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सोमवार, 9 अक्टूबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 44 – Be Stewards of God’s Word / परमेश्वर के वचन के भण्डारी बनो – 30

परमेश्वर के वचन में फेर-बदल – 15

 

    पिछले लेख में हमने उन दो मुख्य कारणों को देखा था जिनके द्वारा शैतान परमेश्वर के वचन में फेर-बदल करने पाता है, और फिर उस बिगाड़े तथा भ्रष्ट किए हुए वचन के दुरुपयोग के द्वारा परमेश्वर के लोगों को सरलता से बहका और भरमा लेता है। इन दो में से पहला कारण है अधिकांश मसीहियों या ईसाइयों का परमेश्वर के वचन के प्रति उदासीन होना, उसे स्वयं अध्ययन नहीं करना। और परमेश्वर के वचन के प्रति अपनी इस घटी के समाधान के प्रयास में, प्रचारकों और शिक्षकों द्वारा कही गई बातों को बिना जाँचे-परखे, बिना उनकी पुष्टि करे, स्वीकार कर लेना। दूसरा कारण है कलीसिया के अगुवों, प्रमुख लोगों, प्रचारकों और शिक्षकों में, जैसे-जैसे उनकी ख्याति और स्तर बढ़ता जाता है, उनकी सेवकाई को लेकर उनमें एक छुपा हुआ घमण्ड आ जाना। चुपके से आए हुए इस अप्रत्यक्ष घमण्ड को बढ़ावा उनके उन अन्ध-भक्तों से मिलता है जो यह मान ही नहीं सकते हैं कि उनके अगुवे और प्रचारक कुछ गलत कह सकते हैं या कैसी भी कोई गलती कर सकते हैं।


    बाइबल में दो बातें दी गईं हैं, जो इस बात का निश्चित प्रमाण हैं कि परमेश्वर के धर्मी अगुवों, प्रमुख लोगों, प्रचारकों, और शिक्षकों आदि में ये गलतियाँ घुस आई हैं। पहली बात है उनके द्वारा बाइबल के शब्दों, लेखों, वाक्यांशों, आदि को उन अर्थों और अभिप्रायों के साथ स्वयं भी उपयोग करना तथा औरों को भी करना सिखाना, जैसे उन्हें बाइबल में कभी किया ही नहीं गया है। और दूसरी बात है उन अगुवों के द्वारा कलीसिया या मण्डली में न केवल व्यक्तित्व पर आधारित विभाजनों को स्वीकार करना वरन उन्हें करवाना, उन्हें बनाए रखना, और उन्हें बढ़ावा भी देना। इस प्रकार की गुट-बाज़ी सामान्यतः इसलिए होती है क्योंकि ये परमेश्वर के धर्मी अगुवे, प्रमुख लोग, प्रचारक, और शिक्षक ही, उन्हीं कारणों से जिनका उल्लेख 1 कुरिन्थियों 1:11-13; 3:3-4; 11:18-19 में किया गया है, स्वयं ही विभाजन खड़े करते हैं और फिर उन्हें बना कर भी रखते हैं। क्योंकि कलीसिया या मण्डली के लोग किसी एक अगुवे या प्रचारक को किसी अन्य से बढ़कर आदर देते हैं, उसके साथ जुड़ने लगते हैं, उसका अनुसरण करने लगते हैं, इसलिए अगुवों और प्रचारकों में अहम का टकराव और मतभेद उत्पन्न होने लगते हैं। फिर ये टकराव और मतभेद कलीसिया या मण्डली के लोगों में पहुँचा दिए जाते हैं, तथा लोगों से उनमें से किसी एक को चुनकर उसके तथा उसके गुट के लोगों के साथ रहने के लिए कहा जाता है। यह एक बहुत ही दुर्भाग्य पूर्ण तथा बाइबल के विरुद्ध बात है कि बजाए अपने मध्य के मतभेदों का समाधान करने और कलीसिया के लोगों में एकता बनाए रखने के, कलीसिया के ही अगुवे और प्रचारक न केवल विभाजन और बांटने वाली दीवारें खड़ी करते हैं, बल्कि ढिठाई से उन्हें बना कर भी रखते हैं। और यह सब उनके द्वारा प्रेम, सहनशीलता, क्षमा, और एक-मनता, आदि का, सुसमाचार का प्रचार करने और सिखाने के साथ होता है ।


    प्रेरित पौलुस ने पवित्र आत्मा की अगुवाई में इन दोनों बातों, अर्थात, वचन में जोड़ना तथा एक से बढ़कर दूसरे को देखना, का उल्लेख 1 कुरिन्थियों 4:6 किया है “हे भाइयों, मैं ने इन बातों में तुम्हारे लिये अपनी और अपुल्लोस की चर्चा, दृष्टान्त की रीति पर की है, इसलिये कि तुम हमारे द्वारा यह सीखो, कि लिखे हुए से आगे न बढ़ना, और एक के पक्ष में और दूसरे के विरोध में गर्व न करना” जैसा पौलुस ने इससे थोड़ा सा पहले (1 कुरिन्थियों 3:3-6) में किया था, वैसे ही यहाँ पर भी वह एक बार फिर से अपने आप को तथा अपुल्लोस को उदाहरण बनाने के द्वारा बता रहा है। इन पद में वह समस्या को, उसके कारण को, और उसके समाधान को बताता है। वह बहुत स्पष्ट और दृढ़ता से कहता है कि वे दोनों, पौलुस और अपुल्लोस, इस बात में सचेत और दृढ़ रहे कि वचन में जो लिखा है, उससे आगे न बढ़ें; अर्थात, उन्होंने कभी भी, किसी भी रीति परमेश्वर के वचन के लेख, उसके अर्थ, अथवा उसके अभिप्राय में कुछ भी नहीं जोड़ा। क्योंकि वे परमेश्वर के वचन की इस शुद्धता और पवित्रता को बनाए रखने के प्रति दृढ़-निश्चय थे, इसीलिए, वे इस बात को कलीसिया को भी सिखा सके। और इसीलिए, वे यह भी दिखा सके कि लिखित वचन की सीमाओं में बने रहने के द्वारा, मण्डली मनुष्यों में घमण्ड करने, एक मनुष्य को दूसरे से बढ़कर समझने की गलती से बची रहेगी, जिस के कारण कलीसिया में विभाजन और गुट-बाज़ी होती है।


    ये दो बातें, अर्थात, वचन में जोड़ना तथा एक से बढ़कर दूसरे को देखना, ही वे दो संकेत हैं जो यह पहचान करवाते हैं कि कोई अगुवा या प्रचारक शैतान की युक्तियों में फँस गया है। इस गलती से बचने का परमेश्वर द्वारा दिया गया समाधान है 1 कुरिन्थियों 11:1 – किसी भी मनुष्य का नहीं, बल्कि केवल मसीह यीशु का ही अनुसरण करो, ठीक उसी तरह से जैसे पौलुस करता था। इसलिए मसीही विश्वासियों, अर्थात परमेश्वर के वचन के भण्‍डारियों को, किसी भी अगुवे, प्रमुख जन, प्रचारक, या शिक्षक के स्तर और प्रतिष्ठा से प्रभावित होकर कार्य करने की बजाए, जो भी प्रचार किया और सिखाया जाता है, पहले वचन से उसकी जाँच-परख करनी चाहिए, और उसके बाद ही स्वीकार करना तथा पालन करना चाहिए। किसी भी मनुष्य का, उसके शब्दों, उसकी शैली, उसके हाव-भाव का आँख मूंद कर अनुसरण करना देर-सवेर गलतियों तथा समस्याओं में पड़ने और आशीषों की हानि उठाने का कारण ठहरेगा।


    अगले लेख में हम देखेंगे कि शैतान इतने उद्यम से परमेश्वर के वचन में फेर-बदल करवाने, उसे भ्रष्ट करने और परमेश्वर के लोगों को पथ-भ्रष्ट करने के प्रयास में क्यों लगा रहता है।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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Altering God’s Word – 15

 

    In the previous article we have seen the two main reasons of Satan being able to alter God’s Word, then have the distorted, corrupted Word spread and used so easily to misguide God’s people. The first of these two reasons is the very common apathy amongst the vast majority of Christians to not study God’s Word for themselves. Rather, to try and make up for their deficiency of learning God’s Word, they accept what preachers and teachers present to them, without cross-checking and verifying it. The second reason is the tendency of subtle arrogance that creeps into the leaders and Elders, the preachers and teachers about their ministry as they grow in eminence. This subtle arrogance is encouraged because of their blind-followers, who just cannot accept that those leaders and preachers can say anything wrong or make any mistakes.


    In the Bible there are given two definite indicators that these errors have crept into God’s committed Believers, Church leaders or elders, Bible preachers or teachers, etc. The first one is their using as well as teaching others also to use Biblical words, phrases, texts etc. in ways, with meanings and implications that have that have never been stated, or used, or implied in the Bible about them. And, the second is those leader’s tolerating, creating, maintaining and encouraging personality-based factionalism in the Churches and Assemblies. The groupism is usually because these committed Believers, Church leaders or elders, Bible preachers or teachers, etc., either allow, or are even instrumental in creating and maintaining factions and divisions within the Church or Assemblies because of the same reasons as are given in 1 Corinthians 1:11-13; 3:3-4; 11:18-19. Because the people of the congregation start associating with, honoring, or following one elder or preacher over another, it leads to personality clashes, and contentions amongst the elders and preachers. These differences and contentions are then passed on to the congregation, and the people of the congregation are asked to side either with one or the other of these leaders and others in their group. It is so unfortunate and unBiblical that instead of ironing out their differences, and encouraging unity in the Church congregation, the elders and preachers not only create divisions and walls of separation in the Churches or Assemblies, but even stubbornly maintain them. And, all of this happens along with their preaching and teaching about love, forbearance, forgiveness, and being one-minded etc., and the gospel.


    The apostle Paul, through the Holy Spirit, pointed out these two factors, i.e., adding to God’s Word and placing one leader over another, and decreed against them in 1 Corinthians 4:6 [NIV] “Now, brothers, I have applied these things to myself and Apollos for your benefit, so that you may learn from us the meaning of the saying, "Do not go beyond what is written." Then you will not take pride in one man over against another.” Here Paul, as he had done a little earlier (1 Corinthians 3:3-6), once again sets forth himself and Apollos as examples, and states the problem, its cause, and its solution. He categorically says that they both, Paul and Apollos made it a point not to go beyond what had already been written in the Scriptures; i.e., they never, in any manner, neither added to the text nor to its meaning, nor implied anything beyond what already had been written and given in God’s Word. Because they were particular about maintaining this sanctity of God’s Word, therefore they could teach the same to the Church. And therefore, they could also point out that by their staying within the limits of the written Word, the congregation will be able to avoid the trap of taking pride in men, putting one man over an another, which leads to factions and divisions in the Church.


    These two things, i.e., adding to God’s Word and placing one leader over another, are the two points which help in discerning that the elder or preacher has fallen prey to Satan’s ploy. The God given solution to falling for this error is 1 Corinthians 11:1 – emulate Christ Jesus, and not any man, in just the same way as Paul used to do. Therefore, Christian Believers, the stewards of God’s Word, instead of getting carried away by the eminence and stature of a leader or elder, or preacher, should make it a point to always cross-check and confirm the messages i.e, whatever is preached and taught to them, from God’s Word and only then accept and obey it. Blindly following any man, his words, style, and his mannerisms, will sooner or later result in getting involved in errors, falling into problems, and suffering a loss of blessings.


    In the next article we will see why Satan so desperately tries to alter and corrupt God’s Word, why he has been striving so hard through all these and other ploys to corrupt God’s Word and misguide people.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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