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शुक्रवार, 20 जनवरी 2023

प्रभु भोज – संबंधित बातें / The Holy Communion - Related Issues

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कितने समय में?


हमने प्रभु भोज, या प्रभु की मेज़ के बारे में परमेश्वर के वचन में इससे संबंधित दो मुख्य खण्डों से, फसह, जो प्रभु भोज का प्ररूप है, और जिसके बारे में निर्गमन 12 में दिया गया है, तथा नए नियम में से 1 कुरिन्थियों 11:17-34 से इस विषय पर अध्ययन किया है। पौलुस ने नए नियम का खण्ड मसीही विश्वासियों में प्रभु भोज में भाग लेने से संबंधित भ्रांतियों को स्पष्ट करने और समझाने के लिए। इन दोनों खण्डों के आधार पर, कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है कि न तो फसह, और न ही प्रभु की मेज़ में भाग लेना, किसी को भी परमेश्वर को स्वीकार्य, पवित्र, और स्वर्ग में प्रवेश पाने के लिए योग्य बनाने के लिए नहीं है। दोनों ही केवल उनके लिए निर्धारित किए गए हैं जो पहले से ही परमेश्वर के लोग हैं - किसी मनुष्यों के द्वारा निर्मित और स्थापित विधि अथवा रीतियों के अनुसार नहीं, परंतु परमेश्वर के मानकों के आधार पर, परमेश्वर की दृष्टि में, उसके अपने ही आँकलन के द्वारा। परमेश्वर के लोगों को फसह, या प्रभु भोज में, उसके प्रति श्रद्धा और उसकी आज्ञाकारिता में भाग तो लेना है, परन्तु उसके द्वारा स्थापित तरीके से और उसके द्वारा दिए गए उद्देश्य को पूरा करने के लिए। इन दोनों में से किसी में भी, किसी को भी रीति को निभाने के लिए औपचारिकता के साथ भाग लेने की अनुमति नहीं है; और न ही औपचारिकता से भाग लेने वाले यह करने के द्वारा परमेश्वर से किसी प्रतिफल अथवा लाभ की आशा रख सकते हैं। परमेश्वर के लोगों को पहले अपने आप को जाँचना है, और तब ही योग्य रीति से इसमें भाग लेना है; परमेश्वर के जो लोग इसमें ढिठाई से अनुचित रीति से भाग लेते रहते हैं, उन्हें परमेश्वर के वचन में चेतावनी दी गई है कि परमेश्वर उनका न्याय करेगा और ताड़ना देगा।


क्योंकि शैतान ने चुपके से परमेश्वर और उसके निर्देशों से संबंधित हर बात में गलत अर्थ, समझ, और व्याख्याएँ, तथा अनुचित व्यवहार घुसा दिए हैं, प्रभु की मेज़ के बारे में भी, इसीलिए अभी कुछ और संबंधित प्रश्न भी हैं जिन पर भी विचार करना और परमेश्वर के वचन के आधार पर उन्हें स्पष्ट करना आवश्यक है। इन प्रश्नों में से एक है कि मसीही विश्वासियों को प्रभु भोज में कम से कम कितनी बार, या कितनी समय-अवधि के अंतराल से भाग लेना चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर खोजते समय यह अनिवार्य है कि प्रभु की मेज़ को स्थापित किए जाने के परमेश्वर के उद्देश्य पर ध्यान केंद्रित रहे; अर्थात मेज़ में भाग लेने का उद्देश्य है प्रभु, उसके बलिदान, उसके लौट कर आने को याद करना, और उसकी मृत्यु का प्रचार करना; और योग्य रीति से, अर्थात खराई से अपने आप को जाँचने, प्रभु के सामने अपने पापों को मानने, और उनके लिए पश्चाताप करके उससे क्षमा प्राप्त करने के बाद भाग लेना। इसलिए, एक के बाद दूसरे प्रभु भोज में भाग लेने के मध्य उतनी ही समय-अवधि होनी चाहिए जिसे भाग लेने वाले ध्यान रख सकें, अपने दिनों को याद करके उनका निरीक्षण कर सकें। यदि समय-अवधि लंबी होगी, तो बहुत संभव है कि भाग लेने वाले उनके द्वारा की गई कोई गलती या बुराई को याद करना भूल जाएं। ऐसे में तब वे अनजाने में बिना अंगीकार और पश्चाताप किए हुए पाप के छुपे हुए वर्जित खमीर को जीवन में लिए हुए भाग ले लेंगे।


हम पहले देख चुके हैं कि प्रभु यीशु ने प्रभु भोज की स्थापना अपने शिष्यों के साथ फसह का भोजन खाते समय की थी, उसके पकड़े जाने और क्रूस पर मारे जाने के लिए ले जाए जाने से कुछ ही समय पहले। प्रभु की पृथ्वी की सेवकाई लगभग साढ़े-तीन वर्षों की थी, किन्तु इस सेवकाई के दौरान प्रभु ने शिष्यों को प्रभु भोज के बारे में कभी भी कोई भी निर्देश नहीं दिया था, जैसा कि उसने उनके साथ इस अंतिम भोज के समय दिया। प्रभु के पुनरुत्थान, शिष्यों के साथ लगभग चालीस दिन बिताने, उसके स्वर्गारोहण, तथा 120 शिष्यों के साथ जमा होकर प्रार्थना करने और पवित्र आत्मा पाकर संसार भर में सुसमाचार प्रचार पर निकलने की प्रतीक्षा करने, इस पूरी समय अवधि में भी कहीं यह दर्ज नहीं है कि प्रभु ने या शिष्यों ने फिर से प्रभु भोज मनाया हो। इसलिए प्रभु यीशु की सेवकाई के इस भाग से हमारे पास हमारे इस प्रश्न के लिए कोई संकेत या उत्तर नहीं हैं।


फिर, प्रेरितों 2 अध्याय में, पतरस द्वारा पवित्र आत्मा की सामर्थ्य के द्वारा प्रचार किया गया, जिससे लगभग 3000 भक्त यहूदियों ने पश्चाताप किया और उन्होंने प्रभु यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार कर लिया। उनके लिए प्रेरितों 2:41 में लिखा है कि वे प्रभु के शिष्यों में मिल गए। फिर, अगले पद, 2:42 में लिखा गया है कि “वे” अर्थात प्रभु यीशु के सभी शिष्य, नए और पुराने, चार बातों में “लौलीन” बने रहे। इन चार बातों में से तीसरी बात है “रोटी तोड़ना”, अर्थात प्रभु की मेज़ में भाग लेना। यहाँ, पद 42 में यह नहीं दिया गया है कि वे कितनी बार या कितने समय-अवधि के अंतराल से यह करते थे, बस इतना ही कहा गया है कि शेष तीनों बातों के साथ, इस बात में भी वे “लौलीन” रहते थे। लेकिन थोड़ा सा आगे चलकर, पद 46 में यह लिखा गया है कि शिष्य प्रतिदिन मंदिर में एकत्रित हुआ करते थे, और घर-घर रोटी तोड़ते थे। इसलिए यह माना जा सकता है कि जितनी भी बार वो प्रेरितों से शिक्षा पाने, अर्थात परमेश्वर के वचन को सीखने, संगति रखने, और प्रार्थना करने के लिए एकत्रित होते थे, वे साथ ही रोटी भी तोड़ते थे, अर्थात प्रभु भोज में भी भाग लेते थे; और लगता यही है कि यह प्रतिदिन किया जाता था। दूसरे शब्दों में, पहली कलीसिया या मण्डली, अर्थात प्रभु के शिष्यों में प्रभु भोज में भाग लेना प्रतिदिन नहीं तो अकसर तो हुआ ही करता था; किन्तु विश्वासियों के लिए इसकी कोई समय-अवधि अथवा कितनी बार लेना है, यह निर्धारित नहीं किया गया था।


फिर, प्रेरितों 20:7 में हमें एक और संकेत मिलता है; विश्वासी लोग “रोटी तोड़ने के लिए” सप्ताह के पहले दिन, अर्थात इतवार को, जिस दिन प्रभु मृतकों में से जी उठा था (मरकुस 16:2, 9), एकत्रित होने लगे थे; और प्रेरितों 20:5-6 से यह पता चलता है कि यह अन्य-जातियों के स्थान त्रोआस की बात है। यहूदी लोग पारंपरिक रीति से, व्यवस्था और दस आज्ञाओं (निर्गमन 20:8-11) के निर्वाह के लिए सप्ताह के सातवें दिन, सबत के दिन को मानते थे। जब सुसमाचार अन्य-जातियों में फैला और उनमें फल लाने लगा, तब प्रभु यीशु के शिष्य, प्रभु के पुनरुत्थान के दिन - सप्ताह के पहले दिन, संगति रखने, आराधना करने, रोटी तोड़ने, प्रार्थना करने और वचन से सीखने के लिए एकत्रित होने लगे। शिष्यों का इस प्रकार से सप्ताह के पहले दिन - इतवार के दिन एकत्रित होना, कलीसिया में स्वीकार्य और मान्य रीति बन गया, और प्रेरितों 2:42 की चार बातें उस दिन एकत्रित होने में नियमित होने लगीं। हमारे प्रश्न के संदर्भ में, सप्ताह में कम से कम एक बार प्रभु की मेज़ में भाग लेना एक उपयुक्त समय-अवधि है, जिससे मेज़ में भाग लेने वाला अपने जीवन के उस समय को याद कर सकता है, उन दिनों का निरीक्षण कर सकता है। लेकिन परमेश्वर के संपूर्ण वचन में कहीं पर भी प्रभु की मेज़ के महीने में एक बार रखे जाने, या महीने के पहले इतवार को रखे जाने, या किसी अन्य दिन अथवा समय-अवधि के बाद मनाए जाने का कोई उल्लेख नहीं है - ऐसी सभी रीतियाँ मनुष्यों द्वारा बनाई और निर्धारित की गई हैं, लोगों की अपनी ही समझ, सुविधा, और आवश्यकता के आधार पर।


1 कुरिन्थियों 11 अध्याय में भी, जहाँ पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस ने प्रभु की मेज़ के बारे में मसीही विश्वासियों की गलत समझ और धारणाओं को सही किया और समझाया है, प्रभु भोज के लिए किसी भी समय-अवधि का या कितनी बार भाग लेना है, उस संख्या का कोई उल्लेख नहीं है। बल्कि पद 25-26 में यही लिखा है कि “जब कभी” इसमें भाग लो; इससे से हम समझ सकते हैं कि यह कभी भी, या बहुधा की जा सकने वाली बात थी, जिसकी समय-अवधि अथवा संख्या को नहीं निर्धारित किया गया है - यहाँ पर सप्ताह में एक बार इतवार के दिन को एकत्रित होना भी अनिवार्य अथवा निर्धारित नहीं किया गया है। इसलिए, बाइबल के इन तथ्यों के आधार पर हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि प्रभु भोज में भाग लेने के लिए कोई विशेष दिन, समय-अवधि, संख्या नहीं निर्धारित की गई है। इसलिए, किसी को भी इसकी समय-अवधि या कितनी बार भाग लेना है, इसके बारे में कट्टर या हठधर्मी होने का कोई अधिकार नहीं है। सप्ताह में एक बार आराधना, संगति, प्रार्थना, परमेश्वर के वचन से सीखने के लिए एकत्रित होना, और साथ ही प्रभु भोज में भी भाग लेना, न केवल सुविधाजनक और सहज है, वरन इसे बाइबल का समर्थन भी प्राप्त है। यह भाग लेने वाले को एक उचित समय-अवधि प्रदान करता है कि अपने जीवन के पिछले दिनों को याद करे, उनका निरीक्षण करे, और फिर योग्य रीति से भाग ले। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं समझना या बनाना चाहिए कि अपने जीवन का अवलोकन करना और पापों का अंगीकार तथा पश्चाताप करना केवल इतवार के दिन या प्रभु भोज के दिन ही होना चाहिए। जब भी और जैसे ही पाप हो, या आपका विवेक जब भी आपको पाप के लिए कायल करे, या फिर परमेश्वर पवित्र आत्मा जैसे ही और जब भी आपको आपके पाप को स्मरण करवाए, तुरन्त, तभी, उसी समय उसका अंगीकार कर के, उसके लिए क्षमा माँग लेनी चाहिए। किसी को भी, कभी भी, किसी भी अंगीकार न किए हुए, उसके लिए पश्चाताप नहीं किए हुए, उस पाप के लिए प्रभु से बिना क्षमा मांगे, कैसे भी पाप को जीवन में साथ लेकर नहीं चलना चाहिए। साथ ही, किसी समय-अवधि अथवा भाग लेने की संख्या का निर्धारित नहीं होना, इस बात की भी स्वतंत्रता प्रदान करता है कि विश्वासी लोग जब भी घरों में या किसी आराधना के स्थान पर किसी बात के लिए एकत्रित हों, और प्रभु भोज को आयोजित करना चाहें, तो यह निःसंकोच किया जा सकता है परमेश्वर के वचन में इसे मना करने का कोई आधार नहीं है; बस यह ध्यान रहे कि ऐसा पूरी श्रद्धा और वचन के निर्देशों का पालन करते हुए किया जाए, लापरवाही से नहीं।

      

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • उत्पत्ति 49-50          

  • मत्ती 13:31-58     


कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

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English Translation


How Often?

 

We have studied about the Holy Communion, or the Lord’s Table from the two major sections on this topic in God’s Word - The Passover, the antecedent of the Lord’s Table, given in Exodus 12 in the Old Testament; and in the New Testament from 1 Corinthians 11:17-34, the section written by Paul is to clarify and explain to the Christian Believers about participating in the Holy Communion. Overall, the conclusion of the study from both these sections is that neither the Passover nor the Holy Communion is meant to make anyone acceptable to God, holy, and worthy of entering heaven. But both are meant only for those who already are the people of God - not through any man-made rituals and processes, but as per the criteria of God, and in God’s eyes through His own evaluation. God’s people have to participate in the Passover, or the Holy Communion in obedience and reverence to Him, in the manner prescribed by Him, with the purpose established by Him. Neither of these two can be partaken perfunctorily, as a ritual, and the participants expect or claim any benefits from it. God’s children have to first examine themselves and only then worthily participate in the Communion; those of God’s children who persistently participate unworthily in the Lord’s Table, have been warned in God’s Word that God will judge and chastise them for it.


Since Satan has subtly brought in many false practices, misinterpretations, and misunderstandings about everything related To God and His instructions, including for the Lord’s Table, therefore, there are some related questions that too need to be looked into and clarified from God’s Word. One such issue is about the frequency of the Holy Communion; i.e., how often are the Christian Believers to participate in it? When attempting to seek answers to this question it is very important to keep in mind the God given purpose of participating in the Lord’s Table - in remembrance of the Lord, His sacrifice, His return, and the proclamation of His death; and that the participant participate worthily, i.e., having diligently examined himself and confessed and repented of his sins to the Lord, asked his forgiveness for them, and having received the forgiveness. Therefore, the time interval between successive participations has to be such, that can readily be recalled and reviewed by the participant to examine the way he has spent his life in that time duration. If it is too long a time period, then there is always the strong likelihood of his forgetting or missing out things, and overlooking any errors or wrongs that may have been committed. In such a case, he inadvertently will be participating with unconfessed sins and wrongs - with the forbidden leaven of sin hidden in his life.


We have already seen that the Lord Jesus established the Holy Communion while having the Passover meal with His disciples, soon before His being caught and taken for crucifixion. The Lord’s earthly ministry with His disciples was for about three and a half years, but throughout this time, He did not give them any such instructions about the Holy Communion, as He gave them during this last Passover that He celebrated with them. After the resurrection of the Lord, till His ascension after having spent about forty days with the disciples, and the 120 disciples spending time in prayer while they waited for the Lord’s promise of receiving and being empowered by the Holy Spirit before going out to evangelize the world, which happened on the day of Pentecost, there is no record of either the Lord or the disciples having had the Holy Communion again. So, from this time period of the Lord’s ministry, we have no indicators to answer our lead question.


In Acts 2, the preaching of Peter with the power of the Holy Spirit lead about 3000 devout Jews to repentance and they accepted the Lord Jesus as their savior. For them, it is written in Acts 2:41, that they were added to the Lord’s disciples. Then, in the next verse, in 2:42, are given the four things in which “they” that is the Lord’s disciples, old and new, “continued steadfastly.” Of these four things, the third one is “breaking of bread”, i.e., partaking of the Holy Communion. Here in verse 42, the frequency of their doing so is not mentioned, all that is written is that they “continued steadfastly” in it, along with the other three. But a little down in verse 46 we have it mentioned that the disciples met on a daily basis in the temple, and they were also “breaking bread” from house to house. So, it can safely be assumed, that as often as they met, which appears to be done daily, for learning Apostle’s Doctrine, i.e., learning God’s Word, Fellowship, and Prayers, they also had the Lord’s Table. In other words, in the First Church, amongst the disciples of the Lord Jesus, the Holy Communion was a very frequent, if not a daily occurrence; but no frequency of participation was prescribed for the Believers.


Then, in Acts 20:7, we have another indicator; the disciples had started gathering together “to break bread” on the first day of the week, i.e., on Sunday, the day the Lord Jesus had resurrected form the dead (Mark 16:2, 9); from Acts 20:5-6 it seems that this happened in Troas, i.e., in a location of the Gentiles. The Jews ceremonially kept the Sabbath, the seventh day of the week, in accordance with the Law and the Ten Commandments (Exodus 20:8-11). As the Gospel spread amongst the Gentiles and brought fruit amongst them, the disciples of the Lord Jesus started to gather to fellowship together, worship, break bread, pray and learn God’s Word on the resurrection day of the Lord - the first day of the week. This gathering of the disciples on the resurrection day of the Lord, Sunday, the first day of the week then became an accepted practice of the Church, and the four components, mentioned in Acts 2:42, were regularly observed on that day. In context of our question, participating in the Lord’s Table at least once in a week provided a reasonable time frame, for the participant to recall, review and examine his life, between successive participations. But throughout God’s Word, there is no mention, or even any indication of the Holy Communion being kept once a month, on the first Sunday of the month, or according to any other days or frequency - these are all man-made traditions, based on people’s own understanding, reasoning, or convenience.


Even in 1 Corinthians 11 where the Holy Spirit through Paul is correcting and clarifying the misconceptions about the Lord’s Table for the Christian Believers, no frequency or time interval is mentioned. Rather, in verses 25-26 it is written “as often as” the Believers participated; so, what we can understand is that it was an “often” done event, though of an unspecified frequency and time interval - the requirement of gathering once a week on Sundays is not prescribed or ordained here. Therefore, what we can derive from these Biblical facts is that there is no categorically stated or ordained day or time frequency for participating in the Holy Communion. Hence, none can be dogmatic about any time interval or frequency of participation. Participating once a week in the Holy Communion, while gathering for worship, fellowship, prayers, and learning from God’s Word is not only convenient and reasonable, but also has Biblical support. It allows the participant a convenient time frame of his past days to recall and review his life, and then participate worthily. But this does not mean, nor should it ever be thought that confession and repentance for sins is only to be done on a Sunday or the day of taking part in the Lord’s Table. As and when a person sins, whenever one’s conscience convicts him for any sin, whenever God the Holy Spirit reminds a person about any sin in a person’s life, then and there, at that very moment, sin should be accepted, confessed, repented of and God’s forgiveness for it should be obtained. No one should ever carry on or persist in unconfessed, unrepented, unforgiven sin. Not specifying a time or frequency provides the freedom that as and when people gather in houses, or a place of worship, for something, and want to have the Holy Communion, there is nothing in God’s Word to prevent them from doing so; so long as it is done with due reverence and obedience to God’s instructions about it, and never casually.


If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 


Through the Bible in a Year: 

  • Genesis 49-50

  • Matthew 13:31-58



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