए थे, उसी के अनुसार। इस्राएली, अपनी इच्छा के अनुसार यह निर्णय नहीं कर सकते थे कि वे उसे कैसे मनाएंगे, न ही फसह से संबंधित किसी बात में कोई फेर-बदल कर सकते थे - उस से संबंधित सभी कुछ - उसका दिन, उसके लिये प्रयोग किया जाने वाला पशु, उस पशु को कितने दिन रखना है और उसे बलिदान करने का समय, बलिदान के बाद उसे किस प्रकार से उपयोग करना है, आदि, सभी बातों के बारे में परमेश्वर ने निर्देश दिये थे और सब कुछ उन निर्देशों के अनुसार ही किया जाना था। इसी प्रकार से प्रभु भोज के लिये भी प्रभु यीशु ने निर्देश दिये हैं, जिन्हें फिर 1 कुरिन्थियों 11 में समझाया और विस्तार से बताया गया है। प्रभु भोज का कोई भी मनाया जाना जो प्रभु के इन निर्देशों के अनुसार नहीं है, वह व्यर्थ है, निष्फल है; उससे परमेश्वर का प्रकोप और दण्ड तो आ सकता है, किन्तु उसकी स्वीकृति और आशीषें कभी नहीं आ सकती हैं, जैसे कि हम आगे के लेखों में देखेंगे।
अगले लेख में हम निर्गमन में से यहीं से आगे देखेंगे। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा प्रभु में एक नई सृष्टि बन गए हैं, तथा आप कलीसिया में विभाजनों और गुटों में बांटने में नहीं किन्तु एकता के साथ रहने में प्रयासरत रहते हैं, तथा प्रभु की मेज़ में उसी प्रकार से भाग ले रहे हैं जैसे परमेश्वर ने निर्देश दिये हैं, न कि किसी डिनॉमिनेशन की परंपरा अथवा किसी की मनमाने के अनुसार। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा निरंतर परिपक्वता में बढ़ते जाएं। साथ ही सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
दानिय्येल 1-2
1 यूहन्ना 3
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Exodus 12:5 - The Lord’s Table - Participate Worthily
In the previous articles we have seen that the antecedents of the Holy Communion are given in the Old Testament, preceding the Law given through Moses, as the Passover meal, at the time of Israel’s release from the bondage of Egypt; and in the Law, as the Passover Feast and festival. It was while celebrating the Passover feast that the Lord Jesus took the elements of that feast and established what we call The Holy Communion, or, The Lord’s Table. In establishing this Communion or Table, the Lord Jesus did not change any of God’s instructions given in the Old Testament related to the Passover; nor did He add any new ones. Subsequently, in the New Testament Epistles written through the Apostles under the inspiration and guidance of the Holy Spirit, the errors in partaking of the Communion were pointed out and rectified, and the meaning, the importance and necessity of participating in the Lord’s Table was pointed out, but again, nothing of the Old Testament antecedents was changed, nor was anything added to those instructions given thousands of years before the Lord Jesus Christ established the Communion from the Passover. This goes to show that the implications of the Passover were also applicable to the Lord’s Table. Just as the Passover was meant to be observed only by God’s chosen people, Israel; similarly, the Holy Communion was established by the Lord Jesus for His disciples, i.e., the Born-Again children of God (John 1:12-13), and was meant to be a source of blessings for them, to enable them to live an overcoming and victorious life over the wiles of the devil.
But because of divisions and factions in the Church, the tendency of the people to follow elders of their local Assembly and the ministers of God’s Word, Satan was subtly and gradually able to beguile people away from studying and learning God’s Word for themselves and following it. Instead, they started to rely on whatever was told to them by their religious leaders, did not bother to confirm the teachings from God’s Word, and became more of ‘man-pleasers’ than God pleasers, i.e., desirous of doing what their leaders were telling them instead of finding out and doing what God wanted them to do. Consequently, Satan was able to bring in many wrong teachings and misinformation about God’s instructions for everything, including the Lord’s Table. These wrong teachings and misinformation have become firmly entrenched in the minds of “christians”, and they very reverentially but vainly insist on following them. Erroneously trusting that their ritualistically participating in the Communion, in any which way, according to their own understanding and tradition, makes them acceptable to God and worthy of entry into heaven, anyways.
Through this series on the Holy Communion, we are learning from God’s Word the teachings regarding the Lords Table, and its antecedent, the Passover; and seeing how they apply to the participants and their participation in the Holy Communion. We have started with the first instance of the Passover antecedent given in Exodus 12, and till now have seen from the first 4 verses that the Passover was ordained by God for His people, for whom it was a new beginning in life, and the participation promoted unity amongst them; and that one sacrificial lamb was more than sufficient for the household. Applying this to the New Testament Holy Communion, we learn that the Communion is not meant for all and sundry, but only for the committed children of God, their being Born-Again giving them a new beginning in their spiritual life. They are to strive to foster and maintain unity in the Church; and the Lord Jesus, the sacrificial Lamb of God is more than sufficient for the salvation and redemption of the household of God comprising of Jews and Gentiles brought together as one family of God. Today we will consider the characteristics of the sacrificial lamb of the Passover, and see how the characteristics point to the Lord Jesus, the Lamb of God.
Exodus 12:5 - In verse 5 we find ordained by God that the Israelites were not to use any lamb or animal they felt was appropriate or okay for being sacrificed. They had to use a lamb having certain characteristics, which God had decried, to serve as their redeemer from the bondage of Egypt. As we will see in the subsequent verses, not only the lamb, but even how and when it was to be sacrificed, and how it had to be used for their deliverance from Egypt, everything was ordained and given by God; nothing was left to any man’s imagination, understanding, or preferences. Those who followed God’s instructions, benefitted from God’s provision.
Let us look at the characteristics given in this verse for the sacrificial lamb of the Passover, and corelate them with the Lord Jesus Christ:
It was to be a lamb. Jesus Christ is called the Lamb of God (John 1:29, 36). In the Scriptures, the lamb is a symbol of meekness and submission; Lord Jesus, even when being led to be crucified remained meek and submissive (Isaiah 53:7).
It was to be without any blemish; i.e., without any defect of any kind. The Lord Jesus though tempted like all of us, was without sin (Hebrews 4:15).
It was to be a male animal. The Lord Jesus was a male (Matthew 1:21-25), the “Son of God” (John 3:16).
It was to be of the first year. Most Bible commentators are of the opinion that this is indicative of being in the prime of life. The Lord Jesus began His ministry at around thirty years of age (Luke 3:23), which lasted for around three and a half years.
It could be either from sheep or goats. Both sheep and goats were used in the Old Testament as sacrificial animals, both being ceremonially ‘clean’ animals, acceptable for burnt offerings (Leviticus 1:10). In the Law, a goat was also used for a sin-offering and as a sin-bearer (Leviticus 3:12-14; 16:5-10). The Lord Jesus fulfilled all these functions; he took upon Himself all our sins, sacrificed His life for them and redeemed us from them.
The Israelites at that time had no idea, could never imagine why God was being so particular about a sacrificial animal; to common sense, any sacrifice of any animal should have sufficed. But God in His foreknowledge and plans for redemption of mankind gave these instructions since the Passover sacrifice was the foreshadow of the sacrifice of His Son, the Savior and redeemer of this world. All of this goes to affirm and emphasize that with God and His worship, we cannot be presumptuous for anything, in any manner. God has given to us in His Word, through the knowledge of the Lord Jesus, everything we need for life and godliness (2 Peter 1:3), and only our obedience to God given ways and method of His worship will be acceptable to Him. Anything that is not done according to His instructions and in obedience to Him, though done in God’s name, and though very impressive and highly commendable amongst men, will be outrightly rejected by the Lord; and the people doing it will not be called “godly” or “pious and righteous”, but will be called “those who practice lawlessness or iniquity” (Matthew 7:21-23).
Also, as has been emphasized in the earlier articles, the Passover was meant for the people of God; and not that participating in the Passover did not make them people of God, but those who were the people of God were instructed to observe the Passover. Similarly, the Holy Communion or the Lord’s Table was established for the already committed disciples of the Lord Jesus; partaking of the Table did not make them the disciples or saved people. When instituting the Lord’s Table, the Lord Jesus specifically said “do this in remembrance of me” (Luke 22:19); and not “do this to become acceptable to me” nor “do this to become worthy of entering heaven” as most presume and believe while ritually participating in the Holy Communion.
The Passover had to be celebrated in a certain way, as instructed by God; the Israelites could not decide how they would do it, nor could they modify anything related to the Passover - everything related to it - the day of the Passover, the sacrificial animal to be used, the days it had to be kept before being sacrificed and the time it had to be sacrificed, how it had to be used after sacrificing, etc., everything God had instructed and had to be according to God’s instructions. Similarly, the Lord Jesus gave instructions about the Holy Communion, which were then clarified and explained in 1 Corinthians 11. Any observation of the Holy Communion, not according to the Lord’s instructions is vain and inconsequential; it can invite God’s retribution, but never His approval and blessings, as we will see in later articles.
In the next article we will carry on from here and see the subsequent verses from Exodus. If you are a Christian Believer, and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually redeemed from your sins, are a new creation for the Lord, and strive for unity, not divisions and factionalism in the Church, and have been participating as the Lord has instructed to be done, not in any presumptive manner or as a denominational ritual. It is also necessary for you to be spiritually mature, learn the right teachings of God’s Word. You should also always, like the Berean Believers first check and test all teachings you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Daniel 1-2
1 John 3
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