पिछले पाँच लेखों से हम यूहन्ना 15:1-6, विशेषकर 15:2, को देखते आ रहे हैं, यह जानने के लिए कि क्या यह खण्ड और पद इस बात का प्रमाण है कि उद्धार खोया जा सकता है और पाप करने वाला मसीही विश्वासी विनाश के लिए “काट डाला” जा सकता है कि नहीं, जैसा कि कुछ लोग इस पद 2 के आधार पर धारणा देते हैं। पहले लेख में हमने बाइबल के अध्ययन और व्याख्या के कुछ मूलभूत सिद्धान्तों को देखा था, जिनके आधार पर हम गलत व्याख्या से बच सकते हैं और गलत व्याख्याओं को पहचान भी सकते हैं। दूसरे लेख से लेकर पिछले लेख तक, हमने बाइबल अध्ययन के इन सिद्धांतों को बारी-बारी इस खण्ड, विशेषकर पद 15:2 का अध्ययन और विश्लेषण करने के लिए उपयोग किया। हमने देखा कि जब इस खण्ड और पद को बाइबल अध्ययन के सिद्धांतों के अनुसार समझा और विश्लेषण किया जाता है, हर बार एक ही परिणाम सामने आता है – इस पद और खण्ड का यह अर्थ या अभिप्राय कदापि संभव नहीं है कि मसीही विश्वासी का उद्धार जाता रहे। आज हम दाख अर्थात अँगूर की खेती से संबंधित एक वास्तविक परिस्थिति, और इस वास्तविक स्थिति में शब्द “airo” के उपयोग को देखेंगे, और फिर अभी तक के हमारे विश्लेषण और अध्ययन को सारांश के रूप में साथ लेते हुए अंतिम निष्कर्ष पर आएँगे।
5. वास्तविक जीवन की संबंधित बात और निष्कर्ष:
अंगूर, अर्थात दाख की खेती के लिए किसानों को पता है कि अच्छा फल लाने के लिए दाख लता की डालियों को उनके चारों और हवा का खुला बहाव और धूप लगते रहने की आवश्यकता होती है। इसीलिए, दाखलता की डालियों को भूमि से कुछ ऊँचाई पर एक जाल बनाकर उन पर फैलाया जाता है। यदि कोई डाली उस जाल से नीचे भूमि पर गिर जाए, तब यद्यपि वह फिर भी दाखलता के तने से तो जुड़ी रहती है किन्तु फलदायी होने के लिए उपयुक्त बातों – हवा का बहाव और धूप लगना, से वंचित हो जाती है, और इसीलिए या तो उसमें फल नहीं लगता है, या जो लगता है वह थोड़ा और निम्न गुणवत्ता का होता है। इसलिए किसान उस डाली को फिर से फलदायी बनाने के लिए उसे “airo – ऊपर उठा” कर फिर से उस जाल पर रख देता है, जिससे फल लाने के लिए उपयुक्त आवश्यकताएँ उस डाली को फिर से मिलने लगें; न कि उसे काट डालता है।
इसी प्रकार से यहाँ यूहन्ना 15:2 में प्रभु यीशु भी उन डालियों, अर्थात शिष्यों की बात कर रहा है जो किसी कारण “नीचे गिर” गए हैं और फल नहीं ला रहे हैं – यद्यपि वे उससे जुड़े हुए हैं – उस में हैं। दाख के खेत के किसान के समान, परमेश्वर भी उन गिरी हुई डालियों को उठा कर ऊपर जाल पर रखता है (भजन 37:24; नीतिवचन 24:16; मीका 7:8); और इस रीति से उन्हें फिर से फलदायी होने के योग्य परिस्थितियाँ प्रदान करता है, जिससे कि वे फिर से फल लाना आरंभ कर सकें। जो डालियाँ फल ला चुकी हैं, वह उनकी छँटाई करता है, अर्थात उनके अब व्यर्थ हो चुके भाग को जो पहले फल दे चुका है किन्तु अब उसका बना रहना और फल लाने में बाधा डालेगा, निकाल देता है। लेकिन केवल उन्हें ही, जो कभी भी प्रभु और उसकी देह – कलीसिया के साथ वास्तविकता में जुड़े नहीं रहे (प्रेरितों 20:29-30; 1 यूहन्ना 2:19) – उन्हें वह काट कर जलाने के लिए निकाल देता है, जैसा यूहन्ना 15:6 में लिखा है। यूहन्ना 15:2 के लोगों – जो प्रभु में हैं, उससे जुड़े हुए हैं, और यूहन्ना 15:6 के लोगों – जो मसीह में बने हुए नहीं हैं, में अंतर पर ध्यान दीजिए। वे जो मसीह में बने हुए नहीं हैं, वे मुरझा कर सूख जाएंगे और उन्हें निकाल कर जलाने के लिए भेज दिया जाएगा; न कि उन्हें जो मसीह में बने हुए हैं।
वास्तविक जीवन की इस परिस्थिति की पुष्टि इस खण्ड और पद का बाइबल अध्ययन और विश्लेषण के सिद्धांतों के अनुसार सही और गहन अध्ययन और विश्लेषण करने के द्वारा हो जाती है, जो कि अनुवाद का एक हल्का सा ऊपरी अवलोकन कर के जल्दबाजी में लिए गए निष्कर्ष के द्वारा संभव नहीं है। इसलिए यूहन्ना 15:2 का सही अर्थ है कि किसान, अर्थात परमेश्वर पिता मसीह में बनी हुई किन्तु गिर चुकी डालियों को उठा कर सही स्थान पर रखता है, उन्हें बहाल करता है, और जब आवश्यकता होती है, तब डालियों की छँटाई भी करता है, उन्हें बहुतायत से फलदायी बनाने के लिए। लेकिन जो मसीह में बने हुए नहीं हैं, उन्हें वह निकला कर आग में जलने के लिए भेज देता है। सच्चा मसीही विश्वासी कभी मसीह से अलग नहीं हो सकता है, उसका उद्धार नहीं खो सकता है, चाहे वह कुछ समय के लिए फल न लाने पाए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
In the past five articles we have been considering John 15:1-6, particularly 15:2, to see whether it is a proof that salvation can be lost and the errant Believer can be cast away or destroyed or not, as some people allege on the basis of this verse 2. In the first article we had seen some basic principles of Bible study and interpretation, that help us in avoiding as well as identifying wrong interpretations and meanings. From the second article till the last one, we used these principles of Bible study, one by one to study and analyze this passage, particularly verse 15:2. We saw that when this passage and verse is studied and analyzed according to the principles of Bible study, every time we came to the same result – this passage and verse cannot mean that a Christian Believer’s salvation can be lost. Today, we will look at a real-life situation related to cultivating grape-vines, the use of “airo” in that real-life situation, and then finally draw the conclusions that sum up our analysis so far.
5. The Related Real-Life Situation and Conclusion:
For grape cultivation, the farmers know that to be fruitful the grape vine branches need a good circulation of air around them and a good exposure to sunlight. That is why they put the grape-vine branches up on a grid, at some height from the ground. If a branch happens to fall off the grid on to the ground, then though it is still attached to the main trunk of the vine, but it no longer has the conditions for fruitfulness – exposure to sunlight and good circulation of air around it, and therefore will no longer bear fruit, or bear only poor quality and meagre fruit. Therefore, the farmer, to restore it to proper fruitfulness “airo - lifts it up” on to the grid and puts it back up onto the grid to once again provide to that branch proper conditions to bear fruit. It is not that he cuts and throw away that branch, as the translation of this verse implies. The “airo” used here in John 15:2 is to say that the farmer lifts the branch back on to the grid; and not that the farmer “lifts-off” or cuts away that branch.
Similarly, The Lord Jesus in John 15:2 is talking about those who are “in Him”, i.e., His disciples, who for some reason have “fallen away” and are no longer fruitful, though are still attached to the Lord – they are “in Him”. Like the Vine-Dresser or farmer of grape vines, God too lifts up the fallen branches (Psalm 37:24; Proverbs 24:16; Micah 7:8); and thereby provides them with an environment where they can again start bearing fruit. Those who have borne fruit, He prunes, i.e., He takes away the redundant parts, that have served their purpose, but their continual presence will hinder further fruitfulness. But only those who were never a part of the Lord and His Body – the Church (Acts 20:29-30; 1 John 2:19) – these He casts away, as it says in John 15:6. Notice the difference between those in John 15:2 and those in John 15:6 – those “in Christ”, and those who are not abiding in Christ. It is the ones who are not abiding in Christ, who wither away and are cast away to be burned; not those who are “in Christ.”
This real-life situation was affirmed by a proper in-depth study and analysis of the passage and verse according to principles of Bible study, instead of drawing a hasty conclusion through a cursory consideration of the translation. Therefore, the correct meaning of John 15:2 is that the ‘vinedresser’, i.e., God the Father, “lifts up” i.e. restores the fallen branches in Christ, and when required, He also prunes every branch that is in Christ, to make it abundantly fruitful again. But those who are not in Christ, those He casts away to be burnt in the fire. A true Christian Believer can never be separated from Christ, can never lose his salvation, even though he may be unable to bear fruit for some time.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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