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शुक्रवार, 30 जून 2023

Miscellaneous Questions / कुछ प्रश्न – 42c – Women’s Ministry / स्त्रियों की सेवकाई

बाइबल के अनुसार, क्या मसीही कलीसियाओं में स्त्रियों को पुलपिट से प्रचार करने और पास्टर की भूमिका निभाने की अनुमति है?

भाग 3 – स्त्रियों की सेवकाई

    ऐसा नहीं है कि परमेश्वर ने महिलाओं को कोई सेवकाई नहीं दी है, या उन्हें वचन की समझ नहीं है, या वे वचन के बारे में प्रचार नहीं कर सकती हैं – ये सारी बातें प्रभु ने उन्हें भी दी हैं, भरपूरी से दी हैं, और उनका भी वचन की इस सेवकाई में बहुत बड़ा योगदान है। किन्तु प्रभु ने उनके लिए यह सेवकाई का स्थल कलीसिया नहीं वरन घर-परिवार ठहराया है। उनके अपने घरों (2 तीमुथियुस 1:5), बच्चों में, सन्डे-स्कूल में, अन्य महिलाओं के मध्य में (तीतुस 2:3-5), आदि स्थानों में उनका बहुत महत्वपूर्ण योगदान और सेवकाई है जो कोई पुरुष कभी नहीं कर सकता है। बच्चों को जिस कोमलता और धैर्य के साथ सिखाना और समझाना पड़ता है, उनकी सहनी पड़ती है, उन्हें प्रोत्साहित करना और उनकी समझ के अनुसार उन से व्यवहार करना पड़ता है, वह सामान्यतः पुरुषों के बस की बात नहीं है। बच्चों को ममता, लाड़ और प्यार के साथ, उनके बचपन से ही वचन और विश्वास के लिए जो नींव स्त्रियाँ दे सकती हैं वह कोई पुरुष अपनी समझ, बुद्धि, और ज्ञान के साथ कभी नहीं दे सकता है।


    इस बात के दो उत्तम उदाहरण वचन में हैं, एक पुराने और दूसरा नए नियम में। पुराने नियम का उदाहरण मूसा का है, जिसे शिशु अवस्था से ही फिरौन की पुत्री ने अपना लिया था, किन्तु उसकी देखभाल के लिए उसकी अपनी माँ ही नियुक्त कर दी गई (निर्गमन 2:5-10)। परिणाम क्या हुआ यह निर्गमन 2:11 में ही देखिए, तथा साथ ही प्रेरितों 7:23 और इब्रानियों 11:24-26 को भी देखिए – जब मूसा जवान हुआ, तो उसने मिस्रियों को नहीं वरन इब्रियों को ही अपने भाई-बन्धु समझा, और उनके कष्टों से उन्हें छुड़ाने की ठान ली। यदि उसकी माँ ने उसके वास्तविक लोगों और परमेश्वर के बारे में उसे न बताया और सिखाया होता, तो शिशु अवस्था से ही राजमहल में पलने और बढ़ने वाला मूसा क्योंकर इब्रियों को अपने भाई-बन्धु मानता और उन्हें उनके कष्ट से छुड़ाने की इच्छा रखता? दूसरा उदाहरण नए नियम में तीमुथियुस का है, जिसका हवाला ऊपर दिया गया है। यद्यपि तीमुथियुस का पिता यूनानी था (प्रेरितों 16:1) किन्तु फिर भी, जैसा 2 तीमुथियुस 1:5 से प्रकट है, उसका युवावस्था में ही निष्कपट विश्वास रखना, उसकी माँ और नानी के प्रभाव से था। इन दोनों उदाहरणों में हम बच्चों के जीवन पर स्त्रियों के दूरगामी प्रभाव को स्पष्ट देखते हैं, जो कोई पुरुष द्वारा कर पाना यदि असम्भव नहीं तो बहुत कठिन अवश्य है।


    इसी प्रकार से अन्य महिलाओं के मध्य में वचन की सेवकाई करना भी पुरुषों के लिए कठिन है, और उचित भी नहीं है। स्त्रियाँ एक-दूसरे से जिस प्रकार अपने मन की बातें, परिस्थितियाँ, और समस्याएँ कह लेती हैं, समझ सकती हैं, और समाधान निकाल सकती हैं, वह पुरुष नहीं कर सकते हैं। इसीलिए तीतुस 2:3-5 में स्त्रियों को ही अन्य स्त्रियों को व्यक्तिगत परिस्थितियों में वचन सिखाने के लिए कहा गया है। साथ ही पुरुषों के लिए स्त्रियों के साथ संपर्क में रहना कई प्रकार के आरोपों और अनुचित परिस्थितियों की संभावनाओं को उत्पन्न कर सकता है, तथा शैतान को उनकी मसीही गवाही खराब करने के अवसर प्रदान कर सकता है। इसलिए परमेश्वर ने जो सेवकाई स्त्रियों के लिए निर्धारित की है, उसे पुरुष चाह कर भी कभी नहीं कर सकते हैं; वह केवल स्त्रियों के लिए ही संभव है। ये बहुत महत्वपूर्ण सेवाकाइयाँ हैं जो किसी भी परिवार की स्थिरता, पारिवारिक विश्वास की दशा, और बच्चों के भावी जीवन की दिशा को प्रभावित करती हैं। यह स्पष्ट दिखाता है कि न परमेश्वर और न परमेश्वर का वचन स्त्रियों को सेवकाई से वंचित करता है, और न ही उन्हें सेवकाई के लिए पुरुषों से निम्न दर्जे का समझता है।


    अगले लेख में हम देखेंगे कि परमेश्वर ने अपने वचन में स्त्रियों द्वारा कलीसियाओं में पुलपिट का प्रयोग करने के लिए क्या लिखवाया है।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 


- क्रमशः 
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According to the Bible, Do Women Have the Permission to Serve as Pastors and Preach from the Pulpit in the Church?

Part 3 – Women’s Ministry

 

    It is not that God has not given any ministry to the women, or that they do not have an understanding of the Word, or that they are unable to preach from the Word – God has given all of these gifts to them also, given them abundantly, and they too have a very major role to fulfil in this ministry. But the Lord has assigned the home and family as their place of ministry, not the Church. In their own houses (2 Timothy 1:5), amongst children, for the Sunday School ministry, amongst other women (Titus 2:3-5), they have a very important ministry which no man can ever carry out. The tenderness required to handle, teach, and explain to children, the patience that has to be exercised with children, the way they have to be encouraged, and the manner in which they have to handled according to their age, is generally not possible for men to do. The foundation of the Word and Faith that women can provide to children, by dealing with them with maternal feelings, love and care, no man can ever give no matter how intellectual, wise, and knowledgeable he may be.


    There are two very good examples of this in the Scriptures, one in the Old Testament, and the other in the New Testament. The Old Testament example is of Moses, who from his infancy was adopted by the daughter of the Pharaoh, but he was brought up under the care of his own mother (Exodus 2:5-10). You can see the result in Exodus 2:11, and also see Acts 7:23, Hebrews 11:24-26 – when Moses came to be of age, he considered not the Egyptians, but the Hebrews as his people, and decided to deliver them from their oppression. If his mother had not taught him about his actual people and about God, then because of his upbringing since his infancy in the palace of the Pharaoh, would Moses ever had considered the Hebrews to be his people, and thought of delivering them from their oppression? The second example, from the New Testament, is of Timothy, whose reference has been given above. Although Timothy’s father was a Greek (Acts 16:1), yet as is apparent from 2 Timothy 1:5, his having a genuine faith even in his youth, was because of the influence of his mother and maternal grand-mother. From both these examples we see the long-term effects of women in the lives of children, something which if not impossible, then very difficult for men to achieve.


    Similarly, to minister amongst other women is also not only very difficult but also inappropriate for men to do. The way women can share their hearts, circumstances, and problems with each other, understand and work out solutions to these situations, cannot be done by men. That is why in Titus 2:3-5, women have been asked to share and teach other women at a personal level. Moreover, for men to remain in close contact with women can provide the occasion for many kinds of allegations and inappropriate circumstances, and give Satan the opportunity to spoil their Christian witness. These are all very important ministries, that affect the stability of any family, the state of Faith of the family, and future direction the life of children will take. This very clearly shows that neither God, nor His Word has deprived women from having an important role in ministry, and neither is their ministry in any way inferior to that of men.


    In the next article we will see what God has got written in His Word about the women using the pulpit in the Churches.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


- To Be Continued 
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गुरुवार, 29 जून 2023

Miscellaneous Questions / कुछ प्रश्न – 42b – Satan’s Strategy / शैतान की कार्यविधि

क्या बाइबल के अनुसार, क्या मसीही कलीसियाओं में स्त्रियों को पुलपिट से प्रचार करने और पास्टर की भूमिका निभाने की अनुमति है?
भाग 2शैतान की कार्यविधि

 

    कृपया उत्पत्ति 1 और 2 अध्याय से देखिए। परमेश्वर ने पहले पृथ्वी को बनाया, उसे मनुष्य के रहने योग्य तैयार किया, समस्त वनस्पति और जीव-जंतुओं की रचना की, और फिर जब मनुष्य के जीवन और रहने के लिए सब कुछ तैयार हो गया, तब परमेश्वर ने अपने हाथों से मनुष्य की रचना की। फिर, परमेश्वर ने मनुष्य के लिए एक विशेष वाटिका – अदन की वाटिका को लगाया, और मनुष्य को उसकी देखभाल की ज़िम्मेदारी सौंपी। और, भले और बुरे के ज्ञान तथा जीवन के वृक्ष के फलों को छोड़ मनुष्य को अन्य प्रत्येक वृक्ष का फल खाने के लिए दे दिया। उसके बाद, मनुष्य का साथ देने के लिए, परमेश्वर ने हव्वा को उसका सहायक बनाकर, उसके साथ रहने के लिए दिया। उनके लिए किसी बात की कोई कमी नहीं थी; परमेश्वर उन दोनों के साथ संगति करता था; पृथ्वी पर सिद्ध शान्ति थी, पाप का अस्तित्व नहीं था, कोई समस्या नहीं थी, आदम और हव्वा को जो कुछ भी चाहिए था, वह सब बहुतायत और सरलता से उपलब्ध था।


    इस शान्ति पूर्ण जीवन और परमेश्वर के साथ उनकी संगति को छिन-भिन्न करने के लिए शैतान ने एक बहुत साधारण और सीधी कार्यविधि का प्रयोग किया। बजाए इसके कि उन्हें विचार करने देता कि परमेश्वर ने उन्हें तैयार करके मुफ्त में क्या कुछ दे दिया है, बजाए इसके कि मनुष्य को परमेश्वर के प्रति उस सब के लिए जो उसने तैयार करके उपलब्ध करवा दिया है धन्यवादी और कृतज्ञ होने दे, उस सब की देखभाल करे जैसा परमेश्वर ने उससे कहा, और उसे परमेश्वर की महिमा के लिए इस्तेमाल करे, शैतान ने उन दोनों के मनों में उस बात को डाला कि परमेश्वर ने उन्हें क्या नहीं दिया है; और उनके ध्यान को उस पर लगाए रखने की बजाए जो मिला है, उस ओर मोड़ दिया, जो उन्हें नहीं मिला है। एक बार शैतान ने आदम और हव्वा के ध्यान को परमेश्वर के प्रावधानों से मोड़ दिया, उसके बाद उन्होंने परमेश्वर से यह पूछने और जानने का भी प्रयास नहीं किया कि जो उन्हें नहीं दिया गया है, क्या वह आवश्यक भी है, क्या उसकी कोई उपयोगिता भी है? जब संसार में कुछ बुरा था ही नहीं, सब कुछ बहुत अच्छा था (उत्पत्ति 1:31), तो भले और बुरे के ज्ञान को प्राप्त करने के द्वारा आदम और हव्वा को क्या अतिरिक्त लाभ मिल सकता था? शैतान ने इस कार्यविधि, कि परमेश्वर ने उन्हें क्या नहीं दिया है, के द्वारा हव्वा को बहकाया, और उसमें परमेश्वर के समान भले और बुरे के ज्ञान को रखने की लालसा उत्पन्न की। इसके बाद शैतान ने उसके मन में यह डाला कि यदि वह उसकी सलाह का पालन करे तो उसे अभी भी वह सब मिल सकता है, और वह अपने स्तर को बढ़ा कर परमेश्वर के समान कर सकती है। एक बार शैतान ने यह बीज उसके मन में बो दिया, तो उसके बाद उसे फिर अकेला नहीं छोड़ा, उसे बातों में लगाए रखा, उसे विचार करने, आदम से उसके बारे में चर्चा करने, या परमेश्वर के आने और फिर उससे पूछने की प्रतीक्षा करने का समय ही नहीं दिया। और आज भी शैतान इसी कार्यविधि के द्वारा मनुष्य को बहकाता और गिराता है, मनुष्य के मन में डालता है कि उसके पास यह नहीं है, वह नहीं है, और उन्हें उकसाता है कि जो उसके पास नहीं है वह सब उसके लिए कितना आवश्यक है, और उन्हें तब तक नहीं छोड़ता है जब तक कि वे उन बातों को पाने की लालसा करने की उसकी चाल में फँस नहीं जाते हैं।


    थोड़ा रुक कर उपभोक्ता वस्तुओं और सौन्दर्य प्रसाधनों से संबंधित विज्ञापनों और उत्पादन के बारे में विचार कीजिए – क्या यह इसी कार्यविधि पर आधारित नहीं है? आप को निरन्तर यह एहसास करवाया जाता है कि उन वस्तुओं, उन बातों के बारे में सोचें जो आपके पास होनी चाहिए थीं किन्तु आपको नहीं दी गई हैं, जो आपके पड़ौसियों, या सहकर्मियों, या रिश्तेदारों के पास हैं, लेकिन आप के पास नहीं हैं। वह सब जो आप पाना चाहते हैं किन्तु आप को पता नहीं है कि कैसे प्राप्त करें, और जिन्हें पा लेने के बाद आप यदि उन से बेहतर नहीं तो कम से कम उनके समान तो हो ही जाएँगे। क्या संपूर्ण विज्ञापन उद्योग और उपभोक्ता वस्तुओं का उद्योग क्या इसी एक कार्यविधि पर आधारित और चलाया जाने वाला नहीं है? एक बार ज़ोर देकर निरन्तर दिखाए जा रहे विज्ञापनों के द्वारा जब शैतान इन नाशमान और भौतिक वस्तुओं की लालसा के बीज हम में बो देता है, उसके बाद फिर वह हम में उसके कहे के अनुसार कर के उन्हें प्राप्त करने की लालसा और प्रयासों में भी डाल देता है। और यह परमेश्वर के साथ हमारे समय और संगति, और फिर अन्ततः हमारे अनन्तकाल की कीमत पर होता है।


    यदि हम समय रहते सच को नहीं पहचानते हैं, अपने पापों से पश्चाताप नहीं करते हैं और इन बातों के लिए प्रभु से क्षमा, तथा परमेश्वर से मेल-मिलाप और उसकी संतान होने का दर्जा नहीं माँगते हैं, तो इन भौतिक और नाशमान बातों को पाने की लालसा में हम अपने अनन्तकाल के लाभ और जीवन की हानि उठाते हैं। एक बार यदि हम शैतान की इस कार्यविधि, इस युक्ति को समझ लें, तो फिर यह देखना और समझना कठिन नहीं है कि किस प्रकार से शैतान ने इसी युक्ति का प्रयोग महिलाओं में पुल्पिट का प्रयोग करने और पास्टर होने जिम्मेदारियों को निभाने की लालसा रखने के लिए किया है – उन बातों के लिए जिनकी अनुमति परमेश्वर ने अपने वचन में उन्हें प्रदान नहीं की है। किन्तु शैतान उन स्त्रियों के मन में यही डालता है कि उन्हें सर्वोत्तम और सबसे महत्वपूर्ण वरदान से वंचित रखा गया है, और उन्हें कभी उन विशिष्ट वरदानों और योग्यताओं के बारे में सोचने नहीं देता है जो परमेश्वर ने उन्हें उसके राज्य और महिमा के लिए दीं हैं, जो पुरुषों को कभी मिल नहीं सकती हैं और न पुरुष कभी उन्हें उपयोग कर सकते हैं। हम इसके बारे में और अधिक अपने अगले लेख में देखेंगे।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 


- क्रमशः 

 

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According to the Bible, Do Women Have the Permission to Serve as Pastors and Preach from the Pulpit in the Church?
Part 2Satan’s Strategy

 

    Please see from Genesis chapters 1 and 2. God had first created the earth, made it inhabitable for man, brought all the vegetation and animal life into existence, once everything required for man’s existence was in place, it was then that God created man with His own hands. God then planted the special Garden of Eden for man, gave man charge of it, and except for the Tree of Good and Evil, and the Tree of Life, man could eat the fruit of every tree. Then, to give Adam company, God made Eve to be his helper and stay with him. Nothing was lacking for them; God used to fellowship with both of them; there was perfect peace on earth, there was no sin, there were no problems. All that Adam and Eve ever needed was easily and abundantly made available to them.


    Satan’s Strategy to disrupt this peaceful existence and fellowship with God was simple and straightforward. Instead of allowing man to think about all that God had prepared for him and freely given it to him, instead of letting man be thankful to God for all that He had provided, take care of it as God had asked him to do, utilize it for his own benefit and God’s glory, Satan put into their mind what God had not given them; and diverted their attention from what had been given into thinking about what God has not given. Once Satan turned their attention away from God’s provisions, Adam and Eve did not bother to think or learn from God about what had not been given, was it at all necessary; did it have any utility? When there was no evil on earth at that time, and everything was very good (Genesis 1:31), what additional gain or advantage would Adam and Eve have by knowing about good and evil? Satan misled Eve through this strategy; putting into her heart, what God has not given, enticed her to desire to be like God and learn about knowing about good and evil. Satan then put into her heart that she can still have it all by following his advice, and thereby raise her status to be like God. Once Satan had planted this seed in her mind, he did not leave her alone, he kept her engaged in conversation with him, did not allow her time to think it over, or confer with Adam about it, or wait till God came to meet them and ask Him about it. And even today Satan beguiles man through this same strategy, puts into their heart and draws their attention to what they have not been given, gets them into pondering about all that they are missing, makes them feel how necessary for them are the things that have not been given to them, and does not leave them till they fall for his devious devices.


    Think over all the advertising for the various consumer and cosmetic products – is it not based on this very strategy? Keep making you think of all that you should be having, all that has not been given to you, all that you neighbor or colleague or family member has, but you don’t. All that you can acquire but don’t know how, and how by acquiring it you will become equal, if not better than them. The whole Advertising and Consumer Products business is built and operated on this very strategy. Once, through forceful and relentless advertising, these seeds are sown in us, then Satan gets us working to acquire these temporal and perishing worldly things and achievements through his advice, at the cost of our time and fellowship with God, and eventually our eternity.


    If we don’t realize the truth in time repent of our sins, ask for the Lord Jesus to forgive us, and reconcile us with God, to be His child for eternity, for the sake of temporal gains, we end up losing our eternal life and benefits. Once we understand Satan’s this strategy, it is not difficult to see how he also uses the same strategy to beguile women into desiring the pulpit and pastoral responsibilities – things that God has not permitted for them in His Word. But Satan makes them feel as if they have been deprived and cheated of the most important and the best gift, never letting them think about all the unique gifts that God has exclusively given to them instead, to be used for His glory and Kingdom; gifts and abilities that no man can ever have – they are the unique privilege of women only. We will see more about this in our next article.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

- To Be Continued


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बुधवार, 28 जून 2023

Miscellaneous Questions / कुछ प्रश्न – 42a – Women Pastors and Preachers / महिला पास्टर और प्रचारक?

क्या बाइबल के अनुसार, क्या मसीही कलीसियाओं में स्त्रियों को पुलपिट से प्रचार करने और पास्टर की भूमिका निभाने की अनुमति है?

भाग 1 – प्रस्तावना

 

    आज से हम एक नए विषय पर विचार करने जा रहे हैं, जो वर्तमान में मण्डलियों में काफी असमंजस तथा वाद-विवाद का कारण है, और कलीसियाओं में मतभेदों का भी कारण बना हुआ है। जैसा उपरोक्त शीर्षक से प्रकट है, यह विषय है कलीसियाओं में महिलाओं द्वारा पास्टर और प्रचारक की भूमिकाओं को निभाना। यह विषय सहज नहीं है, और पाठकों से विनम्र निवेदन है कि धैर्य तथा शांत मन से, और किसी पूर्व धारणा के अनुसार उत्तेजित हुए बिना, बाइबल से संगत निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए, कृपया पूरी श्रृंखला को ध्यानपूर्वक पढ़ें और समझें। श्रृंखला के आरम्भ ही में यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि इन लेखों और इस श्रृंखला का उद्देश्य किसी भी रीति से स्त्रियों को पुरुषों से भिन्न दर्जे का या पुरुषों के अधीन दिखाना नहीं है। वरन, जैसा हमेशा ही पहले के अन्य विषयों एवं लेखों में रहा है, केवल परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार विषय का विश्लेषण करना और बाइबल के संबंधित हवाले आप के सामने रखना है। उस विश्लेषण और उन हवालों को स्वीकार अथवा अस्वीकार करना आप का व्यक्तिगत निर्णय है।


    आज हम प्रस्तावना के रूप में शैतान की कार्यविधि और षड्यंत्र रचना के आधार के साथ आरम्भ करेंगे, जिसके द्वारा उसने कलीसियाओं में इस विषय को लेकर वाद-विवाद और मतभेद डाले हुए हैं, और उन्हें बढ़ा रहा है। 2 कुरिन्थियों 2:11 में परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस द्वारा लिखवाया है, “कि शैतान का हम पर दांव न चले, क्योंकि हम उस की युक्तियों से अनजान नहीं”; अर्थात शैतान कलीसियाओं में तब ही सफलता के साथ कार्यकारी हो सकता है जब मसीही उसकी कार्यविधियों और युक्तियों से अनजान रहेंगे। यदि मसीही शैतान की कार्यविधियों और युक्तियों को पहचानने वाले होंगे तो वे उनके प्रति सचेत भी रहेंगे, और उन्हें सफल भी नहीं होने देंगे। फिर, 2 कुरिन्थियों 11:3 में लिखा है, “परन्तु मैं डरता हूं कि जैसे सांप ने अपनी चतुराई से हव्वा को बहकाया, वैसे ही तुम्हारे मन उस सिधाई और पवित्रता से जो मसीह के साथ होनी चाहिए कहीं भ्रष्‍ट न किए जाएं।” कहने का तात्पर्य यह है कि शैतान की कार्यविधि है लोगों को चतुराई से बहकाना – अपने झूठ को परमेश्वर के वचन के सत्य में लपेट कर चुपके से हमारे अन्दर डाल देना, तथा उसके उस झूठ को हमारे अन्दर डाल और पनपा कर प्रभु के लोगों को उस सिधाई और पवित्रता से भ्रष्ट कर देना, जिससे वे मसीह के साथ बने न रह सकें । क्योंकि जहाँ झूठ, अनाज्ञाकारिता, परमेश्वर और उसके वचन को नहीं वरन मनुष्यों की गढ़ी हुई बातों को प्राथमिकता मिलना और पालन करना, और अपवित्रता है, परमेश्वर वहाँ साथ बना नहीं रह सकता है (यशायाह 59:2; मत्ती 15:7-9)।


    शैतान ने इसी कार्यविधि और षड्यंत्र का अदन की वाटिका में प्रयोग किया, हव्वा को बहका कर पाप को संसार में प्रवेश करवाया, और आज भी उसी युक्ति के द्वारा अपनी कुटिलता और दुष्टता को कलीसियाओं में घुसा और फैला रहा है। अगले लेख में हम शैतान की इस युक्ति को देखेंगे और समझेंगे।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

- क्रमशः

 

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According to the Bible, Do Women Have the Permission to Serve as Pastors and Preach from the Pulpit in the Church?
Part 1 – Introduction

 

    From today we are going to start pondering over a new topic, one that has become a cause of much confusion and debate, and also of divisions in the Churches. As is apparent from the above heading, this topic is women being permitted to function as Pastors and Preachers in the Churches. This is not an easy, straightforward topic, therefore a humble request to the readers, please go through the articles patiently and with a quiet heart, without getting excited because of any previous notions, and so as to reach conclusions consistent with the Bible, please go through and think over the whole series first. It would be appropriate at the very beginning of this series to clarify that the intention of this series is not to show women to be in any way of a different level than men, nor of women to be subservient to men. But, as has always been the case in all the previous articles, the purpose is to analyze the topic according to the Biblical facts, and to present the related Bible references before you. To accept or to reject the analysis and the Bible references is your personal decision.


    Today, in the Introduction, we will start by looking at the strategy and devices of Satan, through which he has brought much discord and divisions in the Churches, and is continuing to multiply it. God the Holy Spirit, through the Apostle Paul had it written in 2 Corinthians 2:11, “lest Satan should take advantage of us; for we are not ignorant of his devices”; i.e., Satan can be successful in the Churches only when the Christians are unaware of his strategies and devices. If the Christians learn to recognize his strategies and devices, they will also become alert and cautious towards them, and will keep them from being successful. Then, in 2 Corinthians 11:3 it is written, “But I fear, lest somehow, as the serpent deceived Eve by his craftiness, so your minds may be corrupted from the simplicity that is in Christ.” In other words, Satan’s strategy is to cleverly deceive the people – deceptively bring in his lies wrapped in the truth of God’s Word, and then make those lies take root and grow in us, and thereby corrupt us from the simplicity that is in Christ Jesus, so that we no longer can continue in fellowship with Christ. Since, wherever there are lies, deceit, disobedience, primacy and acceptance is given to man-made and contrived concepts instead of God and God’s Word, and corruption, there God cannot continue to fellowship with man (Isaiah 59:2; Matthew 15:7-9).


    Satan used this strategy and device in the Garden of Eden, deceived Eve, got sin to enter into the world, and even today, is using the same strategy and device, he is introducing and spreading his deviousness and evils in the Churches. In the next article, we will see and understand this device of Satan.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

- To Be Continued

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मंगलवार, 27 जून 2023

Miscellaneous Questions / कुछ प्रश्न – 41 – Jesus is God / यीशु परमेश्वर है


बाइबल की शिक्षाएँ कि प्रभु यीशु परमेश्वर है।

 

    बहुधा यह प्रश्न उठाया जाता है कि बाइबल में यीशु को कभी भी परमेश्वर नहीं कहा गया है, तो फिर मसीही, या ईसाई लोग क्यों उसके परमेश्वर होने का दावा करते हैं, उसे परमेश्वर कहकर संबोधित करते हैं? वे उसे केवल परमेश्वर का एक नबी, या, परमेश्वर द्वारा एक विशेष अभिप्राय के लिए नियुक्त तथा विशेष रीति से सामर्थ्य प्रदान किया हुआ मनुष्य क्यों स्वीकार नहीं कर लेते हैं? इस लेख से लोगों को बाइबल से यह देखने और समझने में सहायता मिलेगी कि क्यों मसीही यह दावा करते हैं कि प्रभु यीशु परमेश्वर है। बाइबल के बहुत से पद यह सीधे से दिखाते हैं कि यीशु परमेश्वर है, और उन में से कुछ यहाँ पर इस लेख में दिए गए हैं। ये पद दिखाते हैं कि स्वयं परमेश्वर ने प्रभु यीशु को अपना पुत्र कहा है, तथा प्रभु यीशु ने भी यह दिखाया है कि वह परमेश्वर है।


    परमेश्वर पिता ने प्रभु यीशु को अपना “प्रिय पुत्र” कहा: प्रभु यीशु के बपतिस्मे के समय, “और यह आकाशवाणी हुई, कि तू मेरा प्रिय पुत्र है, तुझ से मैं प्रसन्न हूं” (मरकुस 1:11); इसी सन्दर्भ में मत्ती 3:17 और लूका 3:22 भी देखें। पहाड़ पर रूपांतरण के समय भी, “वह बोल ही रहा था, कि देखो, एक उजले बादल ने उन्हें छा लिया, और देखो; उस बादल में से यह शब्द निकला, कि यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिस से मैं प्रसन्न हूं: इस की सुनो” (मत्ती 17:5); इसी सन्दर्भ में मरकुस 9:7 और लूका 9:35 भी देखें।


    बाद में, प्रेरितों पतरस और यूहन्ना ने भी रूपांतरण के पहाड़ की इस घटना के बारे में अपनी पत्रियों में भी गवाही दी। पतरस ने लिखा, “कि उसने परमेश्वर पिता से आदर, और महिमा पाई जब उस प्रतापमय महिमा में से यह वाणी आई कि यह मेरा प्रिय पुत्र है जिस से मैं प्रसन्न हूं” (2 पतरस 1:17)। और यूहन्ना कहता है, “उस जीवन के वचन के विषय में जो आदि से था, जिसे हम ने सुना, और जिसे अपनी आंखों से देखा, वरन जिसे हम ने ध्यान से देखा; और हाथों से छूआ। (यह जीवन प्रगट हुआ, और हम ने उसे देखा, और उस की गवाही देते हैं, और तुम्हें उस अनन्त जीवन का समाचार देते हैं, जो पिता के साथ था, और हम पर प्रगट हुआ)। जो कुछ हम ने देखा और सुना है उसका समाचार तुम्हें भी देते हैं, इसलिये कि तुम भी हमारे साथ सहभागी हो; और हमारी यह सहभागिता पिता के साथ, और उसके पुत्र यीशु मसीह के साथ है। और ये बातें हम इसलिये लिखते हैं, कि हमारा आनन्द पूरा हो जाए” (1 यूहन्ना 1: 1-4)।


    यहूदी यह भली भांति जानते थे कि प्रभु यीशु का अपने आप को परमेश्वर का पुत्र कहना, उसके परमेश्वर के समतुल्य होने को कहने का तरीका है, और इसे वह ईश-निन्दा का पाप मानते थे, जो मृत्यु दण्ड पाने के योग्य था (यूहन्ना 5:18, 23; यूहन्ना 10:30, 33; यूहन्ना 19:7)। न केवल प्रभु यीशु ने उनके सामने अपने आप को परमेश्वर का पुत्र दिखाया, बल्कि उसने बारंबार परमेश्वर को पिता कह कर भी संबोधित किया। यहूदी विचार-धारा के अनुसार यह स्वयं को परमेश्वर के समतुल्य बनाने के जैसा था, और इसके लिए वे उसे मार डालना चाहते थे: “इस पर यीशु ने उन से कहा, कि मेरा पिता अब तक काम करता है, और मैं भी काम करता हूं। इस कारण यहूदी और भी अधिक उसके मार डालने का प्रयत्न करने लगे, कि वह न केवल सबत के दिन की विधि को तोड़ता, परन्तु परमेश्वर को अपना पिता कह कर, अपने आप को परमेश्वर के तुल्य ठहराता था” (यूहन्ना 5:17-18); “यहूदियों ने उसको उत्तर दिया, कि हमारी भी व्यवस्था है और उस व्यवस्था के अनुसार वह मारे जाने के योग्य है क्योंकि उसने अपने आप को परमेश्वर का पुत्र बनाया” (यूहन्ना 19:7)। प्रभु यीशु ने कभी भी परमेश्वर का पुत्र होने और इस कारण परमेश्वर के समतुल्य होने के तथ्य से इनकार नहीं किया, यहाँ तक कि ईश-निन्दा और मृत्यु दण्ड के अभियोग के अंतर्गत भी नहीं, “यहूदियों ने उसको उत्तर दिया, कि भले काम के लिये हम तुझे पत्थरवाह नहीं करते, परन्तु परमेश्वर की निन्दा के कारण और इसलिये कि तू मनुष्य हो कर अपने आप को परमेश्वर बनाता है” (यूहन्ना 10:33); बल्कि उसने बिलकुल खुलकर यह घोषित किया कि वह और पिता, अर्थात, परमेश्वर एक ही हैं, और उसे देखने का अर्थ था परमेश्वर को देखना (यूहन्ना 10:30; यूहन्ना 12:45; यूहन्ना 14:9)।


    प्रभु यीशु ने अपने शिष्य, थोमा की आराधना को, जिस में उसने यीशु को प्रभु और परमेश्वर कहकर संबोधित किया, स्वीकार किया “यह सुन थोमा ने उत्तर दिया, हे मेरे प्रभु, हे मेरे परमेश्वर!” (यूहन्ना 20:28), प्रभु ने थोमा को यह कहने के लिए मना नहीं किया, उसे गलत नहीं बताया। यदि यह वास्तविक बात, और पूर्णतः सत्य नहीं होता, तो फिर थोमा की कही बात घोर ईश-निन्दा, पूर्णतः अस्वीकार्य, और कड़ी भर्त्सना के साथ तुरंत तिरस्कार कर देने के योग्य थी। किन्तु न तो प्रभु यीशु ने, और न ही वहाँ उपस्थित अन्य शिष्यों ने, जो सभी यहूदी थे, इस बात की कोई निन्दा या आलोचना नहीं की। साथ ही, इस बात का पवित्र शास्त्र में लिखा जाना इसकी वास्तविकता और सत्य की पुष्टि करता है।


    प्रभु यीशु ने अपने आप को “मैं हूँ” कहा – जो कि यहूदियों द्वारा परमेश्वर का एक नाम माना जाता था, और प्रभु के यह कहने के लिए वे उसका पत्थरवाह करके उसे मार डालना चाहते थे, “यीशु ने उन से कहा; मैं तुम से सच सच कहता हूं; कि पहिले इसके कि इब्राहीम उत्पन्न हुआ मैं हूं। तब उन्होंने उसे मारने के लिये पत्थर उठाए, परन्तु यीशु छिपकर मन्दिर से निकल गया” (यूहन्ना 8:58-59)। इस अभिव्यक्ति का प्रयोग करने के द्वारा वह अपने ईश्वरत्व को उन पर प्रकट कर रहा था।


    प्रभु यीशु के द्वारा किए गए आश्चर्यकर्म उसके परमेश्वर होने की पुष्टि करते हैं। न केवल उसने लोगों को चंगा किया, बल्कि जन्म के अंधों को आँखें दीं, और मुर्दों को भी जिला उठाया। परमेश्वर के अतिरिक्त और कोई भी मरे हुओं को वापस ज़िंदा नहीं कर सकता है, प्रभु यीशु ने किया। फरीसियों ने भी, जो उसके कट्टर विरोधी थे, इस बात को माना कि परमेश्वर की उपस्थिति उसके साथ है, “फरीसियों में से नीकुदेमुस नाम एक मनुष्य था, जो यहूदियों का सरदार था। उसने रात को यीशु के पास आकर उस से कहा, हे रब्बी, हम जानते हैं, कि तू परमेश्वर की ओर से गुरु हो कर आया है; क्योंकि कोई इन चिन्हों को जो तू दिखाता है, यदि परमेश्वर उसके साथ न हो, तो नहीं दिखा सकता” (यूहन्ना 3:1-2)।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 


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The Bible’s Teachings that Lord Jesus is God.

 

Often a question is raised that Jesus has never been called God in the Bible, then why do Christians claim that He is God? Why don’t they accept Him as a prophet, or God’s specially empowered human being, ordained for a special purpose by God? This article will help people see and understand from the Bible, why Christians claim that Lord Jesus is God. Many verses of the Bible directly show that Jesus is God, given here are some of them, where God Himself has testified of Jesus being His Son, and Jesus has shown that He is God.

God the Father called the Lord Jesus His “beloved Son”: At the baptism of Jesus, “Then a voice came from heaven, "You are My beloved Son, in whom I am well pleased" (Mark 1:11)”; see also Matthew 3:17, Luke 3:22 in this context. At the Mount of Transfiguration, “While he was still speaking, behold, a bright cloud overshadowed them; and suddenly a voice came out of the cloud, saying, "This is My beloved Son, in whom I am well pleased. Hear Him!" ” (Matthew 17:5); see also Mark 9:7 and Luke 9:35 in this context.

Later the apostle Peter and John testified of this event on the Mount of Transfiguration in their epistles: “For He received from God the Father honor and glory when such a voice came to Him from the Excellent Glory: "This is My beloved Son, in whom I am well pleased" ” (2 Peter 1:17); “That which was from the beginning, which we have heard, which we have seen with our eyes, which we have looked upon, and our hands have handled, concerning the Word of life -- the life was manifested, and we have seen, and bear witness, and declare to you that eternal life which was with the Father and was manifested to us -- that which we have seen and heard we declare to you, that you also may have fellowship with us; and truly our fellowship is with the Father and with His Son Jesus Christ. And these things we write to you that your joy may be full” (1 John 1:1-4).

The Jews well understood that Jesus’s saying God was His Father was another way of expressing being equal with God, which they considered this as blasphemy deserving the death penalty (John 5:18, 23; John 10:30, 33; John 19:7). The Lord Jesus not only presented Himself to them as the Son of God, but He repeatedly addressed God as His father also. From the Jewish point-of-view this was nothing short of making Himself co-equal with God and they wanted to kill Him for this: “But Jesus answered them, "My Father has been working until now, and I have been working." Therefore the Jews sought all the more to kill Him, because He not only broke the Sabbath, but also said that God was His Father, making Himself equal with God” (John 5:17-18); “The Jews answered him, "We have a law, and according to our law He ought to die, because He made Himself the Son of God" (John 19:7)”. Lord Jesus never denied this fact of being the Son of God and thereby being co-equal with God, even under the charge of blasphemy and the threat of death: “The Jews answered Him, saying, "For a good work we do not stone You, but for blasphemy, and because You, being a Man, make Yourself God" (John 10:33); rather, He openly declared that He and the Father, i.e., God were one and the same, and having seen Him means having seen God (John 10:30; John 12:45; John 14:9).

Lord Jesus accepted the worship of His disciple Thomas when he addressed Him as Lord and God: “And Thomas answered and said to Him, "My Lord and my God!" ”(John 20:28), and did not correct him about this. This would have been utter blasphemy, absolutely unacceptable, worthy of severe condemnation and forthright rejection if it had been anything but the truth. That none of the other disciples, who were all Jews, objected to it and that it has been recorded in the Scriptures is proof of its authenticity.

Lord Jesus addressed himself as ‘I AM’ – an expression that was known and accepted as the name of God by the Jews, because of which they wanted to stone Him to death: “Jesus said to them, "Most assuredly, I say to you, before Abraham was, I AM." Then they took up stones to throw at Him; but Jesus hid Himself and went out of the temple, going through the midst of them, and so passed by” (John 8:58-59). By using this expression He was asserting His Divinity to them.

The miracles performed by Jesus testify to His being God. Not only did He heal people, even those who had been born blind, but He even brought people back to life. No one but God can bring people back from the dead, Jesus did. Even the Pharisees, who were His bitter opponents, acknowledged that He was from God: “There was a man of the Pharisees named Nicodemus, a ruler of the Jews. This man came to Jesus by night and said to Him, "Rabbi, we know that You are a teacher come from God; for no one can do these signs that You do unless God is with him" ” (John 3:1-2).

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


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